कहानी ----एक थी अनु
अनुप्रिया ने मोबाइल उठा कर आदित्य का नम्बर डायल किया है। घण्टी जा रही है। पर फोन नही उठ रहा है। इसका मतलब या तो वो व्यस्त हैं..? या फिर फोन से दूर हैं..? वरना अनुप्रिया का फोन वो तुरन्त उठाते हैं। आदित्य, उसके एक साहित्यकार मित्र हैं। अनुप्रिया की मुलाकात उनसे एक साहित्य सम्मान समारोह में हुई थी। कहने को तो वो मुलाकात छोटी और औपचारिक थी । मगर मित्रता के लिये काफी थी। उसके बाद मिलना तो दुबारा नही हुआ मगर फोन पर बातों का सिलसिला चलता रहा।
धीरे -धीरे मित्रता का सूत जैसा धागा कब माँझे की तरह मजबूत हो गया पता ही नही लगा। उनके बीच साहित्य चर्चा तो होती ही है।कभी -कभी निजी और घरेलू बातें भी हो जाया करतीं। कारण भी यही है कि वो निहायत भावुक और कमजोर है। यह बात आदित्य को नागबार गुजरती। वो चाहते हैं कि उसकी विवेक की रस्सी इतनी मजबूत हो जाये जिसे पकड़ कर वो बुलन्दियों को छू ले। होता भी यही है हमेशा आदित्य के शब्दों की प्रतिध्वनि उसके कानों में गूँज कर उल्लास और उत्साह को जन्म देती रही है और यथार्थ की खुरदुरी जमीन का दर्द वो अपनत्व के मेघ तले भूलती रही।
प्रश्नों के अंकुर से जब -जब नई कोपलें फूटीं, उसे आदित्य की जरुरत एक माली की तरह हुई और वो हमेशा कुशल माली ही बने। राय- मशवरे के साथ-साथ, जब भी किसी जटिल पहलू या समस्या में घिरी, हमेशा आदित्य ने उसका समाधान चुटकियों में किया। उन्होंने लेखन के साथ-साथ जिन्दगी की बारीकियों से भी रू-ब-रू कराया। एक कमजोर पौधे को वृक्ष का रुप दिया है।कठोर और पथरीले रास्तों को सहजता से सुगम बनाने वाले आदित्य हमेशा उसकी मद्द को सहर्ष तैयार रहे। यही बजह है कि वो उनका सम्मान दिल से करती है।
चार बरस पुरानी मित्रता में महज एक ही मुलाकात है, पर कभी नही लगा कि ये परिचय छोटा है। भावनाओं का स्वर जब शाब्दिक लिबास ओढ़ कर खड़ा होता है तो उसे किसी देह की जरुरत नही होती, वो सम्पूर्ण, सशक्त और अडिग होता है।आदित्य हमेशा उसको 'अनु' कह कर बुलाते हैं। उनका इस तरह बोलना अनुप्रिया को बहुत अच्छा लगता है। जब भी वो उसको इस नाम से पुकारते हैं वो खुशी से गद-गद हो जाती है।उसने सुना है कि जब कोई किसी से बहुत प्यार करता है तो नाम बदल देता है।
ओह...फोन लग चुका है।उधर से आवाज आई-
"हैलो, दोस्त कैसी हो?"
"मैं ठीक हूँ सर आप कैसे हैं?"
"हमेशा की तरह, एकदम मस्त "
पीछे से शोर सुनाई पड़ा है।वो सोच रही है कहीं गलत समय पर तो फोन नही कर लिया? शिष्टाचार के तहत उसने पूछा है-
"कहीँ ये गलत समय तो नही..?"
"बोलो अनु"
"आप व्यस्त हैं..?"
"नही व्यस्त नही हूँ।एक पुस्तक के विमोचन में आया हूँ।"
"रहने दीजिये बाद में बात करती हूँ।"
"नही मैं पन्द्रह मिनट फ्री हूँ बताओ अभी लन्च चल रहा है।"
"दिमाग में उलझन है।एक कहानी पर चर्चा करनी है।"
"नई कहानी शुरु की है?"
"हाँ, शुरू तो की है मगर........."
"मगर क्या..?सवाल पूरा करो ...और पहले बधाई लो."
"शुक्रिया सर, आप घर कब तक पहुँचेगे..??"
"तुम बात पूरी करो अभी दस मिनट हैं दोस्त, हमेशा याद रखो सवाल और काम अधूरे नही छोड़ने चाहिए।"
"कहानी आगे नही बढ़ती क्या करूँ..?"
"होता है कभी, बताओ बिषय क्या है.?"
"मेरे जीवन की अन्तिम कहानी"
यह कैसा बिषय है....?"..स्त्री पर है..??"
"जी, यही समझ लीजिये.."
"कहो.."
" राधा उदास है आँखों में आसूँ भरे हैं...."
"राधा की जगह रुकमणि कर दो..हा हा हा..?
"आपको मजाक सूझ रहा है और मैं परेशान हूँ..."अनुप्रिया ने नाराजगी जताई है।
" अच्छा दोस्त आगे बताओ"
"राधा उदास है आँखों में आसूँ भरे हैं।उसे गोपाल से यह उम्मीद नही थी। जब से गया है एक भी फोन नही किया है। शायद वो मुझे भूल गया है या किसी और को चाहने लगा है.."
"राधा की आँखों में आसूँ क्यों हैं..?"
"क्यों कि वो प्रेम करती है"
"गोपाल की आँखों में आसूँ क्यों नही हैं..?"
"शायद उसे प्रेम की परवाह नही है"
"तभी तो बोला था कि राधा की जगह रुकमणि कर दो"
"फिर वही मजाक"
"यह मजाक नही है दोस्त, अपने विषय में बदलाव लाओ"
"क्या सचमुच बदलाव आ चुका है..?"
"बिल्कुल बदलाव ही प्रकृति का नियम है"
"क्या जामुन के पेड़ पर आम आ सकते हैं..?"
"हाँ, अगर जामुन की जड़े बदल दी जायें तो"
"जड़े बदलना आसान नही है"
"मुश्किल भी नही है"
"आधिँया कमजोर को ही उजाड़ती हैं"
"कुछ पौधे आँधियों में भी तने रहते हैं"
"वो कम होते हैं"
"पर होते तो हैं ना..?"
"हाँ, पर उनका क्या जो उजड़ गये.?"
"उन पौधों से सीख लो जो खड़े हैं"
"यह इतना आसान नही है"
"आसान बनाया जा सकता है"
"पहल के लिये हौसला चाहिये"
"बेशक"
"अब मेरी कहानी को दिशा मिल रही है"
"तुम्हारे घर के आँगन में जो पेड़ है उसका फल तुम्हारी राह देख रहा है जाओ.."
"मुझे फल और रास्ता दोनों दिखाई पड़ रहें हैं"
"मुझे खुशी है, मैं चल रहा हूँ।पन्द्रह मिनट पूरे हुये।शाम को बात करते हैं।"
"थैंक्यू सर, अब खुद को हल्का महसूस कर रही हूँ"
"मुझे इन्तजार है शाम का, नयी कहानी का"
"वाय सर"
"गुडवाय दोस्त"
अनुप्रिया पेड़ के नजदीक खड़ी है। पका हुआ फल नीचे झुक गया है। वो अब पकड़ से दूर नही है। हर रास्ते की कोई -न -कोई मंजिल होती है और हर मंजिल का कोई-न-कोई रास्ता। अत: अन्दर ही अन्दर कहानी बदलाव के लिये मथी जा रही है। वो अब पहले की अपेक्षा सहज है। एक गीत जो लगातार चहल -कदमी कर रहा है लिखा जाता है
"तुम्हारा साथ यकीनन बहुत भाता है
तुम्हारे आने से मन हरा हो जाता है
तुम रह नही सकते मेरे बगैर
तुम्हारे चेहरे से पता चल जाता है"
"रमा ......जरा दो कप काफी भेज देना प्लीज" अनुप्रिया ने जोर से आवाज लगाई है।
"अभी लाती हूँ दीदी "
रमा पाँच मिनट में काफी बना लाई है-"लो दीदी...फिर दो कप..? "एक वापस ले जाऊँ...?" अनुप्रिया ने फीकी मुस्कान बिखेरी है।इस बार शब्द मौन हैं।
"नही, रहने दे"
"कब भय्या जी ने आपके साथ बैठ कर काफी पी है..? मुझे तो याद नही, फिर भी आप दो कप ही बनवाती हो..?रमा ने अपना गुस्सा जताया है।
"तू रहने दे, जा बगीचे के पौधों को पानी देदे"
"जाती हूँ पर मुझसे आपका अकेलापन देखा नही जाता, इसलिए कह देती हूँ।"
अनुप्रिया ने अपनी उदासी को मुस्कुराट में बदल लिया है। वो नही चाहती कि रमा को उसकी बजह से दुख पहुँचे और फिर उसने गलत भी क्या कहा..? वो ही तो अब तक मर्यादित गठरी को सीने से लगाये बैठी है। आनन्द के अन्तरंग पल जो वो जायज अधिकार से जीकर भूल गया, क्यों नही भूल पाती वो उन्हे...? जिन पर उसका अब कोई ही अधिकार नही।खुद पर हँस पड़ी है वो।
"सुन, ये काफी तू पी ले और यही बैठ मेरे पास"
रमा काफी पी रही है। अनु बगीचे में अपनी पसंद की टहनी को ढ़ूढ़ँ रही है। कुछ कमजोर टहनियों के टूटने की टीस है, और कुछ नयी कोपलें फूटनें पर मधुप रीझने को आतुर है। वो अपने बगीचे के एक-एक पत्ते को पहचानती है।उसका सारा वक्त बगीचे से सटे बराम्दे में, लेखन के साथ गुजरता है यही कारण है कि उसकी अपने पेड़-पौधों से नजदीकी काफी बढ़ गयी है।
शाम हो चुकी है।फोन अपने समय से घनघना उठा है -" लो आदित्य सर का फोन आ गया ।वो अपने घर पहुँच गये होंगे। कितना ख्याल है उन्हे मेरा...?" इन्ही प्रेम मिश्रित सवाल-जवाबों के उपवन में वो खिल उठी।
हवा के झोके ने सदाबहार के पौधे को एक दिशा में झुका दिया है।अगले ही पल वो सीधे खड़े हो गये हैं।
"हैलो"
"आप घर पहुँच गये सर..?"
"गाड़ी में बात करता तो चालान हो जाता"
"हमममम..इसका मतलब आप पहुँच गये"
"कहानी बनी..?"
अनुप्रिया पकि्तयाँ गुनगुना रही है- "तुम्हारा साथ..........."
"वाह वाह अच्छी शुरूआत की बधाई लो"
"ली सर जी"
"मेरा ईनाम लाओ"
"मैं क्या दे सकती हूँ..?"
"एक बेहतरीन कहानी, बचन दो"
"बचन नही कोशिश "
"नही, बचन"
"ठीक है"
"वाह, यह हुई ना बात...और सुनाओ?"
"क्या सुनाऊँ..?"
"पतिदेव कैसे हैं..?"
"वो शहर में रहते ही कितना हैं..?"
"ओहहह इसका मतलब तुम अकेली हो.?"
"नही, यह मेरा सच्चा साथी जो है..मेरा लेखन"
"वाह सच कहा, लेखक कभी अकेला नही होता"
"आपके बाद तो दूसरा दोस्त बना ही नही"
"अच्छा एक बात बताओ.?"
"जी पूछिये.?"
"तुम मुझे प्यार करती हो..?"
"यह......यह.....कैसा सवाल है.?"
"मुझे प्यार करती हो..?"
"आदित्य सर आप यह ......?"
"तुम मुझे प्यार करती हो..?"
"सर...आप....."
"आखरी बार पूछता हूँ"
"हाँ ...पर उस तरह नही जैसे........"
"बस मुझे मेरे सवाल का जवाब मिल गया"
"सर आप मेरे दोस्त हैं"
"जानता हूँ तभी तो पूछा "
"पर मैं वैसी नही हूँ"
"हा हा हा...मेरी अच्छी दोस्त"
"मैं आपका सम्मान करती हूँ"
"बहुत खूब, प्यार और सम्मान की जोड़ी खूब फबती है"
"सच कहा आपने, प्यार में सम्मान न हो तो प्यार, प्यार नही रहता"
"हममममममम...और क्या होना चाहिये प्यार में..?"
"सच्चाई"
"सही कहा तुमने...जहाँ सच्चाई और सम्मान नही, वहाँ सिर्फ ढकोसला और स्वार्थ होता है।"
"बिल्कुल" कह कर वो सोच रही है।
'कैसे कहूँ आपसे..?आपका नेह आमन्त्रण स्वीकार न करना मेरी विवशता है मर्जी नही।' अनुप्रिया ने अन्तस भावों को अभिव्यक्त न कर पाने की टीस को महसूस किया।
"ये खामोशी कैसी..?"
"अक्सर अन्तर् द्वन्द में शाब्दिक आकाल स्वभाविक है।"
"पहले द्वन्द पर बात करें या शब्दों पर..?"
"दोनों मे से किसी पर नही...कुछ नया सुनाइये।"
"अच्छा एक खुशखबरी सुनो, मैंने एक कहानी शुरु की है"
"अरे वाह"
"उसकी नायिका तुम हो"
"मैं...?"
"हाँ, तुम"
"यह मजाक है"
"नही यह सच है। अभी तुमने कहा था प्यार में सच्चाई होनी चाहिए"
"हाँ पर मैं आपकी कहानी की नायिका..?"
"हाँ दोस्त तुम मेरी कहानी की नायिका हो"
"सर, आप मुझे जानते ही कितना हैं.? बस दो घण्टे की एक छोटी सी मुलाकात.."
"दिल में झाँकने के लिये कुछ पल ही काफी होते हैं"
"हम दुबारा कभी नही मिले"
""तुम चाहो तो मिल सकते हैं"
"पता नही अब कब मिलना हो..?"
"हा हा हा दोस्त, तुम्हारी इस किताब का बिमोचन करने मैं ही आऊँगा"
"सच "
"हाँ सच"
"मैं ना मिली तो..?"
"तुम मिलोगी..जरुर मिलोगी"
"आपके साथ हँसने को जी करता है"
"दिल खोल कर हँसो दोस्त"
"हँसी से डर लगता है"
"डर में हार है"
"अब हार ही जिन्दगी है"
"बुजदिली तुम पर नही भाती"
"हा हा मैं बुजदिल नही"
"फिर क्या हो..?"
"दोस्त हूँ। मुझे गर्व है आपकी दोस्ती पर"
"वाह सबूत दो"
"सबूत नही है मेरे पास "
"चाहो तो दे सकती हो"
"कैसे?"
"अगले महीने तुम्हारा जन्मदिन है पन्द्रह अक्टूबर"
"अरे वाह, आपको याद है...?"
"दोस्त हमेशा दिल में रहते हैं"
"हमममममम"
"खैर छोड़ो, हम सबूत की बात कर रहे थे"
"जी"
"तुम्हारे जन्मदिन पर मैं तुम्हारे शहर आ रहा हूँ।साथ में लंच करेंगे"
"वाओ..आप सच कह रहे हैं..?"
"हाँ अनु, मुझे कुछ काम भी है और तुम्हारा जन्मदिन, आना सुखद हो जायेगा"
"आप कब तक रुकेंगें..?
"पर तुम मुझे समय दे पाओगी क्या..?"
"आपको कितना समय चाहिये..?"
"सारा, हा हा हा...नही दोस्त.....अच्छा एक बात बताओ ?मुझसे मिलने में तुम्हे कोई दिक्कत तो नही होगी..?"
"जो भी हो, पर लंच पक्का "
"यह मेरी बात का जबाव नही ..?"
"जिन्दगी के कुछ पल मेरे हिस्से है उन्हे तो जी सकती हूँ..?"
"कुछ क्यों???"
"जाने दीजिये....लंच पर आप मेरे घर आ रहे हैं।"
"जाने दिया......अब बताओ क्या बनाओगी...?"
"आप जो कहें..?"
"तुम्हारी पसंद का चलेगा"
"नानवेज के अलावा कुछ भी"
"मंजूर"
"मै शाकाहारी ठहरी..."
" मैं भी एक दिन का शाकाहारी...हा हा"
"मैं जरुर बनाऊँगी लम्बे अरसे के बाद ही सही, आप जो कहें"
"हा हा हा..खाना तो सिर्फ एक बहाना है। हमें मिलना है।" "आपका हँसना और बातें करना मेरी सूनी और बदरंग जिन्दगी में रंग भरने जैसा है" अनुप्रिया ने मन -ही -मन सोचा।
"क्या हुआ..?ये खामोशी कैसी...?
"आपको जल्दी आना होगा"
"हा हा हा ..दुर्घटना से देर भली"
"नही सर...देरी से दुर्घटना........."
"ये कौन सी कहावत हुई भई...??"
"जाने दीजिये...अब आपके आने का इन्तजार रहेगा"
"मुझे भी तुम्हारा घर देखना है।तुम्हारा स्टडी रुम देखना है जहाँ बैठ कर तुम लिखती हो और ढेर सारी बातें करनी हैं।"
"यह समय लम्बा है।मुश्किल से कटेगा ।"
" फोन है ना..एक काम करो..फास्ट डायल पर लगा लो मेरा नम्बर...हा हा हा.."
"आपके साथ जिन्दगी कितनी आसान हो जाती है ?"
"हमममम...बेशक तुम रोज बात कर सकती हो।"
"हा हा हा.."
"अब तुम जाओ आराम करो। हम फिर बात करेगें।"
"गुड नाइट"
"गुड नाइट दोस्त"
प्रेम के सुखद स्पंदन और भावों के पादार्पण को दिल की दीवारों के भीतर जाने से रोक पाना असम्भव है।मगर नियती भी नकाब ओढ़ लेने के समर्थन मेंं है।
अनुप्रिया ने बैड की ड्रार से दवाई निकाली है और एक साथ मुठठी भर दवाई को खा लिया है।भले ही दवाईयां ज्यादा हों, जो आम आदमी के लिये खाना कठिन हो मगर अनु के लिये तो यह रोज की बात है।उसने रमा को आवाज लगाई है -"रमा ..... लगता है सो गई..?" अनुप्रिया ने घड़ी की तरफ देखा है साढ़े ग्यारह बज गया है "बाप रे, उसने मेरा खाने के लिये इन्तजार किया होगा और विना खाये ही सो गयी होगी।जाकर देखती हूँ ।"
अनु उठी है।अगले ही पल लड़खड़ाई । कमजोरी की बजह से उसको चक्कर आ गया है। उसने खुद को संभाल लिया है।
सुबह आँख देर से खुली। उठते ही तकिये के पास पड़ा मोबाइल चैक किया। आदित्य सर का गुड मार्निंग का मैसेज पड़ा है।जबाव में उसने गुड मार्निंग के साथ -साथ एक स्माइली का इमोजी भी भेज दिया है। वाह ...पलक झपकते ही फूल का इमोजी आ गया है। "कमाल है सर, आप आन लाइन तो थे नही, फिर ये जादू.....? आपकी सर्विस का भी जबाव नही" वो मुस्कुरा उठी।सुबह-सुबह उसका मूड एकदम फ्रेश हो गया है।बावजूद इसके कि उसकी हालत दिन प्रतिदिन खराब हो रही है।पिछले दो बरस से लगातार डायलैसिस हो रहा है। पहले तो सप्ताह में एक बार होता था।अब हालात यह हैं, की दिन में दो बार होने लगा है। क्रिटिनाइन लेवल तेरह -चौदह के आस-पास ही रहता है। हाँ यह जरुर है कि डायलैसिस के बाद कुछ समय के लिये नौ या दस हो जाता है पर फिर वही......।
डायलैसिस का पूरा इन्तजाम घर में ही है। रमा एक अच्छी इन्सान के साथ-साथ उसकी नर्स भी है।बड़ी कुशलता से वो सभी काम किया करती है। इसीलिए रमा से उसका विशेष लगाव है। वो उसकी नौकरानी भी है सहेली भी और साथी भी। रमा ने भी कभी सेवा -टहल में कोई कोर- कसर नही छोड़ी। वो अनुप्रिया के सभी काम पूरी लगन और निष्ठा से करती है। बदले में इतना प्यार और बिश्वास उसे अपने घर में भी कभी नही मिला जितना अनुप्रिया उससे करती है। यही कारण है कि वो कभी-कभी अनुप्रिया से नाराज भी हो जाती और एक माँ की तरह जबरदस्ती करके अनु को खाना और दवाईयाँ खिलाती है। ना -नुकुर करके अनु को उसकी बात माननी ही पड़ती है।
डाक्टर के अनुसार स्तिथि लगातार गंभीर होती जा रही है। दवा या डायलैसिस का असर न के बराबर हो रहा है। ऐसे में कभी भी कुछ भी हो सकता है। हालात बद -से -बदतर होने के पीछे सबसे बड़ा कारण है उनका अकेलापन। पति की उपेक्षा और उनका बे-औलाद होना उनकी बीमारी में कोढ़ में खाज की तरह है। सुना तो ये भी गया है कि उसके पति ने पंजाब में दूसरा घर बसा लिया है और इसीलिए वो महीने में एक या दो बार ही यहाँ आते हैं। पर यह बात पूछने की हिम्मत रमा को कभी नही हुई और ना ही अनुप्रिया ने इसका कोई जिक्र किया।
अनुप्रिया के अन्दर अपने अधिकारों को ना पाने का आक्रोश अक्सर बिलखता और फिर सहम कर शान्त हो जाता। रमा कभी नही जान पाई कि, अनुप्रिया भीतर से कितनी कमजोर है?
उसने हमेशा अनुप्रिया को फौलाद की तरह मजबूत ही देखा।जिन्दादिली से जीना उसने उसी से सीखा था। पर बगैर खाद-पानी के पौधा कब तक हरा रहेगा। इसी बात की चिन्ता रमा को अक्सर सताती है। साथ ही यह भी कि अगर अनुप्रिया दीदी को कुछ हो गया तो वो कैसे और कहाँ रहेगी..?
अनुप्रिया की बीमारी की खबर आदित्य को नही है। उसने कभी नही चाहा कि यह बात उनकी दोस्ती के बीच में आये।
आज काफी दिन बाद आदित्य का फोन आया है। वो चाह कर भी लम्बी बातचीत नही कर पाई। फूलती हुई साँसों पर नियन्त्रण टूट ना जाये, इस डर के चलते बातचीत का सिलसिला कम हो चला है। मगर नदी के ठहराव का संघर्ष वो खुद कर रही है और ये भी, कि कहीं ये कालजयी अपराध तो नही बन जायेगा...?
अस्तित्व और स्वभिमान की टीस ने जब भी पंख फड़फड़ाये वो उन्हे अपने संयम से कतरती गयी। मगर आदित्य ने जब से जीवनदायिनी वायु का वेग दिया वही पंख उड़ान भरने के लिये मचलने लगे। उनका भाव विह्लल सानिध्य कही उसे कमजोर तो नही कर रहा....?उनके मूक प्रणय निवेदन ने आकार ले लिया तो..? प्रश्नों के कोहरे ने उसे बिश्लेषणात्मक बना दिया है।
समय आस की गलियों से होकर रफ्तार पकड़ता रहा।
आज पन्द्रह अक्टूबर है। अनु का जन्मदिन।आदित्य अपने वायदे के अनुसार बुलन्दशहर आ चुके हैं। एक बड़ा सा बुके और मुस्कराता हुआ चेहरा, वो आटो कर सीधे उसके घर पहुँचे हैं खुद से बात करते हुये, "अनु मेरी प्यारी सी दोस्त, मैं आ रहा हूँ। आज मैं भी बहुत उत्साहित हूँ। इन बरसों में मैं तुम्हे गहराई से जान चुका हूँ, तुम बहुत अच्छी और सच्ची हो। निश्चित ही तुम्हारी कहानी भी बहुत अच्छी बनी होगी। तुम मुझे अपनी कहानी सुनाओगी और मैं बताऊँगा कि मेरी कहानी की नायिका कितनी बहादुर है। हम कहानी पर खूब चर्चा करेंगे। आज पूरा दिन हम साथ रहेंगे, अगर तुम चाहोगी तो। मैं जानता हूँ तुम्हारा परिवार है, पति है। पता नही कितना वक्त दे पाओगी तुम मुझे..? खैर जितना भी है मुझे खुशी है। पूरे चार बरस के बाद हम मिल रहे हैं । तुम मुझे पहचान तो लोगी ना..?वैसे मैं बिल्कुल नही बदला हूँ, हा हा हा ...और तुम भी नही बदली होगी। वैसे भी यह वक्त इतना लम्बा भी नही कि कोई खास बदलाव आये।" आटो के ब्रेक के साथ ही आदित्य की तन्द्रा टूटी है।
नेमप्लेट देख कर उन्होंने घंटी को बजाया है। अन्दर से जिस व्यक्ति ने दरबाजा खोला है, वो रमा ही हो सकती है।
"आप आदित्य सर हैं..?"
"हाँ..मैं.."
"आइये अन्दर आइये"
सुसज्जित सा ड्राइंगरूम, जहाँ हर चीज करीने से सजी हुई है। आधुनिकता के नाम पर एक -दो चीजों को छोड़ कर पूरी सजावट एन्टीक थीम पर है। "वाह..अनु, तुम्हारी पसंद का जबाव नही। तुम भी बिल्कुल मेरी तरह निकलीं। शास्त्रिय संगीत सुनना और लेखन का जुनून तो था ही हमारा। लेकिन अपनी इस पसंद का जिक्र तुमने कभी नही किया। चलो आज हमें एक बिषय और मिला बात करने के लिये। आदित्य आगे बढ़े और घुसते ही सामने एक बड़ी सी तस्वीर दिखाई दी। जिस पर ताजे फूलों का हार लटक रहा है। जिसे देखते ही आदित्य के हाथ से छूट कर बुके नीचे गिर चुका है। वो घबराये हुये हैं। उन्होने फिर से उस तस्वीर को देखा है। "नही ....ये नही हो सकता...?अनु तुम इतनी कमजोर नही हो सकतीं .? कैसे और कब हुआ ये..?"
आदित्य निराश और हताश से खड़े रह गये हैं। ढलते हुये सूरज की चन्द रश्मियाँ भी यकायक आँखों से विलीन हो गयी हैं। भरे हुये नयनों की धुँधलाहट में देखा है कि, रमा पानी लेकर आई है। उसके हाथ में कुछ और भी है।
"लीजिये सर, ये दीदी की कहानी की पाण्डुलिपी है उनकी अन्तिम इच्छा थी कि........।" कहते- कहते फफक पड़ी रमा।आदित्य कुछ बोल नही पाये हैं। बस अनुप्रिया की उस अमानत को उठा कर अपने करीब कर लिया है।
"अनु, कहाँ हो तुम...? मैं क्यों उस दिन तुम्हारे इशारे को नही समझ पाया...? तुमने तो मुझसे कहा था कि - "मैं न मिली तो..?" मैं ही नही समझा। अब कैसे समझाऊँगा खुद को..? अनु, मैं तुम्हारी साँसों को इस किताब में सुन रहा हूँ और हमेशा सुनता रहूँगा। यह धड़कती हुई किताब हमेशा तुम्हे जिन्दा रखेगी। पर एक दोस्त को धोखा देकर तुमने अच्छा नही किया दोस्त..." और फिर उन्होने जेब से कलम निकाल कर उस पर लिखा है.."एक थी अनु।"
छाया अग्रवाल
बरेली (य.पी.)
मो. 8899793319