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आलिंगन

आलिंगन
गीतेश के दो ही शौक थे। एक दिन में पेंटिंग बनाना और दूसरा रात को मशहूर कहानीकारों की कहानियां पढ़ना। तूलिका और कैनवास से उसका गहरा रिश्ता था। चित्रकारी का जनून गीतेश को इस हद तक था कि जब तक उसकी बनाई तस्वीर पूरी नहीं हो जाती तब तक वह कमरे में ही कैद रहता।
पिछले बीस सालों में उसने ना जाने कितनी तस्वीरें बनाई। उसके कमरे में जिधर देखो उधर पेंटिंग ही नजर आती। पेंटिंग क्या जीवन तस्वीरें कहो। ध्यान से देखने पर ऐसा प्रतीत होता जैसे उसकी हर पेंटिंग कुछ ना कुछ कह रही हो। ऐसा लगता जैसे इंसानी वजूद को कैनवास पर उकेर कर दीवारों पर चस्पा कर दिया हो।
बड़े-बड़े मशहूर चित्रकार गीतेश की चित्रकारी की तारीफ करते और उसको अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाने और खुद की आर्ट गैलरी बनाने को कहते। पर गीतेश हंस कर सब की बात टाल जाता और कहता मैं पेंटिंग अपने शौक के लिए करता हूं ना ही आज गैलरियों में लटकाने के लिए।
दुनिया गीतेश की बनाई पेंटिंग की तारीफ करती, पर प्रिया ने उसके इस फन की कभी तारीफ नहीं की। कभी उसकी बनाई पेंटिंग को नजर भर के देखा भी नहीं।
उसकी नजर में गीतेश का चित्रकार होना, महज वक्त को जाया करना था। जिसका गीतेश को बेहद अफसोस था। यही वजह थी कि गीतेश और प्रिया के रिश्ते के मध्य खुदी अलगाववाद की खाई और गहरी होती जा रही थी।
जमाने के सामने तो गीतेश और प्रिया पति पत्नी थे। पर घर के अंदर अजनबीयों की तरह रहते। प्रिया ने गीतेश को कभी पति का दर्जा दिया ही नहीं। क्योंकि उसके सपनों का सौदागर रंगों में सना रहने वाला गीतेश नहीं एक ऐसा इंसान था जो बड़े- बड़े बिजनेस प्लान करता। बड़े -बड़े होटलों में ठहरता। बड़ी -बड़ी गाड़ियों में चलता। जहाजों में उड़ता। जिसके साथ प्रिया ऐशो-आराम की जिंदगी जीती। पर परिवार की मान मर्यादा ने उसकी पसंद और ख्वाहिशों को गीतेश जैसे नीरस और बोरिंग इंसान के घर ला पटका।
सबको यह मालूम था कि प्रिया बांझ है इसलिए वह शादी के बीस साल बाद भी मां नहीं बन पाई। पर यह बात तो गीतेश ही जानता था कि प्रिया और उसके बीच पति पत्नी जैसा कभी कोई रिश्ता रहा ही नहीं तो प्रिया मां कैसे बनती? लेकिन गीतेश ने भी कभी प्रिया को यह सब करने के लिए बाध्य नहीं किया। ना ही उसने कभी कोई शिकायत या शिकवा किया। क्योंकि वह हर हाल में प्रिया को खुश देखना चाहता था। गीतेश को पूरा यकीन था कि उम्र के इस पड़ाव पर एक बार प्रिया को अपने व्यवहार पर पछतावा जरूर होगा। वह उसके करीब आएगी पर ऐसा कभी नहीं हुआ।
गीतेश की जो रातें प्रिया के इंतजार में गुजरती थी वह रातें अब कहानीकारों की किताबों के पन्नों में गुजरने लगी। उसने अब प्रिया का इंतजार करना छोड़ दिया था। अब दोनों के बीच मात्र औपचारिकता ही रह गई थी।
प्रिया के साथ-साथ गीतेश का अपनी पेंटिंग से भी मोह भंग होने लगा था। प्रिया की बेरुखी से उसे अब वही दुनिया बदरंग सी नज़र आने लगी थी। इसलिए वह खुद में टूटने लगा था और इससे पहले गीतेश पूरी तरह टूट कर बिखरता सुगंधा ने आकर उस को समेट लिया।
"वाह .., ऐसा लग रहा है जैसे मैं दुनिया की सबसे बड़ी आर्ट गैलरी में आकर खड़ी हो गई हूं। काश इन जीवित, हंसती -बोलती और मुस्कुराती तस्वीरों के बीच मेरी भी एक तस्वीर होती, तो कितना अच्छा होता।”सुगंधा ने गीतेश के कमरे में लटकी तस्वीरों को देखते हुए कहा।
“माफ कीजिए मैंने आपको पहचाना नहीं”
"ओह सॉरी गीतेश मैं तुम लोगों का परिचय करवाना भूल गया। गीतेश, यह सुगंधा जी हैं इस शहर की जानी- मानी कहानीकार गीतेश के दोस्त कबीर ने कहा।
"ओहह.. तो आप ही हैं सुगंधा..? बहुत अच्छा लिखती हैं आप। यह देखिए आप ही की कहानी संग्रह”बर्फ के अंगारे”पढ़ रहा था।”
"इसका मतलब आप को पढ़ने का भी शौक है।”
“हां , एक बात कहूं सुगंधा जी हम दोनों का शौक एक सा ही है आप शब्दों से किसी की जिंदगी को तराशती हैं तो मैं रंगों से।”"बिल्कुल सही कहा आपने, मुझे तो कबीर का एहसानमंद का एहसानमंद होना चाहिए जिसने मुझे आप जैसे महान चित्रकार से मिलवाया।”
"बिल्कुल कबीर का एहसानमंद तो मुझे भी होना चाहिए।”
"गीतेश तुम लोग बातें करो मेरा एक जरूरी फोन आ रहा है मैं निकल रहा हूं।”कबीर ने कहा।
"या फिर तुम हम दोनों के बीच कबाब में हड्डी नहीं बनना चाहते”सुगंधा ने मजाकिया लहजे में कहा। तो तीनों ठहाका मारकर हंसने लगे। हंसते-हंसते कबीर बोला-”ऐसा ही समझ लीजिए फिलहाल तो मुझे जाने दीजिए।”
"रूको कबीर, मैं भी तुम्हारे साथ ही चल रही हूं। मुझे भी एक जरूरी काम याद आ रहा है मैं गीतेश जी से बाद में आराम से मिलती हूं। ठीक है गीतेश जी अभी चलती हूं फिर आऊंगी आपसे अपनी तस्वीर बनवाने के लिए। बनाओगे ना मेरी तस्वीर ?”
“क्यों नहीं जरूर बनाऊंगा।”
भले ही सुगंधा जीवन के पैतालिसवें साल से होकर गुजर रही थी और उसके सिर के बाल पक कर सफेद होने लगे थे। पर उसकी चंचल आंखों की शरारत, चेहरे की मुस्कुराहट, उसको चालीस के पार ही रोके हुये थी। उसका फूल सा हंसता मुस्कुराता चेहरा गीतेश की आंखों से निकल नहीं रहा था। उसकी बड़ी- बड़ी काली कजरारी आंखें , होठों को छूती पतली नुकीली नाक, पतले-पतले गुलाब की पंखुड़ियों सरीखे गुलाबी होंठ, गोरा चिट्टा रंग, सुराई सरीखी पतली और लंबी गर्दन, पतले दुबले किंतु सुडौल जिस्म पर लिपटी लाल रंग की साड़ी उसके सौंदर्य को ओर निखार रही थी। इससे भी ज्यादा सुगंधा की जो चीज गीतेश को प्रभावित कर रही थी। वह था सुगंधा का बेबाकी पन। लेशमात्र भी सुगंधा के अंदर बनावटीपन नहीं था। यही सब तो चाहिए था गीतेश को। अपने दोस्त कबीर का भी शुक्रिया अदा किया क्योंकि उसी नें उसको सुगंधा से मिलवाया था।
जब से गीतेश सुगंधा से मिला था वह, वह नहीं रहा था। प्रिया उसके जहन से निकल रही थी और सुगंधा उसके दिल में उतर रही थी। इसलिए नहीं, कि सुगंधा खूबसूरत थी। बेबाक थी। बल्कि इसलिए क्योंकि वह प्रिया जैसी नकचढ़ी और बदमिजाज नहीं थी। किसी भी बात पर खिल खिलाकर हंस देना उसकी आदत थी। इससे भी बड़ी खूबी सुगंधा के अंदर यह थी कि वह उसके फन की कद्रदान थी। शायद इसीलिए उन दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगी।
अचानक एक दिन गीतेश के पास सुगंधा का फोन आया कि 'आज उसका मूड बहुत अच्छा है क्या वह उसकी एक तस्वीर बना सकता है। ' रितेश ने बिना देर किए उसको बुला लिया। दोनों के मध्य औपचारिक बातें हुई और गीतेश ने उसे अपने सामने बिठा कर उसकी तस्वीर बनानी शुरू कर दी। उस पूरे दिन सुगंधा गीतेश के साथ रही इस बीच दोनों ने एक-दूसरे को समझा और जाना।
रात काफी हो चुकी थी। गीतेश अपने कमरे में अकेला बैठा सुगंधा की उस तस्वीर को टकटकी लगाकर देख रहा था। जिसे उसने पूरे पन्द्रह दिनों में बना कर तैयार किया था। देखते -देखते गीतेश, सुगंधा की तस्वीर से बातें करने लगा।
"सुनो ..., आखिर आज मैंने तुम्हारी तस्वीर को पूरा कर ही दिया। पता है तुम्हारे चेहरे ने रंगों को इस कदर सूखा है, जैसे ये बरसों से प्यासा हो और तुम्हारी झील सी गहरी आंखें कितना कुछ कहना चाह रही हैं पर वह मौन हैं। बिल्कुल तुम्हारी तरह जानती हो सुगंधा , तुम्हारी आंखों से छूते ही ब्रश ने मुझसे क्या कहा..? कैसे ठहर पाओगे तुम इन आंखों में...? मैंने कहा हां यह सच है कि मैं इन आंखों में नहीं झाँक पा रहा हूं इसलिए मैंने अपनी आंखें मूंद ली है।
तुम्हारे गालों का गुलाबी रंग ना जाने कैसे सुर्ख हो गया। मेरा साहस कैनवास और मेरे दिल के बीच सूखे पत्ते की तरह थर- थर कांप रहा है। बेशक मैं तुम्हें बेपनाह मोहब्बत करने लगा हूं। पर डरता हूं अपनी मोहब्बत को जमाने के सामने लाने से। फिर सोचता हूं कब तक अपनी मोहब्बत को कैद करके रख पाऊँगा अपने दिल में। कभी यह सोच कर डर जाता हूं कहीं तुम मेरी मोहब्बत को ठुकरा ना दो। नहीं-नहीं सुगंधा मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता। तुमसे दूर जाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। ...वैसे देखा जाए तो मैंने तुम्हें पाया भी कब है ..? नहीं, मेरा यह कहना भी गलत होगा ..अगर पाया ना होता तो मेरे अंदर तुम्हारे लिए यह कसक, तड़प और बेचैनी ना होती। तुम हर समय मेरे खयालों में रहने लगी हो सुगंधा। बिना दस्तक दिए तुम सीधे मेरे दिल में उतर आई हो। मेरी एक बात ध्यान से सुनो- 'सुगंधा तुम मेरी हो सिर्फ और सिर्फ मेरी। जीवन के आखिरी दिनों में तुम्हें मुझसे कोई नहीं छीन सकता। '
सुगंधा मैं अपनी अधूरी और बेनूर जिंदगी को तुम्हारे नूर से आबाद करना चाहता हूं। तुम्हारे करीब आना चाहता हूं। तुम्हारी कहानियों का हिस्सा बनना चाहता हूं। सुगंधा, कहना तो तुम भी यही चाहती हो पर कहने से घबराती हो लेकिन एक दिन तुम्हे मेरी मोहब्बत इस कदर बेचैन कर देगी कि तुम्हें कहना पड़ेगा कि हां तुम मुझसे मोहब्बत करती हो।
गीतेश ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी की तरफ देखा। रात के तीन बज रहे थे उसने सुगंधा की तस्वीर से बोलना बंद किया और सोने की कोशिश करने लगा।
सूरज की पहली किरण के साथ ही वह सोकर उठ गया और सोचने लगा -'आज सब कुछ नया-नया सा लग रहा है। उसके जहन में सुगंधा की तस्वीर उभर आई। रात उसकी तस्वीर से जो बातें हुई थीं। उसे सब याद आने लगी। उसका मन सुगंधा से मिलने के लिए मचल उठा और वह उससे मिलने के लिए निकल पड़ा।
वह तैयार होकर घर से निकला ही था कि पीछे से प्रिया ने आवाज लगाई -"सुबह-सुबह कहां जा रहे हो..? वह भी कुछ खाए बगैर।”प्रिया की आवाज सुनकर गीतेश का मूड खराब हो गया पर उसने प्रिया की बात को नजरअंदाज कर दिया और घर से निकल गया।
चारों और पहाड़ियों से घिरा हुआ देवदार के लंबे घने वृक्षों के बीच सुनसान सा दिखने वाला सुगंधा का बंगला, देखकर ऐसा प्रतीत होता जैसे वह मुद्दतों से खाली पड़ा हो। गाड़ी से उतरकर रितेश ने एक बार माहौल का जायजा लिया और दरवाजे की तरफ बढ़ गया। चलते-चलते अचानक ठिठक कर रुक गया और सोचने लगा-' यह मुझे क्या हो रहा है ..? मेरे पाँव मेरा साथ क्यों नहीं दे रहे हैं..? दिल को जरा भी लिहाज नहीं रहा उम्र का...? कितनी बार आ चुका हूं तुम्हारे पास, कभी तुम्हें उस नजर से नहीं देखा पर आज क्या हो रहा है मुझे...? क्यों मैं तुम्हारे आगोश में खो जाना चाहता हूं ..?”
"आओ गीतेश अंदर आ जाओ मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रही थी।”सुगंधा की आवाज से उसकी चंद्रा टूटी और वह धड़कते दिल से सुगंधा के साथ अंदर गया।
सिली -सिली सी सुगंधा सफेद और नीले रंग की सलवार और कमीज में बहुत सुंदर लग रही थी। गोल चूड़ी के आकार के ईयररिंग उसके खुले बालों के बीच से आधे- आधे झांक रहे थे। कंधे तक झूलते बालों को सुगंधा ने उठाकर जुड़ा बना लिया।
"गीतेश , तुम्हें तो मुझसे मिलने की फुर्सत ही नहीं है अगर मैं ना बुलाऊँ तो तुम्हें कभी मेरी याद ही ना आए अपनी तस्वीरों के संग रहते-रहते बाहर की दुनिया को भूलते जा रहे हो।”शिकायती अंदाज में सुगन्धा ने कहा।
"कम -से कम तुम तो ऐसे मत कहो सुगन्धा।”
"क्यों , क्यों ना कहूं ?”
"अच्छा ठीक है कर लो गुस्सा जी भर के।”
सुगंधा ने मुस्कुरा कर अपने गुस्से को खत्म किया। उसकी मुस्कुराहट को आज पहली बार गीतेश ने ध्यान से देखा था।”उफफफफ... कितनी सुंदर लगती हो तुम सादगी में भी।”
"कहां खो गए गीतेश ?”
"कहीं नहीं।”सुगंधा के सवाल से सकपका गया गीतेश।
“अच्छा लो तुम्हारी ब्लैक टी तैयार है।”दोनों चाय पीने लगे।”आज तुमने फिर चाय में शक्कर डबल कर दी।”
"अच्छा, सुगंधा ने चाय को होटो से लगाया। ओह , आज फिर शक्कर डालना भूल गई। अच्छा रुको, शक्कर लेकर आती हूं।”"नहीं रहने दो , अब मैं भी तुम्हारा साथी हो गया हूं। मेरा भी शुगर लेवल बढ़ा हुआ आया है।”
“तुम सच बोल रहे हो?”सुगंधा के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई।
"अब इस उम्र में तो झूठ बोलने से रहा दोनों ठहाका लगा कर हंसने लगे।”
इतनी बड़ी भुतहा वीरान सी हवेली में सुगंधा बिल्कुल अकेली रहती थी। पति से तलाक तो शादी के दो साल बाद ही हो गया था। उसके बाद ना तो उसने और ना ही सुगंधा ने आपस में बात की। सुगंधा के एक बेटा था विक्की। जो अब अमेरिका में है। कई बार उसने सुगंधा से भी अमेरिका चलने को कहा पर सुगंधा ने मना कर दिया। तलाक के बाद सुगंधा के पास शादी के कई प्रस्ताव आए मगर उसे उसने किसी को स्वीकार नहीं किया।
जब से गितेश ने सुगंधा की खूबसूरती को अपने कैनवास पर उतारा था तब से वह सुगंधा का ही होकर रह गया था।
'सुगंधा मैं तुम्हें दिल की गहराइयों से चाहने लगा हूं। क्या तुम मुझे प्यार कर पाओगी गीतेश ने मन ही मन कहा और खुद को संभालते हुए खिड़की से बाहर झांकने लगा। सामने वाली पहाड़ी ऐसी लग रही थी मानो उसने अभी- अभी कोहरे के आलिंगन से खुद को आजाद किया हो। पवन छोटे -छोटे पौधों पर अपना रौब जमा रही थी और बड़े वृक्ष ऐसे इतरा रहे थे जैसे किसी के प्रेम में सुध -बुध खो बैठे हो। झमाझम बारिश की बौछार ने हवा के साथ खिड़की में प्रवेश किया और गीतेश को पूरी तरह भीगो डाला। ठंड से उसकी कपँकपी छूटने लगी।
“बीमार पड़ना है क्या ..?”सुगंधा ने उसे भीगते हुए देखकर कहा। गितेश ने घूम कर देखा पीछे सुगंध तौलिया लिये खड़ी थी। सुगंधा के मन में अपने लिए इतना प्यार देखकर गीतेश खुद को रोक नहीं पाया और एकटक उसे निहारने लगा। उसकी सांसों की खुशबू को महसूस करने लगा और सुगंधा भी उसमें खो गई।
मेघों की पैजनियों का शोर संगीत के स्वरों में घुलने लगा। गितेश ने अपनी दोनों बाहें सुगंधा के सामने फैला दी। जिसमें सुगंधा स्वता ही समाती चली गई। मानो वह उसी का इंतजार कर रही हो। यह जीवन के तीसरे पहर का आलिंगन था। जो उनके पवित्र प्रेम का साक्षी बन चुका था।
छाया अग्रवाल
मो 8899793319