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देस बिराना - 24

देस बिराना

किस्त चौबीस

हाई स्कूल कर लेने के बाद एक बार फिर मेरे सामने रहने-खाने और आगे पढ़ने की समस्या आ खड़ी हुई थी। यहां सिर्फ दसवीं तक का ही स्कूल था। बारहवीं के लिए नीचे मैदानों में उतरना पड़ता। मणिकर्ण का शांत, भरपूर प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा वातावरण और गुरुद्वारे का भक्ति रस से युक्त पारिवारिक वातावरण भी छोड़ने का संकट था।

मैं अब तक के अनुभवों से बहुत कुछ सीख चुका था और आगे पढ़ने के एकमात्र उद्देश्य से इन सारी नयी समस्याओं के लिए तैयार था। छोटे मोटे काम करके मैंने अब तक इतने पैसे जमा कर लिये थे कि दो-तीन महीने आराम से कहीं कमरा ले कर काट सकूं। अट्ठारह साल का होने को आया था। दुनिया भर के हर तरह के लोगों से मिलते-जुलते मैं बहुत कुछ सीख चुका था। वजीफा था ही। सौ रुपये प्रबंधक कमेटी ने हर महीने भेजने का वायदा कर दिया था।

तभी संयोग से अमृतसर से एक इंटर कॉलेज का एक स्कूली ग्रुप वहां आया। मेरे अनुरोध पर हमारे प्रधान जी ने उनके इन्चार्ज के सामने मेरी समस्या रखी। यहां रहते हुए साढ़े तीन-चार साल होने को आये थे। मेरी तरह के तीन-चार और भी लड़के थे जो आगे पढ़ना चाहते थे। हमारे प्रधान जी ने हमारी सिफारिश की थी कि हो सके तो इन बच्चों का भला कर दो। हमारी किस्म अच्छी थी कि हम चारों ही उस ग्रुप के साथ अमृतसर आ गये।

मणिकर्ण का वह गुरूद्वारा छोड़ते समय मैं एक बार फिर बहुत रोया था लेकिन इस बार मैं अकेला नहीं था रोने वाला और रोने की वज़ह भी अलग थी। मैं अपनी और सबकी खुशी के लिए, एक बेहतर भविष्य के लिए आगे जा रहा था।

अब मेरे सामने एक और बड़ी दुनिया थी। यहां आकर हमारे रहने खाने की व्यवस्था अलग-अलग गुरसिक्खी घरों में कर दी गयी थी और हम अब उन घरों के सदस्य की तरह हो गये थे। हमें अब वहीं रहते हुए पढ़ाई करनी थी।

जहां मैं रहता था, वे लोग बहुत अच्छे थे। बेशक यह किसी के रहमो-करम पर पलने जैसा था और मेरा बाल मन कई बार मुझे धिक्कारता कि मैं क्यों अपना घर-बार छोड़ कर दूसरों के आसरे पड़ा हुआ हूं, लेकिन मेरे पास जो उपाय था, घर लौट जाने का, वह मुझे मंज़ूर नहीं था। और कोई विकल्प ही नहीं था। मैं उनके छोटे बच्चों को पढ़ाता और जी-जान से उनकी सेवा करके अपनी आत्मा के बोझ को कम करता।

मैं एक बार फिर पढ़ाईद में जी-जान से जुट गया था। इंटर में मैं पूरे अमृतसर में फर्स्ट आया था। घर छोड़े मुझे छ: साल होने को आये थे, लेकिन सिर्फ कुछ सौ मील के फासले पर मैं नहीं गया था। अखबारों में मेरी तस्वीर छपी थी। जिस घर में मैं रहता था, उन लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं था। इसके बावज़ूद मैं उस रात खूब रोया था।

मुझे मेरा चाहा सब कुछ मिल रहा था और ये सब घर परिवार त्यागने के बाद ही। मैं मन ही मन चाहने लगा था कि घर से कोई आये और मेरे कान पकड़ कर लिवा ले जाये जबकि मुझे मालूम था कि उन्हें मेरी इस सफलता की खबर थी ही नहीं। मुझे तो यह भी पता नहीं था कि उन्होंने कभी मेरी खोज-खबर भी ली थी या नहीं। आइआइटी, कानपुर में इंजीनियरिंग में एडमिशन मिल जाने के बाद मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं अपने घर जाऊं लेकिन संकट वही था, मैं ही क्यों झुकूं। मैं बहुत रोया था लेकिन घर नहीं गया था। घर की कोई खबर नहीं थी मेरे पास। मेरी बहुत इच्छा थी कि कम-से-कम अपने गॉडफादर हैड मास्टर साहब से ही मिलने चला जाऊं लेकिन हो नहीं पाया था। मैं जानता था कि वे इतने बरसों से उनके मन पर भी इस बात का बोझ तो होगा ही कि उनके ससुर ने मेरे साथ इस तरह का व्यवहार करके मुझे घर छोड़ने पर मज़बूर कर दिया था तो मैं कहां गया होऊंगा। मैंने अपने वचन का मान रखा था। उन्हीं के आशीर्वाद से इंजीनियर होने जा रहा था। तब मैंने बहुत सोच कर उन्हें एक ग्रीटिंग कार्ड भेज दिया था। सिर्फ अपना नाम लिखा था, पता नहीं दिया था। बाद में घर जाने पर ही पता चला था कि वे मेरा कार्ड मिलने से पहले ही गुज़र चुके थे।

अगले चार छ: साल तक मैं खूद को जस्टीफाई करता रहा कि मुझे कुछ कर के दिखाना है। आप हैरान होंगी मालविका जी कि इन बरसों में मुझे शायद ही कभी फुर्सत मिली हो। मैं हमेशा खटता रहा। कुछ न कुछ करता रहा। बच्चों को पढ़ाता रहा। आपको बताऊं कि मैंने बेशक बीटेक और एमटैक किया है, पीएचडी की है, लेकिन गुरूद्वारे में रहते हुए, अमृतसर में भी और बाद में आइआइटी कानपुर में पढ़ते हुए भी मैं बराबर ऐसे काम धंधे भी सीखता रहा और करता भी रहा जो एक कम पढ़ा-लिखा आदमी जानता है या रोज़ी-रोटी कमाने के लिए सीखता है। मैं ज़रा-सी भी फ़ुर्सत मिलने पर ऐसे काम सीखता था। मुझे चारपाई बुनना, चप्पलों की मरम्मत करना, जूते तैयार करना, कपड़े रंगना, बच्चों के खिलौने बनाना या कारपेंटरी का मेरा खानदानी काम ये बीसियों धंधे आते हैं। मैं बिजली की सारी बिगड़ी चीजें दुरुस्त कर सकता हूं। बेशक मुझे पतंग उड़ाना या क्रिकेट खेलना नहीं आता लेकिन मैं हर तरह का खाना बना सकता हूं और घर की रंगाई-पुताई बखूबी कर सकता हूं। इतने लम्बे अरसे में मैंने शायद ही कोई फिल्म देखी हो, कोई आवारागर्दी की हो या पढ़ाई के अलावा और किसी बात के बारे में सोचा हो लेकिन ज़रूरत पड़ने पर मैं आज भी छोटे से छोटा काम करने में हिचकता नहीं। साथ में पढ़ने वाले लड़के अक्सर छेड़ते - ओये, तू जितनी भी मेहनत करे, अपना माथा फोड़े या दुनिया भर के धंधे करे या सीखे, मज़े तेरे हिस्से में न अब लिखे हैं और न बाद में ही तू मज़े ले पायेगा। तू तब भी बीवी बच्चों के लिए इसी तरह खटता रहेगा। तब तो मैं उनकी बात मज़ाक में उड़ा दिया करता था, लेकिन अब कई बार लगता है, गलत वे भी नहीं थे। मेरे हिस्से में न तो मेरी पसंद का जीवन आया है और न घर ही। अपना कहने को कुछ भी तो नहीं है मेरे पास। एक दोस्त तक नहीं है।

मैं रुका हूं। देख रहा हूं, मालविका जी बिना पलक झपकाये ध्यान से मेरी बात सुन रही हैं। शायद इतने अच्छे श्रोता के कारण ही मैं इतनी देर तक अपनी नितांत व्यक्तिगत बातें उनसे शेयर कर पा रहा हूं।

- दोबारा घर जाने के बारे में कुछ बताइये, वे कहती हैं।

उन्हें संक्षेप में बताता हूं दोबारा घर जाने से पहले की बेचैनी की, अकुलाहट की बातें और घर से एक बार फिर से बेघर हो कर लौट कर आने की बात।

- और गुड्डी?

- मुझे लगता है मैंने ज़िंदगी में जितनी गलतियां की हैं, उनमें से जिस गलती के लिए मैं खुद को कभी भी माफ नहीं कर पाऊंगा, वह थी कि घर से दोबारा लौटने के दिन अगर मैं गुड्डी को भी अपने साथ बंबई ले आता तो शायद ज़िंदगी के सारे हादसे खत्म हो जाते। मेरी ज़िंदगी ने भी बेहतर रुख लिया होता और मैं गुड्डी को बचा पाता। उसकी पढ़ाई लिखाई पूरी हो पाती, लेकिन ....

- अपने प्रेम प्रसंगों के बारे में कुछ बताइये।

- मेरा विश्वास कीजिये, इस सिर दर्द का मेरे प्रेम प्रसंगों के होने या न होने से कोई संबंध नहीं है।

लगता है आपसे आपके प्रेम प्रसंग सुनने के लिए आपको कोई रिश्वत देनी पड़ेगी। चलिए एक काम करते हैं, कल हम लंच एक साथ ही लेंगे। वे हॅसी हैं - घबराइये नहीं, लंच के पैसे भी मैं कन्सलटेंसी में जोड़ दूंगी। कहिये, ठीक रहेगा?

- अब आपकी बात मैं कैसे टाल सकता हूं।

- आप यहीं आयेंगे या आपको आपके घर से ही पिक-अप कर लूं?

- जैसा आप ठीक समझें।

- आप यहीं आ जायें। एक साथ चलेंगे।

- चलेगा, भला मुझे क्या एतराज हो सकता है।

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