Aaghaat - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

आघात - 13

आघात

डॉ. कविता त्यागी

13

वहाँ से लौटकर तीन-चार दिन तक कौशिक जी का चित्त बहुत ही अशान्त रहा । अपनी इस आन्तरिक अशान्ति से उनका व्यवहार भी असामान्य- सा हो गया था । उस समय वे न किसी से कुछ कहना चाहते थे, न कुछ सुनना चाहते थे । यहाँ तक कि खाने-पीने के सम्बन्ध में भी कुछ नहीं कहते थे । जो कुछ, जैसा भी खाने-पीने के लिए दिया जाता था, चुपचाप जीवित रहने भर के लिए खा लेते थे, शेष वापिस छोड़ देते थे ।

चार-पाँच दिन पश्चात् जब उनका चित्त कुछ शान्त हुआ, तब उन्होंने घर के सभी सदस्यों को एक-साथ बुलाया और बैठाकर पूजा के बारे में बातें करना आरम्भ किया । कुछ देर तक पूजा की दशा का विवरण और विश्लेषण करने के बाद उन्होंने एक निर्णय लिया, जो पूर्व में लिये गये उनके निर्णय से सर्वथा भिन्न था । उन्होंने दृढ़ मुद्रा बनाते हुए कठोर शब्दों में कहा -

‘‘आज के बाद पूजा की कुशल-क्षेम जानने के लिए या उससे मिलने के लिए परिवार का कोई भी सदस्य उसकी ससुराल नहीं जायेगा !’’

कौशिक जी के निर्णय से सभी सन्न रह गये । किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उन्होंने ऐसा कठोर निर्णय क्यों लिया है ?... ऐसा क्या हुआ था उनके साथ पूजा की ससुराल में ? जिसने उन्हें इस निर्णय के लिए विवश कर दिया है । ऐसा कठोर निर्णय लेने के कारण को जानने का सभी ने प्रयास किया, लेकिन कौशिक जी ने केवल यही कहकर उन सबके प्रश्नों पर विराम लगा दिया कि पूजा की ससुराल में सब कुछ ठीक चल रहा है । वह अपनी विषम परिस्थितियों पर अपने ढ़ग से नियन्त्रण कर सकती है । उनके इस उत्तर से कोई सन्तुष्ट नहीं हुआ । सभी उनके निर्णय से अप्रसन्न भी थे, किन्तु उन सभी को इस निर्णय के पीछे कौशिक जी की विवशता का आभास हो रहा था, इसलिए सभी ने इस निर्णय को भारी मन से स्वीकार लिया ।

परन्तु, उसी परिवार का एक व्यक्ति ऐसा भी था, जो कौशिक जी के निर्णय का उल्लंघन करने पर भी न तो दण्ड का तथा न ही कौशिक जी के क्रोध का पात्र बनता था । उसके अतिरिक्त कौशिक जी के निर्णय का उल्लघंन करना परिवार के किसी अन्य सदस्य के लिए दुष्कर कार्य था ! दूसरे शब्दों में, इस परिवार से सम्बद्ध होने पर भी कौशिक जी का आदेश उस पर पूर्णरूपेण लागू नहीं होता था । यह भी कहा जा सकता है कि कौशिक जी के निर्णयों को ध्वस्त करके अपना निर्णय उससे ऊपर रखने की शक्ति और व्यवहार कुशलता थी, उस विशेष व्यक्तित्व में । उसी शक्ति और कौशल का लोहा मानकर आज तक कौशिक जी उसका शासन स्वीकार करते आये थे । वह शक्ति-सम्पन्ना थी, उनकी छोटी बहन और पूजा की बुआ - चित्रा । चित्रा में विवेक तथा व्यवहार-कौशल के साथ ही सहृदयता भी कूट-कूट कर भरी थी । वह कौशिकजी व रमा को क्रमशः अपने पिता और माता जैसा सम्मान देती थी । पूजा तथा यश को बहन-भाई के समान तथा प्रेरणा को अपनी बेटी की तरह स्नेह करती थी ।

जिस दिन कौशिक जी अपनी बेटी पूजा की ससुराल से लौटकर आये थे, उसके लगभग एक महीना पश्चात् चित्रा अपनी ससुराल से अपने भाई चमन कौशिक के घर पर आयी । चित्रा को देखकर घर में सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए थे, किन्तु कौशिक जी अचानक अपनी छोटी बहन को घर में आया हुआ देखकर विचारद्वन्द्व में फँस गये, क्योंकि पूजा के विवाह के बाद वह आज पहली बार बिना किसी पूर्व सूचना के घर पर आयी थी । पूजा के विवाह से अब तक के समय में जब भी चित्रा को आने के लिए कहा गया था, उसने कोई न कोई आवश्यक कार्य बताकर भाई के घर न आने की अपनी विवशता प्रकट की थी । आज बिना किसी आमन्त्रण और सूचना के अकेले ही उसका भाई के घर आ पहुँचना कौशिक जी के लिए संदेह और चिन्ता का विषय बन गया था ।

उस दिन चित्रा की यात्रा की थकान के विषय में सोचकर कौशिक जी ने उससे कोई भी बात करना उचित नहीं समझा । रमा ने भी चित्रा के साथ कोई बात किसी गम्भीर विषय पर नहीं की । भोजन करने के उपरान्त देर रात तक इधर-उधर की ऐसी निरर्थक बातें होती रहीं, जिनसे किसी के मनःमस्तिष्क पर अतिरिक्त भार न पड़े । तत्पश्चात् सभी ने अपने-अपने बिस्तर की ओर प्रस्थान किया और नींद के आगोश में समा गये । और प्रेरणा ... ? सभी की दृष्टि में अपरिपक्व तथा किसी भी निर्णय को लेने में अक्षम, किन्तु वास्तव में प्रत्येक गम्भीर विषय पर गम्भीरतापूर्वक सोचने-विचारने वाली प्रेरणा पूरी रात नहीं सो सकी । सारी रात उसके मस्तिष्क में पूजा और चित्रा बुआ को लेकर नये-नये विचार आते रहे ; अपने अनुभव के आधर पर वह नये-नये काल्पनिक-चित्र अनुमान करके बनाती-मिटाती रही थी । उसको पूर्ण विश्वास था कि अवश्य ही बुआ को पूजा दीदी की विषम परिस्थिति का कुछ न कुछ पता चला होगा, तभी वह यहाँ आयी हैं । उसे यह भी विश्वास था कि बुआ जी अवश्य पिताजी के निर्णय का उल्लंघन करके दीदी के पास जाएँगी और उनकी यथा-सम्भव सहायता भी करेंगी । इसी विश्वास से आपूरित प्रेरणा ने संकल्प किया कि आज सारा दिन वह बुआजी के साथ रहेगी, ताकि उनके उस संभवित कार्यक्रम का पता चल सके, जो उन्होंने पूजा की सहायता करने के लिए बनाया है ।

इधर कौशिक जी भी रात-भर अनिद्रा का शिकार रहे थे । वे रात-भर चिन्ता करते हुए यही सोचते रहे कि आखिर चित्रा अचानक क्यों आयी हैं ? उसके अचानक आने के अनेक शुभ-अशुभ कारणों की कल्पना करते हुए उनकी आँखों में संध्या-समय का वह चित्र उभर आया था, जब चित्रा एकटक उनकी ओर देख रही थी । उस निर्निमेष दृष्टि का स्वाध्ययन करते हुए उन्होंने अनुभव किया कि चित्रा उस समय कुछ कहना चाहती थी । बार-बार उसके हृदय से प्रस्पफुटित स्वर होंठों पर आकर रुक जाते थे । आखिर क्या बात थी, जो वह कहना चाहती थी ? परन्तु कह नहीं पायी थी । विचारों की इसी उधेड़-बुन में सवेरा हो गया था । बिस्तर से उठकर कौशिक जी अपनी दैनिक क्रियाओं से निवृत्त हुए और चित्रा के अचानक आने का कारण ढूँढने की दिशा में पुनः प्रवृत्त हो गये ।

नाश्ता करते समय कौशिक जी ने अपनी छोटी बहन चित्रा के हाव-भाव पढ़कर स्थिति का अनुमान लगाने का प्रयास किया । उन्होंने अनुभव किया कि चित्रा आज भी पूर्व सन्ध्या की तरह उनसे कुछ बातें करना चाहती थी, परन्तु कर नहीं पा रही थी । अतः नाश्ता करने के पश्चात् उन्होंने चित्रा को सस्नेह कहा -

‘‘चित्रा, हमारे साथ आओ ! कुछ बातें करनी हैं तुमसे !’’

‘‘हाँ-हाँ भैया ! मैं भी आपसे बातें करना चाहती थी । मैं सोच रही थी, जब आपके पास खाली समय होगा ; आप अपने किसी महत्त्वपूर्ण कार्य में व्यस्त नहीं होंगे, तब बात करूँगी !’’

चित्रा अपने भाई के पीछे-पीछे उनके कमरे की ओर चल दी । प्रेरणा भी अपनी बुआ से संकेत करके उनके साथ चलने की अनुमति माँगकर उनके साथ-साथ उसी कमरे में जाकर बैठ गयी, जिसमें उसके पिताजी तथा बुआ बैठे थे । प्रेरणा वहाँ उतने समय तक बैठी रही, जितने समय तक चित्रा और कौशिक जी बातें करते रहे थे । उस समय प्रतिक्षण उसे यह भय सताता रहा था कि पिताजी उसको बाहर न भेज दें, परन्तु चित्रा ने उसको सस्नेह अपनी बगल में बिठाये रखा । उस दिन प्रथम अवसर था जब प्रेरणा ने पूजा की ससुराल में उसकी दयनीय दशा के विषय में विस्तार से सुना था । उस दिन प्रेरणा ने अपने पिता के शब्दों में पूजा की यथार्थ-स्थिति को अपने अति संवेदनशील मनःमस्तिष्क से समझा और अनुभव किया था । उसने देखा था कि बातचीत के आरम्भ में बुआ के सकुशल तथा सुखी जीवन की सूचना पाकर उसके पिता के चेहरे पर सन्तुष्टि के भाव उभर आये थे । परन्तु अगले कुछ क्षणों तक वे किंकर्तव्यविमूढ़-से अनिर्णय की स्थिति में परेशान हो गये थे कि चित्रा को पूजा के विषय में बताएँ या न बताएँ । अन्त में उन्होंने कहना आरम्भ किया -

‘‘पूजा को वहाँ पर मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है । उससे नौकरों जैसा और कभी-कभी तो नौकरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है । वह घर के बडे-छोटे सभी की सेवा करती है ; सभी को सम्मान देती है,... और बदले में उसको.... ? घर में न उसको अपनी इच्छानुसार कुछ बोलने का अधिकार है, न अपनी इच्छानुसार कुछ करने का !... यहाँ तक कि अपनी इच्छा से वह भूख लगने पर खाना भी नहीं खा सकती है ! चित्रा ! बहुत कष्ट होता है, जब सोचता हूँ कि मैंने स्वयं अपनी बेटी के लिए उस घर-वर का चुनाव करके बेटी को उस घर में भेजा है, जहाँ उसको न स्नेह मिलता है और न सम्मान ! उसके दुर्भाग्य की अति तो यह है कि उसकी सास, ननद और देवर, रणवीर से उसकी झूठी शिकायत करते है और रणवीर पूजा से सच्चाई जानने ; उसका पक्ष सुनने की आवश्यकता समझे बिना ही उसके साथ मारपीट करके पशुवत आचरण करता है !’’ कहते-कहते कौशिक जी का गला भर आया ।

कौशिक जी की सारी बातें सुनने के पश्चात् चित्रा ने उन्हें बताया कि वह पूजा की विषम परिस्थितियों के विषय में पहले से ही जानती है । यही नही, उसके अचानक यहाँ आने का कारण भी यही है । चित्रा की बात सुनकर कौशिक जी आश्चर्य से उसकी और देखने लगे । उनकी इस दृष्टि का आशय समझकर कि उसको यह सब कब और कैसे ज्ञात हुआ, चित्रा ने कौशिक जी से कहा -

‘‘भैया, भाभीजी ने मुझे पत्र द्वारा पूजा की इस दशा से अवगत कराया था । वे चाहती थी, मैं समय-समय पर पूजा की ससुराल जाकर उसकी कुशल-क्षेम लेती रहूँ ।... मैं पूजा की ससुराल से लौटकर ही आयी हूँ, लेकिन मैं आपको बताने का साहस नहीं कर पा रही थी, क्योंकि भाभी जी ने मुझे बताया था कि... !’’

चित्रा अपने भाई के निर्णय के विरुद्ध जाकर न केवल उस दिन पूजा की ससुराल गयी थी, बल्कि उसने भविष्य में भी समय-समय पर वहाँ जाकर पूजा की कुशल-क्षेम लाने का वचन दिया था । अपने आदेश के विरुद्ध होने के बावजूद कौशिक जी चित्रा के निर्णय से बहुत ही प्रसन्न हुए और सन्तुष्ट होकर उन्होंने हमेशा की तरह अपनी छोटी बहन के व्यक्तित्व को सर्वश्रेष्ठ, शक्तिशाली व प्रभावशाली बताते हुए घर के सभी लोगों से उसकी तुलना कर डाली । रमा को जब सारी बातें ज्ञात र्हुइ, तो उनकी सारी चिन्ता ही दूर हो गयी । अपने भाई का चित्त शान्त और अपने पक्ष में अनुभव करके चित्रा ने सभी पारिवारिक सदस्यों की उपस्थिति में कौशिक जी से कहा -

भैया, मैं पूजा की ससुराल कल नहीं गयी थी, बल्कि आने वाले कल जाऊँगी ! मैंने आपसे वह झूठ इसलिए बोला था, क्योंकि मैं किसी भी प्रकार आपसे वहाँ जाने की अनुमति चाहती थी ! अब मुझे आपकी अनुमति मिल चुकी है, इसलिए मैंने अब आपको सच्चाई बता दी है !’’

‘अपनी शैतानियाँ कभी नहीं छोड़ेगी तू !’’ कौशिक जी चित्रा को सस्नेह डाँटते हुए और भी अधिक प्रसन्नचित दिखाई दे रहे थे । ।

अगले दिन चित्रा ने पूजा की ससुराल जाने के लिए प्रस्थान किया । उसका कार्यक्रम था कि वह पूजा के साथ भेंट करके वहाँ से लौटकर भाई के घर नहीं आयेगी, अपनी ससुराल चली जाएगी और वहाँ से पत्र द्वारा पूजा की कुशल-क्षेम के विषय में सूचित करेगी । रमा इस बात से सहमत नहीं थी । वह चित्रा के वापिस लौटकर न आने के कार्यक्रम का विरोध कर रही थी, किन्तु कौशिक जी के समझाने पर उन्होंने अपनी सहमति दे दी और चित्रा को विदा कर दिया था ।

चित्रा के जाने के चार-पाँच दिन पश्चात् उसका पत्र आया । अपने पत्र में उसने पूजा के विषय में तो लिखा ही था, साथ ही साथ यह भी लिखा था कि उसको वहाँ जाने में भविष्य में भी कोई कष्ट नहीं होगा । कष्ट न होने का कारण उन्होंने पूजा की ससुराल वालों का स्वभाव बताया था । पूजा की ससुराल वालों पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने लिखा था -

‘‘पूजा की ससुराल वालों के हृदय में और घर में प्रवेश पाने के लिए एक ही शर्त है - पूजा और उसके मायके वालों की निन्दा करना और सुनना । इसके साथ-साथ यदि थोड़ा-सा खर्च करने के लिए मुट्ठी थोड़ी-सी ढ़ीली छोड़ दें, तो उनके साथ घनिष्ठ मित्रता की जा सकती है । मैं अपनी पूजा की और आप सबकी निंदा नहीं कर पायी, इसलिए वे लोग मेरे घनिष्ठ-मित्र तो नहीं बन पाये हैं, परन्तु अपने हृदय से न सही, कानों से सुनने से मैंने कोई आपत्ति नहीं की । वहाँ पर मैंने उनके लिए कुछ धन भी खर्च किया था, इसलिए स्वागत भले ही.न हो, मेरे प्रवेश वहाँ कोई प्रतिबन्ध नहीं है । मैं प्रयास करूँगी कि अगली बार भेंट होने पर उनके साथ सम्बन्ध और प्रगाढ़ हो जाएँ !’’

चित्रा का पत्र पढ़कर परिवार के सभी लोग पूजा की ओर से चिन्ता- मुक्त से हो गये थे । सबको लगने लगा था कि चित्रा सारी विषम-परिस्थितियों पर नियन्त्रण करने में सफल होगी, तो पूजा को राहत मिल सकेगी । इसी आशा में धीरे-धीरे चार-पाँच महीने व्यतीत हो गये । चित्रा समय-समय पर पूजा की कुशल-क्षेम लेकर पत्र द्वारा कौशिक जी को तथा रमा को सूचित करती रही । प्रारम्भ में कौशिक जी पूजा के लिए कभी-कभी पत्र लिखते थे, किन्तु चित्रा ने बताया कि उनके भेजे हुए पत्र पूजा को नहीं दिये जाते, तो उन्होंने बेटी के लिए पत्र लिखना बिल्कुल बन्द कर दिया । अपने पत्र द्वारा चित्रा ने यह भी बताया कि जो पत्र पूजा द्वारा लिखे जाते थे, शायद उन्हें डाकखाने में पहुँचाया ही नहीं जाता । पूजा ने अपनी बुआ चित्रा को बताया था -

‘‘बुआ जी, मैनें इतने पत्र लिखकर भेजे, लेकिन मुझे उनमें से किसी का भी उत्तर नहीं मिला । मुझे पूरा विश्वास है कि पिताजी मेरे लिए पत्र अवश्य लिखते होंगे और वे पत्र यहाँ आते भी होंगे, लेकिन ये लोग मेरे पास तक नहीं पहुँचाते हैं ! मुझे तानें-उलाहने देती रहती हैं कि मेरे माँ-बाप को मेरी परवाह नहीं है, कभी चिट्ठी भी नहीं भेजते ! बेटी की कुशल-क्षेम जानने की जरूरत ही नहीं मानते हैं ! एक बार ब्याह करके ऐसे फेंक दिया है, जैसे दूध में से मक्खी को निकालकर फेंक देते हैं !’’

कौशिक जी को जब यह ज्ञात हो गया था कि उनकी बेटी तक डाक के माध्यम से पत्र भेजना कठिन ही नहीं, असम्भव है, तब अपनी बातें - अपने विचार और शिक्षाएँ, जिनसे पूजा का मनोबल बढ़ता था ; जिनकी अभिव्यक्ति कौशिक जी के मन को शान्ति प्रदान करती थी, उन्हें अपनी बेटी तक पहुँचाने के लिए कौशिक जी ने एक नयी युक्ति ढूँढ निकाली थी । वे चित्रा के पास भेजने वाले पत्र के अन्दर एक और पत्र पूजा के लिए लिखकर भेजने लगेे । जब चित्रा पूजा की ससुराल में जाती थी, तब उसको कौशिक जी का वह पत्र देती थी । पूजा भी तीन-चार पृष्ठों के लम्बे पत्र में अपने अन्तः को खोलकर रख देती थी और उसी माध्यम से अर्थात् अपनी बुआ द्वारा अपने पिता तक पहुँचा देती थी ।

डॉ. कविता त्यागी

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