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आघात - 15

आघात

डॉ. कविता त्यागी

15

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा और पूजा के तीन वर्ष सुख-शान्ति से व्यतीत हो गये । वह अपना सारा समय अपने बेटे प्रियांश के कार्यों में व्यस्त रहते हए व्यतीत कर देती थी । इस अन्तराल में पूजा के साथ अपने मायके से पत्रों का आदान-प्रदान होता रहा, किन्तु उनमें सामान्य -औपचारिक कुशल-क्षेम की सूचना के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं होता था । इस समयान्तराल में पूजा अपने मायके में पाँच-छः बार मिलने के लिए भी आयी थी और उसने प्रत्येक बार यह ही बताया था कि अब घर की परिस्थितियाँ अपेक्षाकृत सामान्य रहने लगी हैं, इसलिए उसकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है ।

तीन वर्ष पश्चात्,... एक दिन प्रातः उठकर रमा ने घर का मुख्य द्वार खोला, तो सामने पूजा को खड़ा पाया -

‘‘तू कब आयी ? ऐसे चुप क्यों खड़ी थी ? दरवाजा भी नहीं खटखटाया, न ही डोर-बेल बजायी !’’

‘‘मैं अभी-अभी आयी हूँ ! बेल बजाने ही वाली थी, तभी आपने दरवाजा खोल दिया !’’

पूजा का उत्तर सुनते-सुनते रमा की दृष्टि पूजा के शरीर के उन अंगों पर पड़ी, जो उसके वस्त्रों से बाहर थे । रमा ने देखा, उसकी बेटी के चेहरे पर सूजन तथा अन्य अंगों पर चोट के नीले-चिह्न थे । द्वार सेे कुछ दूर एक युवक खड़ा था, जो दरवाजा खुलने के तुरन्त पश्चात् पूजा का संकेत पाकर द्वार के निकट आ गया था । उसने पूजा और उसकी माँ के बीच होने वाले अनौपचारिक-अप्रत्याशित वार्तालाप को बीच में ही विराम देते हुए पूजा की माँ को प्रणाम किया और पूजा की ओर तथा उसकी माँ की ओर असमंजसयुक्त मुद्रा में देखते हुए वापिस लौटने की आज्ञा माँगने लगा । उसको देखकर रमा को चेहरा परिचित-सा प्रतीत हुआ । उस युवक के हाव-भाव भी प्रकट कर रहे थे कि वह उस परिवार से पूर्णतः परिचित है । अतः रमा ने आग्रह करके युवक को अन्दर बुला कर बिठा लिया । अन्दर बिठाकर जब रमा ने उस युवक का परिचय पूछा तथा स्नेह और सम्मान सहित उसके वहाँ आने का कारण पूछा, तब उसने जो कुछ बताया, वह एकदम अप्रत्याशित था ।

अपने परिचय में युवक ने बताया कि उसका नाम अविनाश है और इन्टरमीड़िएट तक वह पूजा का सहपाठी रहा था । वह पूजा के पापा को भी भली-भाँति जानता है, क्योंकि वे उसके अंकल के पास प्रायः आते-जाते रहते थे । उसके अंकल यहीं पास वाली गली में रहते हैं, उन्हीं के पास रहकर उसने बारहवीं तक की पढ़ाई की थी । इस समय वह एक मल्टीनेशनल कम्पनी में कार्यरत है ।

पूजा के साथ उस समय वहाँ आने के कारण के विषय में अविनाश ने बताया बताया कि वह सुबह सवेरे कम्पनी के कार्य से शहर के बाहर जाने वाला था । अतः वह शीघ्र घर से निकला था । तभी अचानक उसकी दृष्टि एक स्त्री पर जाकर रुक गयी । इतने सवेरे किसी स्त्री को अकेली देखकर उसे शंका हुई कि सुनसान सड़क पर यह किसी दुर्घटना का शिकार तो नहीं है ? अथवा किसी अप्रिय घटना को अंजाम देने तो नहीं जा रही है ? यह सोचकर वह स्वयं को वहाँ जाने से नहीं रोक पाया और वहाँ पहुँचकर पूजा को पहचान लिया । अविनाश को अपनी ओर आते देखकर पूजा ने इस प्रकार अपनी दृष्टि फेर ली थी, जैसे उसने अविनाश को पहचाना ही न हो, किन्तु अविनाश के बार-बार स्मरण कराने पर वह उसे पहचानने से इनकार न कर सकी । अविनाश ने जब पूजा से इतने सवेरे उस सुनसान जगह पर होने का कारण पूछा, तो उसने कुछ नहीं बताया था । उसने मात्र इतना ही कहा था कि वह अपने घर जा रही है । पूजा के चेहरे तथा हाथों पर लगी चोट के काले-नीले चिह्न चीख-चीखकर बता रहे थे कि बात केवल इतनी नहीं थी, जितनी पूजा ने बतायी थी । इसलिए पूजा के मना करने पर भी वह आग्रह करके उसको यहाँ तक छोड़ने के लिए चला आया । अपनी बात समाप्त करके अविनाश शीघ्रतापूर्वक खड़ा हुआ और आज्ञा लेकर पूजा के घर से चला गया ।

अविनाश के जाने के पश्चात् पूजा ने अपनी माँ रमा को बताया कि वह अविनाश को बचपन से जानती है । उसने माँ को बताया कि जब वह बारहवीं कक्षा की छात्रा थी तब भी अविनाश ने एक बार उसकी सहायता की थी । तत्पश्चात पूजा ने अपने साथ घटित उस घटना का यथातथ्य वर्णन कर दिया, जब वर्षों पहले अविनाश ने उसकी सहायता की थी ।

अविनाश के विषय में बातें समाप्त करके रमा ने अपनी बेटी पूजा की उस दशा के विषय में बातें करना आरम्भ किया, जो उसके अंग-प्रत्यंग से प्रकट हो रही थी और उसके इस समय ऐसी दशा में अकेले मायके आने का कारण थी । उस समय तक कौशिक जी भी वहाँ पहुँच चुके थे । माता-पिता दोनों पूजा की उस दशा का कारण और उसकी परिस्थिति का यथातथ्य वर्णन सुनने-जानने के लिए व्याकुल थे, परन्तु पूजा मौन बैठी थी । कौशिक जी के अत्यधिक आग्रह करने पर पूजा ने अपनी परिस्थिति और ससुराल में अपने साथ हुए दुर्व्यवहारों का विस्तार से वर्णन न करके मात्र इतना ही कहा -

‘‘मैं उस घर को छोड़कर सदैव के लिए यहाँ आ गयी हूँ ! अब मैं कभी भी वहाँ नहीं जाना चाहती !’’

‘‘लेकिन बेटी, आखिर हुआ क्या है ? कुछ तो बताओ ।’’ रमा और कौशिक जी एक साथ बोल उठे ।

‘‘माँ, मैं जीना चाहती हूँ ! मैं मेरे बेटे को अनाथ नहीं करना चाहती, इसलिए यहाँ आयी हूँ ! वरना, मैं कभी इस प्रकार नहीं आती ! वहाँ रहकर मेरा जीवित रहना... !’’

‘‘पर बिटिया, अभी एक सप्ताह पहले तुम्हारा तो पत्र आया था कि तुम बिल्कुल ठीक हो और घर के हालात भी एकदम अच्छे हैं !’’ कौशिक जी ने कहा ।

‘‘वह सब झूठ था ! मैं नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से आपका सुख-चैन समाप्त हो जाए ! वैसे भी, मेरे वहाँ रहते हुए आप चिन्ता के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते ! पत्र में तो सदैव....!’’

पूजा ने बताया कि पत्र में वह सदैव ऐसी बातें लिखती थी, जो दोनों परिवारों में मधुर सम्बन्ध बनाने में सहायक हो सकें । उसमें वर्णित परिस्थिति वास्तविकता से कोसों दूर होती थी । अपनी दयनीय दशा के विषय में वह इसलिए भी नहीं लिखना चाहती थी, क्योंकि उसके पत्रों को रणवीर सदैव पढ़कर-जाँचकर ही प्रेषित करता था । यदि पूजा कुछ भी ऐसा लिखती, जो उसके परिवार वालों की छवि को मलिन करने वाला होता, तो न वह पूजा का पत्र प्रेषित करता तथा न ही उसके लिए आया हुआ पत्र उसके पास तक पहुँचने देता । पत्र में वास्तविक परिस्थिति की सूचना न देने के तर्क को सुनने के पश्चात् कौशिक जी ने पूजा से आग्रह किया कि वह अपनी वर्तमान दशा के विषय में विस्तार से बताए ! कौशिक जी के आग्रह करते ही यश, प्रेरणा और रमा की दृष्टि भी पूजा पर केन्द्रित हो गयी कि वह कुछ बोलेगी, परन्तु तभी रमा ने कहा -

‘‘हमारी बेटी अब उस नर्क से निकलकर आयी है, उसे कुछ देर आराम कर लेने दो ! धीरे-धीरे सब-कुछ बता देगी !’’

दोपहर में जब पूजा सबके साथ भोजन करने के लिए बैठी, तब उसने अपनी ससुराल में अपने साथ हुए उस दुर्व्यवहार के विषय में बताना आरम्भ किया, जिसे वह पिछले तीन वर्षो से सहन कर रही थी । पूजा ने बताया -

"प्रियांश के जन्म के बाद एक वर्ष तक सब-कुछ सामान्य-सा रहा था । उसके पश्चात् परिस्थितियाँ विषम से विषमतर होती चली गयी । रणवीर अपने व्यवसायिक कार्यों से बाहर जाने लगा और तीन-चार दिनों में एक बार घर आता था । वह प्रायः देर रात में घर आकर प्रातः शीघ्र घर से निकल जाता था । मैं उसके कार्य में अचानक आयी व्यस्तता के विषय में जानने का प्रयास करती थी तो वह क्रोधित होकर कहता था कि घर में बैठने के अतिरिक्त उसको बहुत-से महत्त्वपूर्ण कार्य हैं । यदि मैं उन महत्त्वपूर्ण कार्यों के विषय में जानने की हठ करती थी, तो रणवीर कटु वचनों से प्रहार करने के साथ ही उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी करना आरम्भ कर देता था । कभी-कभी तो मारपीट तक कर देता था । मुझे लगता था कि रणवीर अपने व्यवसाय से सम्बन्ध्ति किसी बात से तनाव में है, इसलिए उसके सभी अप्रिय-व्यवहारों को नजरअन्दाज करके प्रेमपूर्वक व्यवहार करती रहती थी । परन्तु रणवीर पर मेरी इस सौम्यता का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता था । उसके व्यवहार और अधिक नकारात्मक होते जा रहे थे । वह अपनी माँ की छोटी-से-छोटी शिकायत पर भी मेरे साथ मारपीट करने लगता था । सप्ताह में एक बार घर आना और आते ही मेरे साथ मार-पीट करना उसकी आदत बन गयी थी । जब वह घर आता था तब शराब के नशे में धुत रहता था, इसलिए स्वस्थचित से मेरे साथ संवाद नहीं कर सकता था और सुबह जब वह घर से निकलता था, तब मैं प्रायः रसोईघर के कार्यों में व्यस्त रहती थी, इसलिए चाहकर भी मैं अपने पति के साथ सम्भाषण नहीं कर पाती थी । रणवीर के जाने के पश्चात् उसकी माँ प्रायः मुझे इस बात का ताना देती थी -

‘‘जो स्त्री अपने पति को स्वयं से बाँधकर नहीं रख सकती, वह सर्वगुणसम्पन्न होते हुए भी गुणहीना और भाग्यहीना होती है ! जिस लड़की को उसका पति प्रेम न करे, उसको ससुराल में रहने का न तो कोई लाभ होता है और न कोई अधिकार होता है !’’

पूजा ने आगे बताया -

पिछले दिन शाम के समय मेरी सास ने मेरे चरित्र के विषय में अत्यन्त अप्रिय और अभद्र टिप्पणियाँ की थी, जिन्हें मैं सहन नहीं कर सकी और भावावेश में उसका प्रतिवाद कर दिया । दुर्भाग्यवश उसी समय वहाँ पर रणवीर आ पहुँचा और उसने मुझे पीटना आरम्भ कर दिया । रणवीर मुझे तब तक लात-घूँसों से पीटता रहा, जब तक कि मैं अचेत् न हो गयी । चेतना लौटने पर मैंने पाया कि मैं अपने बिस्तर पर पड़ी थी । उस समय मेरे सारे शरीर में असह्य पीड़ा हो रही थी और रणवीर सुख की नींद में खर्राटे-भर रहा था । मुझे बहुत तेज प्यास लगी थी, इसलिए मैं कमरे से बाहर पानी लेने के लिए आयी । बाहर आकर मैंने देखा, सभी गहरी नींद में सोये हुए थे । किसी को मेरे जीने-मरने की चिन्ता नहीं थी । पानी लेकर मैं अपने कमरे में आयी और पीकर बिस्तर पर लेट गयी । मेरे शरीर पर इतनी चोटें थीं कि दर्द से कराह उठी । मेरे बगल में निश्चिन्त होकर सो रहे पति के खर्राटों ने मेरी शारीरिक पीड़ा को मेरी मानसिक व्यथा में संक्रमित कर दिया था । अपने दुर्भाग्य से संघर्ष करते हुए मेरा तनाव और अधिक बढ़ने लगा । अपने प्रति किये गये अब तक के सभी अत्याचार और उपेक्षा किसी चलचित्र की भाँति याद आने लगे । ससुराल के अब तक के सारे कष्ट याद करके मुझे अपनी ससुराल के प्रति, ससुराल के प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी । घृणा के उसी वेग में मैंने घड़ी की ओर देखा, सुबह के दो बजे थे । मैंने उसी समय तुरन्त अपने पिता के घर जाने का निश्चय किया । मैं जानती थी, यदि वहाँ पर किसी की भी नींद टूट गयी, तो मायके जाना कठिन ही नहीं असम्भव हो जाएगा । फिर भी मैंने अपने और प्रियांश के कुछ कपड़े रखे और प्रियांश को अपनी गोद में उठाकर सबको निद्रा-सुख में डूबा हुआ छोड़कर धीमें कदमों से शीघ्रातिशीघ्र वहाँ से निकल पड़ी

मैं घर से सड़क तक पैदल चलकर आयी थी और सड़क पर खड़ी होकर किसी वाहन के आने की प्रतीक्षा कर रही थी । तभी मेरे पास एक गाड़ी आकर रुक गयी । सड़क सुनसान थी और अभी तक थोड़ा-सा अंधेरा भी था । बिना किसी संकेत के पास आकर गाड़ी रुकने से मैं भयभीत-सी हुई थी, इसलिए वहाँ से दूसरी ओर, विपरीत दिशा में चल पड़ी । गाड़ी से उतरकर अविनाश तेज कदमों से मेरी ओर चलता हुआ मेरा नाम सम्बोध्ति करके पुकारने लगा । अपना नाम सुनकर मुझे शंका होने लगी कि अवश्य ही वह व्यक्ति मेरी ससुराल वालों ने भेजा हो सकता है । परन्तु, अगले ही क्षण अविनाश मेरे समक्ष अकार खड़ा हो गया । उसने मुझे पहचान लिया था । उसने मुझसे अंधेरी सुनसान सड़क पर खड़े होने का कारण पूछा, तो मैंने उसके प्रश्न को अनसुना कर दिया । अविनाश के अत्यधिक आग्रह करने पर भी जब मैंने वहाँ खड़े होने का कारण नहीं बताया, तो अविनाश ने मुझसे गाड़ी में बैठने का आग्रह किया । मेरे बहुत मना करने पर भी अविनाश ने आग्रहपूर्वक मुझे अपनी गाड़ी में बिठा लिया और घर छोड़ने के लिए चल दिया । यद्यपि रास्ते में अविनाश ने मुझसे कोई बात नहीं की थी, तथापि उसको मेरी परिस्थितियों की विषमता का पूरा आभास हो चुका था । शायद इसीलिए मुझे उस निर्जन सड़क पर छोडना उसे उचित नहीं लगा था और अपना महत्त्वपूर्ण कार्य छोड़कर मुझे सुरक्षित स्थान पर अर्थात् मेरे घर पर छोड़ने के लिए चला आया था !"

पूजा के तीन वर्षों के कंटकाकीर्ण जीवन की आपबीती सुनकर घर के सभी लोग व्यथित थे । इसके साथ ही वे हैरानी और गर्व का अुनभव भी कर रहे थे कि इतने लम्बे समय तक वह अकेली ही अति कष्टप्रद और विषम से विषमतर होती हुई परिस्थितियों से संघर्ष करती रही । उसने किसी को उस पीड़ा का आभास तक नहीं होने दिया, जिसको वह उस नर्क से बदतर ससुराल में सहन करती रही थी । यश अपनी बहन पूजा की चोटिल दशा को देखकर क्रोधित हो रहा था । उसने कौशिक जी से कहा कि वे पूजा की राजकीय अस्पताल में जाँच कराके, रणवीर के और उसके परिवार के विरुद्ध पुलिस थाने शिकायत लिखा दें । वह चाहता था कि वे तब तक चैन से न बैठें जब तक कि रणवीर को उसके किये का दण्ड न दिला दें, किन्तु कौशिक जी ने बेटे को समझा-बुझाकर शान्त कर लिया । रमा ने कौशिक जी से आग्रह किया कि वे जानने-पहचानने वाले कुछ बुद्धिजीवी सम्बन्धियों को लेकर रणवीर के घर जाएँ और उसको उसके अनुचित आचरण का अहसास कराएँ !कौशिक जी ने किसी की बात को महत्त्व नहीं दिया । उन्होंने न तो थाने में रणवीर की शिकायत की और न ही तत्काल किसी संबंधी को लेकर रणवीर को समझाने के लिए उसके घर पर गये । उन्होंने अपनी बेटी पूजा के हितार्थ मात्र यह किया कि अपने परिवार को एक विवेकपूर्ण निर्देश देते हुए कहा -

‘‘यह घर पूजा का था, है, और सदैव ही रहेगा । वह जब तक, जैसे चाहेगी, यहाँ रहेगी और उसके विषय में कुछ भी निर्णय लेने का अधिकार केवल उसी को है । उसके अतिरिक्त अन्य किसी को यह अधिकार नहीं है । अन्य सभी उसके निर्णय में केवल सहयोग करेंगे । अब पूजा ने यहाँ रहने का निर्णय लिया है, तो परिवार में सबका कर्तव्य है कि कोई ऐसा कार्य न करें, जिससे पूजा को कष्ट और तनाव हो !’’

कौशिक जी ने सख्त हिदायत दी थी कि उनके आदेशों-निर्देशों का पालन सभी लोग अनिवार्य रूप से करें । उनके आदेशानुसार परिवार के सभी व्यक्ति पूजा का विशेष ध्यान रखते थे, ताकि उसको कोई कष्ट न होने पाए । सभी पूजा को पहले की भाँति स्नेह भी करते थेेे, किन्तु पूजा फिर भी प्रसन्न नहीं रहती थी । ऐसा प्रतीत होता था कि वह अपने निर्णय को लेकर किसी अन्तर्द्वन्द्व में है । वह ससुराल के कष्टों से मुक्त होकर प्रसन्न थी, परन्तु अब उसको अपना निर्णय सामाजिक-व्यवस्था के प्रतिकूल होने के कारण अविवेकपूर्ण और आवेशयुक्त प्रतीत होता था । पूजा की इस ऊहापोहग्रस्त स्थिति को देखकर प्रेरणा ने निश्चय किया कि अवसर मिलते ही वह पूजा के अन्तःकरण में चलने वाले द्वन्द्व के विषय में उसके साथ अवश्य बातें करेगी और सम्भव हो सका तो दोनों बहनें मिलकर उस समस्या का समाधन ढूँढ निकालेंगी, जो उसको अत्याचारों से मुक्त होने पर भी चिन्तामुक्त नहीं रहने देती है ।

डॉ. कविता त्यागी

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