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देस बिराना - 28

देस बिराना

किस्त अठाइस

धीरे धीरे अंधेरे में उनकी आवाज उभरती है।

- मेरा घर का नाम निक्की है। तुम भी मुझे इस नाम से बुला सकते हो। जब से यहां आयी हूं, किसी ने भी मुझे इस नाम से नहीं पुकारा। एक बार मुझे निक्की कह कर बुलाओ प्लीज़ ..

मैं बारी-बारी उनके दोनों कानों में हौले से निक्की कहता हूं और उनके दोनों कान चूम लेता हूं। निक्की खुश हो कर मेरे होंठ चूम लेती है।

- हां तो मैं अपने बचपन के बारे में बता रही थी।

- मेरे बचपन का ज्यादातर हिस्सा गुरदासपुर में बीता। पापा आर्मी में थे इसलिए कई शहरों में आना-जाना तो हुआ लेकिन हमारा हैडक्वार्टर गुरदासपुर ही रहा। मैं मां-बाप की इकलौती संतान हूं। मेरा बचपन बहुत ही शानदार तरीके से बीता लेकिन अभी आठवीं स्कूल में ही थी कि पापा नहीं रहे। हम पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। हम जिस लाइफ स्टाइल के आदी थे, रातों-रात हमसे छीन ली गयी। मज़बूरन मम्मी को जॉब की तलाश में घर से बाहर निकलना पड़ा। मम्मी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थीं इसलिए भी परेशानियां ज्यादा हुईं। लेकिन वे बहुत हिम्मत वाली औरत थीं इसलिए सबकुछ संभाल ले गयीं। हालांकि मेरी पढ़ाई तो पूरी हुई लेकिन हम लगातार दबावों में रहने को मजबूर थे। ये दबाव आर्थिक भी थे और मानसिक भी। ये मम्मी की हिम्मत थी कि हमारी हर मुश्किल का वे कोई न कोई हल ढूंढ ही लेती थी। उसने मुझे कभी महसूस ही न होने दिया कि मेरे सिर पर पापा का साया नहीं है। वही मेरे लिए मम्मी और पापा दोनों की भूमिका बखूबी निभाती रही।

और उन्हीं दिनों मेरी ये समस्या शुरू हुई। वैसे तो मुझे पीरियड्स शुरू होने के समय से ही लगने लगा था कि मेरी ब्रेस्ट्स का आकार कुछ ज्यादा ही तेजी से बढ़ रहा है लेकिन एक तो वो खाने-पीने की उम्र थी और दूसरे शरीर हर तरह के चेंजेस से गुजर रहा था इसलिए ज्यादा परवाह नहीं की थी लेकिन सोलह-सत्रह तक पहुंचते पहुंचते तो यह हालत हो गयी थी कि मैं देखने में एक भरपूर औरत की तरह लगने लगी थी। कद काठी तो तुम्हारे सामने ही है। समस्या यह थी कि ये आकार में बढ़ते ही जाते। हर पद्रह दिन में ब्रेज़री छोटी पड़ जाती। मुझे बहुत शरम आती। सारा तामझाम खर्चीला तो था ही, मुझे आकवर्ड पोजीशन में भी डाल रहा था। मम्मी ने जब मेरी यह हालत देखी तो डॉक्टर के पास ले गयी। मम्मी ने शक की निगाह से देखते हुए पूछा भी कि कहीं मैं गलत लड़कों की संगत में तो नहीं पड़ गयी हूं।

डाक्टर ने अच्छी तरह से मेरा मुआइना किया था और हँसते हुए कहा था - दूसरी लड़कियां इन्हें बड़ा करने के तरीके पूछने आती हैं और तुम इन्हें बढ़ता देख परेशान हो रही हो। गो, रिलैक्स एंड एंजाय। कुछ नहीं है, सिर्फ हार्मोन की साइकिल के डिस्टर्ब हो जाने के कारण ऐसा हो रहा है। तुम बिलकुल नार्मल हो।

लेकिन न मैं नार्मल हो पा रही थी, और न एंजाय ही कर पा रही थी। मेरी हालत खराब थी। सहेलियां तो मुझ पर हँसती ही थीं, कई बार टीचर्स भी हँसी मजाक करने से बाज़ नहीं आती थीं। मोहल्ले की भाभी और दीदीनुमा शादीशुदा लड़कियां मज़ाक-मज़ाक में पूछतीं - ज़रा हमें भी बताओ, कौन से तेल से मालिश करती हो।

मेरी हालत खराब थी। मैं कितना भी सीना ढक कर चलती, मोटे, डार्क कपड़े के दुपट्टे सिलवाती और बहुत एहतियात से ओढ़ती लेकिन गली-मौहल्ले के दुष्ट लड़कों की पैनी निगाह से भला कैसे बच पाती..। आते जाते उनके घटिया जुमले-सुनने पड़ते।

मुझे अपने आप पर रोना आता कि मैं सारी ज़िंदगी किस तरह इनका बोझ उठा पाऊंगी!! वैसे देखने में इनकी शेप बहुत ही शानदार थी और नहाते समय मैं इन्हें देख-देख कर खुद भी मुग्ध होती रहती, लेकिन घर से निकलते ही मेरी हालत खराब होने लगती। तन को छेदती लोगों की नंगी निगाहें, अश्लील जुमले और मेरी खुद की हालत। बीएससी करते-करते तो मेरी यह हालत हो गयी थी कि मैं ब्रेजरी के किसी भी साइज की सीमा से बाहर जा चुकी थी। मम्मी बाजार से सबसे बड़ा साइज ला कर किसी तरह से जोड़-तोड़ कर मेरे लिए गुज़ारे लायक ब्रेज़री बना कर देती। मम्मी भी मेरी वजह से अलग परेशान रहती कि मैं यह खज़ाना उठाये-उठाये कहां भटकूंगी!! पता नहीं, कैसी ससुराल मिले और कैसा पति मिले।

बदकिस्मती से न तो ससुराल ही ऐसी मिली और न पति ही कद्रदान मिला।

जिन दिनों बलविन्दर से मेरी शादी की बात चली, तब वह यहीं लंदन से ख़ास तौर पर शादी करने के लिए इंडिया आया हुआ था। वे लोग मेरठ के रहने वाले थे। हमें बताया गया था कि बलविन्दर का लंदन में इंडियन हैंडीक्राफ्ट्स का अपना कारोबार है। मिडलसैक्स में उसका अपना अपार्टमेंट है, कार है और ढेर सारा पैसा है। वे लोग किसी छोटे परिवार में रिश्ता करना चाहते थे जहां लड़की पढ़ी-लिखी हो ताकि पति के कारोबार में हाथ बंटा सके और बाद में चाहे तो अपने परिवार को भी अपने पास लंदन बुलवा सके। बलविन्दर देखने में अच्छा-ख़ासा स्मार्ट था और बातचीत में भी काफी तेज़ था। जिस वक्त हमारे रिश्ते की बातचीत चल रही थी तो हमें बलविन्दर के, उसके गुणों के, कारोबार के और खानदान के बहुत ही शानदार सब्जबाग दिखाये गये थे। हमारे पास न तो ज्यादा पड़ताल करने का कोई ज़रिया था और न ही वे लोग इसका कोई मौका ही दे रहे थे। वे तो सगाई के दिन ही शादी करने के मूड में थे कि वहां उसके कारोबार का हर्जा हो रहा है। मेरी मम्मी के हाथ-पांव फूल गये थे कि हम इतनी जल्दीबाजी में सारी तैयारियां कैसे कर पायेंगे। इससे भी हमें बलविन्दर ने ही उबारा था।

एक दिन उसका फोन आया था। उसने मम्मी को अपनी चाशनीपगी भाषा में बताया था कि मालविका के लिए किसी भी तरह के दहेज की जरूरत नहीं है। लंदन में उसके पास सब कुछ है। बहुत बड़ी पार्टी-वार्टी देने की भी जरूरत नहीं है। वे लोग पांच आदमी लेकर डोली लेने आ जायेंगे, किसी भी तरह की टीम-टाम की भी ज़रूरत नहीं हैं।

मम्मी ने अपनी मज़बूरी जतलायी थी - इतनी बड़ी बिरादरी है। लोग क्या कहेंगे बिन बाप की बेटी को पहने कपड़ों में विदा कर दिया। तब रास्ता भी बलविन्दर ने ही सुझाया था - तब ऐसा कीजिये मम्मी जी, कि आप लोग शादी के बाद एक छोटी-सी पार्टी तो रख ही लीजिये, बाकी आप मालविका को उसका घर-संसार बसाने के लिए जो कुछ भी देना चाहती हैं, उसका एक ड्राफ्ट बनवा कर उसे दे देना। वही उसका स्त्रीधन रहेगा और उसी के पास रहेगा। मेरे पास सब कुछ है। आपके आशीर्वाद के सिवाय कुछ भी नहीं चाहिये।

मम्मी बेचारी अकेली और सीधी सादी औरत। उसकी झांसापट्टी में आ गयी। उसके बाद तो यह हालत हो गयी कि हर दूसरे दिन उसका फोन आ जाता और वह मम्मी को एक नयी पट्टी पढ़ा देता। मम्मी खुश कि देखो कितना अच्छा दामाद मिला है कि जो इस घर की भी पूरी जिम्मेवारी संभाल रहा है। इन दिनों वही उनका सगा हो गया था। उसने अपने शालीन व्यवहार से हमारा मन जीत लिया था।

मेरी ससुराल वाले बहुत खुश थे कि उनके घर में इतनी सुंदर और पढ़ी लिखी बहू आयी है। शादी से पहले ही यह खबर पूरे ससुराल में फैल चुकी थी कि आने वाली बहू के एसेट्स कुछ ज्यादा ही वज़नदार हैं। औरतों और लड़कियों का मेरे पास किसी न किसी बहाने से आना तो फिर भी चल जाता था, लेकिन जब गली मुहल्ले के हर तरह के लड़के और जवान रिश्तेदार बार-बार बलविन्दर के पास किसी न किसी बहाने से आकर मेरे एसेट्स की एक झलक तक पाने के लिए आसपास मंडराते रहते तो हम दोनों को बहुत खराब लगता। वैसे बलविन्दर मन ही मन बहुत खुश था कि उसकी बीवी इतनी अच्छी है कि उसे किसी न किसी बहाने से देखने के लिए सारा दिन सारा दोस्तों का जमघट लगा ही रहता है। शुरू के कई दिन तो गहमा गहमी में बीत गये। सारा दिन मेहमानों के आने जाने में दिन का पता ही नहीं चलता था। लेकिन तीन चार दिन बाद जब हम हनीमून पर गये तो वहां बलविन्दर की खुशी देखते ही बनती थी। उसके हिसाब से उन दिनों उस हिल स्टेशन पर जितने भी हनीमून वाले जोड़े घूम रहे थे, उन सबसे खूबसूरत मैं ही थी। मुझे देखने के लिए राह चलते लोग एक बार तो जरूर ही ठिठक कर खड़े हो जाते थे। मुझे भी तसल्ली हुई थी कि चलो, मेरी एक बहुत बड़ी समस्या सुलझ गयी। कम से कम इस फ्रंट पर तो कॉम्पलैक्स पालने की जरूरत नहीं है।

रात को बलविन्दर मेरी फिगर की बहुत तारीफ करता। मेरे पूरे बदन को चूमता, मेरे उरोजों को चूमता, सहलाता और अपने हाथों में भरने की कोशिश करता। सारा दिन होटल में हम दोनों प्रेम के गहरे सागर में गोते लगाते रहते।

हनीमून से लौट कर भी उसके स्नेह में कोई कमी नहीं आयी थी। अलबत्ता, बलविन्दर के घर आने वाले लोगों की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। लोग किसी न किसी बहाने से मेरे एसेट्स की एक झलक पाने के लिए मौके तलाशते, घूर घूर कर देखते। मेरी ननंदें, जिठानियां और आस पास की भाभियां वगैरह भी वही सवाल पूछतीं, जो पिछले आठ सालों से मुझसे तरह तरह से पूछे जा रहे थे। कुल मिला कर अपने नये जीवन की इतनी शानदार शुरूआत से मैं बहुत खुश थी। मैं मम्मी को फोन पर अपने समाचार देती और उन्हें बताती कि मेरी ससुराल कितनी अच्छी है।

लेकिन सच्चाई बहुत ही जल्दी अपने असली रंग दिखाने लगी थी। बलविन्दर ने घर पर यह नहीं बताया था कि उसने खुद ही दहेज के लिए मना किया है और उसके बजाये मां से मेरे नाम पर पांच लाख का ड्राफ्ट हासिल कर रखा है। मां ने अपनी ज़िंदगी भर की बचत ही उसे सौंप दी थी। बाकी जो बचा था, वह मेरे कपड़े गहनों पर खर्च कर दिया था। बेशक मेरे रूप और गुणों के, मेरे लाये कीमती कपड़ों और गहनों के गुणगान दो चार दिन तक ऊंचे स्वर में किये जाते रहे लेकिन जल्दी ही दहेज के नाम पर कुछ भी न पाने का मलाल उनसे मेरी और मेरे परिवार की बुराइयां कराने लगा। मैं नयी थी और अकेली थी, सबके मुंह कैसे बंद करती। एक-आध बार मैंने बलविन्दर से कहा भी कि तुम कम से कम अपने मां-बाप को तो बता सकते हो कि तुम खुद ही दहेज के लिए मना कर आये थे और उसके बदले नकद पैसे ले आये हो तो वह हंस कर टाल गया - ये मूरख लोग ठहरे। इनकी बातें सुनती रहो और करो वही जो तुम्हें अच्छा लगता है। इन्हें और कोई तो काम है नहीं।

बलविन्दर ने शादी के एक हफ्ते के भीतर ही एक ज्वांइट खाता खुलवाया था और मुझे दहेज के नाम पर मिला पांच लाख का ड्राफ्ट जमा करा दिया गया था। बलविन्दर ने मुझे उस खाते का नम्बर देने का ज़रूरत ही नहीं समझी थी और न चेक बुक वगैरह ही दी थी। मुझे खराब तो लगा था लेकिन मैं चुप रह गयी थी। शादी के एक हफ्ते के अंदर पति पर अविश्वास करने की यह कोई बहुत बड़ी वज़ह नहीं थी।

बलविन्दर शादी के एक महीने तक वहीं रहा था और लंदन की अपनी योजनाएं मुझे समझाता रहा था। उसने बताया था कि अपनी एक बुआ के ज़रिये पांच साल पहले लंदन पहुंचा था और सिर्फ पांच बरसों में ही उसने अपना खुद का अच्छा-ख़ासा कारोबार खड़ा कर लिया है। मेरे पासपोर्ट के लिए एप्लाई करा दिया गया था और बलविन्दर वहां पहुंचते ही मुझे वहीं बुलवा लेने की कोशिश करने वाला था।

लंदन के लिए विदा होने से पहले वाली रात वह बहुत ही भावुक हो गया था और कहने लगा था - तुम्हें यहां अकेले छोड़ कर जाने का जरा भी मन नहीं है, लेकिन क्या किया जाये। ट्रेवल डौक्यूमेंट्स की फार्मैलिटी तो पूरी करनी ही पड़ेगी।

उसके जाते ही मेरे सामने कई तरह की परेशानियां आ खड़ी ह़ुई थीं। मुझे दहेज में कुछ भी न लाने के लिए ससुराल वालों ने सताना शुरू कर दिया कि मैं कैसी कंगली आयी हूं कि सामान के नाम पर एक सुई तक नही लायी हूं। मुझे बहुत खराब लगा। बलविन्दर ने खुद ही तो कहा था कि उन्हें सामान नहीं चाहिये। आखिर जब पानी सिर के ऊपर से जाने लगा तो मुझे भी अपना मुंह खोलना ही पड़ा - आप ही का संदेश ले कर तो बलविन्दर मम्मी के पास गया था कि हमें कुछ भी नहीं चाहिये और जो कुछ भी देना है वह ड्राफ्ट के जरिये दे दिया जाये। लेकिन वहां तो मेरी बात सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं था। जब मैंने ज्वांइट खाते में जमा कराये गये पांच लाख के ड्राफ्ट की बात की तो दूसरी ही सच्चाइयां मेरे सामने आने लगी थीं। हमारा खाता धो पोंछ कर साफ किया जा चुका था। उसने मेरी जानकारी के बिना मेरे ड्राफ्ट के पूरे पैसे निकलवा लिये थे और मुझे हवा तक नहीं लगने दी थी कि वह खाता बिलकुल साफ करके जा रहा है। यह तो बाद में पता चला था कि उसने उन में से आधे पैसे तो अपने घर वालों को दे दिये थे और बाकी अपने पास रख लिये थे। उसने अपने घर वालों के साथ यही झूठ बोला कि वह ये पैसे लंदन से कमा कर लाया था और शादी में खर्च करने के बाद जो कुछ भी बचा है, वह दे कर जा रहा है। वह हमारे पैसों के बल पर अपने घर में अपनी शानदार इमेज बना कर मुझे न केवल कंगला बना गया था बल्कि हम लोगों को सुनाने के लिए अपने घर वालो को एक स्थायी किस्सा भी दे गया था। मेरे तो जैसे पैरों के तले से जमीन ही खिसक गयी थी। मम्मी को यह बात नहीं बतायी जा सकती थी। अब तो मेरे सामने यह संकट भी मंडराने लगा था कि पता नहीं बलविन्दर लंदन गया भी है या नहीं और मुझे कभी बुलवायेगा भी या नहीं। मैं अजीब दुविधा में फंस गयी थी। कहती किसे कि मैं कैसी भंवर में फंस गयी हूं। इतना बड़ा धोखा कर गया था बलविन्दर मेरे साथ। उसे अगर मेरे पैसों की ज़रूरत थी भी तो कम से कम मुझे बता तो देता। मम्मी ने ये पैसे हमारे लिए ही तो दिये थे। वक्त पड़ने पर हमारे ही काम आने थे। बलविन्दर जाते समय न तो वहां का पता दे गया था और न ही कोई फोन नम्बर ही। यही कह गया था कि पहुंचते ही अपना अपार्टमेंट बदलने वाला है। शिफ्ट करते ही अपना नया पता दे देगा। उसने अपनी पहुंच का पत्र भी पूरे एक महीने बाद दिया था। मैं बता नहीं सकती कि यह वक्त मेरे लिए कितना मुश्किल गुजरा था। ससुराल में तो बलविन्दर के जाते ही सबकी आंखें पलट गयी थीं और सब की नजरों में मैं ही दोषी थी, हालांकि घर पर आने वाले ऐसे मेहमानों की कोई कमी नहीं थी जो आ कर पूछते कि मुझे बलविन्दर के बिना कोई तकलीफ तो नहीं है। मैं सब समझती थी लेकिन कर ही क्या सकती थी। बलविन्दर ने महीने भर बाद भेजे अपने पहले खत में लिखा था कि वह यहां आते ही अपने बिजिनेस की कुछ परेशानियों में फंस गया है और अभी मुझे जल्दी नहीं बुलवा पायेगा।

उसने जो पता दिया था वह किसी के केयर ऑफ था। उसने जो पत्र मुझे लिखा था उसमें बहुत ही भावुक भाषा का प्रयोग करते हुए अफ़सोस जाहिर किया था कि वह मेरे बिना बहुत अकेलापन महसूस करता है लेकिन चाह कर भी मुझे जल्दी बुलवाने के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहा है।

इस पत्र में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे मुझे तसल्ली मिलती। पता मिल जाने के बाद सिर्फ एक ही रास्ता यह खुला था कि मैं उससे पूछ सकती थी कि आखिर उसने मेरे साथ ऐसा धोखा क्यों किया कि मेरे पास मेरे पांच लाख रुपयों में से एक हजार रुपये भी नहीं छोड़े कि मैं अपनी दिन प्रतिदिन की शापिंग ही कर सकूं। मैंने उसे एक कड़ा पत्र लिखा था कि उसके इस व्यवहार से मुझे कितनी तकलीफ पहुंची है।

मैंने उसे लिखा था कि मैं उसके सुख दुख में हमेशा उसके साथ रहूंगी लेकिन उसे ऐसा नहीं करना चाहिये था कि अपने परिवार की नज़रों में मेरी इमेज इतनी खराब हो।

एक महीने तक उसका कोई जवाब नहीं आया था। मेरे पास इस बात का कोई जरिया नहीं था कि मैं बलविन्दर से सम्पर्क कर पाती। मैं मम्मी के पास जाना चाहती थी ताकि कुछ वक्त उनके साथ गुजार सकूं लेकिन रोज़ाना बलविन्दर के ख़त के इंतज़ार में मैं अटकी रह जाती थी।

उसके पत्र के इंतज़ार में मुझे बहुत लम्बा लम्बा अरसा गुज़ारना पड़ रहा था। इधर मेरी ससुराल वालों के ताने और जली कटी बातें। मैं अकेली पड़ जाती और. जवाब नहीं दे पाती थी। एक तो वहां करने धरने के लिए कुछ नहीं होता था और दूसरे बलविन्दर की नीयत का कुछ पता नहीं चल पा रहा था। पूरे दो महीने के लम्बे इंतज़ार के बाद उसका चार लाइनों का पत्र आया था। उसने इस बात पर गहरा अफ़सोस जाहिर किया था कि वह अपने बिजिनेस की परेशानियों के चक्कर में मुझे उन पैसों की बाबत नहीं बता सका था। उसने लिखा था कि मुझे बिना बताये उसे ये पैसे निकलवाने पड़े। उसने लिखा था कि दिल्ली की ही एक पार्टी से पिछला कुछ लेन देन बकाया था। जब मैं उसके पास अगला सामान बुक कराने गया तो उसने साफ मना कर दिया कि जब तक पिछले भुगतान नहीं हो जाते, आगे कुछ भी नहीं मिलेगा। मेरे सामने संकट था कि उसके सामान के बिना दुकान चलानी मुश्किल हो जाती। मजबूरन तुम्हारे खाते में से उसे चैक दे देना पड़ा। मैने इस बारे में तुम्हें इसलिए नहीं लिखा कि यहां आते ही मैं बिजिनेस संभलते ही इनका इंतज़ाम करके तुम्हारे खाते में वापिस जमा करा देने वाला था। तुम्हें पता ही न चलता और खाते में पैसे वापिस जमा हो जाते, लेकिन स्थितियां हैं कि नियंत्रण में ही नहीं आ पा रही हैं।

इस बार भी उसने केयर ऑफ का ही पता दिया था।

बेशक यह चिट्ठी मेरी ससुराल वालों की निगाह में मुझे इस इल्ज़ाम से बरी करती थी कि मैं कंगली नहीं आयी थी और मेरे लाये पांच लाख रुपये आड़े वक्त में बलविन्दर के ही काम आ रहे हैं। लेकिन पता नहीं मेरी ससुराल वाले किस मिट्टी के बने हुए थे कि मुझे इस इल्ज़ाम से बरी करने के बजाये दूसरे और ज्यादा गंभीर इल्जाम से घेर लिया - कैसी कुलच्छनी आयी है कि आते ही महीने भर के भीतर हमारे बलविन्दर का चला चलाया बिजिनेस चला गया। पता नहीं, परदेस में कैसे अकेले संभाल रहा होगा। देखो बिचारे ने पता भी तो अपने किसी दोस्त का दिया है। पता नहीं बेचारे का अपना घर भी बचा है या नहीं।

अब मेरे लिए हालत यह हो गयी थी कि न कहते बनता था न रहते। मैं चारों तरफ से घिर गयी थी। मेरा सबसे बड़ा संकट यही था कि कहीं मम्मी को ये सारी बातें पता न चल जायें। वे बिचारी तो कही की न रहेंगी। उन्हें ये सब बताने का मतलब होता, उन्हें अपनी ही निगाहों में छोटा बनाना, जो मैं किसी भी कीमत पर नहीं कर सकती थी।

अब मेरे पास एक ही उपाय बचता था कि मैं ससुराल की जली-कटी बातों से बचने के लिए कुछ दिनों के लिए मम्मी के पास लौट आऊं और लंदन में स्थितियों के सुधरने का इंतज़ार करूं।

मैंने बलविन्दर का हौसला बढ़ाते हुए उसे एक लम्बा पत्र लिखा। मैं उसे अपने प्रति उसके घर वालों के व्यवहार के बारे में लिख कर और परेशान नहीं करना चाहती थी। मुझे यह भी पता नहीं था कि उसके घर वाले उसे मेरे बारे में क्या क्या लिखते रहे हैं। मैंने उसे लिखा कि वह अपना ख्याल रखे और मेरी बिलकुल भी चिंता न करे और कि मैं लंदन में उसकी स्थिति सुधरने तक अपनी मम्मी के पास ही रहना चाहूंगी। वह अगला पत्र मुझे मम्मी के पते पर ही लिखे।

और तब मैं मम्मी के घर लौट आयी थी।

यह लौटना हमेशा के लिए लौटना था।

मम्मी को यह समझाना बहुत ही आसान था कि बलविन्दर जब तक मेरे ट्रेवल डॉक्यूमेंट्स तैयार करा के नहीं भेज देता, मैं उन्हीं के पास रहना चाहूंगी। मम्मी को इस बात से खुशी ही होनी थी कि ससुराल में अकेले पड़े रहने के बजाये मैं इंडिया में अपना बाकी समय उनके साथ गुजार रही हूं। मम्मी को न तो मैंने पैसों की बाबत कुछ बताया था और न ही ससुराल में अपने प्रति व्यवहार के बारे में ही। बेकार में ही उन्हें परेशान करने का कोई मतलब नहीं था। मैंने अपना वक्त गुज़ारने के लिए योगा क्लासेस ज्वाइन कर लीं। इससे वक्त तो ठीक-ठाक गुज़र जाता था साथ ही अपनी सेहत को ठीक रखने का ज़रिया भी मिल गया था। जीवन के कुछ अर्थ भी मिलने लगे थे।

इस पूरे वक्त के दौरान मेरे पास बलविन्दर के गिने चुने पत्र ही आये थे। उनमें वही या उस से मिलती-जुलती दूसरी समस्याओं के बारे में लिखा होता। मैं उसके हर अगले पत्र के साथ सोच में डूब जाती कि आखिर इन समस्याओं का कहीं अंत भी होगा या नहीं और मैं कब तक उसके महीने दो महीने के अंतराल पर आने वाले ख़तों के इंतजार में अपनी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत दौर यूं ही गंवाती रहूंगी।

उसे गये छः महीने होने को आये थे और अभी तक उम्मीद की एक किरण भी कहीं नज़र नहीं आ रही थी। उधर मेरे ससुराल वाले मुझे पूरी तरफ भुला बैठे थे। मैं योगाभ्यास का कोर्स पूरा कर चुकी थी। वक्त काटने की नीयत से मैंने तब योगा टीचर की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी। साथ ही साथ नेचुरोपैथी का भी कोर्स ज्वाइन कर लिया। वैसे योगाभ्यास से एक फ़ायदा जरूर हुआ था कि अब मैं झल्लाती या भड़कती नहीं थी और धैर्य से इंतजार करती रहती थी कि जो भी होता है अगर मेरे बस में नहीं है तो वैसा ही होने दो। मेरा शरीर भी योगाभ्यास से थोड़ा और निखर आया था। इस बीच मेरा पासपोर्ट बन कर आ गया था। मैंने इसकी इत्तला बलविन्दर को दे दी थी लेकिन उसका कोई जवाब ही नहीं आ रहा था। मैं इधर परेशान होने के बावजूद कुछ भी नहीं कर पा रही थी। मेरे पास उससे सम्पर्क करने का कोई ज़रिया ही नहीं था।

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