Kabhi Alvida Naa Kehna - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

कभी अलविदा न कहना - 8

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

8

आज मैं जानबूझकर देर तक बिस्तर पर पड़ी रही। सुना था जिंदगी के कई रंग होते हैं, किन्तु इस तरह जल्दी जल्दी रोज एक नया रंग दिखेगा, मैंने कल्पना में भी नहीं सोचा था। आज मैं घड़ी की टिक टिक और दिल की धक धक दोनों को ही अनसुना कर रही थी। नौकरी करने घर से बाहर निकलने पर नये अनुभव लेने को तैयार थी, परन्तु जिंदगी की इन उघड़ती परतों को देख असमंजस में थी।

"मम्मी! दीदी को जगाऊँ? उसे लेट नहीं हो जाएगा आज.." अंशु की फुसफुसाहट कान में पड़ी।

"नहीं बेटा! वो परेशान है काफी, सोने दे उसे, एक दिन कॉलेज नहीं जाएगी तो आफत नहीं आ जाएगी।" मम्मी कितना सोचती हैं मेरे लिए... आज कॉलेज जाने का मन नहीं था। दरअसल मैं सुनील को अवॉयड करना चाह रही थी। कैसे मिलूँगी उससे? क्या बात करूँगी? पहले ही उस शिफा की वजह से दिमाग खराब था और अब ये अशोक... 'जी' लगाने का भी मन नहीं हुआ। कैसे कोई किसी की भावनाओं को चोट पहुँचा सकता है? कल बैंक में भी मैं उखड़ी उखड़ी ही रही थी। बैंक से याद आया कि आज कॉलेज में अकॉउंट नम्बर देना है।

"ओह! आज इतनी देर हो गयी, मम्मी.. अंशु.. मुझे उठाया क्यों नहीं...?" मैं चिल्लाते हुए बाथरूम में घुस गयी। फटाफट तैयार हुई। आज अलका दी स्कूटर ले तैयार खड़ी थीं मुझे बस स्टैंड छोड़ने के लिए...

"देख विशु! अच्छी तरह सोच समझ कर फैसला करना.. घर परिवार अच्छा है और अशोक जी में भी कोई बुराई नहीं है... रिश्ता मेरे लिए आया था, नकारने की सिर्फ ये वजह गैरवाजिब है.. सुन समझ रही है न मेरी बात.. मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लगेगा..."

"दीदी! क्या यही बात करने के लिए आज आप मुझे ड्राप करने आयीं हैं?"

"ईमानदारी से कहूँ तो सिर्फ ये वजह नहीं है.."

"फिर....."

"दरअसल... अशोक मुझे भी बोरिंग लगा था, किन्तु इतनी बार नकारे जाने का दर्द महसूस किया है मैंने... और फिर मम्मी पापा की ओर देखती हूँ तो लगता है कि किसी तरह उनके सिर से जिम्मेदारी का बोझ उतर जाए.. मैं ग्रेजुएशन कम्पलीट कर तीन साल से शादी के इंतज़ार में घर बैठी हूँ... तू उम्र में मुझसे सिर्फ दस महीने छोटी है, पर जिंदगी में बहुत आगे निकल गयी है... और फिर उस दिन तूने नोट किया था कि सुनील ने मेरे सूट के रंग को देखकर क्या कहा था... उसकी और मेरी होबिज़ भी मिलती हैं और............."

"और क्या दीदी....?" इस एक पल में मुझे लगा था कि मेरा दिल उछलकर बाहर न आ जाए।

"बस स्टार्ट हो गयी, तू जा शाम को बात करते है और हाँ सुनील से जो बात हो बताना... चल बाई..." बस रेंगने लगी थी और मैं....? मैं अपने होश में नहीं थी।

'ये क्या कह दिया दीदी ने... क्या उन्हें भी सुनील पसन्द आ गया है? क्या वे मेरे मन की बात जानती हैं या नहीं जानती या कि जानना ही नहीं चाहतीं..? क्या इसीलिए वे मुझे अशोक की ओर धकेल रही हैं..?' अनगिनत प्रश्न मुँह बाए खड़े थे। मेरी सोचने समझने की शक्ति गुम हो चुकी थी।

"वैशाली तुम ठीक तो हो?" मेरी लाल आँखे और चेहरे पर उड़ती हवाइयां देखकर शिफा ने पूछा। अब मेरा ध्यान गया कि बस में मैं उसके पास बैठी थी।

"अं... हाँ... मैं ठीक हूँ।"

"लगता है रातभर सोयी नहीं हो या फिर रोयीं हो..." मैं उसे कैसे बताती कि दोनों ही बातें सही हैं। मैंने इधर उधर नज़र दौड़ायी।

"आज सुनील बस में नहीं है।"

"तो... मुझे क्यों बता रही हो?" कहा तो यही पर मन में सोच रही थी कि इसे कैसे पता? और वह बस में क्यों नहीं है? मैं भी तो उससे बचना चाह रही थी, किन्तु उसके नहीं दिखने पर बेचैनी क्यों है?

"आज वह उसके चाचाजी और भाई के साथ कार में आ रहा है, मुझे बस स्टैंड पर मिला था।"

'ओह, अशोक भी आ रहा है... मगर क्यों..? मुझसे मिलने... ? देखी जाएगी।' मैं सोचना नहीं चाहती थी। अनिद्रा और तनाव के कारण वैसे ही परेशान थी और एक के बाद एक इतने प्रहार....

"दीदी! ये सूट कैसा है?"

"बहुत सुंदर है... तुझे पसन्द है?"

"नहीं पहले आप पसन्द कर लो, मैं बाद में देख लूँगी।"

और बहुत सारे सूट देखने के बाद दीदी को वही पसन्द आता था, जिस पर मेरी नज़र रहती थी। मैं सोचती थी कि दीदी को मेरी पसन्द पर भरोसा है, किन्तु अंशु चिढ़ जाती थी... "उन्हें हर वही चीज़ क्यों चाहिए, जो आपको पसन्द आती है?"

आज मुझे अंशु की बात सही लग रही थी कि "दीदी को मेरी पसन्द की हुई चीज के साथ इंसान भी वही क्यों पसन्द आते हैं, जो मुझे पसन्द हों... यह मात्र संयोग है या दीदी की कुंठा या कोई विद्वेष भाव.....?'

सोच सोच कर मेरा सिर दर्द करने लगा था। मैंने सीट पर सिर टिकाकर आँखें बंद कर लीं।

आज कॉलेज में भी मन नहीं लग रहा था। सब समझ रहे थे कि नयी नौकरी और डेली अप डाउन की थकान है। स्टाफ रूम में मैं चुपचाप बैठी थी कि एक नोटिस आया.. शनिवार को सुबह आठ बजे कॉलेज में उपस्थित होना था। आज गुरुवार था।

"वैशाली तुम चाहो तो कल मेरे यहाँ रात में रुक जाना, परसों सुबह इतनी जल्दी कैसे आ पाओगी, अभी तो मेरा भाई भी घर गया हुआ है।" यह कंचन मैडम थीं, जिनका भाई इसी कॉलेज से एम कॉम कर रहा था और उनके साथ रहता था।

"हाँ मैं सोचती हूँ, कल बैग लेकर आ जाऊँगी, रुकने के हिसाब से।"

आज मैं स्टाफ रूम में सबसे बात कर रही थी। शायद इस तरह मैं मेरे दिल और दिमाग को व्यस्त रखना चाह रही थी, जिससे वह सुनील, अशोक और अलका दी के ख्यालों से मुक्त रहे। क्या ये सम्भव था? यह मानव स्वभाव है कि प्रतिबंधित स्थान या चीज़ उसे हमेशा आकृष्ट करती है। जिस दरवाजे पर प्रवेश निषेध लिखा होता है, हम बार बार उसमें जाना चाहते हैं। फिर मैं भला मेरे मकसद में कैसे कामयाब हो सकती थी। रह रह कर सुनील, अलका दी और अशोक के चेहरे आंखों के सामने गड्ड मड्ड हो रहे थे। मैं किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रही थी।

वापसी में देर हो गयी थी या शायद मैंने जानबूझकर देर की थी। मुझे पता था कि बस में सुनील के मिलने की संभावना नगण्य है, क्योंकि वह कार से आया था, फिर भी एक उम्मीद थी। रोज वाली बस जा चुकी थी और मैं अगली बस की प्रतीक्षा में खड़ी थी। अचानक एक कार गुजरी... थोड़ी आगे जाकर रुकी और रिवर्स आयी... मैंने देखा कि ड्राइविंग सीट पर अशोक, साइड में सुनील और पीछे शिफा बैठी थी। मेरे मन में आया कि 'काश! इस समय कुछ और कामना की होती तो वह भी....'

"आओ वैशाली, बैठ जाओ... आज तुम्हें देर कैसे हो गयी?" सुनील ने उतरकर पीछे का गेट खोलते हुए कहा।

"आज कुछ काम था तो बस निकल गयी, अगली बस का इंतज़ार कर रही थी..." कहते हुए मैं कार में बैठ गयी।

आज चलती कार से सनसेट देखते हुए मैं खो सी गयी... रास्ते में दोनों और टेसू के पेड़ थे। कार के मिरर पर नज़र गयी और सुनील से निगाहें चार हुई.. उस एक पल में सूरज और टेसू की लालिमा मेरे चेहरे में समा गई। पहले शर्म से और फिर शायद गुस्से से मेरे गाल दहकने लगे थे... पता नहीं उसकी आँखों में क्या था.. प्रशंसा या याचना... समझ में नहीं आया... बस जो मैं देखना चाहती थी, वह नहीं दिखा।

"वैशाली! कॉलेज कैसा लग रहा है? तुम्हारे तो विद्यार्थी भी तुम्हारी उम्र के होंगे.. उन्हें पढ़ाते हुए अजीब लगता होगा..." अशोक ने पहली बार मुझे सम्बोधित किया था।

"जी अच्छा लग रहा है, ये सही है कि अंतिम वर्ष के कुछ विद्यार्थी मेरे समवयस्क हैं, किन्तु अजीब क्यों लगेगा...? पढ़ाते समय मैं सिर्फ टीचर होती हूँ और वे स्टूडेंट्स..."

"वाह क्या बात है... यही है एक टीचर की गरिमा, जैसे बैंक में हमारे लिए सब क्लाइंट्स होते हैं, परन्तु कोई परिचित आता है तो उसके लिए अलग रिस्पांस अपने आप आ जाता है, जैसे कल सुनील ने तुम्हारा काम कितनी जल्दी करवा दिया था... है न?" शैफाली बीच में ही बोल पड़ी।

"शायद कभी तुम कॉलेज किसी काम से आओगी तो मैं तुम्हें अलग रिस्पांस जरूर दूँगी, किन्तु क्लास की बात अलग है।" कहा तो शिफा से किन्तु सुनील के चेहरे को देखकर... शायद उसे जताना चाह रही थी कि वक़्त मिला तो तुम्हारा अहसान चुका दूँगी। अजीब बात तो यह थी कि सुनील बेवजह ही मेरा निशाना बन गया था। मुझे तो पता भी नहीं था कि उसके मन में मेरे लिए क्या फीलिंग्स हैं... हैं भी या नहीं...? बस मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था और ये वक़्त नहीं था उसे जाहिर करने का... मैं शिफा को मन ही मन धन्यवाद दे रही थी कि वह कार में थी तो मुझे भी दुविधा नहीं हुई.. वरना तो साँप छछूंदर वाली स्थिति हो जाती... और यदि मुझे अकेले कार में इन लोगों के साथ आना पड़ता तो क्या होता? शैफाली की उपस्थिति से वह चर्चा नहीं हो रही थी, जो मेरे लिए अप्रिय हो सकती थी।

"सन्नी! सुबह तो तुम्हारे साथ अंकल भी थे और गाड़ी भी फुल थी, अभी सबको कहाँ छोड़ आये..?"

प्रश्न तो वही था जिसका उत्तर मैं जानना चाह रही थी किन्तु 'सन्नी..' ने फिर दिमाग पर हथौड़ा चला दिया था।

"शेफाली! पापा के दोस्त के बेटे की शादी है... वे इसी शहर में रहते हैं तो उन्हें और उनके दोस्त को बारात में जाने के लिए छोड़ने आया था... परसों फिर आऊँगा रिसेप्शन में।" अशोक ने कार का मिरर कुछ ऐसा सेट कर लिया था कि हमारी नज़रें टकरा गयीं.. मुझे परसों साथ आने का मूक निमंत्रण भी था उन आंखों में... या मुझे ऐसा महसूस हुआ... मैं कुछ सोचना नहीं चाह रही थी.. मैंने सीट से सिर टिकाया और आँखें बंद कर लीं।

अचानक कार रुकी। परिचित कॉफी शॉप थी। इस समय वाकई मुझे कॉफ़ी की तलब थी। इसके पहले तो सुनील ने बस में ही ला दी थी। आज हम चारों कार से उतरे। एक पल को मन में भाव आया कि 'लोग देखकर क्या सोचेंगे..? हाईवे पर एक कार में दो लड़के और दो लड़कियां...' शायद मेरी सोच अभी इतनी एडवांस नहीं हुई थी। सुनील और शेफाली ने चाय ली और अशोक ने भी मेरे साथ कॉफ़ी आर्डर की। यदि पहले पता होता तो मैं भी चाय ही लेती... शायद मैं खुद से ही लड़ रही थी.. मैं साबित करना चाहती थी कि अशोक और मैं बिल्कुल अलग हैं। उसने सिगरेट सुलगा ली थी... मुझे अजीब लगा। मैंने नाक पर रुमाल रखकर नाराज़गी जाहिर कर दी और उसने तुरंत ही सिगरेट बुझाकर फेंक दी। मैं जितनी उसकी ओर से उदासीन रहने की कोशिश कर रही थी, उतना ही वह मेरी और ध्यान दे रहा था, साथ ही मेरा ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश भी....

"कितनी अजीब बात है न कि आप गणित विषय पढ़कर भी साहित्य में रुचि रखती हैं।" अशोक ने बात शुरू की।

"इसमें अजीब क्या है..? मुझे दोनों में रुचि है और मुझे खुशी है कि मैं दोनों को मिक्स नहीं करती।" मैंने रूखेपन से कहा।

"लो चॉकलेट खाओ... " शैफाली काउंटर से फाइव स्टार खरीद लायी थी। सुनील और अशोक ने ले ली और मुझे मौका मिल गया....

"मैं डेयरी मिल्क खाती हूँ, फाइव स्टार देखकर मेरी पसन्द नहीं बदलने वाली..." कहते हुए मैंने पर्स उठाया और बिना किसी को देखे कार की ओर बढ़ गयी। एक अजीब सा सुकूँ महसूस हुआ।

सुनील ड्राइविंग सीट पर बैठा और शैफाली भी कार में बैठ गयी। अशोक थोड़ी देर बाद धीरे धीरे चलता हुआ आया और कार में बैठ गया। वह पीछे मुड़ा और मेरी ओर देखते हुए हाथ बढ़ाया... डेयरी मिल्क मुझे चिढ़ा रही थी। चॉकलेट लेते हुए मैंने काफी एहतियात बरता था किंतु टायर के नीचे तभी पत्थर को आना था और..... पूरे शरीर में झुरझुरी दौड़ गयी.... अशोक ने सॉरी बोला। मुझे सुनील पर फिर गुस्सा आया। मैंने चॉकलेट के लिए थैंक यू नहीं कहा। पता नहीं किस्मत मेरे साथ कौन सा खेल रच रही थी। अगले एक महीने में बहुत कुछ अनपेक्षित हुआ था......

क्रमशः....9