Bhadukada - 21 books and stories free download online pdf in Hindi

भदूकड़ा - 21

छुट्टियां हुईं तो सुमित्रा जी ने कुन्ती को मना लिया बड़े भैया के घर चलने के लिये. बड़े भैया उस समय बरुआसागर में पोस्टेड थे. कुन्ती भी जिस सहजता से जाने को तैयार हो गयी, उसने रमा के कान खड़े कर दिये. ये बड़ी जिज्जी तो कहीं जाने को तैयार न थीं, अपने मायके तक न गयीं, ये सुमित्रा जिज्जी के साथ कैसे चल दीं? वो भी बड़े भैया के घर, जिनका स्नेह सुमित्रा जी के ऊपर सबसे अधिक है, वो भी घोषित तौर पर.

सुमित्रा जी के बड़े भाईसाब का केवल स्नेह ही नहीं था उनके ऊपर बल्कि वे उनकी इज़्ज़त भी बहुत करते थे, सभी भाई-बहनों में, ये सब जानते थे. ये इज़्ज़त भी वे सुमित्रा जी के व्यवहार के कारण ही करते थे. बड़े भैया बहुत दिनों से बुला भी रहे थे. अभी बमुश्किल दो महीने पहले ही वे बरुआसागर शिफ़्ट हुए थे. हमेशा भरे घर में रहने की आदी उनकी नयी-नवेली पत्नी भी यहां आकर बहुत अकेलापन महसूस करती थीं. उस ज़माने में पति के साथ उसकी नौकरी वाले स्थान पर जा के रहने की बात ही उतनी ही ग़लत मानी जाती थी, जितना कोई भी दूसरा ग़लत काम, सो उनके अन्दर ये अपराधबोध भी होता था कि वे ससुराल छोड़, यहां भाईसाब के साथ रह रहीं, जबकि शादी को अभी साल भी पूरा न हुआ. चूंकि सुमित्रा जी के पिता जी- पांडे जी पढ़े-लिखे, रुतबे वाली पोस्ट पर थे और खुले विचारों वाले इंसान थे, सो उन्होंने ही भाईसाब की भोजन बनाने सम्बन्धी दिक़्क़तों को देखते हुए बहू को साथ ले जाने का आदेश क्या, ज़िद की थी.
तयशुदा दिन दोनों बहनें अपने बच्चों को ले के बड़े भाईसाब के घर पहुंच गयीं. कुल पांच बच्चों और दो बहनों को अचानक दरवाज़े पर देख, बड़े भाईसाब को तो अपनी आंखों पर भरोसा ही न हुआ. बाद में पता चला की छोटे भैया इन बहनों को लेने गये थे, और वे ही ले के आये हैं. सुमित्रा जी की भाभी- लक्ष्मी तो जैसे झूम गयीं सबको देख के. लम्बी, सुडौल काया वाली लक्ष्मी भाभी गेंहुआं वर्ण की थीं. अकेले में भी उनका घूंघट नाक तक खिंचा रहता लेकिन इस घूंघट के नीचे से निकली, हीरे की लौंग पहने उनकी सुतवां नाक, और संतरे की फांकों से खूबसूरत होंठ उनकी खूबसूरती बयान करते थे. पैरों में छम-छम करती पायल, और रोज़ लगने वाला आल्ता उन्हें अलग ही रूप प्रदान करता.

लक्ष्मी भाभी तुरन्त ही अपनी ननदों के स्वागत-सत्कार में जुट गयीं थीं. एक ओर सुमित्रा जी जहां अपनी भाभी की मदद करने रसोई में तुरन्त ही चली गयीं, वही कुन्ती का चेहरा, अपनी भाभी के इस भव्य रूप-सौन्दर्य को देख काला पड़ गया. मारे कुढ़न के वो दीवान पर एक कोने में बैठी तो फिर हिली ही नहीं. सिरदर्द का बहाना कर वहीं लेट गयी.मन ही मन उसांसें भरती कुन्ती सोच रही थी कि भगवान ने उसे ही रूप देने में इतनी कंजूसी क्यों की? अपने ही परिवार में सब सुन्दरता में एक दूसरे से होड़ लगा रहे और मैं....! ज़रूर ये सब मुझे बदसूरत कहते होंगे. शायद चुड़ैल भी कहते हों.... क्या जाने!!!

(क्रमशः)