Aaghaat - 27 books and stories free download online pdf in Hindi

आघात - 27

आघात

डॉ. कविता त्यागी

27

स्टेशन पर जाकर पूजा एक प्रतीक्षालय के बाहर बैठ गयी, जहाँ ट्रेन आने की प्रतीक्षा में कुछ यात्री बैठे थे, कुछ लेटे थे तथा कुछ सो रहे थे । कुछ यात्री परस्पर बातें कर रहे थे कि उन्हें प्रतीक्षा करते-करते बारह घंटे हो चुके है ! कुछ कह रहे थे कि वे पिछले बीस घंटे से प्रतीक्षा कर रहे है। प्रतीक्षारत यात्रियों में से कुछ ने, जो अभी-अभी एक ट्रेन से उतरकर किसी दूसरी ट्रेन की प्रतीक्षा करने के लिए वहाँ पर आये थे, अपने सामान को खोलकर भोजन का डिब्बा निकाला और भोजन करने लगे। उन्हें भोजन करते हुए देखकर प्रियांश की भूख जाग गयी। वह निर्निमेष भोजन करते हुए लोगों की ओर देख रहा था। अब तक सुधांशु भी जाग चुका था । उसने भोजन करते हुए लोगों को देखा, तो उसकी भूख और बढ़ गयी । सुधंशु ने माँ से भोजन के लिए आग्रह करना आरम्भ कर दिया। पूजा ने बेटे के पेट की भूख को आंचल की छाँव से तृप्त करने का प्रयास करते हुए सुधांशु को छाती से चिपका लिया। परन्तु बच्चा उस समय स्नेह की अपेक्षा भोजन की आवश्यकता का अपेक्षाकृत अधीक अनुभव कर रहा था । वह भूख से चिड़चिड़ा-सा हो गया और आँखों के सामने भोेजन उपलब्ध् होने पर भी न मिलने के कारण माँ पर क्रोध कर रहा था। अपने बेटे को भूख से पीड़ित देखकर पूजा की पीड़ा बढ़ रही थी, प्रियांश यह अनुभव कर रहा था। अतः उसने पहले तो धीरे-धीरे सुधांशु को समझाने का प्रयत्न किया कि शीघ्र ही घर चले जाएँगे, वहाँ जाकर मम्मी अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट व्यंजन बनाएँगी, तब खाएँगे। लेकिन जब सुधांशु को समझाने में प्रियांश विफल हो गया, तब उसने एक नयी युक्ति सोची और उस युक्ति को व्यवहार में लाने के लिए खड़ा हो गया।

प्रियांश के खड़ा होने पर पूजा के मुँह से अशक्त-सा स्वर निकला -

‘‘बेटा, कहाँ जा रहा है ?’’

‘‘कहीं भी तो नहीं ! हम तो बस यहीं पर खेल रहे हैं !’’ माँ के प्रश्न का उत्तर देकर प्रियांश ने मुस्कराकर सुधांशु की ओर देखा -

‘‘अंशु, चल, चोर-सिपाही पकड़ा-पकड़ी खेलेंगे ! आ,मुझे पकड़ !’’ कहकर वह माँ के पीछे की ओर खड़ा हो गया। दोनों बच्चे चोर-सिपाही के खेल में इतने व्यस्त हो गये कि उन्हें भूख की सुध् ही न रही। सुधांशु भी खाना माँगना भूल गया। थोडी देर तक वह प्रियांश के साथ खेलता रहा, फिर थककर माँ की गोद में बैठ गया। प्रियांश भी चुपचाप माँ के घुटने पर सिर रखकर लेट गया और सो गया। पूजा भी वहाँ की चहल-पहल को तथा भिखारियों की दयनीय दशा को देखकर स्वयं के दुख को भूल गयी। पिछली रात भी पूजा सो नहीं सकी थी, इसलिए उसकी नींद रुकी हुई थी और शरीर में थकान तथा भूख के कारण दुर्बलता भी आ गयी थी। अतः अपने बेटों के सोने के बाद वह दीवार से कमर तथा सिर टिकाकर बैठ गयी और तत्काल ही नींद ने उसको अपने आगोश में ले लिया। नींद में कुछ घंटों के लिए वह सभी चिन्ताओं- कष्टों से मुक्त हो गयी थी । उस रात नींद पूजा के लिए ऐसी सहचारिणी तथा सच्ची मित्रा सिद्ध हुई कि नींद ने उसे यह तक भुला दिया कि वह उस समय कहाँ, क्यों ? और किस अवस्था में है ! उसकी दोनों बाँहें अपने दोनो बेटों को इस प्रकार समेटे हुए थी कि बच्चों के जरा-सा हिलते ही वह चौकन्नी हो जाती थी और आँखें बन्द किये हुए ही उन्हें दुलराकर-थपकी देकर पुनः सो जाती थी।

प्रातः पाँच बजे पूजा की आँखें तब खुली जब प्रियांश ने उसे झिंझोडकर कहा -

‘‘मम्मी जी अंकल आये है !’’ प्रियांश के शब्द कान में पड़ते ही पूजा भयभीत-सी उठ बैठी । यह देखकर पूजा आश्चर्यचकित रह गयी कि उसके सामने वही परिचालक खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है, जिसने रात उसको यहांँ तक पहुँचाया था । वह बहुत आत्मीयता से बोला -

‘‘आपने मुझे भाई कहा था, इसीलिए मैं रात इधर ही आकर सो गया था ! आप अकेली थी न ! मैने सोचा, जब तक आपको लेने के लिए कोई रिश्तेदार नहीं आता, मैं...!’’

‘‘कौन रिश्तेदार आयेगा मुझे लेने के लिए ! किसी को पता ही नहीं है कि मुझे मेरे ही घर से निकालकर बाहर कर दिया गया है और अपने छोटे-छोटे बच्चों को लेकर मैं सड़क पर बेसहारा भटक रही हूँ !" कुछ क्षण चुप रहकर पूजा ने पुनः कहा -

‘‘कब तक ? आखिर कब तक पिता के घर जाकर शरण लेती रहूँगी ? ये बातें बहुत पुरानी हो चुकी हैं ! जब से विवाह हुआ है, यही तो करती रही हूँं ! उसकी मार खाती रही और उसकी तथा उसके घरवालों की सेवा करती रही! जब अत्याचार सहन करना मेरी सामर्थ्य से बाहर हो जाता था, तब पिता के घर चली जाती थी। मेरे ऐसा करने पर भी वह मेरे ही दोष बताता था और मुझ पर आरोप लगाता था कि मैने उसके घर का मान-सम्मान मिट्टी में मिला दिया है !’’

‘‘आप अपने पिता के घर जाना नहीं चाहती हो और पति ने आपको अपने घर से निकाल दिया है, ऐसी स्थिति में आपको एक काम करना चाहिए !

’’ ‘‘क्या?’’ पूजा ने उदासीनता भरे स्वर में पूछा।

‘‘बहन, एक भाई होने के नाते मुझे लगता है कि इन बच्चों को और तुम्हें तुम्हारा हक मिलना ही चाहिए ! पर तुम्हें हक माँग कर नहीं, अब छीनकर ही लेना पड़ेगा ! इसलिए तुम्हारे घर के आस-पास जो भी थाना लगता हो, उसमें जाकर अपने पति की शिकायत कर दो !’’

‘‘परन्तु .....!’’

‘‘परन्तु-वरन्तु छोड़ो ! मेरी बस अभी नम्बर लेकर जाने वाली है। मैं आपको उधर ही छोड़ दूँगा, जहाँ से आप बस में बैठी थीं। आप चाहोगी तो मैं आपके साथ थाने तक भी चल सकता हूँ !’’

अपना विचार व्यक्त करके वह परिचालक वहीं पर खड़ा हो गया। उसकी मुखमुद्रा बता रही थी कि वह पूजा को अपने साथ लेकर जाने के लिए खड़ा है और उसके चलने की प्रतीक्षा कर रहा है । कुछ क्षण प्रतीक्षा करने के बाद उसने पूजा की गोद से सुधांशु को लेने का प्रयास किया। सुधांशु का नकारात्मक सन्देश पाकर वह प्रियांश की ओर उन्मुख हुआ और अपना हाथ आगे फैलाते हुए बोला - ‘‘आओ छोटू, आपको अपने घर चलना है ना, पापा के पास ?’’

प्रियांश ने भी उदासीन दृष्टि से उसकी ओर से मुँह फेरकर स्वयं को माँ की साड़ी में छिपा लिया । अब पूजा की बारी थी। पूजा ने कहा -

‘‘भैया, आप अपना काम कर लो, हम चले जाएँगे ! वैसे भी, आप हमारी कब तक सहायता करते रहोगे ?

‘‘बहन, मैं सहायता करने वाला कौन हो सकता हूँ ! सहायता करने वाला तो ऊपर वाला है ! उसी ने मुझे प्ररेणा दी, मुझे यहाँ भेजा और मैं चला आया ! यहांँ कोई किसी की सहायता नहीं करता, सबकी सहायता ईश्वर करता है ! हमारे गुरुजी ने हमें यही सिखाया था !’’

पूजा ने सोचा, ‘‘युवक की आँखों में निश्छलता तथा व्यवहार में निष्कपटता स्पष्ट दिखाई दे रही है ! ईश्वर ने हमारी सहायता करने के लिए ही उसे यहांँ पर भेजा है !’’ यह सोचते हुए वह किंकर्तव्यविमूढ़-सी उसके पीछे-पीछे चल दी और बस में आकर बैठ गयी। बस में बैठने के पश्चात् भी वह निर्णय नहीं कर पा रही थी कि अब उसे क्या करना है ? या क्या करना चाहिए ? कहाँ जाना चाहिए और कहाँ नहीं जाना चाहिए ? अपने मनःमस्तिष्क पर बोझ-सा अनुभव करके वह सीट पर सिर टिकाकर बैठ गयी और अपने भूत-वर्तमान तथा भविष्य के विषय में सोचने लगी ।

बस की सीट पर बैठकर अपने अतीत और वर्तमान में उलझकर पूजा को पता ही न चला कि कब बस चली और कब वह गन्तव्य-स्थान तक पहुँची ! उसकी विचार-शृंखला तब टूटी, जब परिचालक ने उसकी सीट के पास आकर कहा -

‘‘बहन जी, थाना आ गया है ! अब आप बेफिक्र होकर उतर जाओ ! अपनी सारी समस्या यहांँ के दरोगा को बता देना ! यहांँ का दरोगा बड़ा नेक बन्दा है । आपके पति को बढ़िया से सबक भी सिखाएगा कि औरतों की इज्जत कैसे करनी चाहिए ? और आपको आपके घर भी भिजवाएगा ! पहली बार तो चेतावनी देकर छोड़ देगा, पर फिर उसने कोई ओछी हरकत कर दी, तो फिर खैर नहीं ! बस यही गुण है, इस दरोगा में !’’

पूजा बस से उतर गयी थी, परन्तु थाने की ओर जाते हुए ठिठक कर रुक गयी । उसकी आत्मा पति की शिकायत करने में उसका साथ नहीं दे रही थी । जितना उसका शरीर आगे बढ़ना चाहता था, उसकी आत्मा उसके कदमों को उतना ही पीछे खींच रही थी । उसके ठिठकते कदमों को देखकर परिचालक ने हिम्मत बढ़ाने के उद्देश्य से पूजा से कहा-

‘‘आपको डरने की बिल्कुल जरूरत नहीं है ! अब डरने की बारी उसकी है, जिसने गलती की है ! मेरा मतलब है, अब तुम्हारा पति डरेगा, जिसने कुछ भी सोचे-समझे बिना तुम्हें घर से निकाल दिया ! इस थाने में एक सिपाही से मेरी जान-पहचान है ! मैं उससे कहे देता हूँ, वह आपकी पूरी सहायता करेगा ! अब आप बिल्कुल मत घबराना !’’

‘‘नहीं-नहीं ! दरोगा जी से बातें मैं कर लूँगी ! आपने पहले ही मेरी बहुत सहायता की है ! रात-भर मेरी चिन्ता-सुरक्षा की ! अब मुझे यहांँ तक पहुँचाया है ! बहुत-बहुत ध्न्यवाद !’’ पूजा का उत्तर पाकर परिचालक वापिस लौट गया।

पूजा को ऐसी शिक्षा और संस्कार न मिले थे कि घर के झगडे़ में बाहर वालों को पंच बनाया जाए या घर की बात बाहर वालों से कही जाए ! इसलिए वह अपने बच्चों को लेकर अपने घर जाना चाहती थी, लेकिन उसमें इतना साहस नहीं था ! न ही उसे यह आशा थी कि जब वह अपने घर जायेगी, तो रणवीर उसके लिए द्वार खोल देगा ! यदि वह ऐसा उदार-हृदय या कर्तव्यनिष्ठ होता कि पत्नी और बेटों के लिए पलक पाँवडे बिछाये हुए उनकी प्रतीक्षा करे, तो उन्हें रात-भर घर से बाहर ही क्यों रहना पड़ता ? इस प्रकार के नकारात्मक भाव-विचार पूजा के चित्त को बार-बार आन्दोलित कर रहे थे । फिर भी, थाने में जाकर पति की शिकायत करना उसकी आत्मा को स्वीकार्य नहीं था । उसको यह अपने पत्नी-धर्म के विरुद्ध लगता था और इसीलिए उसकी अन्तरात्मा और उसका विवेक थाने में जाकर पति के विरुद्ध शिकायत करने के पक्ष में नहीं थे। इसीलिए आज प्रातः से ही जब से उसकी आँखें खुली थीं और उसने अपने सामने उस परिचालक को खड़ा पाया था, तभी से पछताती रही थी कि क्यों उसने अपनी व्यथा, अपने कष्ट किसी अन्य व्यक्ति को बताने की भूल की ? वह भी एक अपरिचित को ! लेकिन अपने घर के इतने निकट होने पर तथा परिचालक के लौट जाने पर अब उसे पर्याप्त राहत का अनुभव हो रहा था ।

घर के अत्यन्त निकट होने पर भी पूजा की समस्या वैसी-की-वैसी ही थी। वह सोच रही थी कि अपना घर होते हुए और घर के इतने निकट होते हुए भी वह बेघर हो गयी है ! घर के अन्दर तो वह कल भी थी, परन्तु पति के चारित्रिक पतन के कारण सड़कों पर भटकने के लिए विवश हो गयी है । उसे अनुभव हो रहा था कि यह तो रणवीर के अत्याचारों की पराकाष्ठा है ! रात-भर बच्चे भूखे-प्यासे तड़पते रहें, घर से बाहर बेसहारा भटकते रहे और वह, बाप होते हुए भी राक्षस बनकर आनन्द-पूर्वक घर में सोता रहा ! इसलिए थाने में उसके विरुद्ध शिकायत होनी ही चाहिए ! लेकिन, ... रिश्तेदारों में कितना गलत सन्देश जायेगा ; कितना नकारात्मक प्रभाव पडे़गा, इस बात से कि एक कुलीन परिवार की बेटी और कुलीन घर की बहू अपने पति के विरुद्ध शिकायत करने के लिए थाने में गयी थी ! माता-पिता भी इस कदम से आहत हो जाएँगे ! वे ऐसी बेटी को अपना कहते हुए भी लज्जा का अनुभव करेंगे और बेटी को कुल का कलंक कहेंगें ! इतना ही नहीं, बच्चों पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव ही पडे़गा ! जितनी विषम परिस्थितियों में वे अपना जीवन अब जी रहे है, तब इससे अधिक विषम परिस्थितियों में जीने के लिए विवश हो जाएँगे ! क्या किया जाए ? और क्या न किया जाए ? पूजा का चित्त इसी प्रकार की उधेड़-बुन में उलझा रहा ।

इस प्रकार की उलझनों में उलझते हुए पूजा का चित्त दस बजे तक अन्तर्द्वन्द्व से घिरा रहा । सूरज सिर के ऊपर आ गया था और धूप भी तेज हो गयी थी, लेकिन पूजा कोई निर्णय नहीं ले पायी थी । अन्त में वह किंकर्तव्यविमूढ़-सी शुभ परिणाम की क्षीण-सी आशा लेकर, अशुभ-प्रतिकूल परिणाम की चिन्ता किये बिना घर की ओर चल पड़ी ।

बीस मिनट तक पैदल चलकर पूजा अपने घर के द्वार पर पहुँच गयी । रास्ते में चलते हुए अनेक नकारात्मक कल्पनाओं के चित्र उसके मस्तिष्क में बनते-बिगड़ते रहे थे। एक चित्र-शृंखला बार-बार उसके मस्तिष्क में उभर आती थी -

"रणवीर ने घर का दरवाजा अन्दर से बन्द किया है और वह चाय की चुस्की लेते हुए टेलीविजन देखने का आनन्द ले रहा है ! प्रियांश और पूजा दरवाजे की घंटी बजाते है ; बार-बार दरवाजा खोलने का आग्रह करते हैं, लेकिन अन्दर से एक कठोर स्वर उभरता है ! उस स्वर में एक भी शब्द स्पष्ट सुनाई नहीं देता है, लेकिन उस स्वर का नकारात्मक सन्देश स्पष्ट हो रहा हैं।"

मस्तिष्क में बनी हुई इस भयाक्रान्त कल्पना के साथ पूजा घर की ओर बढ़ रही थी और उसके पैर पीछे पड़ रहे थे । इसलिए दस मिनट का रास्ता वह बीस मिनट में तय कर पायी । अन्ततः जब वह घर के द्वार पर पहुँची, उसने देखा कि द्वार न अन्दर से बन्द था, न बाहर से बन्द था । उसने धीरे से दरवाजा खोला और घर में प्रवेश करके घर के भीतरी भाग की ओर कान लगाकर यह जानने का प्रयास करने लगी कि रणवीर घर में है या नहीं ? है तो किस अवस्था में है ? अभी भी क्रोध में है ? अथवा अपने द्वारा किये गये दुर्वयवहार को लेकर ग्लानि का अनुभव कर रहा है ?

घर के भीतरी भाग में पहुँचकर पूजा ने देखा कि रणवीर अपने बिस्तर पर अधलेटी अवस्था में सिगरेट पी रहा था। उस समय वह क्रोध में नहीं था, न ही वह ग्लानि जैसे किसी भाव का भार वहन करने के मूड़ में था । एक क्षण के लिए पूजा में भय का भाव उत्पन्न हुआ कि उसे वहाँ देखकर रणवीर रात जैसा राक्षसी-रूप धरण न कर ले, किन्तु अगले ही क्षण उसका भयशमन हो गया तथा उसके अगले क्षण वह रणवीर की धृष्टता पर रो उठी । रणवीर से उसने कोई संवाद नहीं किया, वह घर के एक कोने में बैठकर रोने लगी । चूँकि दोनों बच्चों को पिछली शाम भी भोजन नहीं मिला था, अब अपने घर में आकर उन्होंने अपनी भूख प्रकट करके अपनी पसन्द के व्यजंन बनाने का आग्रह आरम्भ कर दिया था । सुधांशु ने तो भूख के मारे रोना- चिल्लाना आरम्भ कर दिया था । प्रियांश ने माँ की आँखों में आँसू देखकर धैर्य रखना उचित मानकर अपनी पुस्तक उठायी और विद्यालय से मिला हुआ अपना गृहकार्य करने के लिए बैठ गया।

पूजा ने बेटे को विद्यालय से मिले हुए गृहकार्य में व्यस्त देखा, तो विषम परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की एक प्रेरणा उसे मिली। बेटे से प्रेरित होकर पूजा ने अपनी आँखों से आँसू पोंछ दिये । वह शीघ्रतापूर्वक उठी, रसोईघर में गयी और तत्परता से बच्चों के वांछित व्यंजन तैयार करके उनके समक्ष परोस दिये। एक अन्य थाल में खाद्य-व्यंजन परोसकर पूजा ने रणवीर की मेज पर रख दिये । कुछ देर तक रणवीर ने उस भोजन पर न दृष्टि डाली, न छुआ । लेकिन लगभग एक घंटा पश्चात् जब पूजा ने देखा, तब रणवीर उस भोजन को खा चुका था और घर से बाहर कहीं जाने की तैयारी कर रहा था । पूजा के कमरे में प्रवेश करने के बावजूद उसके साथ किसी प्रकार का कोई संवाद किये बिना ही कुछ क्षणोपरान्त वह घर से निकल गया ।

भोजन करने के पश्चात् शायद रणवीर को लगा था कि अब सब कुछ सामान्य हो चुका है । उसने सोचा कि बिना बुलाये तथा बिना किसी शिकायत-शिकवे के पूजा बच्चों सहित घर लौट आयी है, इसलिए अपने दुर्व्यवहार को लेकर विचार-विश्लेषण करने की आवश्यकता ही नहीं रह गयी हैं। शायद उसने यह भी सोचा हो सकता है कि स्त्रियों को नियन्त्रण में रखने के लिए इस प्रकार के दुर्व्यवहार आवश्यक होते है, इसलिए उसने पूजा के समक्ष अपनी गलती को स्वीकारने-सुधरने के विषय को न तो महत्व ही दिया और न उस विषय पर स्वयं गम्भीरता-पूर्वक विचार किया ।

डॉ. कविता त्यागी

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