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कुबेर - 12

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

12

समय के तो पंख होते हैं। घड़ी चलती है, बंद होती है पर समय का चलना बंद नहीं होता। कई बार लगता है कि समय चल नहीं रहा, उड़ रहा है जैसे कि रुक गया तो अपनी दौड़ में पीछे रह जाएगा। समय के साथ चलते मैरी, नैन्सी और डीपी एक दूसरे के विकल्प थे, एक न मिला तो दूसरा, दूसरा नहीं दिखा तो तीसरा। जीवन-ज्योत को चलाने में कई हाथों की ज़रूरत होती थी। इस बात का सबसे अधिक डर होता था कि कहीं कोई ग़लत काम में संलग्न न हो जाए, बच्चे भी और बड़े भी। किसी पर कहीं जाने की कोई रोक-टोक नहीं थी इसलिए कहीं से भी कोई बुरे काम को, बुरी आदत को जीवन-ज्योत के परिसर में फैला सकता था।

कई बार ऐसा शक होता तो तह में जाने की कोशिश होती। जीवन-ज्योत के पुराने बाशिन्दे इस काम के विशेषज्ञ थे। डीपी इन्हें जीवन-ज्योत की सीआईडी कहा करता था। जिनकी मुखिया थीं सुखमनी ताई, जो कहने को तो किचन में काम करती रहती थीं पर लोगों को खाना परोसते-परोसते उनके चेहरे भी पढ़ लेती थीं। उनकी तेज़ नजरें सदा मदद करतीं अपराधी को पकड़ने में। चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता उस अपराधी को। फिर भी अगर वह समझ नहीं पाता, अपने व्यवहार में बदलाव नहीं ला पाता तो आख़िर में जीवन-ज्योत के दरवाजे उसके लिए बंद हो जाते सदा-सदा के लिए। एक नहीं, यहाँ पर कई मासूम बच्चों की ज़िंदगी का सवाल जो था।

अब मैरी और नैन्सी भी खुफिया जासूसों के गैंग में शामिल थीं। मैरी, नैन और डीपी तीनों मिलकर समस्या को दादा तक जाने से पहले सुलझाने की कोशिश करते। “तीन तेरे बात बिखेरे” वाला वाक्य अब “तीन तेरे बात समेटे” का गणित था, बिखेरने की नौबत नहीं आती। धीरे-धीरे लगा कि कोई चौथा भी है, जो है तो सही मगर अभी दिखाई नहीं दे रहा है पर वह कौन है, पता नहीं चल पा रहा था। नैन और डीपी ने काफी कोशिश की मैरी से उगलवाने की मगर कुछ नहीं उगलवा सके। आख़िर यह काम नैन को सौंप कर डीपी अन्य कामों में व्यस्त हो गया।

सुखमनी ताई और बुधिया चाची के नेतृत्व में नैन्सी की जासूसी कला को कामयाबी मिली। बहुत कोशिशों और जद्दोजहद के बाद आख़िरकार उसने मैरी के उस मन के चोर को पकड़ ही लिया। मैरी शरमा कर लाल हो गयी थी जब नैन्सी ने उसे चुटकी काटकर पूछा था – “कौन है वह मन का चोर जिससे आजकल सबसे छुप कर मिला जा रहा है?”

मैरी शरमा कर लाल हो गयी थी, नाटकीय अंदाज़ में बोली – “कौन चोर, कौन किससे मिल रहा है?”

नैन्सी ने सिर्फ आँखें झपझपायीं जो शायद कह रही थीं – “छुपाने से कोई फायदा नहीं, सच बोल ही दो अब।” मैरी ने जल्दी ही हथियार डाल दिए व सब कुछ बताया जोसेफ के बारे में। वे दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं। कुछ महीनों से रोज़ मिल रहे हैं। भाई को कुछ नहीं बताया उसने अब तक क्योंकि वह बहुत डरती है भाई से।

“लेकिन डीपी तो बहुत ख़ुश होगा यह जानकर मैरी, इसके पहले कि उसे किसी और से पता लगे हमें जल्दी से जल्दी बता देना चाहिए उसे।”

मैरी के संकोच को नैन का साथ कम करने लगा था। दोनों दोस्तों ने योजना बनाकर डीपी से जोसेफ को मिलाने का समय तय किया। डीपी की प्रतिक्रिया पर मैरी को बहुत बेचैनी थी, चिन्ता भी थी और अनजाना-सा डर भी था।

“क्या होगा अगर भाई को जोसेफ अच्छा नहीं लगा।”

“भाई को उसका रहन-सहन पसंद न आए तो भाई मना कर देंगे।”

“जोसेफ जीवन-ज्योत से जुड़ा हुआ नहीं है, भाई को इससे आपत्ति हो सकती है।”

“भाई मेरे लिए इतने अधिक सतर्क हैं, इतनी आसानी से वे किसी का विश्वास नहीं करेंगे, जोसेफ का भी नहीं।”

नैन्सी ने विश्वास दिलाया मैरी को कि – “जोसेफ को डीपी से मिलाए बगैर ये सारी बातें सोचना बेमानी है। कई किन्तु-परन्तु हो सकते हैं डीपी की ख़ास पसंद को लेकर, मगर सच तो यह भी है, जिसे तुम जानती भी हो कि डीपी तुम्हें बहुत चाहता है, तुम्हारी ख़ुशी में ही वह ख़ुश होगा, इस बात को कोई नकार नहीं सकता।”

यह सुनते हुए मैरी भी भाई की स्नेहिल थपथपाहट को अपने कंधों पर महसूस करने लगी।

इश्क़, प्यार, मोहब्बत ये शब्द जब तक जीवन में नहीं आते हैं तब तक शब्दकोश के शब्द होते हैं, सामान्य अर्थ लिए। जैसे ही इनका प्रवेश ज़िंदगी में होता है वैसे ही ये जीवंत हो जाते हैं, अपनी संपूर्ण ताक़त से ऊर्जित हो जाते हैं, तब परिवार बनते हैं, समाज और देश बनते हैं, हर दिन नयी परिभाषाएँ गढ़ते हैं।

वही हुआ। डीपी ने मैरी को इतना ख़ुश कभी नहीं देखा था। उसके चेहरे की रौनक इस बात का संकेत थी कि वह और जोसेफ बिल्कुल तैयार हैं एक दूसरे के साथ रहने के लिए, एक दूसरे का साथ जीवनपर्यंत निभाने के लिए।

आख़िर वह दिन आया। मैरी ने डीपी को जोसेफ से मिलवाया। सौम्य मुस्कान लिए एक नौजवान, बेहद शालीन व्यक्तित्व का मालिक जोसेफ जब डीपी से मिला तो सब कुछ ठीक रहा। वह यहाँ आता था परन्तु किसी दूसरे गाँव का रहने वाला था। डीपी ने कई बार देखा था उसे यहाँ-वहाँ, पर ऐसा कुछ अनुमान नहीं लगा पाया था। डीपी ने उसके परिवार की जानकारी ली, मिलने गया। सब कुछ ठीक लगा तो दादा को बताया गया। वे बहुत ख़ुश हुए लेकिन कुछ भी निर्णय लेने से पहले उन्होंने अपने तई सारी तहकीकात की। ये कौन लोग हैं, कहाँ रहते हैं, परिवार कैसा है। घर की चहेती बेटी थी मैरी, सबका बहुत ध्यान रखती थी। सभी उसके लिए दुआ कर रहे थे कि सब कुछ ठीक हो जाए।

वैसा ही हुआ भी। दादा जब जोसेफ के परिवार से मिले तो उन्हें सब कुछ अच्छा लगा। जोसेफ का परिवार भी और जोसेफ भी। काफी मेहनती लड़का था वह। अपने बलबूते पर तरक्की करने की राह पर था। हर तरह से मैरी के लायक था। दादा ने अपनी तरफ़ से हामी भर दी। इस तरह जब उनके यहाँ पले-बढ़े बच्चों को अपनी मंज़िल मिल जाती थी तो वे ईश्वर के बहुत शुक्रगुज़ार होते थे।

“कोई भी परेशानी हो तो मुझे बताना” कहकर ख़ुद दादा ने मैरी की शादी की तारीख़ पक्की करवायी। जोसेफ का परिवार राज़ी था। दादा के सामने इलाके के सारे लोग नतमस्तक ही होते थे। जोसेफ के माता-पिता को भी कोई एतराज़ नहीं था जब दादा ने अपने ही परिसर जीवन-ज्योत में शादी का प्रस्ताव रखा।

ख़ूब तैयारियाँ की गयी थीं। जीवन-ज्योत को दुल्हन की तरह सजाया गया था, मैरी की शादी जो थी। किसी की बिटिया तो किसी की ताई, किसी की लाड़ली बहना तो किसी की दोस्त। डीपी ने एक अच्छी सी स्पीच भी तैयार की थी। वह एक ऐसा दिन था जो मन के बनाए रिश्तों की कहानी लिखता था। मन से मन की भाषा की वह किताब जिसमें जीवन-ज्योत के इतिहास के सुंदरतम दिनों में से एक दिन के रूप में इसे लिखा जाना था। किसी का किसी से ख़ून का रिश्ता नहीं पर रिश्तों की ये गहराइयाँ उससे कहीं ज़्यादा थीं। जिसने भी उसकी स्पीच सुनी ख़ूब सराहा, ख़ूब भावुक हुए, ख़ूब आशीर्वाद दिए।

बिदाई पर भाई डीपी फूट-फूट कर रोया था। उसका एक सच्चा दोस्त जो छोड़ कर जा रहा था उसे। उसकी बहन जो जीवन-ज्योत में आने के बाद के हर पल की उसकी साथी थी, जिसने उसे फिर से रिश्तों की डोर में बाँध दिया था, रिश्तों का अहसास कराया था, एक परिवार के मानिंद सुख-दु:ख में साथ दिया था।

मैरी भी अपने भाई को दस हिदायतें दे रही थी - “भाई मुझसे मिलने आते रहना।”

“काम में सब कुछ भूल मत जाना, खाना बराबर खाना।”

“मुझे फ़ोन करते रहना।”

“दादा की दवाइयों का ध्यान रखना।”

इस बेहद ग़मगीन माहौल में डीपी ने जोसेफ के कान में कुछ कहा – “ध्यान रखना जोसेफ, चींचीं की चोटी में चुहिया रहती है।”

“भाई, देखना मैं सारे बाल कटवा लूँगी।” मैरी के कानों तक उसकी फुसफुसाहट चली गयी थी।

“अरे रे, ऐसा मत करना वरना चुहिया के साथ जुएँ, मक्खियाँ, काक्रोच सब बेघर हो जाएँगे।” मुँह चिढ़ाती मैरी जब गाड़ी में बैठी तो उसके और जोसेफ दोनों के चेहरों पर मुस्कान थी।

मैरी के जाने के बाद डीपी ने स्वयं को पूरी तरह से काम में व्यस्त कर लिया था। हालांकि नैन के साथ अधिक समय बिताने लगा था पर फिर भी बहन का खालीपन भरने में समय लग रहा था। वे सारे पल याद आते जो उन्होंने साथ में गुज़ारे थे। किस तरह कन्फेशन रुम में बात करना, डीपी को दादा समझकर अपनी परेशानियों को बेझिझक बताना, दादा की जगह डीपी को देखकर उसका चौंकना और फिर भाई-बहन का अटूट रिश्ता बनना। उसका लगातार बोलते रहना उसे बहुत अच्छा लगता था। छोटी-सी बात को जिस तरह विस्तार से बताती थी कि लगता था मानो पूरी थीसिस लिख कर लायी हो।

जब रिश्ते होते हैं तो उनकी अहमियत पता नहीं चलती पर जब नहीं होते हैं तो उनका खालीपन कचोटता है। ऐसा ही कुछ हुआ डीपी और मैरी के साथ। भाई-बहन का रिश्ता बना तो वे बिल्कुल समर्पित थे अपने स्नेह और लाड़-दुलार के रिश्ते से। दोनों एक दूसरे का तो ध्यान रखते ही मगर और भी सारे लोगों का ध्यान रखते। किसको क्या चाहिए, दादा ने समय पर खाया-पीया या काम में लगे रहे, काम के बीच थोड़ी देर आराम किया या नहीं, ये सारे काम मैरी और डीपी के ज़िम्मे थे। मैरी के जाने के बाद भी सब कुछ वैसे ही चल रहा था जैसे वे चाहते थे। जीवन-ज्योत में उसकी अनुपस्थिति एक सप्ताह के लिए होती। रविवार को वह जोसेफ के साथ जीवन-ज्योत आती और सबके साथ अपना दिन बिताती। जिन कामों को पहले संभालती थी उनमें से कुछ को ख़त्म करने की कोशिश करती।

“मैरी, रहने दो, हम कर लेंगे।”

“नहीं भाई, मुझे करने दो। वैसे भी आठ दिन का काम एक दिन में तो नहीं होगा, पर जितना भी हो पाएगा उतना मुझे ही करने दो।”

मैरी का जाना और नैन का आना डीपी के लिए एक बेहद राहत वाली बात थी। अब डीपी और नैन दोनों का एक दूसरे के बगैर रहकर समय बिताना मुश्किल-सा लग रहा था। नैन सुबह जल्दी आ जाती और देर रात तक जीवन-ज्योत के कामों में लगी रहती। एक ऐसा परिवार मिला था उसे जहाँ कोई अपना नहीं था परन्तु सब अपने थे। अब हर बात में डीपी नैन की सलाह लेता, उससे पूछता और फिर कोई निर्णय लेता। मैरी नहीं थी पर हर क़दम पर नैन थी उसके साथ।

नैन जीवन-ज्योत में दिनभर रहती। शाम को ही घर जाती। उसकी पढ़ाई ख़त्म हो चुकी थी और उसके चाचा-चाची दादा से मिलकर शादी की योजनाएँ बनाना चाहते थे। दादा की ओर से समय देने का इंतज़ार था। वह जहाँ भी जाती डीपी समय निकाल कर नैन के आगे-पीछे होता। कई बार किचन में होती तो डीपी भी उसे ढूँढता हुआ वहाँ पहुँच जाता। किचन में वक़्त-बेवक़्त डीपी को देखकर सुखमनी ताई और बुधिया चाची दोनों मिलकर उसे चिढ़ातीं – “डीपी बबुआ पहले तो कभी इस तरफ़ दिखाई नहीं देते थे, आजकल तो हमारी बहुत याद आती है, घूम-फिर कर यहीं आ जाते हो।”

“पहले कभी आपने मुझे बुलाया नहीं वरना मैं मना करता क्या आपको!”

“बुलाते तो हम अभी भी नहीं हैं!” दोनों आँखों-आँखों में बात करतीं, दबे-दबे से होठों से मुस्कुरातीं।

“अभी तो बिन बुलाए भी आते हो और शाम तक यहीं मंडराते हो... हैं... !” ताई नैन को देखकर मुस्कुरातीं तो तीनों महिलाएँ एक दूसरे को देखकर आँखों के इशारों से बातें करने लग जातीं।

ऐसे ही हँसी-मज़ाक के माहौल में समय निकलता रहा। नैन और डीपी एक दूसरे के क़रीब आते रहे। इन नज़दीकियों को एक नाम देना ज़रूरी था अब। अगले सप्ताह दादा और नैन के चाचा को मिलना था शादी की तारीख पक्की करने के लिए। जीवन-ज्योत में हर किसी का यही कहना था कि शादी जल्दी से जल्दी होनी चाहिए। शुभ काम में देरी कैसी। हर किसी को इंतज़ार था नैन और डीपी के विवाह बंधन में बंधने का।

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