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कुबेर - 24

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

24

जब कभी डीपी गाँव की याद में खोता, शहरी सभ्यता के हर लटके-झटके को भूल जाता। गाँव के माहौल का लुत्फ़ उठाने की कोशिश करता। जैसा वहाँ होता था, उठो और शुरू हो जाओ। वहाँ दिनचर्या दिन पर नहीं, काम पर निर्भर थी जो कभी होता, कभी नहीं होता। बाबू मजदूरी के लिए जाते किन्तु कई बार खाली हाथ लौटते। माँ भी जातीं, कभी पैसे मिलते, कभी नहीं मिलते। जब नहीं मिलते तो वे पानी पीकर सो जाते। धन्नू के लिए हमेशा थोड़ा राशन बचा कर रखते ताकि उसे कभी भूखा न सोना पड़े। एक जमाना था जब उनकी खेती बाड़ी थी। तब ज़मीन ऐसी नहीं थी, उपजाऊ थी। सोना तो नहीं उग़लती थी पर दो जून का अन्न नसीब हो जाता था और कुछ मिले न मिले मक्का की रोटी और कांदा तो मिल ही जाता था।

पिछले कुछ सालों में पानी की किल्लत और धूप की मेहरबानी ने ज़मीन को जगह-जगह से चीर दिया था। फटी ज़मीन की सिलाई पर मेहनत के टाँके लगते और टूट जाते। ऐसी दरारें पड़नी शुरू हुईं कि उन दरारों की वह दूरी कभी पाटी न जा सकी। बिन पानी सब सूना होता गया। धरती का कलेजा फटता रहा, वहाँ रहने वालों के जीवन फटते रहे पर जिद्दी बादल नहीं फटे तो नहीं फटे। बादलों का गाँव में न बरसने का हठ जारी रहा। न वे बरसते, न दाना ज़मीन में जाता, न फसल होती, न लोगों की भूख मिटती। मजदूरी पर टिकी थी जीवनयापन की ज़िम्मेदारी जो कभी मिलती, कभी नहीं मिलती। कभी-कभी ही दो बार खाना मिलता था, ज़्यादातर तो एक बार जो मिल जाए उसी में दिन निकाल लेते थे। भूख और धूप सहने की आदत डाल लेते थे।

उसकी कमज़ोरी भूख नहीं थी। तब भी नहीं थी और अब भी नहीं है। उसकी कमज़ोरी अपनों का साथ छूटना था। अपने छोड़कर चले जाएँ तो किससे शिकायत करे। वह ख़ुद भी तो छोड़कर चला गया था माँ-बाबू को। कैसा दर्द दिया था उसने अपने माता-पिता को। उस दर्द की पीड़ा आज महसूस करता है जब वे उसे छोड़कर चले गए हैं। उस दर्द की कसक ताउम्र सालती रहेगी उसे।

आज उसके पास सब कुछ है, नहीं है तो माँ-बाबू, नहीं है तो दादा, नहीं है तो नैन। आज उसके पास इतना कुछ है कि वह सब कुछ कर सकता है सिवाय इसके कि जो उसके अपने थे, उसके दिल के क़रीब थे, उन्हें लौटा कर ला नहीं सकता। माँ-बाबू के साथ क्या बीती होगी इसकी कल्पना से भी सिहर उठता है वह। उन क्षणों को याद करते हुए खो जाता है अतीत में जब वह गाँव की सड़क को पार करता हुआ चलता रहा था। शहर की ओर जाती सड़क पर बढ़ता गया था, बगैर किसी मंज़िल के अनजाने रास्ते पर। रास्ते में किसी ने कुछ पूछा नहीं था उससे। ढाबे पर भी मालिक ने भी कुछ पूछा नहीं था। बस काम दे दिया था।

शायद यह आम बात थी वहाँ पर रहने वाले लोगों के लिए। ऐसे कई बच्चे होते थे या तो घर से भागे हुए या फिर अनाथ। अपने लिए किसी सहारे को ढूँढते हुए। किस-किस से पूछेंगे लोग उनकी तकलीफ़ों के बारे में। अगर काम करता रहा तो खाना मिल जाएगा वरना आगे बढ़ो। धीरे-धीरे ऐसे ही बच्चे या तो मेहनतकश इंसान बनते हैं या फिर दूसरों से छीन कर खाने वाले बनते हैं।

यही तो हुआ था धन्नू के साथ भी। बस निकल गया था घर से। बगैर किसी मंज़िल के। अपने गुस्से के वश में होकर हर किसी की मति भ्रष्ट हो जाती है, फिर चाहे बच्चा हो या बड़ा, नन्हा दिमाग़ हो या उम्रदराज़। धन्नू ने भी यही किया था। रिश्तों को जो उसने तोड़े थे, एक झटके में माँ-बाबू को भुला कर चला गया था। उन धागों को जिनमें ऐसी गांठ लगी थी कि वे फिर कभी अपने अस्तित्व में नहीं लौटे, टूट कर ख़त्म हो गए।

काश एक बार, सिर्फ़ एक बार अपने बदले हुए दिन उन्हें दिखा पाता। कम से कम वे चैन से तो अंतिम साँस लेते। यह दर्द उसकी कमज़ोरी नहीं, उसकी ताक़त बना है। वह अधिक से अधिक लोगों को अपना बना रहा है, वह उन सब की ताक़त बनना चाहता है। अपनी जन्मभूमि में अधिक से अधिक लोगों को भरपेट खाना देने की कोशिश कर रहा है। हर उस कमी को पूरा करना चाहता है जो उसके जीवन में थी, जिसे उसने कभी महसूस किया था।

रियल इस्टेट के रोज़मर्रा के जीवन में डीपी के लिए हर दिन कोई नई कहानी होती थी। आज एक मकान का सौदा करते हुए अपने परिवार के प्रति लगाव का एक ऐसा दृश्य देखने में आया जो इंसान से इंसान तक अलग-अलग था। एक बेटे की भावनाओं से जुड़ा और एक बेटी की भावनाओं से जुड़ा अहसास अलग-अलग था। माता-पिता जो अपनी हर संतान को समान प्यार देते हैं, वही प्यार संतानों तक पहुँचते-पहुँचते कहीं कम कहीं ज़्यादा रह जाता था। वह प्यार उसी तरह, वैसा ही स्वीकार्य होता और वैसा ही रिश्तों में बदलाव हो जाता। किसी संतान को अधिक लगाव होता माता-पिता से, तो किसी को अपने भाई-बहनों के प्रति अधिक प्यार जाता देखकर ईर्ष्या की प्रतीति होती।

उस दिन वही देखा और महसूस किया डीपी ने।

एक मकान बेचा जा रहा था। यह माता-पिता की आख़िरी संपत्ति थी जो उनके न रहने से अब तीनों बच्चों के नाम बराबर-बराबर बाँटी जानी थी। उस परिवार के तीन बच्चों में दो लड़के थे और एक लड़की। माँ-बाप ने बेटी के नाम अधिक संपत्ति लिखी थी, बेटों के नाम कम। ऐसा करते हुए उनके मन में क्या था यह तो पता नहीं पर तीनों भाई-बहनों के बीच चालीस और तीस-तीस प्रतिशत का हिस्सा था।

जब मकान बेचा जा रहा था तब सिर्फ़ बेटी मौजूद थी वहाँ। अतिरिक्त दस प्रतिशत अपनी बहन को मिलना उसके भाइयों के लिए एक सोचनीय बिन्दु रहा होगा शायद इसी कारण से वे इस महत्वपूर्ण सौदे में अपनी उपस्थिति को टाल गए होंगे। अपने भाइयों की गैरमौजूदगी में सौदा करने की ज़िम्मेदारी तो उठायी थी बहन ने परन्तु बार-बार अपने भाइयों से पूछ रही थी कि यह – “अंतिम संख्या है, यह आख़िरी क़ीमत का आँकड़ा है।”

“सौदा ख़त्म करूँ या और प्रतीक्षा करूँ।” उसकी आँखों में आँसू झिलमिला कर ओझल हो जाते थे। जहाँ उसका बचपन बीता था, जहाँ उसने माता-पिता के साथ सालों गुजारे थे उनकी वह आख़िरी निशानी हाथ से जा रही थी।

अपने माता-पिता को याद करते हुए, उस मकान को बेचते हुए कई पल उसकी आँखों के सामने आकर कुछ फुसफुसाकर गए होंगे। कभी वह माँ की पुकार सुन रही होगी, तो कभी पिता की। शायद इसीलिए वह ख़ुश नहीं थी। सौदे को सही दिशा में बढ़ते देख कर भी ख़ुश नहीं थी, बस औपचारिकताओं को पूरा कर रही थी।

उसके अपने बचपन की कुछ सुखद-सी अनुभूतियाँ थीं जो शायद एक के बाद एक सामने आ रही थीं। कितना प्यारा शब्द है बचपन। अपने बचपन में बच्चा कहता रहता है – “मैं बड़ा होकर यह बनूँगा, मैं बड़ा होकर वह बनूँगा।”

“मैं बड़ा होकर यह करूँगा, मैं बड़ा होकर वह करूँगा।”

और बड़े होने पर बचपन की यादों में ऐसा खोता है कि वह एक ख़जाने की तरह उनकी रखवाली करता है। समय-समय पर उन्हें याद कर मस्तिष्क में ताज़ा बनाए रखने के प्रयास करता रहता है। उन दिनों की मीठी यादें सालों बाद भी उस मिठास को महसूस कराते भरपूर खुशियाँ देती हैं।

बस एक आह निकल कर कहती है – “काश वे बचपन के दिन लौट आएँ।”

संतोष के पैमानों को कोई शोध, कोई खोज तय नहीं कर पाती होगी। मनोविज्ञान भी अंदाज़ भर लगा सकता है क्योंकि मन के भावों के साथ हर एक पल इस तराजू के पलड़े ऊपर नीचे होते हैं।

जब उस परिवार के पुश्तैनी मकान का सौदा हो गया तो उस लड़की की आँखों के आँसू बह उठे थे, अविरल। कदाचित आँसुओं की उन बूँदों में माता-पिता की अनगिनत यादें सामने आ रही थीं जो समय-समय पर उसे हौसला देती थीं। शायद उस बेटी के लिए यह सौदा साधारण नहीं था। अपनी यादों को सौंप रही थी वह। उसके एवज में उसे पैसे भी मिल रहे थे। सवाल तो उठा होगा मन में कि क्या दूसरों को थमा देने से वह उन यादों को अलग कर रही है, शायद नहीं, वह तो दुनिया की रीति को निभा रही है। उन स्मृतियों के लिए उसे उस मकान में जाने की ज़रूरत नहीं है। वे तो उसके मन के अंदर कैद हैं। जब चाहे तब उन यादों के साथ समय बिता सकती है। शायद यही सोचकर वह मकान बेचकर भारी मन से वहाँ से गयी होगी। कागज़ के टुकड़े जायदाद को बाँट सकते हैं, सब कुछ बाँट सकते हैं पर मन का ख़जाना तो नहीं बाँट सकते।

अपने व्यापार में सौदों से जुड़ी परिस्थितियों को देखकर डीपी इतना सोच लेता था। जिन बातों के बारे में और कोई कभी ध्यान भी नहीं दे पाता होगा वे सारी बातें उसके मस्तिष्क को झकझोर देती थीं। कही-अनकही वे बातें जो मन से मन तक पहुँचती थीं। एक रियल्टर के रूप में काम करते हुए भी वह कई बार अपने मन के सागर में डुबकी लगा आता। लोगों के जीवन से अपने जीवन की तुलना करता तो सदा अपना पलड़ा ही भारी पाता।

अब सिर्फ़ मकान ही नहीं ज़मीनों के सौदे करने के बारे में सोचने लगा वह। एक दूरदर्शी बिज़नेसमैन की तरह। इस सिद्धांत के साथ कि आज नहीं, किन्तु कुछ सालों बाद इस ज़मीन की क़ीमत तीन-चार गुना तो हो ही जाएगी। रेलवे लाइन और स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स की जो कानाफूसी चल रही है वह शायद हक़ीकत में बदल जाए। वैसी मौक़े की ज़मीन मिले तो उसे ख़रीद लो और भूल जाओ। यह फार्मूला अक्सर काम करता है। कभी-कभी तो विकास की गति तेज़ होने से चार-पाँच साल की अल्पावधि में ही भाव ख़ूब बढ़ जाते थे। ऐसी कई स्थितियों के बारे में जॉन और उसके साथियों ने कई बार उससे जिक्र किया था। ऐसे कई किस्से भी थे। ऑफिस में भी कई लोग उसे नया समझकर यह सब कुछ बताते रहते थे। सारी बातें सुनता रहता था वह। किसने, कब, कैसी परिस्थिति में कितना मुनाफ़ा कमाया और कितना नुकसान हुआ।

“भाईजी, क्या सुझाव है आपका इस बारे में। अगर ज़मीन में पैसे निवेश करें तो कैसा रहेगा।”

“अगर अभी मुनाफ़ा लेना है तो यह निवेश किसी काम का नहीं है। अगर अतिरिक्त राशि आपके अकाउंट में यूँ ही पड़ी हुई है और उतनी राशि की आपको ज़रूरत नहीं पड़ने वाली है तो उसके लिए यह एक अच्छा क़दम होगा। ध्यान रहे कभी-कभी पासा पलट भी जाता है और तब बाज़ार से पैसा उठाना बहुत महँगा पड़ेगा।”

“मतलब?” डीपी को आगा-पीछा समझे बिना कभी तसल्ली नहीं होती थी। भाईजी से सवाल पूछकर सब कुछ ठीक से समझना ज़रूरी था उसके लिए।

“मतलब हम तो धीरे-धीरे भावों के बढ़ने की उम्मीद रखते हैं पर कई बार कुछ ख़ास कारणों से पानी के भाव भी नहीं बिकतीं ऐसी ज़मीनें। कई अच्छी परियोजनाएँ राजनीति की बलि चढ़ जाती हैं। कई बार वांछित उपयोग के लिए स्वीकृति नहीं मिलती। उनका कोई लेवाल ही नहीं होता। ऐसे में आपको अपना यह पैसा डूबत में डाल कर चलना होता है। वहाँ आसपास जरा-सा भी परिवर्तन आया तो समझो भाग्य बदला और तब वे ज़मीनें सोना उगलेंगी वरना धूल के बराबर होगी उनकी क़ीमत। ये ज़मीनें जैसी हैं कागज़ पर, वैसे ही रहेंगी बस।”

“अच्छा लेकिन परिवर्तन कैसा होना चाहिए, आप मौसम की बात कर रहे हैं या कुछ और?”

“मौसम की ही बात कर रहा हूँ लेकिन बाज़ार के मौसम की। जब बाज़ार के मौसम में परिवर्तन होगा तभी ये ज़मीनें बाज़ार में होंगी। मतलब इन ज़मीनों के आसपास कोई बड़ी मॉल बन रही हो, या फिर कोई बड़ा पार्क बन रहा हो, या फिर कोई बड़ी फैक्ट्री आ रही हो, या नजदीक से कोई सब-वे लाइन निकालने का सिटी की सरकार का प्लान हो तो ही ऐसी ज़मीनों की माँग बढ़ सकती है वरना नहीं।”

“लेकिन भाईजी अभी भी ख़रीदने के लिए कोई छोटी-मोटी राशि तो नही लग रही एक अच्छा-खासा बड़ा निवेश होगा यह” डीपी की अपनी केलक्यूलेशन जो कह रही थी वह भाईजी जॉन से थोड़ी सी अलग थी। वह जानना चाहता था कि कहाँ उसने ग़लती की है।

“हाँ डीपी, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह न्यूयॉर्क शहर है, न्यूयॉर्क शहर में कोई छोटा-मोटा निवेश तो होगा नहीं। शहर से दूर भी ज़मीन खरीदेंगे तो निवेश राशि तो बड़ी ही होगी और अगर भाग्य ने साथ दिया तो मुनाफ़ा भी बड़ा ही होगा परन्तु तुम तो जानते हो कि आगे बढ़ने के लिए ख़तरा तो उठाना ही पड़ता है। वह व्यापार ही क्या जहाँ ख़तरा उठाने की चुनौती न हो।”

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