Karm - fal books and stories free download online pdf in Hindi

कर्म-फल

कर्म-फल

सलाखों के बीच घिरा हुआ बैठा था वह. पूरी तरह से पीली पड़ चुकी आँखें. पिचके हुए गाल,मुख पर छाई गहरी उदासी और बेतरतीब बालों की सफेदी उसे उम्र से पहले ही बूढ़ा बनाने पर आमादा थे.नीला विस्तृत आकाश, उदित एवं अस्त होता सूर्य चाँद, सितारे देखे हुए तो उसे बरसों बीत गए थे.

गहन रात्रि का दूसरा पहर था किंतु नींद उससे कोसो दूर थी. बचपन की एक-एक घटना चलचित्र की भांति उसकी आँखों के आगे घूमने लगी । गाँव की पगडंडी पर सरपट दौड़ना, साइकिल के पहिए हाथों से घुमाते हुए भागना, खेतों में से छुप छुपकर गन्ने तोड़ना, पेड़ की डालियों पर लटकते हुए अपनी ही धुन में गन्ने का स्वाद चखना, पहाड़ी पर पहुँच पतंग को आसमान की सैर करवाना...सच ! कितने प्यारे दिन थे वो "अतीत के गुजरे हुए पल बारी-बारी से उसकी आँखों के आगे तैरने लगे थे.

फिर एक दिन अचानक शहर से बाबूजी का बुलावा आया गया. गाँव छोड़ शहर पहुँच गया. वहाँ बाबूजी ने एक मित्र ड्राइवर के साथ काम पर लगा दिया बोले-- कुछ दिन में ही एकदम बढ़िया तरीके से ट्रक चलाना सीख जाएगा बचुआ. वक्त सरकता रहा .किशोरावस्था अपनी राह निकल पड़ी लेकिन मुझ में समझदारी न आ सकी. शायद संगति का ही असर था. ट्रक ड्राइवर का काम करते-करते न जाने कब पीने की लत लग गई पता ही न चला. वैसे वह लत नहीं थी ! वह तो थी मेरे जीवन बर्बादी की राह. सोचते हुए उसकी आँखों से अश्रु धारा बह निकली । उस दिन.. नहीं, नहीं ! दिन नही! वो स्याह काली रात. मेरे जीवन के लिए अभिशाप थी.
कितना सही होता यदि उस रात माँ की बात मान ली होती!.. कितना सही होता यदि उस समय आया फोन रिसीव न किया होता. ओह्ह ! कितना अच्छा होता यदि वो काली मनहुुस रात मेरे जीवन में नहीं आती . उस रात मदहोशी में अपने उन साथियों के साथ मिलकर क्या कर दिया मैंने..हाय! उस रात क्या कर दिया था मैंने..धिक्कार है मुझ पर!

एक निर्दोष मासूम का जीवन उजाड़ दिया मैंने! उसकी सजा तो मिलनी ही चाहिए मुझे.
किंतु अब मेंरेे पछताने से क्या होगा !आखिर सब किया धरा मेरा ही था फिर नियति को दोष क्यों दूँ.

रात की खामोशी में उसके रुदन के स्वर गूंज उठे.

न जाने कितनी ही रातें उसने उसने अपनी पलकें नहीं झपकाई थी. वैसे भी रात का अँधेरा हो अथवा दिन का उजाला.दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं था.

संकरे कमरे में छोटे से रोशनदान से हल्के उजास के आने से उसे महसूस हुआ कि भोर दस्तक दे चुकी है. अब धीरे-धीरे उसे अंतर्मन में असीम शांति का अनुभव होने लगा था. रोज-रोज की पीड़ा से मुक्त होने का वक्त जो हो चला था. तभी जेल का दरवाजा खुला और उसके समीप कुछ सियाही आ पहुँचे। वह एकबारगी एकटक देखने लगा.

वहाँ बिखरी खामोशी को तोड़ते हुए एक सिपाही बोला --"चलो जेलर साहब बुला रहे हैं तुम्हें !"

" जेलर साहब, वे तो एक बहाना हैं जानता हूँ दरअसल मौत का बुलावा आ गया है साहेब " धीमे स्वर में कहते हुए हौले से उठा वह और चल पड़ा उनके साथ अपने अंतिम सफर की ओर.