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कुबेर - 30

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

30

एक हादसे से निपट नहीं पाया था अभी कि एक दूसरे ने हमला बोला।

मैरी का फ़ोन था, एक हृदयविदारक समाचार के साथ - “भाई, आसपास के इलाकों में भयंकर बाढ़ से कई लोग बेघर हो गए हैं। जीवन-ज्योत में आसरा लेने के लिए लोगों की भारी भीड़ जमा हो गयी है। सबसे ज़्यादा दु:ख वाली बात तो यह है कि ग्यारह नन्हें शिशुओं के साथ कई बच्चे हैं जिनके माता-पिता को खोज नहीं पा रहे हैं।”

त्राहि-त्राहि की ये घड़ियाँ भयावह थीं।

प्रकृति का प्रकोप कई लोगों को बेघर कर गया था। कई लोग मारे गए थे। कई ने अपने बच्चों को बचाने के लिए ख़ुद की आहूति दे दी थी। बड़े-बूढ़े-बच्चे बेघर हो गए थे। कई घर ढह गए थे जो बचे थे वे पानी से धुल चुके थे। हर घर के अंदर से काम की चीज़ें पानी के आवेग को झेलते हुए बह रही थीं, अंतिम साँसे गिन रही थीं। जान-माल के इस नुकसान में इस समय जान बचाने को प्रमुखता दी जा रही थी, माल तो जितना बचा था, सड़ चुका था, पानी की भेंट चढ़ चुका था। कई घर ध्वस्त थे और कई जो बचे थे, अभी भी खड़े थे वे भी कभी भी ढह सकते थे।

संतुलन प्रकृति का बिगड़े या आदमी का, नुकसान आदमी का ही होता है। प्रकृति से संतुलन की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं। यह तो आदमी ही है जो हर हाल में संतुलन बनाए रखने की कला सीख लेता है। यही कर रहे थे भारतीय सेना के जवान वहाँ। उस पानी के क्रोध को सहते, मदद के हाथ बढ़ाते लगे हुए थे। जितने जीवन बचा सकते थे उतने बचाने की हर संभव कोशिश कर रहे थे।

जीवन-ज्योत अपनी पूरी ताक़त लगाकर काम कर रहा था। सबके लिए आधारभूत सुविधाएँ जुटाने में डॉक्टर चाचा ने अपने एनजीओ का सारा तंत्र लगा दिया था। उन्हें आसरा देना कठिन नहीं था लेकिन उनकी बीमारियों का इलाज कराना कमर तोड़ रहा था। उन शिशुओं के बेहतर इलाज के लिए अस्पताल का ख़र्च ही इतना था कि जीवन-ज्योत इन हालातों में आर्थिक संकट से जूझने लगा था। पैसों की सख़्त ज़रूरत थी। ये बच्चे काफ़ी बीमार थे। इनका उचित इलाज करवाने के लिए ज़रूरी था कि इन्हें तत्काल विशेषज्ञ डॉक्टरों के इलाज के लिए नर्सिंग होम में भरती किया जाए। लेकिन अधिक ख़र्च को देखते कुछ व्यवस्थाएँ करनी थीं। डॉक्टर चाचा ने मैरी, जोसेफ, सुखमनी ताई और जीवन-ज्योत के सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के साथ आपात बैठक की। ये तीन शिशु बालिकाएँ और आठ शिशु बालक थे। अगर शीघ्र कुछ नहीं किया गया तो उनकी जान को ख़तरा हो सकता था।

जीवन-ज्योत में डीपी को जानने वाले इन सभी लोगों का मानना था कि डीपी उनकी सहायता ज़रूर करेगा। बगैर समय गँवाए इनका इलाज शुरू हो जाए। मैरी चाहती थी और उसे विश्वास भी था कि भाई डीपी इन बच्चों का ख़र्च उठा लेंगे। इलाज शुरू कर दिया गया इस उम्मीद में कि शीघ्र पैसा आ ही जाएगा।

जब डीपी को फ़ोन किया गया तो उसके पास अगर-मगर का कोई सवाल ही नहीं था। बच्चों को तुरंत इलाज के लिए भेजने को कहा उसने। इन ग्यारह बच्चों की ज़िम्मेदारी लेकर उसने संस्था का बोझ काफ़ी कम कर दिया था। उनका बोझ तो कम कर दिया था पर स्वयं की कमर तो पहले ही टूटी हुई थी। हालांकि एक उम्मीद थी कि कई लोग इस संकट में मदद करने आगे ज़रूर आएँगे। अपने सभी विदेशी शुभचिंतकों से इस आपदा की घड़ी में अधिक से अधिक आर्थिक सहायता भेजने के लिए अपील की गई। शहर में दादा के समर्थकों को उसने तत्काल ही अपील भेज दी थी। आशा-निराशा के माहौल में अधिकांशत: निराशा का आधिपत्य हो जाता है और ऐसा ही हुआ। कहीं से भी अधिक मदद नहीं आई। समय-चक्र के चंगुल से बचने के लिए तत्काल क़दम नहीं उठाए तो शायद वह पर्याप्त मदद नहीं जुटा पाएगा, इसलिए हर उपलब्ध तरीके को काम में लाना चाहता था वह।

मैरी के लगातार फ़ोन आ रहे थे। स्थिति की विभीषिका के बारे में सुनकर डीपी का दिल दहल रहा था। बच्चों की हालत दिन पर दिन बदतर हो रही थी। डीपी सकते में था। यहाँ रहकर पैसे भेजने के अलावा कोई सहायता नहीं कर सकता था वह और इसी पशोपेश में उलझा था कि क्या करे, क्या न करे। न तो मैरी को कुछ बता सकता था, न ऐसे वक़्त में पैसे भेजने से मना कर सकता था। यह उसकी कड़ी परीक्षा की घड़ी थी। अब क़र्ज़ा तो चुकाना ही था लेकिन उसके पहले जल्दी से जल्दी पैसा भारत भी भेजना था। ऐसे में एक ही उपाय नज़र आया था, अपनी गाड़ी और कुछ प्रॉपर्टी को बेच देने का। प्रॉपर्टी में ज़मीनें ही थीं जो बेची जा सकती थीं। सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि हाल ही में ख़रीदी गयी ज़मीनों के इतनी जल्दी बेचने पर कोई लेवाल नहीं मिलेगा और ज़मीनें पानी के भावों में भी नहीं बिकेंगी।

ज़मीनों के अलावा गाड़ियाँ हैं। दो कारों में से एक को बेच दे तो जो पैसा मिलेगा उसे भारत भेजने की तात्कालिक राहत मिलेगी बस। दोनों भी बेच सकता है मगर फिर मकानों को दिखाने के लिए कैसे ले जाएगा ग्राहकों को। कैसे अपने सारे ऑफिस के कामों की ज़रूरतों को पूरा करेगा। हालांकि उसकी कारें लग्ज़री कारें थीं पर उपयोग की हुई गाड़ियों का दाम बहुत अधिक नहीं मिलता। खैर जो भी हो, जितनी भी राशि इकट्ठी कर पाए, फिलहाल भारत भेज कर कह दे कि वह शीघ्र ही और पैसा भिजवा रहा है।

मैरी का अगला फ़ोन और शीघ्रता के लिए मज़बूर कर रहा था। उससे बात की तो उसने बताया – “हालत बहुत ख़राब है भाई, आप शीघ्र ही और पैसे भिजवा दीजिए क्योंकि सारे शिशु अस्पताल में हैं और यह निजी अस्पताल है। यहाँ की फीस बहुत ज़्यादा है। इन सबका ख़ास तौर पर ध्यान रखने के लिए मैं भी कुछ दिनों के लिए इन्हीं के साथ हूँ। अस्पताल से जीवन-ज्योत भी रोज़ जा रही हूँ। वहाँ हालत अच्छी नहीं है। लोगों की संख्या तीन गुनी है इस समय। हफ़्ते का राशन एक दिन में ही ख़त्म हो रहा है। हर चीज़ कम पड़ रही है।”

“मैं कुछ करता हूँ मैरी”

मैरी को ढाढस बंधाना अलग बात थी और हक़ीकत एक अलग कहानी थी। हैरानी की बात तो यह थी कि यह सब तब हुआ जब डीपी को बड़ा नुकसान हुआ था। जिस समय वह हज़ारों उलझनों में उलझा था तभी इतना बड़ा हादसा होना था। समीपवर्ती इलाकों के कई गाँव डूब चुके थे। कई बेघर संस्था में आए थे। सबके लिए कमरों की, बिस्तरों की व्यवस्था करना और इन बच्चों का अस्पताल का ख़र्च उठाना संस्था के लिए मुश्किल हो रहा था। जीवन-ज्योत का परिवार विशाल होता जा रहा था और यह उसकी ज़िम्मेदारी थी कि जितनी मदद कर सके करे। तुरत-फुरत कार बेचने से कोई अधिक राहत नहीं मिली। इसके बाद भी आर्थिक संकट ज्यों के त्यों थे। शुभाकांक्षियों से बहुत कम मात्रा में मदद आ रही थी, थोड़ी और धीरे-धीरे। संकटों के इस तूफ़ान में एक ही सकारात्मक बात थी, वह यह कि डीपी लोगों में अपने प्रति विश्वास को बनाए रख सका था।

मुश्किलों का अंधड़ चलता है तो बहुत देर तक चलता है, थमने से पहले बहुत दूर तक जाता है। रास्ते में हर किसी को लपेटता हुआ अपनी गति की तेज़ी से किसी को भी नहीं बख़्शता।

एक के बाद एक मुश्किलों के भँवर में फँसता हुआ अब स्तब्ध था वह। समस्याओं से जूझता डीपी जीवन-ज्योत के लिए फंड्स लाए तो लाए कहाँ से। हाथ पर हाथ धरे बैठने का वक़्त नहीं था और स्पष्ट था कि परम्परागत स्रोत काम नहीं करेंगे, कुछ नया करना होगा ताकि तुरंत पैसा हाथ में आए। इन दिनों किसी मकान के सौदे होने की भी कोई उम्मीद नहीं थी। जो था वह भेज चुका था उसके बाद शेष कुछ भी नहीं बचा था। यहाँ के लोगों के वेतन, ऑफिस के ख़र्च, उसके ख़ुद के खाने-पीने का ख़र्च इन सबके लिए उसके पास उँगलियों पर गिनने लायक रकम बची थी।

भाईजी जॉन से जितना हो सकता था सहायता ले चुका था अब और न तो डीपी से लिया जाएगा न ही यह उचित होगा। जीवन-ज्योत की तात्कालिक ज़िम्मेदारियाँ उसे उठानी हैं तो रास्ते भी उसे ही खोजने होंगे। बिज़नेस के भरोसे इन ख़र्चों को नहीं छोड़ा जा सकता था। विकल्प खोजने थे। विकल्प खोजने में क्या, क्यों, कैसे जैसे शब्द मुँह बाये खड़े थे व डीपी के रास्ते सीमित कर रहे थे।

कुछ करना ज़रूरी था और बगैर समय नष्ट करे शीघ्र ही करना था। पाई-पाई का महत्व अब पता चल रहा था और उसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार था। याद आता ढाबे का काम जब अच्छा खाना ग्राहकों को खींच कर लाता था। ऐसे कामों में भी यहाँ पैसा मिलेगा। लेकिन ये ऐसे कार्य हैं जिनमें समय चाहिए जो नहीं है उसके पास। और क्या-क्या किया जा सकता है, गाड़ी चलाने में उसे परेशानी नहीं है, क्यों न किसी कंपनी में टैक्सी चलानी शुरू कर दे। बचे समय में गाड़ी को टैक्सी के रूप में उपयोग करे तो त्वरित पैसे मिलेंगे।

उपाय नज़र आया टैक्सी चलायी जाए। ऊबर के साथ जुड़ जाना चाहिए। अच्छा उपाय था, इससे कम से कम जीवन-ज्योत के ख़र्चे के लिए कुछ अतिरिक्त राशि जुटा लेगा। कार भी अपनी रहेगी। रोज़मर्रा के कामों, मकानों को दिखाने आदि के काम से अतिरिक्त समय मिलते ही जब भी जाना चाहेगा सवारी को ले लेगा, सीधे अकाउंट में पैसे आ जाएँगे। हर एक दिन की छोटी-छोटी आय की राशि मिलकर कुछ तो मदद कर ही देगी।

मरता क्या न करता वाली मन:स्थिति नहीं थी यह, अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने की मेहनती दृढ़ इच्छा शक्ति थी। ऐसा कोई ख़्याल परेशान नहीं कर रहा था कि अपने समय के जाने-माने रियल्टर को ऐसी स्थिति से गुज़रना पड़ रहा था, या फिर बड़े-बड़े भाषण देकर लोगों को समझाने वाला भी इस तरह आर्थिक संकटों के जाल में फँस गया था। यह तो जहाँ चाह वहाँ राह की सोच के अनुरूप लिया गया एक होशियार क़दम था। आगा-पीछा सोचने का समय नहीं था, आगे-आगे कुछ करने का समय था और इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था।

इस समय पैसों की सख़्त ज़रूरत थी। पिछले दो दिन से टैक्सी चलाकर उसने जो कुछ भी कमाया वह राशि ऐसी थी कि हताश कर देती लेकिन इतना-सा पैसा भी यहाँ की उसकी छोटी ज़रूरतों के लिए कम नहीं था। तीन दिन तक रात-दिन गाड़ी चलायी। हर दूसरे-तीसरे दिन कुछ राशि भेजने का इंतजाम कर रहा था। लेकिन अब सोना ज़रूरी था। शरीर था, मशीन नहीं कि बगैर सोए काम करते रहो और वह भी गाड़ी चलाने का, ऐसे में कभी भी नींद का झोंका किसी और संकट को बुला सकता था। अब किसी और संकट से निपटने की ताक़त नहीं थी उसमें, सो चार पाँच घंटे की नींद लेकर फिर से काम शुरू कर दिया। यूँ भी रात के एक बजे से पाँच बजे के बीच न्यूयॉर्क सुस्ता रहा होता था।

भाईजी को पता चला तो नाराज़ तो हुए लेकिन नगद हाथ में आए, उसके लिए सबसे अच्छा तरीका ढूँढने के लिए उसकी तारीफ़ भी की। वे जानते थे कि खुद्दार डीपी इस समय जो करना चाहता है उसे करने दें। कष्टों से जूझते हुए जो सीख मिलती है, उससे भविष्य की राहें बनती हैं, गौरव और गरिमामंडित जीवन के बीज अंकुरित हो जाते हैं।

दो सप्ताह तक टैक्सी चलाकर डीपी को जो भी मिला, जितना भी मिला लगातार पैसा भेजता रहा। एक के बाद एक लेकिन बेहद धीमी गति से धीरे-धीरे बच्चे ठीक होने लगे। कमज़ोरी के अलावा उन बच्चों के सारे मेडिकल टेस्ट सामान्य आने लगे थे। एक बच्चा था जो अभी भी संघर्ष कर रहा था। उसका इलाज वहाँ जारी रहा और शेष सारे बच्चे जीवन-ज्योत आ गए थे। अस्पताल का अतिरिक्त ख़र्च कम होने से जीवन-ज्योत में सबने राहत की साँस ली तो डीपी भी थोड़ा तनाव मुक्त होने की कोशिश करने लगा।

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