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कुबेर - 34

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

34

एक बार बाबू कुछ ऐसी सोच में डूबे चल रहे थे कि पत्थर से टकराकर भड़ाम गिरे थे। हाथ-पैर बुरी तरह छील गए थे। लोगों ने उन्हें उठाया था और थोड़ी देर बैठने के लिए कहा था। तब तो सिर्फ जहाँ से चमड़ी छिली थी वहीं दर्द था लेकिन एक दिन बाद उनका पूरा शरीर कुछ इस तरह दर्द कर रहा था मानो किसी ने हथौड़े से ठोक-पीट कर उसे जगह-जगह से चोटिल कर दिया हो। उस दिन देखा था उसने दर्द से कराहते बाबू को बच्चों की तरह रोते हुए। उनकी आँखों से धार-धार आँसू बह रहे थे। इसके पहले कभी बाबू को रोते नहीं देखा था उसने।

दर्द से कराहते वे एक ही बात कहे जा रहे थे – “मर गया अब तो मैं, अब सहन नहीं होता मुझसे...।”

माँ दिलासा तो देतीं उन्हें पर मन की शंका को एक कोने में छिपा कर – “सब ठीक हो जाएगा, अभी मैं सेक कर रही हूँ थोड़ी देर हिम्मत रखो।”

कोई ‘पेन किलर’ दवा नहीं थी तब उनके पास कि बाबू दवाई खाकर सोते और थोड़ा-सा आराम पा लेते। न दवा थी न दुआ। दवा तक तो पहुँच नहीं थी दुआ भी की जाती तो किससे की जाती। दुआ के लिए देव भी तो हों जो उनकी दुआ सुनें। वहाँ तो कोई देव ही नहीं था। मज़बूर माँ और धन्नू सिर्फ गरम-गरम कपड़े से सेक करते रहे थे। हर एक गरम कपड़े का फोया उनकी चोट को पहले दर्द देता उसके बाद थोड़ा-सा आराम मिलता। लगभग आधी रात तक माँ और धन्नू ने यह सेक करना चालू रखा था तब कहीं जाकर बाबू की आँखों में नींद झिलमिलायी थी। ये विवशताओं का चरम था उस परिवार के लिए। जब कुछ भी नहीं किया जा सकता तो सिवाय समय काटने के कोई चारा नहीं बचता। बस यही करते रहे थे माँ-बाबू, ताउम्र।

एक दिन सारी विवशताओं को उनके बेटे ने बस में कर लिया तो वे देखने के लिए रहे नहीं।

वे भूली बिसरी यादें नहीं थीं जो कभी-कभी कौँधती वे तो ऐसी बातें थीं जो अनवरत डीपी के ज़ेहन में बसी रहतीं, वह चाहे या न चाहे। आज भी उस गरीबी की आँच में तपती माँ की आँखें उन्हें आशीर्वाद देती हैं, आने वाली कई पीढ़ियों को वह सब कुछ देने के लिए जो शायद कोई नहीं दे पाता। दो भागों में बँट गया था जीवन। एक बहुत गरीबी में और दूसरा बहुत अमीरी में। एक बहुत गुस्से में तो दूसरा उसी गुस्से को भुनाते हुए। एक बहुत अकेले तो दूसरा बड़े विशाल परिवार के साथ। शायद इसी बड़े परिवार के लिए उसने अकेले रहना स्वीकार किया है पर अकेले पड़ना उसे कभी स्वीकार्य नहीं होगा।

विशाल परिवार की विशाल ज़िम्मेदारियों से उसके कंधे कभी झुकें नहीं यही प्रयास करते रहना था। यहाँ काम करने के लिए उसे अपनी ताक़त बनाए रखनी थी वरना किसी का भी ध्यान रखने में सफलता नहीं मिल पाती। बीती मुश्किलें इस समय इसलिए भी कौंध रही थीं कि यह भी एक मुश्किल भरा समय था। शायद मस्तिष्क तुलना कर रहा था कि कब ज़्यादा कठिन समय था पहले या अब। वह समय भी बीता, यह समय भी बीत जाएगा। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए की सूची तैयार होती रहती।

क्या करना चाहिए में सबसे पहले आवश्यक था अपने सामान्य ख़र्चों के अलावा अन्य ख़र्चों की राशि इस समय स्थगित कर देना। जिन-जिन कार्यों में डीपी ने अपने व्यवसाय के अलावा बहुत सारा पैसा ख़र्च किया था जैसे दादा के नाम को आगे बढ़ाने के लिए और जीवन-ज्योत की प्रगति के लिए दादा के भाषणों की एक पूरी सीरीज़ तैयार की थी जो कई दुकानों पर मुफ़्त में देने के लिए रखी थी। दादा के जीवन पर एक डाक्यूमेंटरी तैयार करवायी थी जिसे ऐसे चैनलों से प्रसारित करवाया गया था जो पैसे लेकर आपका प्रचार-प्रसार करने में मदद करते हैं। ये सारे कार्य इस समय स्थगित थे।

इस समय तो उसने बस यह काम शुरू किया था कि आपातकालीन स्थिति में जीवन-ज्योत द्वारा किए जा रहे कार्यों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए परचे बँटवाए थे। मासूमों की जान बचाने के लिए डोनेशन का आग्रह भी किया गया था। कई धार्मिक संस्थाओं में नियमित रूप से परचे रखे जाते थे ताकि अधिक से अधिक लोग जीवन-ज्योत से जुड़ सकें। सच्चाई तो यह थी कि परचे पढ़े जाते थे, परचों के रखे हुए ढेर ख़त्म हो जाते थे परन्तु डोनेशन की राशि में कहीं से कोई इज़ाफा नहीं होता। भारतीय बाज़ारों में भी काफ़ी प्रचार-प्रसार किया था परन्तु कुछ ख़ास नतीजा नहीं मिला था। लोग सुनते भी होंगे, देखते भी होंगे, पढ़ते भी होंगे लेकिन कहीं से भी आर्थिक सहायता इतनी नहीं मिलती जो पर्याप्त होती। सब समुद्र के पानी में बूँद भर का सहयोग देते। कभी-कभी तो बूँद भी नहीं मिलती। इसलिए इन सारे कामों को इस समय रोकना ही उचित लगा था।

पहले उसे कभी उन लोगों पर गुस्सा नहीं आता था जो दान नहीं देते थे। उनका पैसा है, उन्होंने मेहनत से कमाया है, वे उस पैसे का जैसे चाहें उपयोग करें। लेकिन अब उसे बुरा लगता था कि उसकी अपील बेअसर जाती थी। लोगों को समझना चाहिए कि सामाजिक संस्थाएँ समाज को स्वस्थ, उदार और सबके साथ रहने योग्य बनाती हैं। अन्यथा दौलत ने अमीरी-गरीबी की जो रेखाएँ खींची हुई हैं, वे इतनी धारदार हो जाती हैं कि अमीर लोग गरीबों की आह का दंश नहीं सह पाते। अमीरों के पास उनकी दौलत चाहे पड़ी-पड़ी सड़ जाए और जिन्हें ज़रूरत है वे पैसों के अभाव में दम तोड़ते रहें। इस विषमता को कम करने के लिए ही तो वह और उसके जैसे तमाम लोग परोपकार की भावना फैलाने के काम करते हैं। कुछ लोग धर्म और आस्था का सहारा लेते हैं और कुछ लोग सिर्फ मानव सेवा का।

इन सभी विज्ञापनों का मुश्किल के समय में बेअसर जाना, इनमें लगने वाली राशि को बचाने के लिए एक दबाव था। काफ़ी पैसा लगता था इनमें। इतने नुकसान के बाद इन सबसे हाथ खींचने पड़े थे डीपी को। दादा के पढ़ाए बच्चे अगर आज बाहर आकर न कमा रहे होते तो जीवन-ज्योत का ख़र्च चलना मुश्किल था। अब डीपी को भी यहाँ रह कर पैसे भेजने में ज़्यादा तसल्ली मिलती। किसी प्रचार-प्रसार में पैसा लगाने के बजाय अगर यह सारा पैसा वहीं भेज दे तो ज़्यादा अच्छा होगा।

जीवन-ज्योत के धर्मनिरपेक्ष माहौल में मोहन भी आते थे, मोहम्मद भी आते थे। वे चाहें तो नाम बदल सकते थे, न चाहें तो कोई बात नहीं। कई लोग दादा के ख़ास दिए गए नामों को पसंद करते थे। एक नयी पहचान बनाते थे। दादा की ओर से नाम बदलने का कोई दबाव नहीं था।

दादा कहते थे – “मनुष्य स्वभाव से न तो साधू होता है, न राक्षस, न देव, न दानव। इंसान और इंसानियत शब्द जितने दिखने में सरल हैं उतने ही समझने में कठिन हैं। किसी स्कूल या कॉलेज के बस की बात नहीं है कि किसी को घोंट कर पिला दे इन शब्दों की महत्ता और सम्मानमयी डिग्री दे दे इनकी उत्कृष्ट समझ के लिए।”

वह भी अपनी राय व्यक्त करता – “लेकिन दादा इन शब्दों को कभी न सीखने वालों के मस्तिष्क बिल्कुल चिकने घड़ों की तरह इतने काइयाँ होते हैं कि कुछ भी नहीं टिकता उन पर, वहाँ तक जो कुछ भी जाता है, फिसल कर गिर जाता है।”

“तुम ठीक कहते हो डीपी। यह मस्तिष्क जो होता है, न इसकी मशीन आसपास के माहौल को देखकर आगे-पीछे, ऊपर-नीचे होती है। हमेशा याद रखना, सुनने के बजाय देखने से आदमी जल्दी सीखता है।”

सच है, जब तक लोग देखेंगे नहीं कि उनका पैसा कितने अच्छे काज के लिए जा रहा है तब तक वे इस बार में सोच नहीं पाएँगे।

पूरे तीन महीने से चल रहा था धीरम का इलाज। दो महीने तक अस्पताल में और उसके बाद सप्ताह में दो बार बराबर चेकअप के लिए अस्पताल के चक्कर लगते रहे। डीपी इन तीन महीनों में पूरी तरह बदल चुका था। चेहरे की आभा नींद पूरी न होने की वजह से नदारद थी और शरीर कुछ भी करने से पहले सोचता था कि क्या यह करना ज़रूरी है। मस्तिष्क में एक धुन बजती थी – “किसी भी तरह बस पैसों की जुगाड़ करना” बस उसी में लगा रहता था।

कई बार उसे देखते हुए ताई को लगा कि – “कहीं न कहीं, कुछ न कुछ गड़बड़ है, कोई न कोई परेशानी है उसे।” वे पूछतीं डीपी से – “बबुआ तुम ठीक हो न?”

परन्तु हर बार वह यही कहता ताई से कि – “बस दिन भर में थकान हो जाती है ताई और कुछ नहीं।”

ताई को लगता सचमुच थकान तो बहुत हो जाती होगी दिन भर तो दौड़ता रहता है बच्चा। एक पैर यहाँ तो एक पैर वहाँ। आराम से बैठ कर खाने का या बात करने का भी कहाँ समय मिल पाता है। कुछ लोग अपनों की ज़िम्मेदारियाँ भी नहीं उठा पाते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो परायों को अपने बनाकर, ख़ुशी-ख़ुशी ज़िम्मेदारियाँ उठाकर अपना पूरा जीवन समर्पित कर देते हैं। डीपी की उम्र के लड़के तो सिनेमा, क्लब और रात-रात भर की पार्टियों में लगे रहते हैं और एक यह है जो विदेश में रहकर हर देशवासी की सेवा करने का बीड़ा उठाए हुए है।

ऊपर देखतीं और कहतीं – “हे देवा, इन बच्चों पर दया करो। डीपी की मेहनत का फल दो। धीरम एक फूल जैसा बच्चा कैसा कुम्हलाया हुआ है। अपनी कृपा दृष्टि डालो देवा।”

ये दुआएँ, डॉक्टरों का श्रम, मेहनत और सेवा का परिणाम सामने से आता दिखाई देने लगा क्योंकि इतने दिनों से सुस्त सोए रहने वाले बच्चे धीरम के चेहरे पर धीरे-धीरे मुस्कान आने लगी थी। उसकी मुस्कान के साथ ताई और डीपी की मुस्कान भी लौटी, धीरे-धीरे लगा सब कुछ लौटने लगा है। उजाले की एक किरण दिखती है तो सारी प्रकृति उल्लास में गाने लग जाती है। वही हुआ, मौसम बदलता दिखा। हर पत्ते और हर पेड़ की शाखाओं में हरकत होने लगी, हल्की-सी मस्ती झलकने लगी। मन की हार के आगे सब कुछ हारते हुए अब तक सब कुछ बुझा-बुझा सा दिखता था। जैसे ही मन की जीत महसूस हुई हर ओर मुस्कान दिखाई दी, आशा की कोंपलें पल्लवित होने लगीं।

बाज़ार से एक और अच्छी ख़बर मिली। भाईजी ने बताया – “वे दो ज़मीनों के लॉट जिनकी अभी तक कोई क़ीमत नहीं आँकी जा रही थी, वे पास में एक माल बनने से जीवंत हो गए हैं, उन पर अच्छा मुनाफ़ा मिलने की संभावनाएँ हैं।”

अगर और कोई वक़्त होता तो वह अपने निवेश को बनाए रखता। समय का धैर्य और अच्छा फल दे सकता था लेकिन भाईजी ने सच्चाई रख ही दी थी – “ऐसा निवेश भी क्या जो अपनी ज़रूरतों से ज़्यादा बड़ा हो जाए।”

उसने उन्हें भी बेचने की व्यवस्था की, सेल पर लगा दिया ताकि फिर से खड़े होने के लिए आधार मजबूत हो। रियल इस्टेट में जलवा कायम करके वह घायल शेर की स्थिति में था। कर्ज़ा तो साफ़ हो रहा था परन्तु ज़िम्मेदारियों और कर्तव्यों की टेढ़ी मार कमर सीधी ही नहीं करने दे रही थी।

अब सब कुछ दाँव पर लग जाए, ऐसी स्थिति कभी भी आने देना नहीं चाहता था डीपी। कुछ नया करना था ताकि किसी भी एक तरफ़ से धोखा मिले तो दूसरी दिशा हमेशा खुली रहे। अब जब आर्थिक संकट से पूरी तरह बाहर आ चुका था तो अपनी इन परेशानियों को सुखमनी ताई से साझा करने में उसे कोई हिचक नहीं थी। एक दिन रात में धीरम के सोने के बाद वह काफ़ी देर तक बैठा रहा उनके साथ। अपनी आप बीती सुनानी शुरू की तो ताई स्तब्ध थीं। उन्हें बहुत रोना आया डीपी के इस कठिन दौर के बारे में सुनकर।

डीपी एक सुखांत फ़िल्म की तरह अपनी कहानी कहे जा रहा था।

वे नाराज़ हुईं, गुस्सा भी कि आख़िर पहले क्यों नहीं बताया डीपी ने जब वे बार-बार पूछ रही थीं। महसूस कर रही थीं कि कहीं न कहीं कुछ ग़लत है – “अपना दु:ख मेरे साथ नहीं बाँटोगे बबुआ तो क्या मुझे अच्छा लगेगा। इतना पराया कर दिया तुमने मुझे। तुम्हारी ताई हूँ मैं। बार-बार पूछने पर मुझे नहीं बताया तो मुझे लगा कि शायद मेरा वहम है। बताते तो सही कि तुम पर क्या बीत रही है।”

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