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कुबेर - 39

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

39

सुखमनी ताई ने डीपी के कांडो फ्लैट को अपनी आत्मीयता और स्नेह के सागर से भर दिया था। घर की हर ईंट मुस्कुराने लगी थी। हर चीज़ अपनी जगह पर होती। जीवन-ज्योत के किचन से निकल कर न्यूयॉर्क जैसे महानगर के जीवन को बगैर किसी बाध्यता के जी रही थीं वे। जीवन का यह बदलाव उनके स्वभाव को नहीं बदल पाया। एक मोटा अनुमान लगाया जाए तो अधिक से अधिक दस साल बड़ी होंगी वे डीपी से लेकिन उनके स्वभाव की गहराई उनसे मिलने वाले को पूरी तरह दिखाई देती।

धीरम की किलकारियाँ गूँजतीं और घर में रौनक बनी रहती। डीपी के लिए अब अकेले रहने के बारे में सोचना भी मुश्किल था। इनके यहाँ से जाने के बाद डीपी का यह घर, ऐसा घर तो बिल्कुल नहीं रहता। जीवन-ज्योत का एक बहुत अदना-सा हिस्सा अब न्यूयॉर्क शहर में बसा था। इसे बड़ा बनाने की सोचते हुए दूरदर्शी ख़्याल यह भी आता कि धीरे-धीरे सभी बच्चों को भी यहाँ बुला लिया जाए। धीरम के साथ उन बच्चों को भी अपने पिता के प्यार का हक़ मिलना चाहिए पर अभी यह समय नहीं था कि यहाँ की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ाई जाएँ। एक बार पूरी तरह से सेट हो जाए, सब कुछ जम जाए, उसके बाद ही सोचा जा सकता है। फिर अकेली ताई पर इतने बच्चों के काम का बोझ डालना भी उसका स्वार्थ होगा यह सोचकर अपने इस ख़्याल को वहीं विराम दे देता वह। धीरम को डे-केयर में भेजने का बंदोबस्त भी कर दिया गया था। अभी भी वजन काफी कम था उसका पर डॉक्टरों का कहना था कि – “सामान्य दिनचर्या से रिकवरी में फ़ायदा होगा। अपनी उम्र के बच्चों के साथ खेलेगा-कूदेगा, खाएगा-पीएगा तो बहुत जल्दी वजन बढ़ेगा।”

सच भी था, अकेला बच्चा घर में रहे, बजाय इसके वह बाहर रहे, खुद खाना सीखे, अपने काम खुद करना सीखे तो पूरी तरह बदल जाता है। धीरम का ठीक होना मानसिक और शारीरिक स्फूर्ति के लिए एक टॉनिक था, घर के लिए, डीपी के लिए, ताई के लिए और ख़ुद धीरम के लिए भी। डीपी और ताई बहुत ख़ुश थे जिस तरह से वह छोटी-छोटी बातों पर खिलखिलाता, हँसता और घर का शोर बढ़ाता। हर दिन उसका बाल तन-मन विकसित हो रहा था। केंसर से लड़ाई जीत कर आया था शायद इसीलिए अब कमज़ोरी और कम वजन की छोटी-छोटी बातें उसके लिए कुछ ख़ास नहीं थीं।

हर छोटे-छोटे खेल में उसकी स्फूर्ति और उत्साह का कोई सानी नहीं था। बड़ों के लिए एक ऐसा उदाहरण पेश करता कि मन के हर छुपे हुए अंधेरे, निराश कोने को प्रकाशित कर दे, हर मुश्किल को आसान करने का फॉर्मूला सीख ले उस नन्हीं जान से। उसका यही मस्त और चुलबुलापन तेज़ी से रिकवरी की प्रक्रिया में सहायक था। दोनों ओर, इधर भी और उधर भी, घर पर भी और डीपी के काम पर भी।

कंपनियाँ चढ़ते सूरज की तरह धीरे-धीरे प्रखर हो रही थीं। प्रगति की गति पर निरंतर समीक्षाएँ होती रहतीं। मुनाफ़े की दर रेंग रही थी, बस कुछ इस तरह कि अपना ख़र्च निकालने के बाद जो शुद्ध लाभ आँका जाता वह धीमी गति से छोटे-छोटे नंबर बढ़ाता गया। टैक्सी चलाते हुए उसकी प्रखर संवाद कला ने उसे हर बार ग्राहकों से पाँच स्टार दिलवाए थे। हर दिन दो-तीन नए शुभचिंतक तो बन ही जाते थे। कई बार दिल में आया था कि इनसे दान की अपील कर सकता है लेकिन उसकी अपनी दूरदर्शी सोच इसकी अनुमति नहीं देती। अपनी जनकल्याणी योजनाओं को साझा करने का लोभ संवरण करके रखता वरना ऊबर टैक्सी कंपनी की आचार संहिता का उल्लंघन हो जाता।

टैक्सी चलाने के काम ने भी कभी हौसला पस्त नहीं किया था। एक ऐसा अनुभव मिला था जिससे किसी के आगे हाथ फैलाने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। कभी मन में यह ख़्याल भी नहीं आया कि एक प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान में इंटरप्रेन्योर का फोटो लगने के बाद कोई उसे टैक्सी चलाते हुए पहचान लेगा तो क्या होगा। यही तो ख़ास बात है महानगरों की। भीड़ में किसी को किसी का चेहरा याद नहीं रहता, सब समान हैं भीड़ की नज़रों में और यदि कोई पहचान ले तो ‘डाउन टू अर्थ’ की उपाधि पाकर ख़ुश होने का मौका हथियाने में कोई हर्ज़ नहीं था।

भाईजी जॉन ने शुरू में ही इस बात की ताक़ीद कर दी थी कि – “कभी किसी काम को छोटा समझ कर मत करना। कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता, ना ही किसी काम को करने से कोई आदमी छोटा होता है, ना ही उसकी इज्ज़त कम होती है बल्कि वह एक उदाहरण पेश करता है दुनिया के सामने अपनी मेहनत का, अपनी खुद्दारी का।”

भाईजी की बात को अपने सिर-आँखों पर बैठा कर डीपी ने उतनी ही लगन से टैक्सी भी चलायी थी और छोटे-छोटे काम भी समय पर डिलीवर किए थे। ये समय के वे पल थे जो हर तरह से इंसान को परखने के लिए जाल बिछा देते हैं। हर तरह से पड़ती मुश्किलों की मार ने एकबारगी तो उसे यह सोचने के लिए मज़बूर किया था कि – “क्या ज़रूरत है जीवन-ज्योत की इतनी चिन्ता करने की, संकट आया है तो वे निपटने का मार्ग ढूँढेंगे ही, क्यों वह मरा जा रहा है इस तरह.... एक-एक पैसा हड्डी-पसली तोड़कर हाथ में आ रहा है, इस तरह तो वह अधिक दिन जी नहीं पाएगा.... ” आख़िर वह आम इंसान था, देवता नहीं कि ऐसे विचारों से पूरी तरह मुक्ति पा ले। कुछ पलों की इन हताशाओं को, पनपते अवसाद को, दादा का चेहरा सामने आकर कुचल देता। अंदर का लड़ाका जैसे तलवार लेकर सामने आ जाता, लड़ने को तत्पर।

चुनौती देते हुए वे पल कानों में गरम तेल डालते थे – “दम है तो निकल जाओ, वरना घुट-घुट कर मर जाओगे।”

डीपी वह चुनौती स्वीकार कर लेता - “मैं आख़िरी साँस तक लड़ूँगा, और एक दिन इस जाल से निकल ही जाऊँगा।”

“कैसे निकलोगे, गले-गले तक तो क़र्ज़ में फँस चुके हो।”

“मैं अपने गले को बचा ले जाऊँगा, थोड़ा समय लगेगा बस, थोड़ा-सा।” और समय का सही पल जैसे ही उसकी पकड़ में आया तब सब कुछ पटरी पर आ गया, डीपी निकल कर बाहर आ गया।

भाईजी भी ख़ुश थे, एक सुकून मिलता उन्हें कि आपस के सलाह-मशविरे से डीपी की पूरी मदद हो पा रही है। अच्छा लगता यह देखते हुए कि घर और काम दोनों मोर्चों को पटरी पर ले आया है डीपी। घर पर भी धीरम ठीक हो रहा है। ताई की सुघढ़ देखरेख ने उसे नये जीवन की नयी शुरुआत दी है। उन्होंने सोचा ताई जब से आयी हैं, कहीं नहीं गयी है। अब उन्हें कम से कम अपने घर बुलाया जा सकता है डिनर के बहाने। तुरंत फ़ोन करके डीपी से कहा – “सुनो डीपी, आज कोई ख़ास मीटिंग है क्या शाम को?”

“नहीं भाईजी, आज शाम पाँच बजे के बाद सीधे घर जाने का प्लान है।”

“मेरी शाम भी आज एकदम फ्री है तो क्यों न तुम ताई और धीरम को लेकर घर आ जाओ, साथ डिनर करेंगे।”

“वाह, यह तो बहुत अच्छा रहेगा।”

भाईजी का स्नेह भरा निमंत्रण भला डीपी कैसे टाल सकता। ताई बहुत ख़ुश हुईं यह जान कर कि भाईजी ने उन्हें अपने घर बुलाया है। यहाँ आने के बाद पहली बार किसी के घर जा रही थीं ताई। सुबह ही गुंजियाँ बनायी थीं तुरंत डिब्बे में डाल लीं वहाँ ले जाने के लिए। अब यह उनका भारतीय किचन था। दाल-रोटी-सब्ज़ी तो बनती ही, वह सब कुछ भी बनता जो वार-त्योहार पर बनना चाहिए। धीरम को अच्छी तरह तैयार करके वे भी अपने महाराष्ट्रीयन कपड़े पहनकर ख़ूब अच्छी तरह तैयार हुईं। उनको डीपी ने याद दिलाया कि – “ताई, यह अमेरिका है, आपको जीन्स पहनकर चलना चाहिए।”

“जीन्स है कहाँ मेरे पास वरना मैं तो पहन लेती।”

“अच्छा तो आज तो हमारी सुखमनी ताई जीन्स में ही चलेंगी... सचमुच ताई, चलो, ख़रीद लेते हैं” डीपी पूरे मज़े ले रहा था ताई के।

“अगली बार के लिए रखो यह ख़रीददारी बबुआ वरना भाईजी कहेंगे ताई को समय की पाबंदी नहीं है।”

“अच्छा ताई, वहाँ आपको दाल-चावल, रोटी-साग नहीं मिलेंगे। सैंडविच और बर्गर खाने को तैयार रहना।”

“मैं कोई पुराने जमाने की सठियाई हुई सुखमनी नहीं हूँ बबुआ। सब कुछ खा सकती हूँ और सब कुछ पहन सकती हूँ।”

“हाँ, यह तो मुझे पता है ताई, आप तो बेस्ट हैं।”

जब वे भाईजी के घर पहुँचे तो बहुत अच्छी तरह स्वागत हुआ उनका। ताई की परम्परागत पोशाक सबका ध्यान खींच रही थी। जॉन के यहाँ काफ़ी देर तक रहे वे लोग। ताई को भी सब कुछ अच्छा लगा। जब भाभी ने उनको अपना पूरा घर बताया तो ताई कहती रहीं – “सब मेहनत का फल है। हमारे यहाँ तो कई लोग ऐसे आलसी होते हैं कि हिलते भी नहीं हैं, पड़े-पड़े ही सब कुछ पाना चाहते हैं।”

भाभी मंद-मंद मुस्कुराती रहीं।

“मैं इतने दिनों से देख रही हूँ, डीपी बबुआ और भाईजी रात नहीं देखते, दिन नहीं देखते बस काम करते रहते हैं। इतना काम अगर हर आदमी करने लगे तो भला उसे रोटी के लिए क्यों तरसना पड़े।”

ताई के इन विचारों में अनुभव का सच था। भारत की दुनिया और अमेरिका की दुनिया में अंतर करने का अनुभव था। डीपी के आगे बढ़ते रहने की सच्ची कहानी थी। किसी कल्पना से लिया गया विचार मात्र नहीं था यह।

धीरम बीच-बीच में सबका ध्यान खींच लेता। भाईजी के बच्चों ने उसके लिए बड़ी स्क्रीन पर एक कार्टून फिल्म लगा दी थी जिसे वह ताली बजा-बजा कर ख़ुश होते हुए देख रहा था। बच्चों के लिए भी किसी नन्हें को कुछ सिखाना उनकी आत्मीयता का परिचय दे रहा था। धीरम में उनका इस तरह रुचि लेना, अंकल डीपी में और ताई में उनके अपनेपन को दिखाने के पूरे संकेत थे।

ताई जगत ताई थीं, भाईजी जगत भाईजी थे और दादा तो जगत दादा थे ही। जीवन-ज्योत के तारणहारों के द्वारा सब कुछ पूरे जगत के लिए ही होता था, विश्व स्तर पर ही होता था।

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