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रेल में रेगिस्तान

रेल में रेगिस्तान

रात एक बजे का समय। बंगलौर की ओर प्रस्थान करने वाली कर्नाटक एक्सप्रेस जलगांव के समीप कुछ आगे जा कर ब्रेक हो गई। ड्राईवर ने देखा सामने एक जानवर नुमा मनुष्यों के झुण्ड को चैकड.ी भरते हुए। जेहन में एक धमाका सा हुआ-

‘‘...नक्सलिस्ट...?‘‘

‘‘..रेल के शेष कर्मचारी लपक के ड्राइवर के केबिन में आ गए। वेटिंग टिकट पर जा रहे यात्रियों को हड़का-हड़का कर दूने दाम पर टिकट बना रहे टीसियों का काला झुण्ड इधर-उधर भागने लगा।

‘‘...अब क्या होगा..?‘‘-खिड़कियों से झांक-झांक टोह लेने का प्रयास करते रहे। पर चारों ओर घुप्प अंधकार के सिवा कुछ भी ना दिखा। अन्ततः वे भी ड्राइवर के केबिन की तरफ भागे। कुछ ही क्षणों में ड्राइवर का केबिन ठस्स हो गया। यात्रियों के डब्बों में अजब खसपसाहट गूंज रही थी। महिलाएं अपने-अपने ईष्टों को अपनी-अपनी तरह पटा रही थीं-

‘‘...हे कृष्ण भगवान, रक्षा करो एक एक सौ एक रू. का प्रसाद चढ.ाऊँगी।‘‘

कुछ महिलाएं जो गहने पहने थीं, फटाफट उतार कर ब्रा में खोंस लिए। बोगी नं. 54 में एक बच्चे ने जन्म लिया। अजब छीछा लेदर। बाकी यात्री नाक में कपड़ा ठूंस के इधर-उधर भाग खड़े हुए। कुछ अदद महिलाओं ने प्रसव करवाया कि एक बूढ.ी महिला की स्मृति ताजा हो गई-

‘‘...और तो और, ये तो रेल है मेरी बहू को तो लोकल बस में बेटा पैदा हुआ। बड़ा भभ्भड़। अखिर जरवल स्टाॅपेज पर बस रूकी और हमारे कष्ट कम हुए। लेकिन दुष्ट ड्राइवर बड़ा हेठी। नेगचार करने लगा। बोला -‘‘एक सौ इक्यावन रू. दो तब नीचे उतरने देंगे। दोनों दरवाजे भेड़ लिए। खैर बच्चे की ख्ुाशी थी। हमने भी खुशी-खुशी नेग दिया और जच्चा बच्चा को घर लिवा लाए।‘‘

तभी एक चाय वाला गुजरा और हौले से फुसफुसाया-

‘‘..अपने सामान सहेजिए। नक्सलवादियों ने गाड़ी रोक ली है।‘‘

-ज्च्चा को धक्का सा लगा-

‘‘हे ईश्वर कैसी घड़ी में मैने बच्चा जन्मा है।‘‘-उसका पति कभी इधर दौड़ता कभी उधर भागता। अन्य दूसरी महिलाएं अपनी-अपनी तरह से जच्चा बच्चा को सम्भालने में लगी रहीं। कि एक पचपन पचास साल के व्यक्ति ने एक भारी भरकम वायलेट निकाल कर एक महिला को पकड़ाया-

‘‘...बहन जी, इसमें भारी रकम है, आप जरा इसे सुरक्षित स्थान पर पहुंचा देतीं तो अच्छा होता‘‘

-महिला ने तेजी से ले कर अपने ब्लाउज में खोंस लिया। एक मनचले ने दूसरे को आँख मारी-

‘‘...यार गांधी ही बढ़िया। आज भी आराम से महिलाओं के ब्लाउज में घुस कर बैठ जाता है।‘‘

‘‘...शटअप यार...मुझसे ऐसी बात नहीं, मैने ब्रह्मचर्य अपनाया हुआ है।‘‘

‘‘...दूसरे ने ठिठोली की तो पहले वाला समीप आ कर बोला-

‘‘...कौन सा ब्रहमचर्य...गांधी वाला ब्रह्मचर्य...?‘‘

फिर दोनों का ठहाका बोगी में फेल गया। इस पर उस अधेड़ व्यक्ति ने आँख तरेरी-

‘‘...तुम्हें शर्म नहीं आती कि हम संकट में हैं और कुछ ही देर में हम सब लूट लिए जाएंगे।‘‘

‘‘..क्या करूं अंकल, हमारे पास कुछ लुटने के लिए है ही नहीं। बेरोजगार हूँ। जान भी ले लेंगे तो भी हम फायदे में रहेंगे। कम से कम बेरोजगारी की टांगों पे सात-आठ जनों के भूखे पेटों का बोझ उठाने से तो बच जाएंगे।‘‘

‘‘...और अंकल...ये लुटेरे हमसे अच्छे, भला अपने परिवार का पेट तो भर पा रहे हैं।‘‘-दूसरा लड़का बात को आगे बढ़ाता बोला। महिलाओं सहित उस अधेड़ व्यक्ति ने उन लड़कों को एक हिकारत भरी नजर से देखा और अपने काम में लग गईं। दूसरी बोगी का हाल भी कुछ ऐसा ही था। खिड़की के पास बैठे तिलक धारी पण्डित जी उंगलियों में पड़ी माला के मनके बड़ी रफतार से घुमाए जा रहे थे। सामने वाली सीट पर एक जोड़ा बैठा था। लड़की फनफना रही थी-

‘‘....तुम्हारे चक्कर में ना...कहाँ से कहाँ मैं तुम्हारी बातों में आ गई।‘‘

‘‘...क्या मतलब, तुम्हारी मर्जी नहीं थी। क्या तुम प्यार नहीं करतीं मुझे। सिर्फ मेरे कहने से भाग आई हो।‘‘

‘‘...मैं क्या जानती थी ये आफत आने को है।‘‘

‘‘...और मैं जानता था?‘‘

‘‘..उफ्! अब इस बहस से कोई फायदा नहीं, रास्ता सोंचो‘‘

‘‘...वो जेवर की पोटली अपने ब्लाउज में रख लो..‘‘

‘‘...ओह वह ब्लाउज में कहाँ से आएगी, थैला थोड़े ही है ब्लाउज।‘‘

‘‘..कैसे भी रख लो...‘‘

लड़की बैग से पोटली निकाल कर ब्लाउज में खोंसने लगी। सम्मुख बैठे पण्डित जी की नजर उसके उरूजों पर जा कर टिक गई। लड़की का आंचल नीचे सरक आया था। पण्डित जी की उंगलियां थम गई। लडके ने उनकी ओर घूर कर देखा तो वह सकपका गएं उंगलियां फिर तेज-तेज चलने लगीं। अचानक बिजली भी गुल हो गई। हर तरफ हाय-तौबा मच गई। कि तभी ट्रेन में तेज-तेज डण्डे पटकने की आवाजें आने लगीं। फिर कई आवाजें एक साथ बोगियों की दीवारों से टकराने लगीं-

‘‘...कोई हिलना नहीं.....हिलने का नहीं...नायतो नुकसान उठाओगे....‘‘-लोग सकपका गए। एक तेज आवाज गूंजी-‘‘..सभी अपने-अपने सामान आगे कर दो।‘‘

-लोगों ने बगैर चूँ किए अपने-अपने सामान आगे कर दिए। वे सारे लप-झप में सामान यहाँ-वहाँ करने लगे। एक लड़का छोटी सी टार्च लिए प्रकाश कर रहा था। हालांकि ये प्रकाश पर्याप्त नहीं था। खैर...।

बोगी नं. 54 में नवजात शिशु जन्म ले चुका था किन्तु अभी भी नाल से जुड़ा हुआ था। महिलाएं जच्चा-बच्चा को घेरे बैठी थीं। बच्चा चीख चीख के अपने आगमन की खबर फेलाए जा रहा था। लगेज सारे सीटों के नीचे इधर-उधर बिखरे पड़े थे। तभी कुछ लोग आ पहुंचे। उनमें से एक व्यक्ति गरजा-

‘‘...अपने-अपने सामान सामने लाओ वर्ना चक्कू मार देंगे‘‘

-इतना सुनना था कि उनमें से वृद्ध महिला गिड़गिड़ाई-

‘‘..अरे बेटा चाकू हो तो जरा हमको दे दो, बच्चे की नाल काट दूँ। बेचारे दोनों माँ-बेटे परेशान हो रहे हैं।‘‘

लुटेरों को ज्यों सांप सूंघ गया। चक्कू हो तब ना। कुछ सोंच कर उनमें से एक व्यक्ति ने दूसरे से आदेशात्मक स्वर में कहा-

‘‘...रे भनुवा...जा आगे से चक्कू ले कर आ।‘‘

-उनमें से भनुवा नामक युवक किसी ओर चला गया। बाकी ने सामानों की तलाशी लेनी शुरू कर दी। उनके साथ एक बड़ा सा थैला था। जिसमें वे सामान फटाफट डाले जा रहे थे। तब तक भनुवा नामक युवक वापस आ गया। उसके हाथ में एक छोटा सा सब्जी काटने वाला चाकू था। शायद रेल की कैंटीन से उठा लाया था। उसने चाकू वृद्धा को पकडा दिया-

‘‘...ये लो माँ जी‘‘

- वे अपने काम को अंजाम दे चुके और आगे बढ़ गए। वद्धा चाकू ले कर अपने काम में लग गई। करीब चालीस-पचास लोग पूरी रेल में फैले पड़े थे। लगभग एक घण्टे उन्होंने ट्रेन को खंगाला और फिर ड्राइवर को हरी झण्डी देते हुए दफा हुए-

‘‘....धन्यवाद डरेबर साब अब लेई जावो गाड़ी...‘‘

ड्रेाइवर की जान में जान आई। ट्रेन चल दी। लाईट जल पड़ी। सबने राहत की सांस ली। रेलवे-स्टाफ. सभी बोगियों को चैक करने में लग गया। कहीं कोई घायल या हताहत तो नहीं हुआ ? यात्री स्वयं अपने-अपने सामान चैक करने लगे। सबकी आँखें फैल गईं। रेलवे-स्टाफ भी दंग रह गया।

‘‘..आखिर चक्कर क्या है ?‘‘

नवजात शिशु की नाल काट दी गई थी। अब वृद्धा पानी ढूढ़ रही थी कि बच्चे को नहलाया जाए। मगर पानी की एक भी बोतल नहीं। पति कह रहा था-‘‘..अभी तो छः बोतल ले के आया था।‘‘-वृद्धा ने समझाया-‘‘...कोई बात नहीं खतम हो गया होगा, आगे से और ले आओ।‘‘-वह चुंधियाया सा आगे बढ़ गया। किन्तु कहाँ ? रेल में रेगिस्तान उतर चुका था। यहाँ से वहाँ तक पानी का नामो निशान नहीं। गर्मी और पसीने की गंध से नाक नहीं दी जा रही थी। बच्चे प्यास के मारे रोने चिल्लाने लगे थे। कैंटीन तक में पानी नहीं था। ब्लाउज में गहने छुपाए लड़की ने गहने की पोटली बाहर निकाल ली। लड़के ने पसीना पोंछते हुए अपना बैग आगे खिसकाया और पानी की बोतल ढूंढने लगा। बोतलें ना पा कर वह झल्लाया-‘‘....सालों नें बोतलें किधर लुढ़का दीं..!‘‘-फिर चकित सा बोला-‘‘..ये ...सामान तो सारा है साले ले क्या गए..‘‘-धीरे-धीरे ऐसी खबरें प्रत्येक बोगी से आने लगीं। और फिर पूरी ट्रेन में यही चर्चा गर्माने लगी। दूसरी ओर गर्मी के कारण पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच गई। बच्चे प्यास से चिल्ला रहे थे। नव जात शिशु को बगैर नहलाए ही कपडे में लपेट के रख दिया गया। ड्राइवर अपने किसी अधिकारी से फोन पर बतिया रहा था।

‘‘...सर क्या ऐसा भी होता है‘‘

‘‘...होता तो नहीं है, पहले कभी ना हुआ। पर अब होता है, होता ही रहेगा। दरअसल जिस स्थान से आप लोग गुजर रहे थे वहीं रेसवे लाईन से करीब सौ दो सौ कि.मी. की दूरी पर एक गांव उंचवा है। वहाँ का जलस्तर काफी नीचे जा चुका है। अब वहाँ पानी की एक बूंद तक नहीं शेष है। जल-संरक्षण जैसे प्रयास भी वहां विफल हो गए हैं। इस गांव की आधी आबादी पलायन कर चुकी है। जो बचे हैं वे पानी लूटते हैं। उनकी दृष्टि में अब सोना-चांदी इत्यादि का कोई मूल्य नहीं रहा। अब वे मात्र पानी के लुटेरे बन के रह गए हैं। एक दिन यह लूट पूरे भारत में फैल जाएगी। यू नो...अगला विश्व-युद्ध पानी के लिए होगा। ये घटना उसी विश्व-युद्ध का एक छोटा सा नमूना है।

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