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कुबेर - 41

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

41

आने वाले अच्छे समय का एक इशारा अनजानी ख़ुशी दे गया डीपी को जिसमें उसे उन शिशुओं की याद आयी जो पिछले दिनों उसकी दुनिया में आए थे। जब ये सारे ग्यारह शिशु एक साथ बड़े होंगे तो कितने हाथ होंगे उसके साथ, उसके बड़े परिवार में। सबको यहाँ बुला लेगा और ख़ूब पढ़ा-लिखा कर एक आबाद नयी पीढ़ी तैयार करेगा। अब किसी को संघर्ष नहीं करना होगा, अब तो जमे हुए काम को कौन कितना आगे बढ़ा सकता है यह उसकी क़ाबिलियत पर निर्भर होगा।

मन की उड़ान लास वेगस में भी जीवन-ज्योत का चक्कर लगाकर वापस आ गयी थी। मन वापस आकर एक चक्कर न्यूयॉर्क का भी लगा लेता है। हालांकि घर पर सुखमनी ताई थीं तो धीरम की चिन्ता बिल्कुल नहीं थी। फ़ोन से हर दो-चार घंटे में बात कर लेता था डीपी। ताई ने अपने आसपास के लोगों से काफ़ी अच्छे संबंध बना लिए थे। जीवन-ज्योत के इतने बड़े परिवार में रहकर अब अकेले रहना इनके लिए सज़ा हो सकती थी पर वे इस नये अनुभव का आनंद उठा रही थीं।

ताई बहुत ख़ुश थीं इस बात से कि बबुआ को दादा ने भाईजी के रूप में ऐसा सहारा दिया है जो ताउम्र उसके साथ साए की तरह है, अच्छे-बुरे समय के दौर में। भाईजी जॉन भाई तो थे ही, साथ ही अब डीपी के ऐसे दोस्त भी थे कि शायद कोई सगा भाई भी होता तो रिश्ता इतना गहरा नहीं होता। फ़ोन पर भी ताई ने यही कहा कि – “तुम तो भाईजी जॉन के साथ गए हो तो मुझे बिल्कुल चिन्ता नहीं है और तुम भी हमारी चिन्ता मत करो। धीरम ठीक है और हम सब सम्हाल लेंगे।” ताई से बात करके डीपी और भाईजी बाहर निकल गए।

भाईजी भाभी को देने के लिए एक तोहफ़ा ढूँढ रहे थे – “चलो एक नज़र शॉपिंग मॉल पर डाली जाए।”

शॉपिंग के लिए दुकान और दुकानदार दोनों ऐसे सजे हुए थे जैसे कि आने वाले के लिए ही सारी तैयारी की गयी हो। इक्का-दुक्का ही ग्राहक थे। सबसे पहले वे दोनों जूतों की दुकान में गए। क़ीमत के एक टैग को अलट-पलट कर देखा तो डीपी को विश्वास ही नहीं हुआ - “सात हज़ार डॉलर के जूते, भाईजी?”

“हाँ डीपी, नेम ब्रांड चीज़ें इतनी ही महँगी होती हैँ। तुम्हें विश्वास नहीं होगा कि इतने महँगे जूते हमारे भारत की अभिनेत्रियों के पैरों की शान भी बढ़ाते हैं।”

“अच्छा” अगली आइल में बढ़ा तो दस और पंद्रह हज़ार डॉलर के हैंड बैग थे। घड़ियों की दुकान में गए तो रोलेक्स की बेहतरीन घड़ियाँ दस हज़ार डॉलर से ऊपर ही थीं।

“भाईजी, हमारे यहाँ भारत में तो अमीरों को अधिकतर सोना ख़रीदते-पहनते देखा जाता है न?”

“भारत की तरह यहाँ पर पुरुष व महिलाएँ सोने की मोटी चेन या ब्रेसलेट-अंगूठियाँ नहीं पहनते, न ही महिलाओं के द्वारा सोना लादा जाता है। यहाँ पर इन नेम ब्रांड की चीज़ों में ख़र्च किया जाता है।”

“लेकिन सोना तो इसलिए खरीदा जाता है कि बाद में उसकी क़ीमत मिल जाती है, एक तरह से अपने पैसों का सदुपयोग किया जाता है हमारे देश में, इन चीज़ों में लगाया गया इतना पैसा तो वापस अपनी क़ीमत नहीं देता होगा!”

“यह भी सोने जैसा ही है, इनकी क़ीमत भी मिल जाती है। जैसे रोलेक्स घड़ी है, कुछ साल पहनने के बाद बेचो तो इतनी क़ीमत तो मिल ही जाएगी जितने में ख़रीदी थी। फ़र्क बस इतना है कि सोना चमकता है और ये साधारण घड़ियों की तरह अपने महँगेपन को अदृश्य रखने में कामयाब हो जाती हैं।”

“अच्छा!”

“ये देखो कुछ और अलग-अलग ब्रांड की सबसे महँगी घड़ियाँ जिन्हें रखने के डिब्बों की खूबसूरती पर ही बहुत काम किया जाता है। प्रदर्शन और प्रस्तुति का समागम उसे अतुलनीय बना देता है। इस दुनिया में ये ही चीज़ें आदमी के स्टेटस को बताती हैं।”

अब इन बातों को ‘अमीरों के चोंचले’ कह कर टाला नहीं जा सकता था डीपी के द्वारा बल्कि यह सोच एक बिज़नेसमेन की तरह अपनी अहमियत रखने लगी थी कि यहाँ भी एक तरह से निवेश ही करता है इंसान।

घूमते रहे एक कसिनो से दूसरे पर। हर एक की अपनी अद्भुत शैली थी जो अपने वैभव और ऐश्वर्य को दिखा रही थी। कहीं इमारत के अंदर समूचा आकाश रचित था तो कहीं ऊँचे-लंबे पिलर्स की भव्यता आलीशान फानूसों की रौशनी से जगमग थी। कहीं अलग-अलग झाँकियाँ दर्शकों को मोहित करतीं तो कहीं अलग-अलग नाट्य शैलियाँ अपने समय की ओर खींचतीं। कसिनो के परिसर में नाटकों के भव्य शो देखने के लिए पर्यटकों की भीड़ उमड़ती।

सबसे अच्छी बात यह थी कि छोटे बच्चों के लिए किसी भी कसिनो के उस भाग में जाना मना था जहाँ मशीनें लगी थीं और मेजों पर ताश के पत्तों से जुआ खेला जाता था। सुरक्षाकर्मी जन्म तारीख़ देखे बगैर किसी को अंदर नहीं जाने देते, फिर चाहे वह पासपोर्ट हो या ड्राइविंग लायसेंस। जुआ खेलने वाले कसिनो के उस क्षेत्र में बच्चों का जाना निषेध था लेकिन उसके अलावा अन्य कई जगहों पर उनके लिए ऐसी बहुत सारी सुविधाएँ थीं जहाँ वे भी अपने वेगस के अनुभवों में चार चाँद लगा सकते थे।

प्रकृति और मनुष्य के तालमेल से वास्तुकला के भव्य रूप और सौंदर्य की अद्भुत मिसालें थीं। वेगस में घूमते हुए, आकाश छूते टॉवरों को देखते हुए वहाँ की इमारतों और कसिनो पर जहाँ उनके नाम लिखे थे वहाँ डीपी को हर लिखा हुआ नाम ‘कुबेर’ दिखने लगा। हर ओर कुबेर, कुबेर, कुबेर। जो आँखें कल्पना में दिखातीं वह तो हमेशा के लिए उसे पाना ही होता था। मानों एक संदेश होता था नया मार्ग पकड़ने का।

उसने भाईजी को देखा तो पाया कि वे कुछ सोच रहे हैं। उसने पूछा – “भाईजी, क्या आप भी वही सोच रहे हैं जो मैं सोच रहा हूँ?”

“डीपी, तुम भी वही सोच रहे हो जो मैं सोच रहा हूँ?”

“सचमुच? बिल्कुल वही... ?”

“आहा!”

“सोचने में तो ठीक है भाईजी पर क्या ऐसा संभव है…”

“सच बताऊँ, बहुत मुश्किल है बाहर वालों के लिए यहाँ आकर जमना।”

“और तिस पर हमें कसिनो का कोई अनुभव भी तो नहीं है।”

“अनुभव के लिए, इनकी नस-नस जानने के लिए कम से कम छ: महीने की ट्रेनिंग चाहिए।”

दोनों की नज़रें मिलीं जो कह रही थीं – “एक प्रयास करने में कोई हर्ज़ नहीं है।”

“भाईजी जब तक पूरी तसल्ली नहीं करेंगे तब तक पैसा तो लगा ही नहीं रहे हैं हम, तो सोचने में क्या डरना।”

“और क्या, सोचने में तो पैसा लग ही नहीं रहा है।”

“भाईजी सोचने के लिए भी तो कुछ ठोस मुद्दे चाहिए जो हमारी इस वेगस यात्रा में कुछ रचनात्मकता ले आएँ।”

“सोचते हैं, लेकिन पूरी पूछ-परख और गहन चिंतन वाली सोच डीपी। ऐसा करते हैं जिन मुद्दों की ज़रूरत है बात करने के लिए, उनके बारे में कुछ बिन्दु बनाते हैं। एक के बाद एक प्राथमिकता के आधार पर जो भी हमें चाहिए नये शहर में।”

“भाईजी, मैं जब नये शहर में आया था तो आप थे वहाँ तो ऐसे मुद्दों पर सोचा ही नहीं था मैंने। बेशक, जब आप आए होंगे तो आपने जैसा संघर्ष किया होगा न्यूयॉर्क शहर में वैसा ही यहाँ होगा।”

“वह तो बिल्कुल अलग संघर्ष था। 77 डॉलर से शुरूआत थी वह लेकिन अब तो हम दोनों की जेब में डॉलर ही डॉलर हैं।”

“जी भाईजी, चलिए तो पहला बिन्दु पैसा?”

“हाँ डीपी, सबसे पहले तो पैसा ही होगा...”

“जी, और दूसरा?”

“दूसरा दिमाग़ होगा जो हमारे पास है” खिलखिला दिए दोनों।

“कभी-कभी ज़्यादा दिमाग़ भी हो तो फ़ायदा नहीं होता।” अपनी कहानी कहने का बहुत सरल तरीका था यह डीपी के लिए। हास-परिहास में अपने दिमाग़ की आपबीती शब्दों में बाहर आ ही जाती थी। भाईजी मुस्कुराने लगे डीपी को देखकर। एक अर्थपूर्ण मुस्कान जो बीते दिनों की कड़वी यादों को सामान्य चुहलबाजी में भी बयाँ कर गयी थी।

“अब ख़ुद को दोष देना छोड़ भी दो डीपी, कारोबार को कारोबार की तरह लो। ओलंपियन बनना हो तो गोल्ड मेडल के पहले कई हार स्वीकार करनी पड़ती हैं। चलो फिर से मुद्दे पर आते हैं – “हाँ तो पैसा, कंपनी, लोग, लिंक...”

“भाईजी लिंक को नंबर एक पर रख देते हैं।”

“सही कहते हो तुम डीपी, यह लिंक वाला बिन्दु नंबर एक पर रख दिया है। अगर कोई लिंक न मिले तो वेगस में निवेश के इस कीड़े को दोबारा दिमाग़ में आने ही मत दो। वेगस में बिज़नेस के बारे में सोचो भी मत।”

घूमते रहे वे एक कसिनो से दूसरे में। कोई लिंक ढूँढने के लिए नहीं बल्कि अपने अनुभवों में बहुत कुछ जोड़ते हुए। यह लिंक किसी जगह का नाम तो था नहीं कि ‘जीपीएस’ में डालकर वहाँ पहुँच जाते। सिवाय इसके कि अकस्मात कोई संपर्क सूत्र मिले और उसे संपर्क किया जाए और कोई चारा नहीं था। दिमाग़ दौड़ रहा था मगर वह एक अंधी दौड़ थी। ढूँढे भी कहाँ जहाँ वे स्वयं अजनबी थे। वैसे तो भाईजी और डीपी एक और एक दो नहीं थे, वे दो मिलकर ग्यारह का काम कर लेते थे। और उतने ही दिमाग़ भी एक साथ चलते थे। लेकिन ऐसे तो कोई उनके सामने आकर प्रकट नहीं हो जाता और कहता कि – “यह लो, जिसे तुम ढूँढ रहे हो, मैं हूँ तुम्हारी वह लिंक!”

खैर, इस विचार के चलते उनका न्यूयॉर्क वापसी का टिकट दो दिन आगे बढ़ा दिया गया था। डीपी ने ताई को फ़ोन करके और भाईजी जॉन ने अपने घर फ़ोन करके बता दिया कि वे दो दिन बाद आएँगे।

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