Na Jane Kis Vesh me... books and stories free download online pdf in Hindi

ना जाने किस वेश में .......


खाना - पीना हो गया और फिर हमारी बैठकी जमी मम्मी के घर उस रात। सब अपनी - अपनी बातें बता रहे थे । कुछ ही दिनों पहले मम्मी सेवा - निवृत हुई थी। मां ने कहा कि आज वो हमलोग को अपने नौकरी के दिनों की एक कहानी सुनाना चाहती हैं।

सब लोग एकत्रित हो चुके थे। स्वभावतया मम्मी कभी कहानी सुनाने वाली रही है नहीं। कर्मशील यह महिला मेरी और कितनों की आदर्श रही हैं। उन दिनों जब महिलाएं इक्का - दुक्का ही नौकरी करती थी, तब जमींदार घराने की मेरी मां अपने मायके और ससुराल की पहली महिला थी जिसने नौकरी किया था। मम्मी की कहानी शुरू हुई। उन्हीं के शब्दों में जिसे मैं लेखनीबद्ध करने जा रही हूं। मम्मी ने कहानी शुरू की -

मेरी नौकरी के शुरुआत के दिनों की बात है।तब मेरी पोस्टिंग महिषी में थी। तुम सब का जन्म हो चुका था। छोटा ऋषि सिर्फ १ साल का था। मायके - ससुराल में मां और सासू मां के सहयोग से नौकरी चल रहा था।

जून महीने की बात है। शादियों का मौसम था। उस दिन बहुत लग्न था। ब्लॉक में पोस्टेड थी मैं। मीटिंग खत्म कर ऑफिस से निकलने में ५ बज चुका था।

सारी गाड़ियां उस दिन शादी में व्यस्त थी। किराए वाले कुछ गाड़ी चल रहे थे। मैं सबको हाथ दे रही थी , पर ज्यादातर ड्राइवर पहचानते थे। हमारी गाड़ियां भी चलती थी पहले उस रूट पर।

"मैडम , बहुत भीड़ है। आप नहीं बैठ पाएंगी। " सारी गाड़ियां निकले जा रही थी। उस दिन सुबह से बारिश हो रही थी , तो शाम ६ बजे ही अंधेरा छाने लगा था। ऑफिस से १० मिनट की दूरी पर तुम्हारी बुआ का घर था, पर तुम बच्चों का ख्याल , खास कर ऋषि का, मुझे बेचैन कर रहा था। शाम से मेरी प्रतीक्षा करने लगते थे तुम लोग। पता था अगर तुम्हारी बुआ के घर गई तो वो लोग जाने नहीं देंगे रात को और मेरे बच्चों की बुरी हालत हो जाएगी रात भर। दृढ़ थी मैं, जाना ही था मुझे।

शुरू से शिव की अनन्य उपासक रही हूं मैं। बार - बार उन्ही का स्मरण कर रही थी। नम: शिवाय का जप मन ही मन निरंतर चल रहा था। ईश्वर को बार - बार कह रही थी कि अब आप ही मेरे पहुंचने की व्यवस्था करें।

तभी ईश्वर की कृपा से नजर आया एक रिक्शावाला, गाना गुनगुनाते हुए बढ़ा चला जा रहा था। रिक्शा ढका था उसका, हल्की बारिश जो हो रही थी। मैंने रोका उसे, अपनी भाषा में बोला- " भैया, कहां जा रहे। हमको भी ले चलिए ना।"

" चंद्रेन जा रहे मालकिन।"

"हमको भी वहीं जाना है। "

" मालकिन जी, मेरी पत्नी बैठी है रिक्शा में। आपको कैसे बिठाए उसके साथ। "

मैं तो कैसे भी जाना चाहती थी। ये बोल कर कि मुझे कोई दिक्कत नहीं, बैठ गई उसकी पत्नी के साथ। करीब एक घंटा लगा चंद्रेन पहुंचने में। रिक्शे वाले को पैसा और धन्यवाद देकर उतर गई मैं। शाम के सात बजे थे। पर सन्नाटा सा था गांव में। बारिश की वजह से सब घर में थे। मुझे मुराजपुर पहुंचना था, जिसके लिए कोशी नदी पार करनी पड़ती थी नाव से। चंद्रेन से नदी तक की दूरी भी करीब १ किलोमीटर थी। सारे दुकान बंद थे। सिर्फ एक छोटा सा पान का दुकान खुला था। चार - पांच आदमी खड़े थे वहां। लालटेन जल रहा था। हिम्मत कर वहां गई मैं। अनुरोध किया कि कोई उस पार छोड़ दे मुझे। उन लोगों ने पूछा कि किसके घर जाना है। तुम्हारे बाबा प्रतिष्ठित व्यक्ति थे उस इलाके के। मैं बताना नहीं चाह रही थी कि उनकी बहू इस समय अकेले कहीं से आ रही थी। मैंने कहा - " मुनि बाबा के घर ठहरी हूं, मैं।" इसी नाम से तुम्हारे बाबा को सब जानते थे। उन लोगों में से एक करीब ३० -३५ साल आदमी आया और बोला - " चलिए, मैं छोड़ देता हूं।"

मन ही मन नम: शिवाय का जप किए चली जा रही थी मैं। लगातार ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि नाव इस पार ही हो। एक ही नाव था घाट पर उस समय। संयोग से नाव इस पार ही था। वो आदमी और मैं बैठे नाव में। नाव उस पार पहुंची। वो उतरता उससे पहले छलांग मार कर मैं उतरी। मन में डर भी लग रहा था कैसा है यह व्यक्ति। मुश्किल से २७-२९ साल की थी मैं। मैं आगे - आगे दौड़ी जा रही थी, पीछे - पीछे वो आ रहा था। घूम कर बार - बार देख भी रही थी मैं कि आ रहे हैं या नहीं। बारिश लगातार हो रही थी। मेरा पैर किस पर पड़ रहा था कोई होश नहीं था मुझे - परवल को घेरे हुए कांटे पर, या सड़क किनारे गंदगी पर ,आम गाछी , बांस बट्टी सब पार किए चली जा रही थी मैं दौड़ - दौड़ कर और लगातार नम: शिवाय का जप किए चली जा रही थी। बीच - बीच में देख लेती थी साथ वाले भाई साहब आ रहे हैं या नहीं।

जैसे ही दलान ( गांव में घर के बाहर पुरुषों के बैठने का स्थान) पर पहुंची मैं, तुम्हारे भैया ने टॉर्च को रौशनी फेका मेरे पर - " काकी, आ गई आप।"

खुद को थोड़ा छुपाते हुए कि और घरों के पुरुष लोग ना देखें कि इस समय आ रही मैं, मैं भागी घर की तरफ। पीछे से तुम्हारे भैया आ रहे थे। मैंने उनको कहा कि मेरे साथ एक भाई साहब आ रहे , उनको ले आइएं घर पर चाय पानी के लिए। कह कर घर के अंदर भागी मैं।

अंदर दृश्य था - ऋषि बिलख रहा था। तुम दोनों भाई - बहन उसको चुप कराने में लगे थे।तुम्हारे बाबा, जिन्होंने मेरा हमेशा साथ दिया आज बच्चों को रोता देख गुस्सा रहे थे - "भाड़ में जाए ऐसी नौकरी। क्या हाल हो रखा है बच्चों का। "

हाथ - पैर धो कर जल्दी से ऋषि को गोदी लिया। तुम्हारे भैया को पुकारा कि कहां है वो भाई साहब जो छोड़ने आए मुझे।

उन्होंने कहा - " काकी, दूर तक कोई नहीं है। हम और बैद्यनाथ दूर तक जाकर देख आए।"

मम्मी की कहानी पूरी हुई। हमलोग भी हतप्रभ थे, कौन था वो आदमी?

मम्मी ने पूर्ण विश्वास से कहा - " साक्षात शिव ही आए थे आदमी का वेश धर कर मुझे पहुंचाने उस बरसात वाली रात। "