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इडली सांभर


" हेल्लो, मैं नीतेश, अभी दिल्ली में हूं। सिर्फ दो दिन के लिए आया हूं। आज कल तो कभी दिल्ली, कभी बैंगलोर, कभी मुंबई - बहुत डिमांड है मेरी हर तरफ। तुमसे मिलना चाहता हूं।"

" अभी थोड़ी व्यस्त हूं मैं। ऑफिस से निकलते हुए लेट हो जाती हूं। कभी और सही।" फोन काटते हुए कौंध गया उसके समक्ष पांच साल पुराना दृश्य।

जून २००३

छुक छुक करती ट्रेन अब पहुंचने वाली थी चेन्नई। ट्रेन की रफ्तार सी उसके हृदय गति भी बढ़ती जा रही थी। पिछले दो दिन का सफर आज शाम समाप्त होने को था और एक सर्वथा नवीन सफ़र जीवन का प्रारंभ होने वाला था अगले तीन महीने के लिए। पिछले दो महीने से उसके सारे बैच मेट उत्साहित थे इस प्रोजेक्ट को लेके। खास कर वो, जिनके घर इन मेट्रो सिटी में थे। एक पंथ दो काज के तर्ज पर उन्हें अवसर मिलने वाला था अपने घर में रहते हुए प्रोजेक्ट करने का।

उसके लिए हरेक नया प्रोजेक्ट तनाव ही लाता था। पता था उसे, नया शहर मतलब नया खर्च। फिर मांगना घर से पैसे। अभी सारे भाई- बहन बाहर पढ़ रहे थे तो थोड़ी मुश्किल ही थी घर में और हरेक बार पैसा मांगते हुए बुरा लगता था उसे। और इस बार अपने घर से मीलों दूर सुदूर दक्षिण में चेन्नई के लिए उसका नाम चयनित हुआ था।

तंद्रा में डूबी ही थी वो कि एक बुजुर्ग सहयात्री ने उसे इशारा किया कि स्टेशन आने वाला है। अचानक से भय की लहर उठी मन में उसके। अगर मणि नहीं आया तो। कहा तो था उसने कि लेने आएगा। इस महानगर की पहली यात्रा थी उसकी और इस शहर का निवासी उसका सहपाठी मणि आने वाला था लेने।

चेन्नई स्टेशन जैसे मनुष्यों का महासमुद्र हो। सामान उतार कर एक तरफ़ खड़ी हो गई वो। प्रत्येक बीतते पल के साथ घबराहट बढ़ती जा रही थी उसकी। तभी लगा कोई हाथ हिला रहा है दूर से उसे। कहीं उसका भ्रम तो नहीं। अरे, ये उसका प्यारा मित्र ही तो है। झपट कर आते हुए मणि ने उठाया एक वी आई पी उसका। एक बड़ा बैग और पर्स उसके उठा लिया था। मन अब शांत सा होने लगा था उसका।

एक बार फिर हाथ गया उसका जीन्स के पैकेट तरफ। घर की आदतनुसार पैसे को संभाल कर अंदर पॉकेट में सिल लिया था उसने। दिमाग बार बार जोड़ रहा था हॉस्टल में देने के बाद करीब पांच हजार बच जाएगा जिसमें उसका एक महीने का खाना पीना और आना जाना हो जाएगा। वैसे भी हॉस्टल उसके ऑफिस से ज्यादा दूर नहीं था। उसके सारे मित्र को अलग अलग ऑफिस मिले थे प्रोजेक्ट के लिए और ज्यादातर यहीं के रहने वाले थे, तो एकमात्र वही थी हॉस्टल में।

बड़ी बड़ी सड़के। थोड़े अलग रंग रूप के लोग। पहली यात्रा थी उसकी दक्षिण भारत की। घर से निकल कर कोलकाता अाई थी पिछले साल वो जब देश के प्रख्यात फैशन संस्थान में उसका चयन हुआ था। और वहां आकर भी जीवन हॉस्टल और कैंपस तक सीमित था। कभी कभार जब दोस्तों की टोली निकलती मस्ती करने तो सब साथ ही होते। पहली बार पूर्णत: अकेली थी वो। हालांकि मणि और हरीश यहीं के रहने वाले थे और उनको भी यहीं प्रोजेक्ट करना था। सोच ही रही थी कि अचानक रास्ते में बाइक रोकी मणि ने।

"कॉफी पियोगी?"

"पी सकते हैं।" उसकी सहज भाषा मुंह से निकली।

दो बड़ा सांभर के साथ दो कप कॉफी का ऑर्डर दे रहा था मणि। वो सब तरफ निहार रही थी। सांवली सलोनी आकर्षक देहयष्टि वाली महिलाएं घुंघराले बालों में सुंदर वेणी लगाए उसके तरफ के महिलाओं से बिल्कुल भिन्न लग रही थी। सब ने गले में भारी चेन और उत्तर भारतीयों से अपेक्षाकृत बड़े कर्णफूल पहने थे।

मणि पुकार रहा था उसे। भाप निकलते गर्म सांभर बड़े को देख कर उसे याद आया कि कल रात के बाद कुछ खाया नहीं था उसने। बस एक दो बार चाय पी थी। कॉफी भी यहां स्टील के छोटे से ग्लास में दी गई थी।

हॉस्टल में छोड़ कर मणि निकल गया आश्वस्त कर कि कोई जरूरत हो तो बताना। अगले दिन से सबको लगना था अपने अपने प्रोजेक्ट पर। वार्डन से मिलकर अपने कमरे में गई वो। साथ अाई सहायिका ने एक बाल्टी, एक मग के साथ दो चादर उसके नाम से दिया। कमरे में छोड़ कर वह निकल गई। दरवाजा बंद कर कुछ क्षण वो बैठी रही बिस्तर पर। अगले तीन महीने के लिए यही उसका पता था। अजीब चिपचिपी सी गर्मी थी यहां। कपड़े निकाल कर स्नान करके अाई वह और कमरे का मुआयना करने लगी।खिड़की से लगे टेबल पर अपनी किताबें और फाइल रखी और वी आई पी को को वही साइड में रैक पर। बैग से निकाल कर चादर बिछाया उसने। और सामने की खिड़की खोल दी। शाम की शीतल हवा ने अचानक गांव की याद ताजा कर दी। कहीं से घंटी बजने की आवाज आ रही थी शायद नजदीक में कोई मंदिर था।

नीचे जाकर वार्डन से पूछ कर बगल वाले बूथ जाकर घर में फोन कर दिया उसने। खाने की कोई इच्छा नहीं थी आज। कमरे में आकर एक पत्रिका निकाल कर पढ़ते हुए कब आंखें लग गई पता भी नहीं चला उसे। सुबह जब सूर्य की किरणों ने कमरे को प्रकाशित किया तो आंखें खुली उसकी। छ: बज रहे थे। आज उसे पहुंचना था लैदर फैक्ट्री में जहां से पूरे विश्व के लिए लैदर बेल्ट , पर्स निर्मित होते हैं। अगले तीन महीने उसे देखना और समझना था इस प्रक्रिया को, जो आज तक सिर्फ किताबों में पढ़ती अाई थी। उसी के आधार पर उसको अंक मिलने वाले थे।

तैयार होकर नीचे वाले ढाबे नुमा रेस्तरां में उसने गर्मागर्म डोसा के साथ कॉफी पिया। वैसे भी डोसा उसका फेवरेट रहा है शुरू से। खा कर मन और खुश हो गया कि डोसा और कॉफी मिलाकर बीस रुपए ही हुए थे। उसके यहां किसी कीमत पर ये डोसा चालीस रुपए से कम का नहीं होता और कॉफी अलग से। मन ही मन वो हिसाब लगा रही थी। हरेक महीने कुछ पैसे बच जाएंगे तो जाते समय यहां से एक सिल्क साड़ी लेगी मम्मी के लिए।

पहला दिन अच्छा ही रहा। फैक्ट्री के सारे वर्कर प्रेम से उसे देख कर मुस्कुरा रहे थे। भाषा की अच्छी समस्या के बावजूद सहज माहौल लगा उसे। जिनके अंदर काम कर रही थी, वो भी भले से लगे। आज पांच दिन बीत चुका था काम करते यहां। यहां के माहौल में रमने लगी थी वह।

फैक्ट्री से आते ही वार्डन ने बताया कि फोन आया था उसके लिए। शाम सात बजे फिर आने वाला है। सात बजे हॉस्टल के फोन के सामने बैठी वो प्रतीक्षा ही कर रही थी कि घंटी बजा। उठाते ही उधर से परिचित सी आवाज गूंजी - " हाय, सो हैप्पी टू नो यू आर इन चेन्नई। वान्ना मीट यू। आई एम हेयर फॉर टू डेज। लेट्स मीट टुमोरो।"

याद आया उसे। मेल किया था उसने नीतेश को कि चेन्नई आ रही है वो तीन महीने के लिए। और अपने हॉस्टल का नंबर भी दिया था।

नीतेश से मित्रता उसकी कोचिंग में हुई थी जब वो तैयारी कर रही थी निफ्ट की। जो जुनून उसमें था निफ्ट को लेके कुछ वैसा ही पागलपन इस लड़के में भी था। और संजोग रहा कि दोनों का एक ही साल एनआईएफटी में चयन हुआ। उसका कोलकाता के लिए और नीतेश का बैंगलोर के लिए। मेल के जरिए थोड़े बहुत जुड़े थे दोनों। पिछले महीने जब उसका मेल आया था तो खुशी खुशी उसने बता दिया था कि चेन्नई आ रही है वो।

आज उससे बात कर खुश थी वो। वैसे भी अपने देश में होते हुए परदेशी सा महसूस कर रही थी पिछले कई दिनों से और आज एक पुराने परिचित का फोन, जोकि उसके अपने क्षेत्र से था, आने से खूब खुश था मन उसका। कहने को मणि और हरीश भी थे यहां उसके संस्थान के मित्र पर दोनों अपने प्रोजेक्ट पर लगे थे और उनका घर भी यहीं था, तो व्यस्त थे अपने में वो।

कल शाम मिलने की बात तय हो गई। अगले दिन प्रेम से उसने नया टॉप निकाला। आज फैक्ट्री से सीधे हॉस्टल नहीं आना था। रोज उसकी शाम अकेले गाना सुनते या स्केचिंग करते बीत रही थी। आज अच्छा है थोड़ा घूमने का मौका मिलेगा।

शाम छह बजे उपस्थित था नीतेश। मजे से निकल गए चेन्नई समुद्र तट पर दोनों। कितने दिनों बाद आज की शाम शानदार थी। इस उछलती लहरों के समान उसका मन भी बेहद खुश था आज। ढेरों बातें की दोनों ने। करीब डेढ़ साल बाद मिले थे। इससे पहले जब मुलाकात हुई थी तब और आज की स्थिति में बहुत अंतर था। उस समय दोनों का एक ही लक्ष्य था - निफ़्ट और आज देश के उसी प्रतिष्ठित संस्थान के दोनों स्टूडेंट थे। नीतेश अपनी उपलब्धियों के बारे में बताए जा रहा था और वर्णन कर रहा था विभिन्न शहरों का। बताए जा रहा था वो अपनी ढेरों भविष्य की योजनाएं भी। आश्चर्य है अभी तो वह अपनी पढ़ाई में ही डूबी थी, इतना तो आगे का प्लान भी नहीं किया था उसने। अब अंधेरा घिरने वाला था। वह विदा ले कर निकलने वाली थी कि नीतेश ने पूछा - " एक छोटी सी मदद चाहिए थी मुझे तुमसे।"

" हां, बताओ।"

" अगर दो दिन के लिए मुझे पांच हजार दे दो, तो काम हो जाएगा मेरा।"

पांच हजार। उसके पास इतना ही था पूरे महीने के लिए। आज पांच ही तारीख थी।

" क्या सोच रही हो, मेरा पैसा परसों आ जाएगा। पापा परसों डालने वाले हैं, तो तुरंत दे दूंगा। सिर्फ दो दिन की बात है।"

तत्क्षण कुछ कह नहीं पा रही थी वो। दे तो देगा ही, पर मेरे पास तो कुछ नहीं बचेगा।

" अच्छा तो क्या साथ चलूं हॉस्टल तुम्हारे। " पूछ रहा था नीतेश।

" चलो।" मना नहीं किया गया उसे।

हॉस्टल में नीचे बिठा कर कमरे में आते समय तक बार बार आ रहा था मन में उसके, मना कर देती हूं। पर अंततः निकाल कर उसके सामने खड़ी थी अपने पूरे महीने के खर्चे को।

" मेरे पास सिर्फ इतना ही है।"

" हां, हां, कोई बात नहीं, सिर्फ दो दिन की बात है। परसों इसी समय लौटा दूंगा तुम्हें मैं।"

झिझकते मन से पैसे बढ़ाएं उसने, उससे दो सौ रखते हुए अगले दो दिन के लिए।

हंसता, धन्यवाद देता, नीतेश निकल रहा था - " मिलते हैं परसों शाम फिर हम।"

घबरा रहा था मन उसका। कहीं गलत तो नहीं किया। वैसे भी जानती ही कितना हूं नीतेश को। कोचिंग की सीमित बातचीत और कुछ मेल का आदान प्रदान। मन को समझाया उसने। लगता तो है बहुत अच्छे घर से है। वैसे भी दो दिन की मदद से कोई फर्क नहीं पड़ता है।

आज तीसरा दिन था। नीतेश का कोई फोन नहीं आया था। उसके पास मेल के सिवा उसका दूसरा कोई संपर्क नहीं था। फैक्ट्री से ही मेल कर चुकी वो उसको और बता चुकी कि उसका हाथ पूरा खाली है। जल्दी लौटा दे पैसे उसके और आज पांचवे दिन भी कोई जवाब नहीं आया था।

अन्तिम पचास रुपए पड़े थे उसके पर्स में। खाने के समय उसके पैर स्वत: बढ़ गए उस तरफ जिधर फैक्ट्री के वर्कर्स खाते थे रोज। देखा उसने एक साफ सुथरी अम्मा दे रही थी एल्युमिनियम के बड़े से डब्बे से निकाल कर इडली और गर्म सांभर सबों को। एक क्षण ठिठका मन उसका। मजदूरों के अलावा और फैक्ट्री का कोई नहीं था वहां, लेकिन कोई चारा नहीं था उसके पास। रोना सा आ रहा था। कैसे बताए घर में, कि कैसी मूर्खता की है उसने। पहुंच चुकी थी दुकान के सामने। उसे देख कर फैक्ट्री की एक वर्कर उठ गई सीट से अपने। इशारा किया बैठने का। बूढ़ी अम्मा ताक रही थी उसकी ओर। उसने इशारा किया इडली और कॉफी के लिए। प्रेम से साफ बर्तन में पांच इडली और ढेर सारा सांभर दे गई अम्मा। अगल बगल सब परिचित दृष्टि वाले लोग सहजता से मुस्कुरा रहे थे। उसकी हिचकिचाहट दूर हो रही थी और पेट भर पर इडली सांभर और कॉफी पांच रुपए में खाया उसने।

आज दस दिन हो चुके थे। ना ही मेल का उत्तर आया था , ना ही कोई कॉल। पचास रुपए कब तक चलते। पिछले तीन दिन से इडली वाली अम्मा के दुकान पर एक बार खा रही थी वो। कुछ सूझ नहीं रहा था उसे। आज घर में कॉल कर ही देगी। शर्म अा रही थी उसे खुद पर। बुझे क़दमों से फैक्ट्री से बाहर निकली तो सामने दोनों मित्र खड़े थे - हरीश और मणि।

देखते ही हाथ हिलाया दोनों ने। दौड़ी उनकी तरफ वो। जैसे ही मित्रों ने हाल चाल पूछा कि अंदर छिपा वेग बह निकला। जी भर कर दोनों ने गालियां दी नीतेश को। और फिर सुनाया उसे भी कि दस दिनों से क्यों नहीं बताया इस बारे में। तय कर लिया इन दोनों मित्रों ने कि अब खाना उनके घर से ही आएगा और उसे लेने भी दोनों में से एक रोज आएंगे।

अगला पूरा महीना जीवन के सुंदर स्मृतियों से अंकित हो रहे थे उसके मन में। हरेक दिन बड़े से टिफिन करियर में कभी हरीश , कभी मणि खाना लेकर आता और शाम में तीनों कभी किसी आंटी के बनाए कॉफी का आनंद लेते या कभी विराट समुद्र को निहारते।

अन्तिम दिन था वो चेन्नई का। सब फैक्ट्री वालों ने भावपूर्ण विदाई दी थी। एक सहकर्मी ने प्यारा सा ड्रेस दिया था। मन में चेन्नई की सुंदर स्मृतियां समेटे विदा हुई थी वहां से।

२००८

चेन्नई को याद कर मन मचल पड़ा उसी दिन को फिर जीने के लिए। और याद आया वो स्नेह जो मिला था फैक्ट्री वालों से, इडली वाली अम्मा से, हरीश और मणि से और उनके घर वालों से।और उस विराट जलनिधि से जिसने सिखाया था उसे कि अगर धोखा देने वाले हैं जीवन में, तो निस्वार्थ प्रेम की कमी भी नहीं है जीवन में।

होंठो पर मुस्कुराहट अा गई उसके। मेट्रो में सीट मिलते ही उसने नंबर चेक किया जिससे फोन आया था और मैसेज किया - दिस इज माई एकाउंट नंबर। प्लीज़ ट्रांसफर माई मनी। "

उसे पता था अब फोन कभी नहीं आएगा।