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कुबेर - 45

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

45

एकवचन बहुवचन में बदल गया। ‘वह’ ‘वे’ में बदल गये। एक नाम जो बचपन से दिलो दिमाग़ में कौंधा हुआ था। वही नाम अब हर कहीं मिस्टर कुबेर के नाम से पहचाना जाने लगा। हर कहीं उसी नाम के झंडे गड़े दिखाई देने लगे। उस झंडे तले बहुत कुछ था, दृश्य भी अदृश्य भी। अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा जीवन–ज्योत और अपने गाँव जाता है। गाँव का नाम “कुबेर” रख दिया, नाम ही नहीं सब कुछ कुबेर का। कुबेर स्कूल भवन, कुबेर अस्पताल भवन, कुबेर पंचायत भवन सब पर उसी का ठप्पा था। वहाँ कुबेर धन्नू था। गाँव का अपना धन्नू जो सबको कुबेर से उनके हिस्से का धन दिलाता था।

अब उन्हें अपने अनुभवों को बाँटना था। नयी पीढ़ी को वह सब सिखाना था जो अब तक उन्होंने सीखा था। सेमिनार आयोजित किए जाते, वर्कशॉप होती, बड़ी-बड़ी कक्षाएँ होतीं। वे कुछ नहीं बोलते थे, सबकी बातें सुनते, परेशानियाँ सुनते, दिमाग़ में बैठाते। कभी हाथ में पेन, कागज, लैपटॉप, आई पैड, फ़ोन कुछ नहीं होता, जो होता सब दिमाग़ में होता। जब वे उन परेशानियों के हल देते तब उनकी असली स्पीच चालू होती। अपने विषय पर केंद्रित, फोकस, उसी सवाल पर जो पूछा गया था, वही मुद्दे की बात।

सचमुच ऐसे क्षण जीवन में नहीं आते और अगर आते हैं तो अपनी छाप छोड़ कर चले जाते हैं। आज के तकनीकी तनावों के सैलाब में तैरते-डूबते लोग जब कल्पना की दुनिया में जाते हैं तब कुबेर की जगह ख़ुद को खड़ा पाते हैं। ऊँचाइयों के वे मंजर जहाँ तक निगाहें भी नहीं पहुँच पातीं, वे अगर किसी के श्रम की कहानी कहते हों तो ऐसी कहानी का पात्र बनना हर किसी को रास आएगा।

अभी-अभी ख़त्म हुए भाषण की गूँज श्रोताओं की चहल-पहल में सुनाई दे रही थी। अपने सुरक्षाकर्मियों से घिरे वे चलते-चलते हाथ हिलाते रहे। अपने सपनों को जीकर, आने वाली पीढ़ी को सपनों में जीने के लिए तैयार कर रहे थे। पचहत्तर की उम्र में भी चुस्ती-फुर्ती में किसी से कम नहीं थे। उत्साह और रोमांच कूट-कूट कर भरा था उनमें। चाल में रइसों वाली ठसक थी और चेहरा आत्मविश्वास के तेज़ से चमकता था। कपड़ों मे कोई सिलवट अपनी जगह बनाए उससे पहले जगह और कपड़े दोनों बदल जाते थे।

दो सुरक्षाकर्मी उनके साथ रहते थे। आसपास के किसी भी संदिग्ध पल को अपनी तेज़ निगाहों से चौकन्ना होकर इस तरह सूँघ लेते थे कि आने वाले हर संकट को दुम दबा कर भागना पड़ता था। वे अपनी इस दिनचर्या से निवृत्त होकर, अपनी टीमों से जुड़कर सारी अपडेट लेते। समस्या होती तो उसका समाधान तो मिल ही जाता परन्तु वह समस्या पैदा कैसे हुई, क्यों, कब, कहाँ चूक हूई इस बात की जाँच-पड़ताल करके स्थायी समाधान करना उनका काम होता था।

सफल व्यक्ति का जीवन निजी नहीं रह पाता वह समाज की थाती बन जाता है। कुबेर भी अपने परिवार के साथ समय बिताकर व्यक्तिगत से पुन: सार्वजनिक मंच पर आ जाते और सबके लिए कुछ करने की राह पर चल कर अपने दैनिक सेमिनार और मीटिंग में पहुँचते जहाँ एक के बाद एक सारी मीटिंग उन लोगों के लिए होतीं जो सीखना चाहते थे, प्रगति के रास्ते प्रशस्त करना चाहते थे। अपनी सफलता की कहानी साझा करते, रीति-नीति बदलनी हो तो बैकअप प्लान तैयार होता। तकनीकी में जीते, तकनीकों को अपनाते। सारा सिस्टम तकनीकी सुविधाओं से लैस होता।

एलीवेटर से दसवीं मंज़िल पर पहुँचकर अपने कमरे तक जाते हुए कॉरीडोर के लंबे रास्ते को पार कर रहे थे वे। अपने कमरे में दाखिल होकर जैकेट-बूट उतारे उन्होंने और रात्रि विश्राम की तैयारी की। तकिए को ठीक कर ही रहे थे कि तभी फ़ोन घनघनाया – “सर, गुडनाइट कहने के लिए फ़ोन किया था। आप सो तो नहीं गए थे।”

“आपके गुडनाइट कहे बगैर कैसे सो सकता हूँ पास्कल साहब” अपने पर्सनल असिस्टेंट की समय की पाबंदी के कायल थे वे। न एक मिनट इधर, न एक मिनट उधर, ठीक दस बजे कल के कार्यक्रमों की संक्षिप्त जानकारी के लिए फ़ोन आ ही जाता था।

“सॉरी सर”

“हाँ, तो बताइए सर जी, आज के सारे काम हो गये न अच्छी तरह, सब कुछ समय पर ही हुआ न?”

“जी सर, सब कुछ समय पर था। सारी रिकॉर्डिंग के ऑडियो-वीडियो भेजे जा चुके हैं, कल तक हमें सबकी एक-एक कॉपी मिल जाएगी।”

“ठीक है, अब गुडनाइट के लिए जो आपकी रोज़ की रिकॉर्डिंग है वह भी बजा ही दो सर जी।”

“सर, रिकॉर्डिंग नहीं है। सर, थोड़ा अदल-बदल है यहाँ-वहाँ।”

“यह भी तो रोज़ कहते हैं आप पास्कल साहब और हम रोज़ सुनते हैं। चलो बता ही दो अब क्या अदल-बदल है।”

“सॉरी सर, सिर्फ़ अदल-बदल बताऊँ या कल के सारे कार्यक्रम बताऊँ?”

“पूरा ही बता दो सर जी, फिर आप भी चैन से सोओ और मैं भी। चलो, शुरू कर दो, सुन रहा हूँ मैं।”

पास्कल साहब को भी अब थोड़ी-थोड़ी हिन्दी आने लगी थी। जानते थे वे कि आदमी जब भी ख़ुश होता है या दु:खी होता है तो अपनी भाषा में बोलने लगता है। अपने सेक्रेटरी से जो रोज़ इस समय अगले दिन का ब्यौरा देता था कुछ इसी तरह आत्मीय भाषा में बात करते थे कुबेर।

“सर, छ: बजे वेक-अप कॉल, सात बजे से आठ बजे तक सुबह का नाश्ता। साढ़े आठ बजे गाड़ी पोर्च में पिकअप के लिए। नौ बजे मल्टी फेथ वालों की सभा में भाषण। दस बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों के सवाल-जवाब। साढ़े दस बजे कॉफी विराम। ग्यारह बजे कक्ष क्रमांक दस में टाइम मैनेजमेंट पर चर्चा जो बारह बजे तक चलेगी। बारह बजे न्यूयॉर्क फ़ोन करके धीरम और सब बच्चों के हालचाल पूछना, भाईजी जॉन से बात करना। इसके बाद भारत फ़ोन करके मैरी से बात करना और आखिर में जीवन-ज्योत में फ़ोन से बात करके लंच ख़त्म करना।”

आगे का ब्यौरा पढ़ने के लिए जब तक पास्कल साहब पेज पलटें तब तक उबासी आ जाती है उन्हें। नींद के इशारे को तत्काल समझ जाते हैं पास्कल साहब और कह देते हैं कि - “सर, बाकी सब रोज़ जैसा ही है।”

“ओके पास्कल साहब गुडनाइट”

“गुडनाइट सर”

अभी सोना ज़रूरी था। कल सुबह नौ बजे से मीटिंग का जो सिलसिला शुरू होगा तो शाम छ: बजे तक चलेगा। बीच में लंच ब्रेक और टी ब्रेक। बोलना और सुनना, समाधान ढूँढना और रास्ता बताना। इन सबके बीच अपने लोगों से बात करना और परिवार के संपर्क में रहना। कल के व्यस्त कार्यक्रमों की सूची के बारे में ख़्याल आते ही नींद की ज़रूरत महसूस होने लगती है।

मन की ताक़त एक हद तक ही शरीर को ताक़त दे सकती है, बाद में तो उम्र के तकाज़े शुरू हो ही जाते हैं। समय पर सोना और समय पर उठना एक ऐसा नियम था जिसके चलते वे इस उम्र में भी चुस्त थे।

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वेक-अप कॉल था। उसके बाद पास्कल साहब का फॉलोअप संदेश भी था कि – “सब कुछ समय पर चल रहा है।”

“मैं नीचे लॉबी में मिलता हूँ” और वे तैयार होने लगे एक और दिन को रचनात्मक बनाने के लिए। तैयार होकर जब नीचे पहुँचे सुबह के नाश्ते के लिए तो पास्कल साहब उनका इंतज़ार कर रहे थे। उनके बैठते ही नाश्ता शुरू हुआ। उनका नियम था कि वे खाते हुए बिल्कुल बात नहीं करते थे। दोनों अपना-अपना नाश्ता करते रहे, प्लेट-चम्मच-कप बजते रहे।

गर्म कॉफी की नयी ताज़गी के साथ गाड़ी चल पड़ी।

इन लगातार दौरों से, लगातार अपने अनुभवों के अंश सुनाते हुए कई बार वे खो जाते। एक जगह से दूसरी जगह जाते हुए, इस जगह से उस जगह का सफ़र तय करते हुए लंबी यात्राओं में एक और दौड़ साथ चलती रहती। चलते-चलते, यहाँ से वहाँ तक की दूरियाँ नापते उनके दिमाग़ की दौड़ की गति दुनिया की हर गति को मात करने की क्षमता रखती। पल भर में भारत, पल भर में न्यूयॉर्क और पल भर में लास वेगस की यात्रा करके वापस आकर पास्कल साहब से जुड़ जाते।

इस दौरान कई बार कारोबार की आपात स्थिति में उनसे संपर्क किया जाता। धीरम या फिर किसी एक ऑफिस की पूरी टीम वीडियो कॉल पर होती। सबको समझना होता था ऐसी समस्याओं के समाधानों के बारे में। हेल्पलाइन के लिए पूरी चेन बना दी गयी थी। दिमाग़ की तकनीक आखिरी स्रोत होता। एक को ग्यारह में बदलना कुबेर का गुर था। धीरम के साथ उनके सारे युवा बेटे-बेटियाँ अब न्यूयॉर्क में थे।

भाईजी जॉन के बच्चे उनका काम संभाल रहे थे। वे अब भाभी के साथ जनसेवा में जुड़े थे जो घर से ही कर पाते थे। उनके लिए बाहर जाना नामुमकिन हो गया था, मन तो अभी भी तैयार रहता पर तन की अपनी सीमाएँ थीं। फोन पर तक़रीबन रोज़ ही भाईजी से बात हो जाती थी। भाईजी जॉन के दोनों बच्चों पर अंकल डीपी का वरदहस्त था। वे उनके मार्गदर्शन में काम करते थे। सुखमनी ताई हमेशा के लिए बबुआ को छोड़ कर चली गयी थीं। उनके जाने के बाद का खालीपन भरने में कई देश-विदेश के दौरों ने सहायता की। सभी बच्चों ने अपनी आजी को भव्य विदाई दी थी। अपने-अपने कार्य-स्थलों पर आजी के पोट्रेट लगे थे। वे उनके लिए माँ भी थीं और दादी भी थीं। आजी के जाने के बाद धरा को बहुत मुश्किल से सम्हाल पाए थे वे। इस वादे के साथ कि वे उसके साथ अधिक से अधिक समय बिताएँगे।

जीवन-ज्योत का कामकाज सुचारु रूप से चलते हुए वह भारत के एक ख़्याति प्राप्त नॉन प्रॉफिट आर्गेनाइजेशन के रूप में विश्वविख्यात हो चुका था जिसके काम से हर कोई परिचित था, हर कोई प्रेरणा लेता था और हर कोई अपने-आपको जोड़ना चाहता था। जाने-माने नामों के जुड़ जाने से संस्थान की अर्थव्यवस्था को, प्रबंधन व्यवस्था को व अपनी शाखाएँ फैलाने की गति को एक तेज़ रफ़्तार मिली।

अयान और देवान, मैरी-जोसेफ के दोनों बच्चों का अपना परिवार था, उनके पोते-पोतियाँ बड़े हो रहे थे। दादा-दादी बने वे दोनों डॉ. चाचा के बाद जीवन-ज्योत का कामकाज सुचारु रूप से चला रहे थे।

धीरम तो यहीं पला-बढ़ा था। उसके साथ शेष दस युवा मस्तिष्कों के जुड़ जाने से कई टीमों को सम्हालने के लिए घर की टीम थी। सभी अपने पापा के बताए रास्ते पर चल कर अपने-अपने परिवार के साथ रह रहे थे। यह एक ऐसा बड़ा परिवार था अमेरिका में जिसके कई और संस्थान और एनजीओ खोले जा चुके थे। अब कुबेर परिवार अति आधुनिक भी था, साथ ही परम्परागत भी था। तन-मन-धन से काम करते हुए न्यूयॉर्क शहर से आगे लास वेगस शहर वह जगह थी जहाँ कुबेर के झंडे गाड़े जा चुके थे।

यह उस गुस्से का परिणाम था जो उन दिनों की याद दिलाता था। वे दिन और वह जीवन, बहुत सालता था वह अभावों भरा जीवन। आक्रोश था, आवेग था जिसने इबारत भी लिखी, इबादत भी लिखी। कुछ सुनी गयीं, कुछ अनसुनी रहीं। सितम तो बस इतना था कि जब-जब हर शब्द बोलता था तब-तब कई कान बहरे हो जाते थे लेकिन धीरे-धीरे कुबेर उन बहरे कानों को मशीनों की ताक़त देते रहे, उसके बाद उन कानों के पास न सुनने का कोई बहाना ही नहीं रहा।

उस आक्रोश का आवेग सालों के बाद भी अभी थमा नहीं था, उसी के तेज़ से जन्मा अगला एक मिशन था अपने गाँव के आसपास के गाँवों को भी कुबेरमयी बना देना। रतनखेत, झबिया, यानपुर सबका जीर्णोद्धार करना था। माँ होतीं तो माँ को बताता कि कि जिस ख़जाने की बात वे करती थीं, अब उनके धन्नू के पास ऐसे कई ख़जानों के भंडार हैं। एक ही देश में नहीं, कई देशों में हैं। शहर-शहर से होते देशों की सीमाएँ लाँघना आसान होता गया। क़ाबिल लोगों के हाथों में कंपनियाँ सौंपते गए कुबेर और अपना हिस्सा लेते रहे। कुबेर नाम की ये कंपनियाँ अनेक मालिकों के साथ अपना सफर तय करतीं, फलती-फूलती रहीं। फ्रेंचाइज़ कहो या कुबेर उनका नाम पर्याय होता गया पैसा कमाने वालों के लिए।

कुबेर एक विचार से प्रस्फुटित हुआ, क्रांति की तरह फैला और एक तीली से ज्वाला लेकर मशाल में परिवर्तित हो गया।

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