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चक्रव्यूह.

चक्रव्यूह

बाहर मूसलाधार बारिश होने लगी थी, इसी के साथ ही रोड़ लाइट्स बंद हो गईं थीं। वह काफी समय से एयरपोर्ट रोड़ पर कार में बैठी छोटी बहन को फ़ोन लगा रही थी लेकिन उसका फ़ोन स्विच ऑफ आ रहा था। इसका मतलब अभी तक उसकी फ्लाइट नहीं पहुंची थी। फ्लाइट सही समय पर होती तो साढ़े सात बजे तक पहुँच जाती। उसका अंदाज़ा था कि बहन को बाहर आते-आते आठ तो आराम से बज ही जायेंगे। यही सोचकर वह ऑफिस की मीटिंग से फ्री होते ही ठीक आठ बजे एयरपोर्ट के बाहर पहुँच गई थी। अमूमन सर्दियों में इतनी तेज़ बारिश नहीं होती। हाँ सर्दी बढ़ाने के लिए हल्की बारिश मावठ के रूप में हो जाती है। एयरपोर्ट रोड़ पर अक्सर अपनों को ले जाने वाले लोगों की कारें क़तार में खड़ी होती हैं। घुप्प अंधेरे में कुछ कारें अपनी जलती बुझती लाइट्स से जीवन्तता का एहसास करा रहीं थीं। वह झुंझलाते हुए सोच रही थी आजकल फ्लाइट्स कभी समय पर नहीं पहुँचती। उसे अपनी बेवकूफ़ी पर भी पछतावा हो रहा था। आज ऑफिस में अर्जेन्ट मीटिंग थी और उसने साइलेन्ट मोड़ पर होते हुए भी अपने मोबाइल को स्विच ऑफ कर दिया था। इसीलिए छोटी बहन का कोई फ़ोन भी उस तक नहीं पहुँच सका होगा। कार में बैठने पर भी उसने अपना मोबाइल ऑन नहीं किया था। यहाँ पहुँच कर ही उसे याद आया था। सम्भव ने उससे कहा भी था कि मीटिंग आराम से अटैण्ड कर लेना छोटी बहिन को मैं एयरपोर्ट से ले आऊँगा लेकिन अपनी लाड़ली बहन को खुद लाने की ललक उसमें उछाल मार रही थी सो उसने मना कर दिया था।तभी सम्भव का फ़ोन आ गया,

"क्या हुआ तुम अभी तक घर नहीं पहुँची, लगता है एयरपोर्ट से ही अपनी प्यारी बहन को बाहर घुमाने ले गई हो।वैसे मौसम भी बहुत बढ़िया हो रहा है।"

वह रूआंसी हो उठी, "एक तो बेमौसम बरसात हो रही है, उस पर तुम भी सिचुएशन समझे बिना मज़ाक करने लगे। छोटी का फ़ोन स्विच ऑफ आ रहा है, इसका मतलब उसकी फ्लाइट अभी पहुँची नहीं है।" तभी दूसरी तरफ से बहन के खिलखिलाने की आवाज़ सुनायी दी,

"मेरा प्लेन तो बिफोर टाइम आ गया था दीदी। आपको कितने फ़ोन किए लेकिन आपका फ़ोन स्विच ऑफ है, यही सुन सुन कर मेरे कान पक गए थे। मैं समझ गई कि मेरी प्यारी दीदी की मीटिंग अभी खत्म नहीं हुई होगी इसीलिए मैंने दिमाग लगाया और सम्भव को फ़ोन कर दिया। उसी के साथ फ्रटस लेकर अभी घर पहँची हूँ। मेरे मोबाइल की बैट्री भी खत्म हो गई थी इसीलिए घर पर उसे चार्ज करने के लिए लगा गई थी।" उसकी बात सुनकर वह ठगी सी रह गई थी।अपनी छोटी सी गलती की वजह से वह आज उसे अपने साथ घर नहीं ले जा सकी थी। उसने सोचा था कि वह माँ की इस प्यारी बेटी को घर लेकर जाएगी और उनका ख़ुशी से दमकता चेहरा देखेगी। खैर वह इन पलों का आनन्द नहीं उठा सकी। घर पहुँची तो ड्राइंग रूम में सम्भव और पंखुड़ी किसी बात पर जमकर ठहाके लगा रहे थे। कमाल की लड़की है ये, किसी भी अज़नबी को चुटकियों में दोस्त बना लेने की अद्भुद् क्षमता रखती है। मैंने ही इमरजेंसी के लिए उसे सम्भव का नम्बर दिया था।

मैं सम्भव को पिछले एक साल से जानती हूँ, वक्त के साथ-साथ हमारी मित्रता प्रेम में परिवर्तित हो गई थी। माँ-पिताजी को वो पसंद आ गया था। नापसंद करने जैसा कोई कारण भी नहीं था। वो औरंगाबाद से इंजीनियरिंग करके आया था और अब यहाँ नौकरी कर रहा था। दो बडी बहनें विवाहित थीं और माता-पिता इंदौर में रहते थे। मेरे साथ काम करने वाले शर्माजी के पड़ोस में पेइंगगैस्ट के रूप में रहता है। मम्मी-पापा ने कभी अपने निर्णय हम तीनों बहनों पर नहीं थोपे थे। सम्भव उन्हें पसंद आ गया था और अब जब सम्भव के किराये के घर में पेंट हो रहा था तो उसे एक महिने के लिए हमारे घर की तीसरी मंजिल पर बने इकलौते कमरे में रहने की इज़ाज़त पापा ने दे दी थी। पापा इन दिनों एक माह के लिए जर्मनी गये हुए थे।

मंझली बहन ने भी उसे अपने भावी जीजू के रूप में स्वीकार कर लिया था। वह भी हम सबका बहुत ख्याल रखता था। पंखुड़ी को अभी इस बारे में मैंने कुछ नहीं बताया था। सोचा था यहाँ आ जायेगी तभी बता दूँगी ।वह हम तीनों में सबसे छोटी थी इसीलिए हम सबकी लाड़ली थी, खासकर माँ की। हम दोनों बहनों ने अपने शहर में रहकर ही पढ़ाई की थी जबकि पंखुड़ी घर से दूर पूना में रहकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही थी। वहीं कॉलेज प्लेसमेन्ट में उसका स्लेक्शन एक मल्टीनेशनल कम्पनी में हो गया था। फाइनल ईयर की परीक्षा देकर वह आज घर पहुंची थी, वैसे तीन महिने बाद उसे वापिस वहीं नौकरी करनी थी। माँ दूर रह रही अपनी इस लाड़ली बेटी के लिए हर समय चिंतित रहती थी। उसके खाने-पीने से लेकर उसके अकेले रहने की चिंता में घुली जा रही थी। हमारे समझाने पर भी उसे लेकर उनकी चिन्ता कम ना होती थी। इतने समय बाद उनकी लाड़ली उनके साथ रहने आयी है, वे बेहद खुश थीं। उसकी पसंद की चीजें बनाती माँ बेहद उत्साहित थी। मैंने देखा कि उसका सामान ड्राइंग रूप में ही रखा हुआ है। प्यार से उसको देखते हुए मैंने सामान की तरफ इशारा किया. "इसे उठाकर माँ के कमरे में रख दे।"

वह चिहुँकी, "माँ के कमरे में!? ना बाबा ना मैं ऊपर वाले बैडरूम में रहूँगी। अब छोटी बच्ची नहीं रही। वैसे भी मुझे अकेले सोने की आदत है।" माँ का मुँह उतर गया था, अपनी लाड़ली बिटिया से इतने दिनों के अलग रहने के अनुभव सुनने को तरसती माँ ये नहीं समझ पा रही थीं कि वह अब पहले जैसी छुई-मुई, हर बात में माँ के आँचल में मुँह छिपाने वाली छुटकी नहीं रही। चार साल मुम्बई जैसे महानगर में रहकर आयी है।

माँ ने उसे समझाते हुए कहा, "छुटकी वह कमरा तो मेहमानों के लिए रखा है।" माँ की बात सुनकर वह खिलखिलाई, "माँ हम लड़कियाँ भी तो पीहर में मेहमान की तरह ही होती हैं।" उसकी बात सुनकर माँ के साथ-साथ मैं भी स्तब्ध रह गयी थी। बात की गम्भीरता को ख़त्म करने के लिए मैंने एक खोखला सा ठहाका लगाया, "सच कह रही है तू, लेकिन आज तो तुझे माँ के साथ ही सोना होगा, तभी उन्हें चैन मिलेगा।" माँ खाना लगा दो बहुत ज़ोर से भूख लगी है कहती मैं वहीं सोफे पर पसर गयी।

माँ ने आज छुटकी की पसंद का खाना बनाया था। मेज पर सजा खाने का सामान देखकर खश होने की बजाए वह झंझलायी, "माँ ये सब क्या बना दिया आपने? मैंने बड़ी मुश्किल से अपने आपको मैन्टेन किया हुआ है। घी-तेल तो मैं बिल्कुल नहीं खाती और रात को सिर्फ फ्रूट्स ही खाती हूँ। भला हो सम्भव का जो ऐसे खतरनाक़ मौसम में भी मेरे कहने पर मुझे फ्रूट शॉप ले गये। अचानक हुई बरसात में मेरे साथ-साथ वे भी भीग गये।"

तभी सम्भव को छींक आ गयी और पंखुड़ी अपने पर्स से छोटी सी विक्स की डिबिया निकालकर उसे पकड़ाने लगी, "ये लगा लीजिये इससे आराम मिलेगा।"

हकबकाया सा वह मेरी तरफ देखता हुआ बोला, "नहीं इसकी ज़रूरत नहीं रात को सोते समय लगा लूँगा। अभी तो खाना-खाना है। मम्मीजी ने इतनी मेहनत और प्यार से बनाया है। भई मेरे मुँह में तो पानी आ रहा है मैं हाथ धोकर आता हूँ।" वह हाथ धोने के लिए सिंक की ओर बढ़ गया। इधर माँ की भावनाओं से बेखबर छुटकी एक प्लेट में अपने लाये फल काटने लगी थी। माँ को विश्वास नहीं हो रहा था कि दिन भर इतनी मेहनत से बनाए उसके पसंदीदा व्यंजनों को नकारने में उनकी लाडली दो मिनिट भी नहीं लगायेगी। इस बार भी स्थिति को संभालने के लिए उसे ही आगे आना पड़ा था,

"चल अच्छा है छुटकी तूने डायटिंग शुरू कर दी। अब माँ के हाथ का बना इतना बढ़िया खाना हम चट कर जायेंगे। जब से तू हॉस्टल गई है माँ ने तो हमें ये सब बनाकर खिलाना ही बंद कर दिया। जैसे तेरे सिवाय इस घर में हम सब की कोई अहमियत ही नहीं है। तेरे पीछे से हम किसी चीज़ की फ़रमाइश करते तो तुझे याद कर माँ की आँखों से टप-अप आँसू गिरने लगते थे। छुटकी को ये पसंद था छुटकी को वो पसंद था। आखिर हमने भी अपने हथियार डाल ही दिये थे। सोच लिया था कि जब तू घर आयेगी तभी ये सब चीजें खाने को मिलेंगी।" सम्भव भी हमारे साथ खाना खाने के लिए बैठ गया, उसे अपनी प्लेट में खाना डालते देख छुटकी बिदक गई,

"क्यूँ हुजूर आप तो फल की दुकान पर फ़रमा रहे थे कि आपको भी ज़्यादा घी-तेल का तला भुना खाना पसंद नहीं। आपका बस चले तो आप भी रात को फ्रूट्स खाकर ही सोयें, फिर अब क्या हुआ? लीजिये मैंने आपके लिए भी फ्रूट्स काटे हैं।" उसकी बात सुनकर एक बार तो वह सकपका गया किन्तु फिर शीघ्र ही सम्भल गया, "हाँ मैंने कहा था लेकिन जब माँ के हाथ का बना इतना स्वादिष्ट खाना सामने हो तो कौन कमबख़्त अपने ऊपर कंट्रोल कर सकता है।"

सब मुस्करा दिए थे वातावरण सहज होने लगा था। मैं सोच रही थी कि आजकल बच्चों को हॉस्टल भेजने के पीछे कई बार माता-पिता द्वारा ये तर्क दिया जाता है कि घर में रहने से उनके इकलौते बच्चे स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित हो जाते हैं। हॉस्टल में रहकर वह अन्य बच्चों के साथ मिलजुल कर रहना सीखते हैं। एक-दूसरे की भावना की कद्र करना सीख जाते हैं। लेकिन इस धारणा के विपरीत छुटकी को देखकर बेहद हैरानी हई। माँ की स्नेहासिक्त भावनाओं से बेखबर फ्रटस खाती छोटी बहिन बेहद अजनबी सी लग रही थी। मुझे महसूस हुआ कि वह बाहर रहकर ज़्यादा ही प्रैक्टीकल हो गई है। शायद ये महानगर में रहने का असर है। उससे केवल चार साल छोटी बहन अब इतनी भी छोटी नहीं रही थी कि माँ की कोमल भावनाएँ ना समझ सके। उसने आँखों ही आँखों में मंझली को इशारा किया और दोनों बहनें चटखारे ले लेकर खाना-खाने लगी। माँ के बनाए खाने की तारीफ़ों के पुल बांधते हम तीनों माँ को खुश करने में लगे हुए थे लेकिन अपनी लाड़ली छोटी बेटी के व्यवहार से माँ बुझ सी गई थीं।

मंझली बैंक में काम करती थी और शाम छः बजे तक घर आ जाती थी। मैं इंश्योरेंस कम्पनी में मैनेजर थी, अक्सर व्यस्त रहती थी। इधर पंखुड़ी भी अपने प्लेसमेंट को लेकर बहुत उत्साहित थी। माँ ने बहुत प्यार से पंखुड़ी की मनपसंद खीर बनायी थी। बड़ी झिझक के साथ वो मेज़ पर खीर की कटोरियाँ रख रही थीं मैं भी आने वाली स्थिति से बचने के लिए, पर्स रखने के बहाने अपने कमरे में चली आयी थी तभी पंखुड़ी पीछे से आकर मेरे कंधे पर झूल गयी, "दीदी सम्भव बड़ा ही इंटरैस्टिंग लड़का है।"

मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।

"क्या हुआ दी कहाँ खो गई ? कहीं तुम उसे पसंद तो नहीं करती हो?" मैं अचकचा गई थी। पंखुड़ी के अब तक के व्यवहार से मैं बहुत खिन्न थी इसलिए अभी उसे सच बताने की इच्छा नहीं हुई। मैंने अपना पीछा छुड़ाने के लिए कह दिया,

"अरे नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।"

"पक्का?'' वो रहस्यमय तरीके से मुस्कराई थी। मैंने खीझते हुए कहा,

"तू तो पीछे ही पड़ गई, वह सिर्फ मेरा अच्छा दोस्त है।"

"ओ.के. फिर ठीक है। असल में मुझे वह अच्छा लगा और उसके हाव-भाव से आई मीन जिस तरह से शाम से वह मुझे सपोर्ट कर रहा है साफ़ ज़ाहिर है कि वह भी मुझे पसंद करता है। अब तो लाइन क्लीयर है, कहती मेरा मुँह चूमकर फुदकती हुई वह ड्राइंगरूम में चली गई। मेरा दिल धक् रह गया। ये बेवकूफ़ लड़की बहुत ज़िद्दी है जो ठान लेती है उसे पूरा करके रहती है। इससे पहले कि ये कोई ग़लतफ़हमी पाल ले मैं आज रात को ही इसे सब कुछ सच-सच बता दूंगी। यही सोचती मैं भी ड्राइंग रूम में चली आयी। पंखुड़ी वहाँ बैठी सम्भव को अपने हॉस्टल के मनोरंजक किस्से सुना रही थी जिसे वह बड़ी रुचि लेकर सुन रहा था। तभी मैंने हिम्मत करके खीर की ट्रे उसके सामने कर दी। पहले तो उसने नाक-भौंह सिकोड़ी लेकिन फिर तुरन्त एक कटोरी खीर उठा ली जिसे देखकर मेरे चेहरे पर इत्मीनान के भाव उभर आये लेकिन दूसरे ही पल उसकी बात से घर में विस्फोट सा हो गया,

"मैं वैसे ये खीर बिल्कुल नहीं खाती लेकिन माँ मैंने तुम्हारी एक बड़ी परेशानी आज़ दूर कर दी। मेरे लिए लड़का मत देखना, मुझे सम्भव पसंद है। इसी खुशी में आज बदपरहेज़ी कर रही हूँ।'' इतनी देर से रस ले लेकर उसकी बातें सुनता सम्भव एकाएक उठ खड़ा हुआ, "सुनो पंखुड़ी तुम पाखी की बहन हो इस रिश्ते से मैं तुमसे स्नेह करता हूँ। मैं और वो एक-दूसरे को पसंद करते हैं और इस सम्बन्ध के लिए तुम्हारे मम्मी-पापा की स्वीकृति मिल चुकी है। मैं ये बात तुम्हें पहले ही बता देता लेकिन तुम्हारी दीदी स्वयं तुम्हें ये बात बताना चाहती थी। इस वजह से मैं अब तक चुप बैठा था।"

पंखुड़ी ने आश्चर्य से मुझे देखा, "लेकिन दीदी ने तो कहा था कि तुम सिर्फ उनके दोस्त हो...?" मैंने संयत होते हुए कहा, "छुटकी मैं रात को तुम्हें सारी बात बताने वाली थी लेकिन तुमने मुझे टाइम ही नहीं दिया।"

वह बिना कुछ कहे सूटकेस उठाये ऊपर वाले कमरे में जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। पीछे-पीछे प्रिया भी चल दी। मैं जब तक ऊपर पहुँचती उन्होंने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया था। दरवाज़ा खटखटाने का विचार छोड़कर मैं वापिस मुड़ी। प्रिया उसे समझा देगी यही सोच रही थी कि तभी प्रिया की आवाज़ सुनकर मेरे क़दम वहीं थम गए थे, "पंखुड़ी तू परेशान मत हो पिछले महीने जब सम्भव यहाँ रहने आया था तब मैं भी उसकी तरफ आकर्षित हो गई थी लेकिन दीदी ने तो उसे पहले ही हथिया लिया था इसलिए चाहकर भी वो मुझे पसंद नहीं कर सका था, उसने मुझसे कहा था, "सच कहूँ तो प्रिया जी मुझे भी आप बहुत अच्छी लगती हो लेकिन पिछले एक साल से आपकी दीदी से मिलता रहा हूँ।बुरा ना मानें आप बहुत सुन्दर है आपको मुझसे अच्छा लडका मिल जायेगा लेकिन ये वादा रहा कि हम हमेशा अच्छे दोस्त बने रहेंगे।" ये कहते हुए उसने मेरे हाथ को पकड़ कर चूम लिया था।"

मंझली बहन की बात सुनकर वह स्तब्ध रह गई थीं।आखिर ये माजरा क्या है? वो सीधी सम्भव के पास जा पहुंची थी।

"सुनो मैं तुम्हें अपने प्रेम के बंधन से आज़ाद करती हूँ, हम तीनों बहनों में से जो पसंद हो उसे चुन लो।" उसकी इतनी स्पष्ट बात सुनकर वह अचकचा गया था,

"मैंने केवल तुम्हें ही चाहा है। ऐसी बात कहकर तुम मुझे शर्मिन्दा कर रही हो।"

"अच्छा!? फिर तुमने प्रिया के साथ हुईबातचीत को मुझसे क्यों छिपाया था।"

"ओह...वो...वह अटक गया था...वो सब बता कर मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता था। उसे भी मैंने स्पष्ट जवाब दे दिया था। मैं केवल और केवल तुमसे ही प्यार करता हूँ।"

रात को हम तीनों बहनें एक साथ बैठी थीं मैंने सम्भव से अपनी पहली मुलाकात से लेकर अभी तक के किस्से की एक-एक बात सुनायी थी फिर दोनों छोटी बहनों से कहा था। इस लड़के की वजह से हम बहनों के आपसी रिश्तों में कोई खटास आए ये मैं बिल्कुल नहीं चाहती। तुम चाहो तो मैं अब भी इस रिश्ते से इंकार कर सकती हूँ।" मेरी बात सुनकर छुटकी हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई थीं;

"दीदी मुझे मंझली दी ने पहले ही आपके रिश्ते के बारे में बता दिया था। हम दोनों तो तुम्हारे मज़े ले रहे थे। हमारी दीदी का कहीं रिश्ता होने जा रहा हो तो हमें उस लड़के को भी तो ठोक बजाकर देखना चाहिए ना बस इसीलिए ये सब नाटक कर रहे थे।अब लग रहा है कि वो सच में तुमसे बहुत प्यार करता है इसीलिए अपनी सालियों को भी नाराज़ नहीं करना चाहता। एक बात ज़रूर है दीदी ये ज़्यादा स्मार्ट लड़के होते बडे दिलफेंकटाईपके हैं। चलो अभी चल कर उसे सारा सच बता देते हैं। तीनों बहने मुस्कराती हुई दबे पाँव उसके कमरे की ओर बढ़ीं। उसके कमरे का दरवाज़ा भिड़ा हुआ था अंदर वो किसी से फ़ोन पर बात कर रहा था।"

"अरे नहीं यार अभी कुछ दिन यहीं रहकर पूरी गोटियाँ फिट करूँगा। बेहद सेफ गेम खेल रहा हूँ। समझ लो मेरी तो पाँचों अंगुलियाँ घी में और सिर कड़ाही में है। ससुराल की जायदाद मेरे ही पास रहेगी...'

"कैसे? भई वो ऐसे कि एक के साथ दो फ्री, वाली स्कीम हाथ लगी है मेरे। पत्नी के साथ-साथ दो प्रेमिकाएँ सुंदर सालियों के रूप में मिल रही हैं। ये लड़कियाँ, आई स्वैर यार, बड़ी ईर्ष्यालु होती हैं चाहे सगी बहनें ही क्यों ना हो। बड़ा ही मनोवैज्ञानिक खेल खेल रहा हूँ। ऐसा चक्रव्यूह रच रहा हूँ जिसके ताने-बाने से सारी उम्र तीनों बहनें बाहर नहीं निकल पायेंगी। एक ज़ोर का ठहाका लगाते हुए वह बात करते करते दरवाज़े की ओर मुड़ा।

दरवाज़े पर खड़ी तीनों बहनों को देखकर उसके हाथ से मोबाइल छूट कर ज़मीन पर जा गिरा था।

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