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विश्वास

दरवाज़े की घण्टी जिस तरह से लगातार बज रही थी मैं समझ गई थी कि मनोज ही आए होंगे। दरवाज़ा खोलते ही उनके हाथ में मोबाइल पकड़ा दिया था।

"इसे लेने ही इतनी दूर से वापिस आए हैं ना?"

मुझे लगभग धकियाते हुए वे अंदर आ गये थे,

"तुम्हें पता भी है तुम्हारी बेटी क्या गुल खिला रही है?" अपेक्षाकृत शान्त स्वर में मैंने प्रतिप्रश्न दाग दिया, “क्या हुआ? ऐसा क्या कर दिया उसने?"

दांत पीसते हुए वो गरजे, “क्या किया? उसे कॉलेज बस में बिठाकर मैं ऑफिस चला गया था। वहाँ जाकर पता चला कि मोबाइल घर ही भूल आया हूँ उसे ही लेने आ रहा था कि रास्ते में यशा को खुलेआम एक लड़के की मोटरसाईकिल के पीछे बैठकर जाते हुए देखा। मैंने उसे आवाज़ भी दी लेकिन वो नहीं रूके।हम विपरीत दिशा में जा रहे थे इसलिए इसका पीछा भी नहीं कर सका।" अपनी सनसनीखेज़ बात के जवाब में मुझे मुस्कराते देख कर उनका पारा और चढ़ गया था,

"मैं किसी कॉमेडी फिल्म की कहानी नहीं सुना रहा हूँ। तुम्हारी बेटी के कारनामें बता रहा हूँ। कैसी माँ हो तुम? तुम्हारी बेटी हम दोनों की आँखों में धूल झोंक रही है। मुझे तो शक है कि वो परीक्षा भी नहीं दे रही है क़ायदे से उस वक्त तो उसे परीक्षा हॉल में होना चाहिए था..."

"आज तक तो मेरी बेटी... मेरी बेटी कहते तुम्हारी जुबान नहीं थकती थी अब अचानक से वो केवल मेरी ही बेटी बनकर रह गई... क्या वो हम दोनों की बेटी नहीं है? अपनी बेटी पर इतना ही विश्वास है तुम्हें ?" वे हैरानी से मुझे देख रहे थे।

"ये क्या कह रही हो तुम!"

सही कह रही हूँ, मुझे इस बात की पूरी जानकारी है। यशा के साथ जिस लड़के को आपने देखा वह कोई लफंगा लड़का नहीं है उसका क्लास फैलो हैं विनीत । वह अपना एडमिशन कार्ड घर पर ही भूल गई थी परीक्षा शुरू होने में बहुत कम समय रह गया था। इसीलिए विनीत के साथ घर आयी थी। आने से पहले विनीत ने आपके मोबाइल पर फ़ोन किया था जिसे मैंने ही उठाया था। परीक्षा-कक्ष में मोबाइल नहीं ले जाने देते इसीलिए वो अपना मोबाइल घर ही छोड़कर जाती है। विनीत की मदद से ही आज वो परीक्षा दे पा रही है। ज़रा सोचो सुबह का समय था, इस आने जाने में यदि रास्ते में ट्रैफिक जाम की समस्या हो जाती तो विनीत का भी साल बर्बाद हो सकता था।"

सारी बात सुनकर पति के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव उभर आए थे, "ओह माफ़ करना, लेकिन अचानक यूं यशा को किसी अनजान लड़के के साथ मोटरसाइकिल के पीछे बैठे देख मैं अपना आपा खो बैठा था वैसे मेरी जगह तुम होतीं तो तुम भी ऐसा ही सोचतीं।"

"नहीं मैं एक माँ हूँ इतनी जल्दी अपना धैर्य नहीं खोती पहले बात की तह तक पहुँचती।"

निढाल से वह बैडरूम की ओर चल दिए, "इतना तनाव हो गया था, तुम्हारी बात सुनकर राहत मिली है अब ऑफिस जाने का मन नहीं कर रहा थोड़ी देर कमरे में जाकर आराम करना चाहता हूँ..."

कुछ ही देर में उनके खर्राटे गूंजने लगे थे। मनोज की ये अच्छी आदत है जितनी जल्दी तनाव में आते हैं उतनी ही जल्दी रिलैक्सिंग मोड में आ जाते हैं। मैं कुछ अधिक ही संवेदनशील हूँ। आज की घटना मुझे लगभग पच्चीस वर्ष पुराने दिनों में खींच ले गई थी...

उस दिन मैं कॉलेज से घर लौटी तो माँ ने हमेशा की तरह चाय-नाश्ता तैयार कर रखा था।खा-पीकर कमरे में लेटने गई तो देखा कमरा सुबह की तरह ही बिखरा पड़ा था। "माँ आज मेरा कमरा साफ नहीं किया"कहती मैं बिस्तर पर से सारा सामान एक तरफ कर सोने जा रही थी कि किताब के नीचे दबे गुलाबी लिफ़ाफ़े में रखा निशांत का पत्र फिर हाथ लग गया था।ओह अच्छा हुआ आज माँ ने कमरा साफ नहीं किया वर्ना ये पत्र माँ से बाबूजी के हाथ में चला जाता और बिना बात का हंगामा मच जाता। बाबूजी तो किसी क़ीमत पर ये मानने को तैयार नहीं होते की मेरा निशांत के साथ कोई प्रेम-रोम का चक्कर नहीं चल रहा है। सुबह कॉलेज जाते समय गली के नुक्कड़ पर निशांत ने ये लिफ़ाफ़ा पकडाते हए कहा था कि गलती से पोस्टमैन ने तम्हारी चिट्ठी हमारे घर पर डाल दी है। लिफाफा खोलकर देखा तो उसकी करतूत पता चली। वापिस घर आकर चिट्ठी तकिये के नीचे रखकर मैं भागते हुए बस स्टॉप पर पहुँच गई थी। यही गनीमत थी कि इस चक्कर में कॉलेज बस नहीं छूटी। लिफ़ाफ़े में दो लाईन लिखी थी, "तुमने मेरी रातों की नींद उड़ा दी है यशा, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ, आज रात को दस बजे छत पर तुम्हारा इंतजार करूँगा।" पढ़कर आगबबूला हो उठी थी वह। पढ़ने-लिखने में ढ़पोल निशांत की इतनी हिम्मत की उसको ऐसी चिट्ठी हाथ में देने की हिमाक़त कर डाली। कॉलेज में रहकर जो बात वह भूल चुकी थी इस चिट्ठी को देखकर निशांत की करतूत फिर याद आ गई थी। उसकी नींद भी पूरी तरह उड़ चुकी थी। चिट्ठी अलग रखकर वह कमरा साफ कर अपने काम में लग गई थी। कल से कॉलेज में पहले सैशन के प्रैक्टीक्लस शुरू हो गए थे उन्हीं की तैयारी करने लगी। पढ़ते-पढ़ते कब रात घिर आयी उसे पता ही नहीं चला।खाना खाकर वह फिर पढाई में लग गई थी। रात को दस बजे अचानक माँ को याद आया यशा छत से कपड़े ले आ, आज मैं तार से उतारना भूल गई।"

"माँ कल सुबह उतार लेना अब बहुत रात हो गई है। कहती वह उबासियाँ लेती सोने की तैयारी करने लगी।" तभी कमरे से बाबूजी का गम्भीर स्वर गूंजा था।

"यशा कपड़े ले आओ, रात को बारिश आ गई तो तुम्हारी माँ की मेहनत बेकार हो जायेगी।"

अधूरे मन से मैं छत की ओर चल दी तभी पड़ोस की छत पर अँधेरे में खड़े निशांत का स्वर सुनाई दिया था।

"थैक्स यशा तुम आ गई, मुझे विश्वास हो गया है कि तुम भी मुझसे उतना ही प्यार करती हो जितना मैं तुम्हें करता हूँ।"

तार से कपड़े उतारती यशा का पारा चढ़ गया था।

"मैं यहाँ माँ के कहने से छत पर सूख रहे कपड़े लेने आयी हूँ। तुम पढ़ाई-लिखाई में अपना दिमाग़ लगाओ ये तुम्हारे कैरियर बनाने की उम्र है। एक बात कान खोलकर सुन लो आगे से तुमने इस तरह की कोई हरकत की तो तुम्हारी लिखी चिट्ठी मैं अपने बाबूजी को पकड़ा दूंगी। समझे?"

यशा की धीमी लेकिन कड़क आवाज़ सुनकर निशांत के सिर से प्यार का भूत उतर गया था और वो तुरन्त सिर पर पैर रखकर वहाँ से भाग छूटा था। वह भी छत की सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आ गयी थी। कुछ ही देर में कमरे में दूध का गिलास लेकर आयी, माँ उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेर रही थीं,

"थोड़ा आराम भी कर लिया कर लगातार इतनी देर तक पढ़ना ठीक नहीं है।वैसे एक बात कहूँ मुझे तेरी जैसी बेटी पाकर बहुत गर्व महसूस होता है।'' मैं आश्चर्य से माँ का मुँह देखने लगी थी,

"माँ ऐसा मैंने क्या कर दिया है अभी तो प्रथम सत्र की परीक्षा भी नहीं हुई है?"

माँ मुस्कराई, “मैं पढ़ाई की बात नहीं कर रही वो तो मुझे पता ही है तू कितनी मेहनत से अपने लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ रही है बेटी मेहनत करने वालों की कभी हार नहीं होती। मैं तो दूसरे विषय की बात कर रही हूँ। आज सुबह मैंने तेरे तकिये के नीचे रखी निशांत की चिट्ठी पढ़ ली थी।"

"क्या?" फिर भी तुमने मुझे जबरन छत पर भेजा?", मैं हैरानी से माँ का मुँह देख रही थी।

"हाँ" लेकिन उस समय मैं छत के दरवाज़े के पीछे ही खड़ी थी। बिना सारी बात जाने किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सकता ना? मुझे तुझ पर पूरा विश्वास था। हाँ अगर मेरी जगह तुम्हारे पिताजी के हाथ में ये ख़त लग जाता तो वो सीधे जाकर निशांत का कॉलर पकड़ लेते लेकिन बेटी सच तो ये है कि जीवन में किसी भी बात की तह तक पहुँचे बिना आवेश में निर्णय लेना गलत ही होता है।"

मैं मुस्कराई, "माँ अगर मेरी गलती होती तब?"

"तब मैं भी तुम्हें वही समझाती जो बात तुमने निशांत को समझायी थी, लेकिन तुम्हारी तरह नहीं ज़रा प्यार से क्योंकि तुम मेरी बेटी हो। बेटी ये बात हमेशा ध्यान रखना एक माँ सब जानती है।'' माँ की बात सुनकर मैं खिलखिलाती हुई माँ के गले लग गई थी।मैं ना जाने कब तलक माँ की यादों में खोयी रहती की दरवाज़े की बजती घंटी ने वर्तमान में ला खड़ा किया। आँख मलते मनोज कमरे से बाहर आ गये थे। मुझे टेबल पर सिर रखे मुस्कराते देख हैरानी से सिर हिलाते हुए दरवाज़ा खोलने चल दिए थे।"

दरवाज़े पर खड़ी यशा पिता को देखकर सहम गई थी। विनीत भी उसके साथ आया था।

"सॉरी पापा, सुबह बहुत देर हो गई थी इसीलिए आपके आवाज़ लगाने पर भी हम नहीं रुके।ये विनीत है मेरी क्लास में ही पढ़ता है।''

मनोज मुस्कराते हुए उससे कह रहे थे, "हाँ बेटी तुम्हारी माँ ने मुझे सब बता दिया था। बेटा विनीत तुम्हारा शुक्रिया कैसे अदा करूँ। आज तुमने यशा की मदद नहीं की होती तो वो समय से पहुँचकर परीक्षा नहीं दे सकती थी।"

"ये सब कहकर आप मुझे शर्मिन्दा न करें अंकल, आखिर इतना तो हम क्लासमेट एक-दूसरे के लिए कर ही सकते हैं।" मनोज मुस्कराए, “भई बच्चे परीक्षा देकर थके हुए आए हैं, चाय के साथ कुछ गर्मागर्म नाश्ता हो जाए।" मैं रसोई में खड़ी पकोड़े तल रही थी कि अचानक पीछे से आकर खिलखिलाती हुई यशा मेरे गले लग गई थी।ठीक उसी तरह जैसे पच्चीस बरस पहले मैं अपनी माँ के लगी थी।

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