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जादूगर जंकाल और सोनपरी (8)

जादूगर जंकाल और सोनपरी

बाल कहानी

लेखक.राजनारायण बोहरे

8

शिवपाल ने आव देखा न ताव एक ही वार में गोरिल्ला का सिर काट दिया।

जमीन पर गिर रहे गोरिल्ला के बदन से अचानक एक देवता जैसा बहुंत गोरा और राजसी वस्त्रों से सजा हुआ व्यक्ति प्रकट हुआ और हाथ जोड़ कर शिवपाल से बोला- हे महापुरूष आपको धन्यवाद। मेरा नाम अश्विनकुमार है! मैं परीलोक का पहरेदार हूं यह जादूगर मुझे पकड़ कर यहां ले आया है और यहां गोरिल्ला बना कर पहरेदार बना कर रख दिया है यहां इस जादूगर की करामात से मुझ जैसे दस और परीलोक के पहरेदार इस जगह गोरिल्ला बन कर इन महलों की रक्षा में लगे हुए हैं। अगर आप उन दसों लोगों को गोरिल्ला के बदन से मुक्त करा देंगे तो हम सब आपकी सहायता करेंगे।

अश्विनकुमार को साथ लेकर शिवपाल ने सारे महलों में चक्कर लगाया और कुछ ही देर में उन दसों गोरिल्लाओं को मार कर परीलाक के पहरेदारों को मुक्त कर दिया ।

अब उन सब परीलोग के वाशिदों से शिवपाल ने पूछा कि अंदर महल मे जाने का क्या रास्ता है तो वे बोले कि रस्सी के सहारे आप इस महल मे जा सकते है लेकिन रस्सी कहां से आयेगी?

शिवपाल ने कहा कि चिन्ता नही करों मेरे पास बहुत मजबूत रस्सी है जिसके सहारे आप दसों साथ मैं भी अंदर जा सकता हूं ।

फिर क्या था रस्सी फेंक कर शिवपाल ने महल के ऊपर के बुंर्ज से बांधी और महल की दीवार के सहारे उपर चढ़ने लगा। वह चढ़ गया तो बाकी के दस लोग भी चढ़ आये।

अश्विन के इशारे पर वे सब बिना आवाज किये उस कमरे तक पहुंचे जहां वह सुंदरी बंद थी। अश्विन ने बताया कि यही सोन परी है । इन सारे महलों में ऐसी बहुत सारी सुंदरियां बंद की गयी है। जबकि वो कोने वाला लाल महल जादूगर का निजी महल है।

अंदर से कोई आवाज न आती देख शिवपाल भीतर जा पहुंचा तो उसे यकायक देख सोनपरी की आंखे खुली की खुली रही गयी । जबकि सोनपरी ने उसे देखा तो वह भौंचक्का रह गयी कि इस रहस्यमय किले में ये कौन अजनबी आ गया है।

शिवपाल ने सोन परी के बंधन अपनी तलवार से काटे और उसे सारा किस्सा सुनाया फिर उसे कहा कि वह यहां से बाहर निकलने के लिए जादूगर से महल से कोई साधन लेकर आता है इसके बाद उसे लेकर यहां से जायेगा।

अब वे ग्यारह लोग जादूगर के महल की तरफ बढ़े।

इस महल की सुरक्षा गजब की थी । खूब सारे पुतले यहां वहां खड़े हुये थे जिनकी आंखें घूम रही थी। उपर महल के बुर्जा पर जादुई पक्षियों की मूर्तियां कतार में बैठी हुई थी । शिवपाल को लगा कि जरूर ही इन महलों को आपस मे जो़ड़ने वाला कोई तहखाना और सुरंग होगी, उसी से जादूगर उस महल से सोनपरी के महल में आता जाता होगा ।

वह सोनपरी के महल में वापस आया और ध्यान से सुरंग की तलाश करने लगा। उसे थोड़े से प्रयत्न से एक सुरंग मिल गयी। बरामदे का एक खम्भा खूब बड़ा था जिसमें एक मूर्ति लगी थी जिसका हाथ पेट पर और अंगुली उसकी नाभि पर रखी थी, शिवपाल ने मूर्ति की नाभि का धीरे से दबाया तो मूर्ति अपनी जगह से खिसकने लगी और खम्भे में दरवाजा बनने लगा।

फिर क्या था! शिवपाल ने उस दरवाजे में घुसने के पहले हाथ में अपनी तलवार किलकारी का आव्हान किया और बेधड़क हो कर भीतर घुस गया। दरवाजे में घुसते ही नीचे सीड़ियों से होकर रास्ता था। उन सबको वहीं छोड़के शिवपाल बिना आवाज किये उस सुरंग में आगे बढ़ा।

एक लम्बे बरामदे की तरह बनी हुई वह सुरंग खाली पड़ी थी जिसमें जगह जगह मशाल जला कर रोशनी का बंदोबस्त किया गया था। सुरंग में से एक दरवाजा दांये तरफ जाता हुआ दिखा तो शिवपाल उधर ही बढ़ गया। उसके अनुमान से यही रास्ता जादूगर के लाल महल को जाने वाला था।

उसका अंदाज सही था ।

आगे जाकर उसी रास्ते वे सीड़ियां उपर को चढ़ती दिखाई दे रही थी। एक एक सीड़ी पूरी सावधानी से चढ़ता हुआ वह आगे बढ़ा और कुछ ही देर में उसने अपने आपको एक बड़े से कमरे मे पाया। जहां कि ढेर सारी मूर्तियां खड़ी हुई थी जिनकी आंख इस समय बंद थी। शिवपाल ने ध्यान दिया कि इस महल तक आने में समुद्र तट से यहां तक अब तक मिली सारी मूर्तियों से इस कमरे की मूर्तियो का यही फर्क था कि वे सारी मूर्तियां आंख खोले खड़ी थी और इन सबकी आंख बन्द थी।

शिवपाल फुर्ती दिखाते हुए एक मर्ति के पीछे पहुंचा और उसने अपनी तलवार मूर्ति की गरदन पर टिका दी, लेकिन मूर्ति में कोई हरकत नही हुई।

शिवपाल समझ गया कि इन मूर्तियों में अभी जादू नही किया गया है। इन्हे बना कर केवल बाद की जरूरत के लिए रख दिया गया है।

उसने देखा कि उन मूर्तियों ने सैनिकों जैसी जो पोशाक धारण कर रखी है, वैसी ही पोशाक एक खूंटी पर टंगी है-पांव में कत्थई रंग का पैजामा, सुनहरे रंग का कोट और माथे पर एक बड़ा सा कनटोप जिससे आधा चेहरा ढंक जाता है।

शिवपाल ने बिना सोचे तुरंत ही वह पोशाक उतारी और फुर्ती से पहनने लगा। पल भर में वह भी मूर्तियों की तरह दिख रहा था मूर्ति और खुद में अंतर देखने के लिए वह मूर्तियों की कतार में खड़ा हो गया। अब वह भी उन मूर्तियों में से एक लग रहा था।

सहसा पिछले दरवाजे से आवाज आई तो वह मूर्तियों की कतार में एक मूर्ति की तरह खड़ा हो गया। पिछले दरवाजे से शिवपाल जैसी ही पोशाक पहने दो सैनिक आ रहे थे जो आपस में बात कर रहे थे।

शिवपाल चौंका-‘बाप रे, ये तो मनुष्य हैं।’

पहले ने कहा ‘जंकाल के खाने का समय हो रहा है, वे महल में आने ही वाले होंगे।’

दूसरा कह रहा था -‘ उनके महल में आते ही उनके महल के सारे दरवाजे जादू से बंद कर देना जिससे कि कोई उनके भोजन में व्यवधान न डाले।’

वे लोग पहले मनुष्य थे ,जो इस टापू पर आने के बाद दिखे थे। मजे की बात यह थी कि इन जीवित मनुष्यों ने भी ठीक वही पोशाक पहन रखी थी, जो इन मूर्तियों ने पहनी थी और शिवपाल ने पहन रखी थी ।

शिवपाल सोच रहा था कि ज्यों ही जादूगर आये उस पर हमला कर दिया जाये। फिर खुद ही सोचा कि जादूगर अकेला नही होगा जाने कितने सैनिक उसके साथ होंगे इसलिये बिना विचारे हमला करना ठीक न होगा।

जब तक जादूगर आये तब तक क्यों न उसके महल की तलाशी ले ली जाये, यही सोच कर शिवपाल अपनी जगह से हटा और उस पिछले दरवाजे तरफ चल पड़ा जहां से अभी अभी सैनिक आये थे।

पिछला दरवाजा एक दूसरे बड़े दरवाजे में खुलता था जिसमें बहुत सारी पालकियां रखी हुई थी। शिवपाल ने ध्यान से देखा तो पता लगा कि इन पालकियों के नीचे की तरफ बहुत सारी चरखी लगी थी और ऊपर की तरफ बहुत मुलायम से पंख भी लगे थे। शिवपाल ने अंदाजा लगा लिया कि यह तो आसमान मे उड़ने वाले विमान होंगे। जिनसे जादूगर कही बाहर आता जाता होगा।

तीसरे कमरे की तरफ बढ़ते हुए शिवपाल को लग रहा था कि इन विमानों को चलाने के तरीके सीखना जरूरी है जिससे कि लौटते वक्त इन्ही में से एक का उपयोग किया जा सके।

तीसरे कमरे में जादूगर के हथियार रखे थे। कई तरह की तलवारें, भाले, ढाल, धनुष बाण आदि इस कमरे में सजा कर रखे हुऐ थे।

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