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कर्तव्यपालन की सज़ा

कर्तव्यपालन की सज़ा

जब जल्दी हो तो सारे काम भी उल्टे होते हैं. कभी हाथ से दूध गिरता है तो कभी बर्तन तो कभी सब्जी. हद हो गयी है आज तो लगता है अपाइंटमेंट कैंसल ही करनी पड़ेगी. कितनी मुश्किल से तो एक महीने बाद टाइम मिला था लगता है आज वो भी हाथ से निकल जायेगा. चलो कोशिश करती हूँ जल्दी से जाने की.ये सब सोचते हुये मै जल्दी - जल्दी काम निबटाने लगी।

फिर जल्दी से काम निपटाकर मैं हॉस्पिटल के लिए निकल गयी मगर रास्ते में ट्रैफ़िक इतना कि लगा आज तो जाना ही बेकार था मगर अब कुछ नहीं हो सकता था क्यूँकि इतना आगे आ चुकी थी कि वापस जा नहीं सकती थी तो सोचा चलो चलते है. एक बार कोशिश करुँगी डॉक्टर को दिखाने की. किसी तरह जब वहाँ पहुची तो देखा बहुत से मरीज बैठे थे तो सांस में सांस आई कि चलो नंबर तो मिल ही जायेगा बेशक आखिर का मिले और आखिर का ही मिला. अब डेढ़ घंटे से पहले तो नंबर आने से रहा इसलिए एक साइड में बैठकर मैगजीन पढने लगी ।

थोड़ी देर बाद यूँ लगा जैसे कोई दो आँखें मुझे घूर रही हैं आँख उठाकर देखा तो सामने एक अर्धविक्षिप्त सी अवस्था में एक औरत बैठी थी जो कभी- कभी मुझे देख लेती थी.उसके देखने के ढंग से ही बदन में झुरझुरी - सी आ रही थी इसलिए उसे देखकर अन्दर ही अन्दर थोडा डर भी गयी मैं. फिर अपने को मैगजीन में व्यस्त कर दिया मगर थोड़ी देर में वो औरत अपनी जगह से उठी और मेरे पास आकर बैठ गयी तो मैं सतर्क हो गयी. न जाने कौन है, क्या मकसद है , किस इरादे से मेरे पास आकर बैठी है, दिमाग अपनी रफ़्तार से दौड़ने लगा मगर किसी पर जाहिर नहीं होने दिया. मैं सावधान होकर बैठ गयी. तभी वो अचानक बोली,

और मुझे अपना परिचय दिया और मुझसे मेरे बारे में पूछने लगी क्यूँकि उसे मैं जानती नहीं थी इसलिए सोच- सोच कर ही बातों के जवाब दिए. फिर बातों-बातों में उसने मुझसे अपनी थोड़ी जान -पहचान भी निकाल ली.

“जानती हैं मैने आपको कैसे पहचाना ?”

“नहीं, आप ही बताइये”

“आप अपने बेटे को स्कूल छोडने आया करती थीं न तो वहीं स्टॉप पर आपको लगभग रोज ही देखती थी और फिर हमारे बच्चे एक ही स्कूल में हैं बेशक क्लास का अन्तर है।“

अब मैं पहले से थोड़ी सहज हो गयी थी.

फिर मैंने उससे पूछा, “आपको क्या हुआ है ?”

तो उसके साथ उसकी माँ आई हुई थी वो बोलीं, “इसे डिप्रैशन है और ये २-२ गोलियां नींद की खाती है फिर भी इसे नींद नहीं आती और काम पर भी जाना होता है तो स्कूटर भी चलाती है.”

ये सुनकर मैं तो दंग ही रह गयी कि ऐसा इन्सान कैसे अपने आप को संभालता होगा और फिर बातों में जो पता चला उससे तो मेरा दिल ही दहल गया.

“मेरा नाम नमिता है. एक बेटा और एक बेटी दो बच्चे हैं. बेटा कोटा में इंजीनियरिंग के एंट्रेंस की तैयारी कर रहा है और बेटी भी अभी 11वीं में है. पति का अपना व्यवसाय है तथा मैं खुद विश्वविध्यालय में अध्यापिका हूँ.”

भरा पूरा पढ़ा -लिखा परिवार था फिर मुश्किल क्या थी अभी मैं ये सोच ही रही थी कि नमिता ने आगे कहा,

"रोज़ी, तुम सोच रही होंगी कि मेरे साथ ऐसा क्या हुआ जो आज मेरी ये हालत है, तो सुनो --------मुश्किल तब शुरू हुई जब मेरे बेटे का ऐडमिशन कोटा में हो गया और मुझे उसके पास जाकर २-३ महीने रहना पड़ता था. उसके खाने पीने का ध्यान रखना पड़ता था. घर पर मेरे पति और बिटिया होते थे और मुझे बेटे के भविष्य के लिए जाना पड़ता था.”

“एक औरत को घर- परिवार, बच्चों और नौकरी सब देखना होता है. पति तो सिर्फ अपने काम पर ही लगे रहना जानते हैं मगर मुझ अकेली को सब देखना पड़ता । हर छोटी बडी चिन्तायें सब मेरी जिम्मेदारी होती थीं। कैसे घर और नौकरी के बीच तालमेल स्थापित कर रही थी ये सिर्फ़ मै ही जानती थी मगर फिर भी एक सुकून था कि बच्चों का भविष्य बन जायेगा ।“

“और इसी बीच मेरे पति के अपनी सेक्रेटरी से सम्बन्ध बन गए. शुरू में तो मुझे पता ही नहीं चला मगर ऐसी बातें कब तक छुपी रहती हैं किसी तरह ये बात मेरे कान में भी पड़ी तो मैंने अपनी तरफ से हर भरसक प्रयत्न किया. उन्हें समझाने की कोशिश की मगर जब बात खुल गयी तो वो खुले आम बेशर्मी पर उतर आये और उसे घर लाने लगे जिसका मेरी जवान होती बेटी पर भी असर पड़ने लगा. हमारे झगडे बढ़ने लगे. उन्हें कभी प्यार और कभी लड़कर कितना समझाया, बच्चों का हवाला दिया मगर उन पर तो इश्क का भूत सवार हो गया था इसलिए मारपीट तक की नौबत आने लगी. घर में हर वक्त क्लेश रहने लगा तो एक दिन उसके साथ जाकर रहने लगे और इस सदमे ने तो जैसे मेरे को भीतर तक झंझोड़ दिया और मैं पागलपन की हद तक पहुँच गयी. सबको मारने, पीटने और काटने लगी. घर के हालात अब किसी से छुपे नहीं थे. बदनामी ने घर से बाहर निकलना दूभर कर दिया था बच्चे हर वक्त डरे- सहमे रहने लगे यहाँ तक कि बेटे को कोटा में पता चला तो उसकी पढाई पर भी असर पड़ने लगा.घर, घर ना रह नरक बन गया.”

“एक दिन जब मै स्कूटर चला कर घर आ रही थी तो अचानक बेहोशी सी छाने लगी, मानसिक प्रताडना ने मेरे सोचने समझने की शक्ति तो खत्म कर ही दी थी तो असर तो होना ही था दिमाग और दिल दोनो पर । अचानक सब घूमता लगने लगा और मैने अचानक से स्कूटर को ब्रेक मारी तो पीछे आते वाहन की टक्कर से दूर जा गिरी जिससे सिर में ऐसी चोट आयी कि जो रही सही कसर थी वो भी पूरी हो गयी और मैं पागलपन की उस अवस्था तक पहुँच गयी कि अपनों और परायों में भेद नहीं रहा,बच्चे हों या बडे सबको मारने लगी, चीजें तोडने लगी, चीखने चिल्लाने लगी ।“

“जब हालात इतने बिगड़ गए तब मेरे घरवालों ने उन्हें बच्चों का वास्ता दिया, यहाँ तक कि जात बिरादरी से भी बाहर करने की धमकी दी तब भी नहीं माने तो मेरे घरवालों ने उन्हें कोर्ट ले जाने की धमकी दी “

“देखो राजेश बेटा, अपनी हरकत से बाज आ जाओ और अपनी पत्नी को संभालो, अपने बच्चों के भविष्य की सोचो । कम से कम इतना तो समझो कि तुम्हारे जवान बेटा और ‘बेटी है, वो क्या सोचेंगे तुम्हारे बारे में ? उन पर क्या असर होगा ? क्या वो ये सब देखकर तुम्हारे पदचिन्हों पर नहीं चलेंगे या कोई गलत राह ही पकड ली तो क्या होगा कभी सोचा है“ माँ ने उन्हें कहा.

एक चुप सौ को हराती है वाली कहावत को मानो सिद्ध करने पर तुले थे राजेश इसलिए चुपचाप सुनते रहे लेकिन जब घरवालों को लगा कि अब आखिरी हथियार उठाना ही पडेगा तो बोले

“अब यदि नहीं मानते तो हमारे पास और कोई चारा नहीं बचा कि हम तुम्हें अदालत में लेकर जायें और वहाँ से अपनी बच्ची को इंसाफ़ दिलायें फिर देखते हैं कितने दिन कोई दूसरी तुम पर फ़िदा रहती है क्योंकि तब तुम्हें अपनी कमाई में से एक हिस्सा पत्नी और बच्चों को देना होगा, ये सब जो आजकल की लडकियाँ होती हैं सिर्फ़ पैसे की होती हैं तब देखेंगे कितने दिन तुम्हारा साथ देती हैं ।“

राजेश चुप

“ठीक है तुम सोच लो और बता देना लेकिन एक अनुरोध है एक बार घर आकर कम से कम नमिता को देख तो जाओ उससे मिल तो लो, उसके लिए तो उसका पूरा जहान सिर्फ़ तुम ही थे और हो, देखो तो सही क्या हाल में पहुँचा दिया तुमने उसे, तुम्हें तुम्हारे बच्चों का वास्ता एक बार आ जाओ मिलने कहकर वो घर आ गये ।“

और फिर एक दिन जब वो घर आये और मेरी ये हालत देखी तो अपने पर पश्चाताप भी हुआ क्यूँकि मेरी इस हालत के लिए वो ही तो जिम्मेदार थे. सिर्फ क्षणिक जूनून के लिए आज उन्होंने मेरा ये हाल कर दिया था कि मैं किसी को पहचान भी नहीं पाती थी इस ग्लानि ने उन्हें उस लड़की से सारे सम्बन्ध तोड़ने पर मजबूर कर दिया और उन्होंने मुझसे वादा किया कि वो अब उससे कोई सम्बन्ध नहीं रखेंगे.........ऐसा वो कहते हैं मगर मुझे नहीं लगता, मुझे उन पर अब विश्वास नहीं रहा.उनके आने के बाद मेरी माँ और उन्होंने मिलकर मेरी देखभाल की अच्छे से अच्छे डॉक्टर को दिखाया और मेरा इलाज कराया तब जाकर आज मैं कुछ सही हुई हूँ या कहो जैसी अब हूँ वो तुम्हारे सामने हूँ.”

“अब तुम बताओ रोज़ी क्या ऐसे इन्सान पर विश्वास किया जा सकता है ?क्या वो दोबारा मुझे छोड़कर नहीं जायेगा ?क्या फिर उसके कदम नहीं बहकेंगे, इस बात की क्या गारंटी है ?क्या अगर उसकी जगह मैं होती तो भी क्या वो मुझे अपनाता? अब तो मैं उसके साथ एक कमरे में रहना भी पसंद नहीं करती तो सम्बन्ध पहले जैसे कायम होना तो दूर की बात है. मेरा विश्वास चकनाचूर हो चुका है. मैं आज भी चुप हूँ तो सिर्फ़ अपने बच्चों की खातिर कम से कम उनका जीवन तो सही राह पर चल सके वो अपने पैरों पर खडे हो जायें उन की शादी ब्याह हो जाए तो उसके बाद शायद मैं इस इंसान के साथ एक पल भी एक घर में नही रह सकूँगी, अब भी अन्दर ही अन्दर एक घुट्न मुझे हर पल झिंझोडती है जिसे मैं किसी को व्यक्त नहीं कर सकती, एक बार फिर बच्चों का भविष्य मेरी आँख के सामने है मगर ये बताओ,

इसमें मेरी क्या गलती थी? क्या मैं एक अच्छी पत्नी नहीं रही या अच्छी माँ नहीं बन सकी? कौन सा कर्त्तव्य ऐसा है जो मैंने ढंग से नहीं निभाया?क्या बच्चों के प्रति, अपने परिवार के प्रति कर्त्तव्य निभाने की एक औरत को कभी किसी ने इतनी बड़ी सजा दी होगी? अच्छा ये बताओ क्या जरूरत सिर्फ़ आदमी की ही होती है स्त्री की नहीं ? क्या उसे पुरुष का संग नहीं चाहिए होता लेकिन बच्चों का भविष्य सामने हो तो अंकुश और संयम रखना जरूरी होता है तो ऐसा क्यों होता है कि सिर्फ़ पुरुष ही भटकता है ? क्या उसे नहीं दिखता कि पत्नी को भी जरूरत होगी और यदि वो भी मेरी तरह करने लगे तो क्या होगा घर परिवार का ? कहीं देखा है तुमने? एक कर्तव्यनिष्ठ,सत्चरित्र, सुगढ़ औरत की ऐसी दुर्दशा सिर्फ अपने कर्तव्यपालन के लिए?”

उसकी बातें सुनकर मैं सुन्न हो गयी समझ नहीं आया कि उसे क्या कहूँ और क्या समझाऊँ ? ऐसे हालात किसी को भी मानसिक रूप से तोड़ने के लिए काफी होते हैं. क्यूँकि मैं कभी मनोविज्ञान की छात्रा रही थी इसलिए अपनी तरफ से उसे काफी कुछ समझाया.

“देखो नमिता कभी कभी इंसान भटक जाता है बेशक जो तुमने सहा या तुम्हारे साथ जो हुआ उसकी कहीं कोई भरपाई नहीं है लेकिन ये बताओ ऐसे कुंठित जीवन को क्या तुम सहज होकर जी सकोगी यदि अब भी दिल और दिमाग पर इतना बोझ रखोगी ? तुम सही कह रही हो माफ़ करना आसान नहीं लेकिन नामुमकिन भी नहीं । इसलिए अभी तुम सिर्फ़ अपनी सेहत और बच्चों पर ध्यान दो और मत दो चाहे पति को तवज्जो मगर पूरी तरह से संबंध विच्छेद भी तो नही किये जा सकते क्योंकि आखिर में तुमने ये समझौता खुद से ही किया है न कि बच्चों की खातिर तुम उसे सहन कर रही हो तो उसके लिए तुम्हें खुद को मजबूत करना होगा न कि असहाय बनना और इस तरह बीमार । क्योंकि इस तरह तुम्हें कुछ हासिल नहीं होगा लेकिन स्ट्रांग होंगी तो सब का सामना मजबूती से कर सकोगी और देखो तुम कहती हो तुम उसके साथ बस बच्चों की जिम्मेदारी तक ही रहना चाहती हो तो कभी सोचा उसके बाद कैसे खुद को सम्भालोगी ? कहाँ जाओगी ? क्या करोगी? और इस सबके लिए जरूरत है कि तुम खुद को पहले सेभी ज्यादा मजबूत बनाओ ताकि जब वक्त आये तो सही निर्णय ले सको ।“

इतना उसे समझाया तो उसके चेहरे के बदलते भावों ने मुझे सुकून पहुँचाया क्योंकि अब उसकी मुख मुद्रा बदली हुई थी जैसे उसे मेरी बात समझ आ गयी थी फिर चाहे मैने ये बात वक्ती तौर पर कही थी ताकि वो अवसाद के इस फ़ेज़ से बाहर निकल सके क्योंकि जानती हूँ कि वक्त बडे से बडा घाव भर देता है और फिर ये बात सोचकर कम से कम वो सामान्य जीवन जीना तो शुरु कर सकेगी और हो सकता है समय के साथ उसे एक बार फिर राजेश पर विश्वास हो जाये या राजेश अपना विश्वास उसके दिल में कायम कर सके इसलिए उम्मीद की एक लहर उसके मन में छोड मैं घर आ गयी।

मगर मैं जब तक घर आई एक प्रश्नचिन्ह बन गयी थी कि एक औरत क्या सिर्फ औरत के आगे कुछ नहीं है ? पुरुष के लिए औरत क्या जिस्म से आगे कुछ नहीं है वो क्या इतना संवेदनहीन हो सकता है कि हवस के आगे उसे घर- परिवार कुछ दिखाई नहीं देता? क्या हो अगर औरत भी अपनी वासनापूर्ति के लिए ऐसे ही कदम उठाने लगे, वो भी अपनी मर्यादा भंग करने लगे? क्या एक औरत को उतनी जरूरत नहीं होती जितनी कि एक पुरुष को ? फिर कैसे एक पुरुष इतनी जल्दी अपनी सीमाएं तोड़ बैठता है ?मैं इन प्रश्नों के जाल में उलझ कर रह गयी और यही सोचती रही कि रोज़ी ने ये सब कैसे सहन किया होगा जब मैं इतनी व्यथित हो गयी हूँ.

मैं आज भी इन प्रश्नों के हल खोज रही हूँ मगर जवाब नहीं मिल रहा अगर किसी को मिले तो जरूर बताइयेगा.

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