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बेटे से हारा नहीं हूँ - एक व्यंग

बेटे से हारा नहीं हूँ- एक व्यंग

आर0 के0 लाल

देशी कहावत है कि “बाप सबसे जीत सकता है लेकिन अपने बेटे से ही हार जाता है”। हमारी शादी को एक ही साल हुआ था कि मेरा बेटा इस दुनिया में आ गया । आते ही उसने मेरे और मेरी पत्नी के बीच दूरी पैदा कर दी जो पूरी जिंदगी बढ़ती ही गयी। इसी के साथ मेरी हार शुरू हो गई थी। मैं कदम-कदम पर हारता रहा और वह जीतता रहा। कभी-कभी मुझे जान-बूझ कर हारना पड़ता और उसे जीतने दिया जाता ताकि उसमें एक आत्मविश्वास जाग सके और वह जीवन में कुछ कर सके। उसके साथ जब कभी क्रिकेट या कबड्डी खेलता तो मैं जानबूझ कर आउट हो जाता या गिर पड़ता। मैं जब हार जाता तो वह चहकता और कहता कि मैंने पापा को हरा दिया। सभी उसकी तारीफ करते जबकि मैं अपनी हार को इग्नोर करता । कुछ ही सालों में उसकी और मेरी दोनों की आदत बन गयी कि उसे मुझे हराए बिना चैन नहीं पड़ता था और मुझे बिना हारे नींद नहीं आती थी। हमारी पत्नी से ज्यादातर लड़ाइयों का कारण मेरा बेटा ही होता था। मेरी पत्नी उसे बिगाड़ने पर लगी रही और मेरा बेटा मुझे हराने में लगा रहा।

जब मेरा बेटा थोड़ा बड़ा हुआ तो उसके कई दोस्त बन गए। जब मेरा बेटा अपने ही दोस्तों से हार जाता तो वह मेरे ऊपर ही गुस्सा निकालता। सारा दोष मेरे ऊपर ही जाता। कई दफे तो वह मेरे ऊपर हाथ भी उठा देता था। मैं चुप ही रहता क्योंकि वह जमाना चला गया जब पिता के घर आने से बच्चे डर कर अपने अपने कमरे में भाग जाया करते थे। इस प्रकार बचपन से ही उसे समझ आने लगा था कि पिता तो सिर्फ हारने के लिए ही होता है। उसे जीत कर अपने जीवन की सारी कसर पूरी की जा सकती है और अपने पिता को भला बुरा कह कर अपनी कमजोरी की भरपाई की जा सकती है ।

एक बार मेरे बेटे को उसके दोस्तों ने पीट दिया तो वह कई दिनों तक मचलता रहा, “चलो उन लड़कों को भी पीट दो जिन्होंने मुझे पीटा है”। उसने खाना पीना तक छोड़ दिया था। मजबूरन मुझे पीटने वाले लड़कों को पीटने जाना पड़ा। मुझे क्या पता था कि यह मुझ पर ही भारी पड़ जाएगा । उल्टे सभी लड़कों ने मिलकर मुझे ही पीट दिया था और मेरा लड़का दूर से मुझे पिटता हुआ देखता रहा। मैं कई दिनों तक चारपाई पर पड़ा रहा। बेटा बोलता रहा , “आप तो कितने कमजोर हैं। आपको तो सिर्फ मुझे ही पीटना आता है। जब देखो मेरी पिटाई कर देते हैं ”। मेरी पत्नी भी मेरे घाव पर मलहम लगते हुये तंज़ कसती रही कि क्या भई! तुम तो बच्चों से पिट कर आ गए हो।

मुझे याद है कि जब उसकी बारहवीं की परीक्षा थी तो उसने मुझसे कहा था, “ सभी के पापा परीक्षा में अपने बेटे की मदद करने के लिए परीक्षा केंद्र पर आते हैं। आप भी कल स्कूल आ जाइएगा और प्रश्नों के उत्तर तैयार करके स्कूल की बाउंड्री के पास खड़े हो जाइएगा । मैं टॉयलेट करने के बहाने आ जाऊंगा, पर्ची मुझे दे दीजिएगा। मुझे हिदायत भी दी कि ठीक ग्यारह बजे आपको आना है। जरा सा भी देर मत कीजिएगा। मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी मगर मरता क्या न करता, मैं भी तैयार हो गया और अपनी साइकिल को स्कूल की बाउंड्री से सटाकर इंतजार करने लगा। तभी एक पुलिस का दस्ता वहां आया और सभी को वहां से खदेड़ दिया । पुलिस वाले वहीं खड़े हो गए ताकि फिर से भीड़ न लगने पाये। इस कारण मैं अपने बेटे को पर्ची नहीं दे सका । परीक्षा से जब वह निकला तो मैं उसके डर से काँप ही रहा था कि उसने दूर से ही मुझे खरी-खोटी सुनानी शुरू कर दिया। मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिस की कि सारी गलती पुलिस की है मगर वह कहाँ सुनने वाला था। मेरा बेटा बोला, “आप से कुछ नहीं होता। मेरा तो जीवन ही बर्बाद कर दिया आपने। न तो नकल करा सकते हैं न पढ़ा सकते हैं। लोग तो पैसे देकर अपने बच्चों को पास करा रहे हैं। आपके पास तो मेरे लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है”। मैं कुछ नहीं बोल सका और अपने लाचारी पर अंदर ही अंदर रोता रहा।

मैं अपने मित्रों से कहा करता था कि हमेशा बेटे ही गलत नहीं होते, कभी कभी बाप भी गलत होते हैं। अपने अंदर भी झांक कर देखने की कोशिश करनी चाहिए और उचित लगे तो बेटे की बात भी माननी चाहिए”। इसलिए मैं भी अपने बेटे की सब बात मनाने लगा था। मुझे क्या पता कि वह मुझे इमोशनल ब्लैक मेल कर रहा था ।

वह हमेशा बड़े सपने देखता था। सभी डरते थे कि कहीं उसका सपना टूट गया तो वह पूरा घर सिर पर उठा लेगा । मेरा बेटा भले ही पढ़ने में कमजोर रहा हो मगर वह एक इंजीनियर ही बनना चाहता था। उसे इंजीनियरिंग पढ़ाने की मेरी औकात नहीं थी मगर उसकी माता जी ने उसका साथ दिया और मुझे अपने गाँव वाली जमीन बेचनी पड़ी । जी पी एफ से लोन अलग लेना पड़ा।

लोग कहते हैं कि पिता और बेटे दोस्त की तरह होने चाहिए, ताकि कभी बेटे को किसी प्रकार की दिक्कत हो तो वह अपने पिता से हर एक बात बता सके। उसकी तकलीफ पूछनी चाहिए, कभी कभी उसके साथ बैठकर हंसी- मजाक, मस्ती करनी चाहिए । मैंने इन बातों का पालन किया जिससे वह इतना ज्यादा दोस्त बन गया कि मुझसे अश्लील बातें भी करने से परहेज नहीं करता था।

बी टेक करने के बाद उसे दस हज़ार की नौकरी नहीं मिल रही थी जबकि उसे पढाने के लिए लिए गए लोन की ई एम आई दस हज़ार रुपये मैं भर रहा था। वह चाहता था कि दो तीन लाख दे कर नौकरी खरीद लिया जाए। मेरे पास इतने पैसे तो थे नहीं इसलिए बैंक से कर्ज़ लेकर उसके लिए एक परचून की दुकान खुलवा दी। सारी पूंजी डूब न जाए इसलिए सुबह शाम मुझे ही दूकान पर बैठना पड़ता था।

मेरी बड़ी तमन्ना थी कि उसकी धूम-धाम से शादी करूँ मगर एक दिन वह एक लड़की को अपने साथ लेकर आया। दोनों लंबी लंबी मालाएँ पहने थे। मेरा बेटा उस लड़की से बोला, “ये तुम्हारे सास - ससुर जी हैं इनके पैर छू लो। लड़की बहुत संस्कारी थी, बोली, “पहली और आखिरी बार आपके पैर छू कर आपका आशीर्वाद चाहती हूँ”। मैं और मेरी पत्नी आंशुओं के घूंट पी-पी कर उसे आशीर्वाद देते रहे।

हमारी भारतीय संस्कृति कहती है कि बुजुर्गों का सम्मान बच्चों को करना चाहिए, यही हमारे देश की परंपरा है। मेरा बेटा भी अपने बूढ़े सास-ससुर का बहुत ध्यान रखता है। जब मेरे बेटे की साली की शादी मेरे शहर में होनी थी तो वह मुझसे कहने लगा, “मेरी ससुराल वालों को शादी के लिए हमारा घर पंद्रह दिनों के लिए चाहिए इसलिए आप और मम्मी बहन के घर चले जाइए और घर खाली कर दीजिये। मैंने मना किया तो कहने लगा, “मुझे मेरा हिस्सा दे दीजिये वरना आपका क्या भरोसा? न जाने कब दुनिया से उठ जाएँ या सब मेरी बहन को दे दें”।

यह सुनकर तो हमारी आंखे ही खुल गईं थी । मुझे बुढ़ापे में उस बेटे का ही सहारा था। वह भारतीय है इसलिए आशा थी कि कुछ भी हो जाए वह बच्चा अपने बूढ़े मां बाप की सेवा तो करेगा ही । सेवा न भी करेगा तो अपने साथ तो रक्खेगा ही। हमारी उससे बहुत अपेक्षाएं थी लेकिन अब लगने लगा था कि किसी दिन वह हमें बृद्धाश्रम तक पहुंचा देगा । हमने तय कर लिया कि अब हम उससे नहीं हारेंगे।

इस विषय पर मंथन किया तो मुझे समझ में आया कि सभी बच्चों के दिल में एक चाहत तो होती है कि वह अपने माता पिता को आदर और सम्मान दें, उनकी सेवा करें लेकिन सबकी सामाजिक जरूरतें ऐसी होती जा रही हैं कि बच्चे मजबूरीबश यह कार्य पूरा नहीं कर सकते । अपनी रोजी रोटी कमाने के चक्कर में सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक उनकी भागदौड़ की जिंदगी होती है । जब शाम को वापस आते हैं तो उन्हें भी आराम की जरूरत होती है उनकी पत्नी - बच्चे होते हैं। उन्हें और स्वयं के लिए अपना समय देना पड़ता है। उनके पास सब कुछ तो है लेकिन समय ही नहीं है। ऐसे में वे अपने माता पिता को कैसे समय देंगे। इसलिए मैंने उससे सारी अपेक्षाएँ तोड़ दी।

दूसरी बात यह भी है कि पुरानी परंपरा के चलते लोग अपनी पूरी जंदगी की तैयारी नहीं करते बल्कि सोचते हैं कि उनके बच्चे उनकी मदद करेंगे । सही बात तो यह है कि रिटायरमेंट के बाद भी खुद और अपनी पत्नी को पचीस से तीस साल तक जीवन बिताना होता है। रिटायर होने पर मिली धनराशि कब तक चल सकती है, इसलिए या तो नौकरी करते हुये बुढ़ापे के लिए पैसे बचाओ या रिटायर होने के बाद कोई काम धंधा करो। अपने बच्चों से स्नेह और प्यार की वजह से माता-पिता सोच भी नहीं पाते हैं कि उन्हें इतनी लंबी उम्र के लिए किस तरह की तैयारी करनी है। वे सब कुछ कुछ अपने बच्चों को देते रहते हैं और शायद यह समझते हैं कि उनका बच्चा जीवन में कुछ कर ही नहीं पाएगा। बच्चा भी कहता है कि माँ बाप तो हैं ही, नहीं होंगे तो ससुराल तो होगी ही। सब कुछ वे ही करेंगे। मैंने इस परंपरा को अपने लिए बदल दिया।

मैंने निश्चय किया कि हम बच्चों को अपने जीते जी कुछ नहीं देंगे, भले ही उनसे हम कितना ही स्नेह क्यों न करते हों। साथ ही जब तक शरीर में ताकत रहेगी तब तक हम कहीं न कहीं कोई न कोई काम करके पैसा कमाएंगे। मरने के बाद तो मेरा सब कुछ उन्हीं बच्चों का होगा फिर जिंदा रहते हुये उन्हें सब देकर उनके आगे क्यों हाथ फैलाएँ?

जब मैंने मेरे बेटे को अपनी कोई संपदा नहीं दी, तो अब मेरा बेटा और उसकी पत्नी मेरी इज्जत करते हैं, हमेशा कोई न कोई गिफ्ट भेजते रहते हैं। हम एक ही शहर में अलग अलग रहते हैं, कोई किच- किच नहीं है। लगता है कि हमारा मेरे बेटे से प्यार भी बढ़ रहा है। इस प्रकार मैं अपने बेटे से हारा नहीं हूँ बल्कि अब मैं वास्तव में उसका बाप हो गया हूँ और उससे हाथ लड़ाने की हिम्मत रखता हूँ, वह भी दोस्ती में, किसी मजबूरी में नहीं।

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