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गवाक्ष - 13

गवाक्ष

13==

नीले अंबर से झाँकतीं अरुणिमा की छनकर आती लकीरें, वातावरण में घुँघरुओं की मद्धम झँकार, कोयलकी कूक से मधुर स्वर ---दूत को इस सबने आकर्षित किया, स्वत: ही उसके पाँव उस मधुर स्वर की ओर चलने के लिए उदृत हो गए।
उसके लिए अदृश्य रूप में रहना श्रेयस्कर था ।
अब उसने सोच लिया था जहाँ उसे जाना होगा अदृश्य रूप में ही जाएगा। भीतर जाकर तो उसे अपना परिचय देना ही होता है। न जाने क्यों उसे लग रहा था कि सब स्थानों पर भटककर उसे अंत में मंत्री जी के पास ही आना होगा ।
अत:उसने अपने अदृश्य यान को उसी वृक्ष पर टिकाए रखा और स्वर-लहरी की ओर चल पड़ा ।

गीत सी कैसी मधुर है ज़िंदगी,
प्रीत सी कैसी सुकोमल हर घड़ी ।
ज़िंदगी बस एक पल का नाम है,
जूझता जिससे ये जग बिन दाम है ।
दाम, बस मुस्कान ही तो पल की है,
स्वप्न सी कैसे छले है ज़िंदगी ।
भावना का प्रीत का संबल यही,
अर्चना की जीत का प्रतिफल यही ।
जीत तो बस एक घड़ी है ज़िंदगी,
द्वार पर कैसी मढ़ी है ज़िंदगी ।
धड़कनों का प्राण, जो है ज़िंदगी,
प्रीत और मधुमास जो है ज़िंदगी ।
ज़िंदगी के बिन सभी माटी यहाँ,
आईने कैसी जड़ी है ज़िंदगी ।
कामना भी है अगर है ज़िंदगी,
भावना का मोल जो है ज़िंदगी ।
ज़िंदगी जब तोड़ती धागा यहाँ,
आंगने कैसी पड़े है ज़िंदगी ॥

स्वर की मधुर मिठास व घुँघरुओं की छनकती झंकार भोर की लालिमा को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। कॉस्मॉस के कदम नवोदित सूर्य की किरणों का पीछाकरने लगे। सूर्य की नवोदित किरणें एक विशाल कक्ष के झरोखे में से सहजता से बही जा रही थीं मानो कोई अप्सरा आकाश के भाल पर बड़ी कोमलता से अपने पगरख रही हो । उन पगों में घुँघरुओं की स्वर-लहरी थी, जो कंठ के स्वरों के साथ जुगलबंदी कर रही थी।
कॉस्मॉस अपने अदृश्य रूप में था, किरणों के सुनहरे झुण्ड में लिपटकर वह कक्ष में प्रवेश करने ही वाला था
सहसा उसे याद आया, उस कलाकार का नाम तो देख ले।

'वाह ! सत्यनिधी ----!!'

वह कुनमुनाया | सिंहद्वार पर इस नाम की पट्टिका थी, उसका मन-मयूर नृत्य करने लगा ।
अब वह इस कलाकार के नृत्य व संगीत से अपना मनोरंजन भी कर सकेगा और बाद में अपने साथ चलने का आग्रह भी करके देखेगा । सत्यनिधी भोर की प्रथम किरण के फूटते ही अपना नृत्य व संगीत का
अभ्यास प्रारंभ करती, जो लगभग दो घंटे चलता। इस अभ्यास में वह किसी का भी अवरोध पसंद नहीं करती थी।
जब तक वह अभ्यास में लीन रहती, किसी को भी वहाँ आने की आज्ञा नहीं थी। उसकी साधना के साझीदार या तो एकांत में प्रतिष्ठित माँ शारदा तथा नटराज की बृहद प्रतिमाएं थीं अथवा सूर्यदेव के द्वारा प्रेषित वे कोमल किरणें व गुनगुनी धूप के वे टुकड़े जो उसके बड़े से साधना-कक्ष में इधर उधर अपने मनमाफ़िक छितर जाते थे । सूरज की किरणें झरोखों से छनकर चारोंओर कुछ दूरी पर ऐसे पसर जातीं मानो वे कलाप्रिय, समझदार, शांत दर्शक व श्रोता हों । ये किरणें, यह वातावरण, यह छनक एवं सुरों का संगम सत्यनिधी के अत्यंत समीपी मित्र थे। उनके अतिरिक्त उस ओर किसी को
भी आने की आज्ञा नहीं थी।
सत्यनिधी को स्नेह से सब निधी के नाम से पुकारते थे । वह विवाह नहीं करना चाहती थी किन्तु माता-पिता की चिंता को देखते व समझते हुए उसने उनकी इच्छानुसार विवाह कर लिया था लेकिन जिस प्रकार मीरा अपने कृष्ण के प्रेम में लीन थी, उसी प्रकार वह अपने कला प्रेम में ! अपनी नृत्य व संगीत की साधना करने के लिए वह एक तपस्विनी की भाँति साधनारत थी । उसका आध्यात्मिक विवाह सात सुरों से हो चुका था।
प्रतिदिन की भाँति निधि अपनी साधना के परम सुख में निमग्न थी अचानक छनाक -----की स्वर लहरी उठी और उसके पैरों के घुँघरू खुलकर बिखर गए । निधि ठिठकगई, उसका ध्यान भंग हुआ मानो किसी ने बैरागी तपस्वीकी साधना में अवरोध ड़ाल दिया हो। विस्फ़ारित नेत्रों सेउसने धरती पर यहाँ-वहाँ फैले हुए घुँघरूओं को देखा।
आज उसके प्रतिदिन की साधना के मौन दर्शक व श्रोता झरोखे से गुपचुप साधिकार प्रवेश करने वाले धूप के टुकड़े नहीं थे।

यकायक उसकी दृष्टि झरोखे से बाहर अम्बर की ओर गई। नीरव आकाश में बादलों के आवारा टुकड़े इधर-उधर घूम रहे थे। पवन की गति कुछ अधिक थी जिसके कारण माँ शारदा व नटराज के समक्ष जलते हुए दीपक फड़फड़ाने लगे थे । निधि तीव्र गति से आगे बढ़ी और झरोखे के पटों को बंद कर दिया। पीछे घूमकर देखा | दीपक की ज्योति-बिंदु थिरक रही थी। एक विलक्षण अहसास उसके मन में बड़ी तीव्रता से उभरा, वह भाव विभोर हो उठी। नृत्य करते हुए बिन्दु पर उसके नेत्र इधर से उधर नाचने लगे मानो कोई तन्द्रा उसे अपने भीतर समेट रहीथी। उसने नृत्य करते हुए बिंदु से अपनी दृष्टि हटाकर देखा
, दीपकों की लौ अपने स्थान पर पवित्रता से प्रज्वलित होरही थी। उसका ध्यान नाचते हुए बिन्दु पर
पुन:पड़ा । इस बार ध्यान से देखने पर उसे एक सुन्दर, सुकोमल, पवित्र चेहरा दिखाई दिया। उसके कक्ष में कोई अन्य --?वह उलझ गई । कक्ष का मुख्य-द्वार बंद था, फिर?

"कौन ?"

बादलों के कारण कक्ष में बहुत प्रकाश नहीं था किन्तु सुन्दर, सजीली कन्या की मुस्कराहट अंधकार में
विद्युत सी प्रदीप्त हो रही थी ।
" कैसे आईं बताया नहीं तुमने और कौन हो?"
वह कभी कक्ष में दमकती चमक को देखती तो दूसरे ही क्षण धरती पर फैले अपने घुँघरुओं को ! वर्षों से साधना कर रही थी, आज विचित्र परिस्थिति से सामना
हुआ था ।
कन्या की सुन्दर मुस्कान और गहरा गई, उसने दोनोंहाथ जोड़कर कला की पुजारिन को प्रणाम किया ।
निधी कुछ भी समझ पाने में असमर्थ कन्या के मुखमंडल की शोभा निहार रही थी ।
“क्या तुम पहले से ही मेरे साधना-कक्ष में थीं ---और वो ज्योतिर्बिंदु ? वह कहाँ गया?"

क्रमश..