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गवाक्ष - 18

गवाक्ष

18==

"आपको भी संगीत व नृत्य सीखने की आज्ञा नहीं थी, फिर आप कैसे इस कला में प्रवीण हो गईं?आप क्या छिपकर इस कला का अभ्यास करती हैं?"
"तुम बहुत चंचल हो, चुप नहीं रह सकते न ?बीच-बीच में टपकते रहोगे तो कुछ नहीं बताऊँगी । "
" नहीं, अब चुप रहूंगा, लेकिन जब बात समझ में न आए तो आपको बताना चाहिए न --- उसने एक बालक की भाँति मुह फुलाया और अपने होठों पर उँगली रखकर बैठ गया ।
सत्यनिधि ने मुस्कुराकर अपनी बात आगे बढ़ाई । पहले समय में कला सीखने की आज्ञा तो मिलती नहीं थी, गुरु भी अपनी कला को गूढ़ विद्या की भाँति अपने तक ही सीमित रखना चाहते थे । इसीलिए इनके घराने बन गए थे लेकिन यह सब बाद में बताउंगी । "
"ये घराने क्या हुए? क्या घर से बने हैं?"कॉस्मॉस अपनी बुद्धि प्रयुक्त करने का प्रयत्न कर रहा था ।
सत्यनिधि को उसकी उत्सुकता अच्छी लगी ---
" हाँ, जैसे जैसे नृत्य -कला का विकास हुआ, वैसे -वैसे वह भौगोलिक रूप से विभिन्न घरानों में यानि विभिन्न स्थानों में बँट गई। मैंने तुम्हें बताया था न शास्त्रीय नृत्य व संगीत गुरु-शिष्य परंपरा के अंतर्गत समाहित हैं । "
"तो बहुत से घराने हैं ?"
"हाँ, विभिन्न स्थानों के अनुसार घरानों का विभाजन किया गया है। ये शास्त्रीय शैली के अंतर्गत आते हैं उन्हीं के अनुसार नृत्य-शैलियों के नाम रखे गए हैं; भरतनाट्यम, कत्थक, मणिपुरी, कुच्चीपुडी! पता है लोक-नृत्य व लोक-संगीत का भी बहुत प्रचलन है, उसमें ---”

"आपका घराना कौनसा है और आपकी नृत्य-शैली का क्या नाम है ?"बीच में ही टपक पड़ा वह !
" हम उत्तर भारत के निवासी हैं, उत्तर भारत में प्रचलित शास्त्रीय नृत्य कत्थक मेरे नृत्य की शैली है और मेरा नृत्य व संगीत बनारस घराने का है। "
"आपके नृत्य की क्या विशेषता है?"
" कत्थक कथा कहने से जुड़ा है। इसमें नृत्य के माध्यम से कलाकार किसी कथा यानि कहानी को प्रदर्शित करते हैं । "
"आप तो कह रही थीं आपके यहाँ नृत्य व संगीत को अच्छा नहीं माना जाता था " उसने सत्यनिधी की दुखती रग पर हाथ रख दिया ।
सत्यनिधि ने एक निश्वांस ली मानो उसके ह्रदय के फफोले फूट रहे हों ।
" मेरे विवाह को वर्षों बीत गए परन्तु मैं संतान-सुख नपा सकी। मेरा सारा समय व्यर्थ जाता, मैं भोजन बनाती, घर के काम करती पर मेरे नेत्र आँसुओं से भरे रहते। एकाकीपन मुझे कचोटता था, मेरा चेहरा मुरझाया रहता। मेरे पति मेरी पीड़ा को समझते थे, उन्होंने मुझे मशहूर शायर जौक साहब का यह शेर सुनाया ;
'राहत सुखन से नाम क़यामत तलक है जौक,
औलाद से तो है यही दो पुश्त, चार पुश्त । '
यानि मनुष्य को संतान से अधिक समय तक वह चीज़ सुकून देती है जिससे उसे आनंद की प्राप्ति होती है।
"मैं भाग्यशाली थी कि मुझे बहुत अच्छे गुरु मिले थे, मेरे गुरु जी मुझे यहीं हवेली में नृत्य व संगीत की शिक्षा देने के लिए आने लगे । मेरी लगन देखकर उन्हें बहुत प्रसन्नता व संतोष हुआ ।
वे कहते थे ;सत्यनिधि ! बेटी, हमारे जीवन में बहुत दोराहे, चौराहे आते हैं, वे हमें कई विकल्प देते हैं किन्तु उनमें भटकाव भी होता है किन्तु यदि हम अपने जीवन के दोराहे अथवा चौराहे पर स्वयं अपनी राह चुनकर एक संकल्प स्वयं से कर लें तब हमारे ध्येय की प्राप्ति सुनिश्चित
है । "
" आपने संकल्प लिया और इतनी साधना की?"
"कॉस्मॉस ! साधना तथा अभ्यास गुरु की कृपा सेहोते हैं। मैं वर्षों तक उनके आशीष से अभ्यास करती रही। गुरु जी ने मुझे साधना का महत्व समझाया, क्रमश: साथ आसपास के और लोग भी जुड़ने लगे |"
" मैंने तो सुना था सेवा करना अच्छी बात है, आप तो साधना की बात कर रही हैं ?"
"मनुष्य के जीवन में साधना तथा सेवा दोनों आवश्यक हैं लेकिन यदि हम किसी चीज़ का अभ्यास न करें तो सब व्यर्थ हो जाता है । दूसरों की सेवा भी उतनी ही महत्वपूर्ण
है जितनी साधना करना । लेकिन इसके लिए भी कृपा की आवश्यकता होती है न ?"
" फिर आपको अपनी नृत्य-अकादमी के लिए यह स्थान खरीदना पड़ा ? मैंने तो सुना है पृथ्वी पर बहुत मँहगाईहै? बहुत धन था आपके पास ?"
"कहाँ की ईंट, कहाँ का रोड़ा, कॉस्मॉस तुम भी किसी एक विषय से दूसरे पर कूद जाते हो--" निधी ने मुस्कुराकर उसे उपालंभ दिया ।
" नहीं, न मेरे पास इतना धन था, न ही मैंने यह स्थान खरीदा था, यह हमारे पुरखों की हवेली है। इतना अच्छा, खुला हुआ स्थान ! गुरु जी के आदेश से यहाँ नृत्य-संगीत विद्यालय खुल गया, इसमें कई उच्च स्तर के गुरु प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए आने लगे। गुरु जी नहीं चाहते थे कि उनके नाम से विद्यालय की स्थापना हो परन्तु वे ही तो हमारे मार्ग-दर्शक व प्रणेता थे अत: हमने उन्हें कठिनाई से मनाया, उनका नाम शाश्वत था । "
"क्यों----क्यों नहीं चाहते थे ?"
"क्योंकि कोई भी महान व्यक्ति अपनी महानता का ढिंढोरा नहीं पीटता, वह बस निर्विकार भाव से सेवा करता है, अपने अर्जित गुणों को शिष्यों को देकर इस दुनिया से जाना चाहता है ।
"इसीलिए आपकी अकादमी का नाम ‘शाश्वत कला अकादमी है ?: वह जैसे बहुत समझदार हो गया था।
"चार वर्ष पूर्व मेरे गुरु जी ने देह त्याग दी, हम उन्हीं के मार्ग-दर्शन पर चल रहे हैं। उनके आशीष से ही आज यह विद्यालय बहुत बड़ी अकादमी बन गया है। ”
सुन्न सा बैठा था कॉस्मॉस ! पृथ्वी -जगत के बारे में नई जानकारियाँ उसे रोचकता का अहसास करा रही थीं। वह आकाश मार्ग पर चक्कर काट रहा है किन्तु पृथ्वी के वासी किस प्रकार से अपने ही वृत्ताकार में घूम रहे हैं

" इस प्रकार आपकी साधना पूरी हुई?" इस बार उसने बहुत देर पश्चात मुह खोला ।
"अरे! साधना की कोई सीमा नहीं है। यह ऎसी प्रक्रिया है जिसके लिए स्वयं को निरंतर केंद्रित करना होता है। दो-चार राग गुनगुनाने अथवा थोड़े-बहुत हाथ-पैर मारने से कोई नृत्य व संगीत में प्रवीण नहीं होता। ये आध्यात्मिक विकास की बातें हैं | जब तक निरंतर साधना न की जाए तब तक इनका परिणाम वही होता है जो कच्चे मिट्टी के बर्तन का। जब तक मिट्टी का बर्तन पूरी प्रकार से पककर पक्का न हो जाए, वह थोड़ा सा पानी डालते ही टूट जाता है। इसी प्रकार कलाओं को भी निरंतर साधना की भट्टी में पकाने की आवश्यकता होती है। इसके लिए आत्मकेंद्रित
होना बहुत आवश्यक है। "
" परन्तु क्या आत्मकेंद्रित हो पाता है मन?"
"कठिन अवश्य है किन्तु किसी भी काम को बारम्बार करने से वह कार्य पूजा में परिवर्तित हो जाता है । प्रारंभ में इसमें उकताहट भी होती है किन्तु कहते हैं न ---करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान' "

"मतलब ?"

"किसी कार्य को बार-बार करने से मूर्ख भी बुद्धिशाली हो जाता है। जब चेतना विस्तृत होती है तभी प्रत्येक कण केंद्रित होता है, उसके पश्चात ही दिव्यता का उदय होता है । "

"तो इसके लिए निरंतर जागृत होकर साधना करनी पड़ती है !?"
"हाँ, इसके बिना सफलता कैसे प्राप्त हो सकती है?"
"सफलता ? सफलता क्या है? " क्षण भर में चुटकी बजाते हुए वह पुन: बोला --
"अरे!मैं जानता हूँ, जैसे मैं अपने स्वामी का आदेश पूर्ण कर पाता तब कार्य में सफ़ल हो पाता ---वही सफ़लता है न ? आदेश पूर्ण न कर पाने के कारण मैं दंडित हो रहाहूँ !"उसके नेत्र भर आए ।

क्रमश..

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