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देखो, तुम मरना मत

सारे काम निबटाकर सरिता अपने कमरे में घुसी, तो निढाल हो चुकी थी। रिटायर्ड रमा शंकर पलंग पर बैठे उनका इंतजार कर रहे थे। उन्होंने घड़ी देखी, साढ़े दस बज चुके थे।

"आज सब काम खत्म करते करते काफी देर हो गई तुम्हें।" रमाशंकर ने थकी हुई सरिता को मलहम लगाने की कोशिश की।

"हां, आपको तो पता ही है, बहू से अब ज्यादा काम होता नहीं। अगर काम खत्म न करती, तो सुबह हालत खराब हो जाती।"

"ओह, चलो दवा खा लो।" कहते हुए रमाशंकर ने गोली सरिता को पकड़ाई और पानी लेने चले गए।

रमा ने खिड़की से देखा, बहू के कमरे की बत्ती अब तक जल रही थी। टी वी के चलने की आवाज उसके कमरे से निकलकर सरिता के कमरे तक पहुंच रही थी।

रमाशंकर पानी लेकर आए, तो सरिता को खिड़की के बाहर देखते देखकर बोले, "अरे बच्चे हैं, नींद नहीं आ रही होगी, इसलिये बेटा टी वी देख रहा होगा।"

सरिता मुस्करा दी। जिस सीरियल के चलने की आवाज आ रही थी, वो उनका बेटा तो कतई नहीं देखता था।

"छोड़ो इन सब बातों को। कल सुबह अपना घुटना डॉक्टर को दिखा आना। फिर से तुम्हारा दर्द बढ़ रहा है।"

"मुझे नहीं जाना डॉक्टर के पास। बहुत पैसे लगते हैं। कहाँ से दूंगा?" रमाशंकर हंसते हुए बोले। पर इस दर्द के पीछे छिपी बेबसी को समझकर एक दर्द की टीस सी उठी सरिता के मन में।

उसे पुरानी बातें याद आ गईं। रमाशंकर जब नौकरी करते थे तो कई बार दोस्तों के साथ पीकर आ जाते थे। दोनों में बहुत बार जमकर लड़ाई होती थी। बात कई बार इतनी बढ़ जाती थी कि सरिता के मुंह से निकल जाता था, "जाओ, बाहर जाकर मरो, यहां क्यों पीकर आ जाते हो?"

रमाशंकर एक ही बात कहते, "जिस दिन सच में चला गया तो रोती रह जाओगी।"

लड़ाई चलती रहती और नशे में धुत्त रामशंकर बिना खाए-पिए बिस्तर पर पड़ जाते। हफ्ते में तीन दिन यह ड्रामा चलता।

समय के साथ रमाशंकर बदल गए। पीना-खाना सब छोड़कर गृहस्थी की गाड़ी चलाने में रम गए। पर उनका यह अवगुण बेटे ने अपना लिया था। पर बहू सरिता की तरह लड़ती नहीं, अपने में मगन रहती। कई बार दोनों साथ बैठकर पुराने दिन याद करते, तो खूब हंसते। सरिता को शर्म आती कि वह गुस्सा में उन्हें क्या-क्या बोल देती थी।

पर रमाशंकर समझाते, "भूल जा, जो हुआ सो हुआ, अब न कहना ऐसा।"

आज फिर वो बात सरिता को याद आ गयी। पहले उसके चेहरे पर मुस्कान की रेखा खिंची, फिर वह अवसाद में बदल गयी।

"अरे फिर वही बात सोच रही हो क्या?" पत्नी के चेहरे के बदलते रंगों को रमाशंकर बड़े ध्यान से देख रहे थे।

"हां। पर एक बात कहूँ।" सरिता धीरे से बोली।

"क्या, बोलो ना।"

"मैं भले कहती थी कि जाकर कहीं और मरो। पर कसम है तुम्हें, तुम मरना नहीं। तुम्हारे रहते अभी यह हाल है हम दोनों का। तुम्हें कुछ हो गया तो....."

आगे सरिता कुछ कह नहीं पाई। वो जो कहना चाहती थी, वो रमाशंकर समझ चुके थे। दोनों बूढ़े अब चुप थे, पर उनकी बरसती आंखें उनकी बेबसी को दर्शाने का काम मुस्तैदी से कर रही थीं।