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सच्ची भक्ति

*गणेश चतुर्थी पर विशेष

सिंधु देश की पल्ली नगरी में कल्याण नामक धनी व्यक्ति रहते थे। उनकी पत्नी थी इंदुमती। उनके विवाह को बहुत वर्ष बीत गए पर संतान का सुख उन्हें न मिला। इंदुमती ने बहुत पूजा पाठ की। तब भगवान शंकर की कृपा से उन्हें एक बेटे की प्रप्ति हुई। पुत्र होने की खुशी में कल्याण ने पूरे नगर को दावत दी। जिसने दावत उड़ाया, वह कल्याण का गुण गाते न थका।
कल्याण ने बेटे का नाम रखा बल्लाल। वह बड़ा ही हंसमुख था। उसकी मां उसे देवताओं की कहानियां सुनातीं। ऐसी कहानियां सुनने में बल्लाल को बड़ा मजा आता। उन्हें सबसे अच्छे लगते, लंबी सूंड वाले गणेश जी। वह हमेशा मां से उनकी ही कहानी सुनना चाहता।
बल्लाल थोड़ा बड़ा हुआ, तो नगर के अन्य सेठों के बच्चे उसके मित्र बन गए। अब सारे बच्चे मिलकर खेल में लगे रहते।
एक बार बल्लाल अपने मित्रों के साथ पल्लव के पास स्थित वन में पहुंच गया। वहां सरोवर में स्नान करने के बाद बल्लाल को पूजा करने की सूझी। उसने अपने मित्रों से कहा, “क्यों न हम यहां गणेश की पूजा करें?”
एक मित्र ने कहा, “ठीक है, पर गणेश जी हम कहां से लाएंगे?”
बल्लाल के लिए यह मुश्किल नहीं था। उसने झट एक छोटे-से पत्थर को उठाया। उसे सरोवर में स्नान कराया। फिर उसे गणेश मानकर प्रतिष्ठित कर दिया। फिर तो सारे बच्चे पूजा में लग गए। कोइ आम के पल्लव के नाम पर पत्ते ले आया, तो कोई आसपास से फूल। फिर सब चीजों को मन में रखकर बच्चों ने गणेश जी की पूजा शुरू की। बच्चों ने कुछ ही मिनटों में पूजा संपन्न कर लिया। फिर वे अपने-अपने घर चले गए। उस दिन बच्चों को पूजा करने में बड़ा मजा आया।
अब तो यह रोज का क्रम बन गया। बच्चे चुपचाप खेलते खेलते वन में पहुंच जाते। वहां स्थापित गणेश जी की मन ही मन पूजा करते। इस चक्कर में वे अपना खाना-पीना भूल जाते।
थोड़े दिनों में बच्चे दुबले से लगने लगे। माता-पिता को चिंता हुई। एक दिन एक नौकर को बच्चों के पीछे लगाया गया, तो उनके खेल का भेद खुल गया। बच्चों का मना किया गया, पर वे माने नहीं। हारकर बाकी बच्चों के पिताओं ने कल्याण से मुलाकात की। उन्हें दो टूक शब्दों में कह दिया, “आपका बेटा हमारे बच्चों को बिगाड़ रहा है। या तो उसे समझाएं कि पूजा का खेल छोड़ दे, या फिर हमारे बच्चों से न मिला करे।”
कल्याण यह अपमान न सह सके। वह डंडा लेकर बल्लाल को बुलाने चल पड़े। जंगल पहुँचकर जब उन्होंने गणेश जी के नाम पर एक पत्थर को पूजते देखा, तो वह अपना क्रोध न रोक सके।
“यह क्या कर रहे हो?” कल्याण ने नाराजगी से पूछा।
“हम गणेश जी की पूजा कर रहे हैं।” बल्लाल ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया।
“कहां है गणेश जी?” कल्याण ने अपने क्रोध को दबाकर पूछा।
“यही हैं मेरे आराध्य देव।” भोले भाले बल्लाल ने जवाब दिया।
“चुपचाप घर चल नालायक। सारे नगर में मेरी हंसी उड़वा रहा है। ये तो नकली गणेश हैं, असली गणेश तो हृदय में रहते हैं।” कल्याण जोर से दहाड़े।
“पिता जी, मैंने इन्हें गणेश माना है, अत: यह मेरे लिए पूज्य हैं। कृपया मेरी पूजा पूरी हो जाने दीजिए।” बल्लाल ने हाथ जोड़कर कहा।
कल्याण का धीरज छूट गया। उन्होंने बल्लाल को साथ लाए एक रस्सी से बांध दिया। फिर बोले, “ठीक है, अगर यही तेरे आराध्य देव हैं तो इनसे कह कि तुझे खोलकर घर पहुंचा दें। नहीं तो, यहीं बंधा रह। शाम को आकर तुझे ले जाऊंगा। तभी तेरी अक्ल ठिकाने आएगी।” इतना कहकर बाकी बच्चों को लेकर कल्याण चले गए।
पर बल्लाल विचलित नहीं हुआ। वह मन ही मन गणेश जी की स्तुति करने लगा। तभी उन्हें लगा कोई उसे प्यार से सहला रहा है। उसने आश्चर्य से आंखे खोलीं, तो दंग रह गया। वह साक्षात गणेश जी की गोद में बैठा हुआ था। वह उसे प्यार से सहला रहे थे। उसे अपनी तरफ देखते देखकर गणेश जी बोले, “मेरा भक्त परेशानी में हो, तो मैं कैसे न आऊं। चल बेटा, तुम्हें भूख लग रही होगी। आ तुझे घर पहुंचा दूं।”
सचमुच जब कल्याण घर पहुंचे, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उनका बेटा बल्लाल, जिसे वह जंगल में पेड़ से बांधकर आए थे, बड़े मजे से अपनी मां की गोद में बैठकर खाना खा रहा था।
उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। उन्होंने मन ही मन भगवान गणेश से क्षमा मांगी। और प्यार से अपने बेटे को गोद में उठा लिया।
(गणेशपुराण अध्याय 22) सत्कथा अंक पेज-117