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बूढ़ा घोड़ा


कांतिलाल ने सामने से आ रहे रिक्शा को आवाज लगाई तो रिक्शेवाले ने रिक्शा रोका।
कांति की नजर रिक्शेवाले से मिली, तो वह सकपका उठे। यह तो मोहल्ले के ही रामलखन जी थे। अभी तो वह गांव से अपने बेटे के पास रहने आए थे। उनके बेटे का एक कमरे का घर था। उसमें बीबी और दो बच्चों के साथ रहता था। पर उसका दिल बहुत बड़ा था, इसलिए गांव से माँ और अपने बाबा को ले आया था। रामलखन अक्सर कांतिलाल को अपने घर से बाहर खटिया बिछाकर बैठे मिल जाते थे। कांतिलाल एक फैक्ट्री में क्लर्क थे और एक कमरे के मकान में ही रामलखन के घर से अगली गली में रहते थे।
रामलखन ने कांतिलाल को देखा, तो मुसकरा उठा। बोला, "हां साहब कहिये, घर तक जाना है?"
परिचित के रिक्शे में बैठने से कांतिलाल झिझक रहे थे। पर रामलखन के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। वह बोला, "आपको तो पैसे देने है, मुझे दीजिये या किसी और को, क्या फर्क पड़ता है?"
कांतिलाल ने कुछ सोचा फिर रिक्शे पर चढ़ गए, बोले, "आप कब से रिक्शा चलाने लगे?"
रिक्शा आगे सरकाते हुए रामलखन बोला, "भाई, कुछ दिन तो आराम से बीते, पर कब तक बहू और बेटे के साथ एक कमरे में सोता? खुद ही शर्म आई, तो हम मियां-बीबी घर के बाहर खटिया डालकर सोने लगे।"
"बेटे ने कुछ नहीं कहा।" कांतिलाल के स्वर में आश्चर्य का पुट कुछ ज्यादा हो गया था।
"कहा था।" कहते हुए रामलखन के चेहरे पर बेटे के लिये गर्व के क्षण आए, पर तपते तवे पर पानी की बूंद की तरह गायब होने में उसे समय नहीं लगा।
"फिर?" सवाल उछले जा रहे थे।
"फिर क्या, हम कैसे मान लेते कि बहू के साथ एक ही कमरे में सोएं? हमने तो मना कर दिया। फिर बेटे ने बहू से बात की और एक रास्ता निकाला गया।"
"क्या रास्ता?" कांतिलाल ने उत्सुकता से पूछा।
"बेटा बता रहा था कि हम अगर उसका साथ दें, तो जल्दी ही वह बड़ा मकान ले सकता है। फिर सब चैन से रह सकेंगे।"
"बड़ी अच्छी सोच है बेटे की।" कांतिलाल कहते हुए मुसकरा उठे। रिक्शा चलाकर बड़ा मकान? खयाली पुलाव इतना पक गया था कि सुगंध के बदले अजीब सी महक आ रही थी कांति लाल को।
"इसलिए हम दोनो भी काम करने लगें हैं।"
"हम दोनों?" कांतिलाल के लिये एक के बाद एक चौंकाने वाली खबरें थीं।
"हां, अगर कामवाली बाई की जरूरत हो, तो बता दीजिएगा। मेरी बीबी अभी चार घर में काम करती है। आप तो अपने हैं, अच्छे से काम कर देगी।"
"ओह, तो यह बात है! आपको लगता है, ऐसे आप दोनों की मदद से नया मकान ले लेगा आपका बेटा?"
"नहीं ले पायगा। पर यह कहकर अब सड़क पर तो नही आ सकता। गांव तो छूट ही गया है। बेटे का सपना है, पूरा हो न हो, पर हम तो मां-बाप हैं। अपना कर्तव्य तो हम नहीं छोड़ सकते ना।"
"ठीक है, ठीक है। ऐसा करो, आगे मार्केट है। वहीं एक कोने में रिक्शा लगा दो।" कांतिलाल आगे बाजार की ओर देखते हुए बोले।
"आप कब तक आएंगे?" रामलखन ने बड़ी आत्मीयता से पूछा।
"मेरा इंतज़ार करना। मैं राशन लेकर आता हूं। जो बनेगा, वह तुम्हे दे दूंगा।" कहते हुए कांतिलाल रिक्शे से उतरे और आगे बढ़ गए।
रामलखन कुछ न बोला। उसकी बूढ़ी होती आंखों में कुछ नमी आ गयी थी। उसे अपने ऊपर तरस आ रहा था कि वह कितनी जल्दी गांव से शहर और आप से तुम तक का रास्ता तय कर आया था।