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गूगल बॉय - 2

गूगल बॉय

(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)

मधुकांत

खण्ड - 2

आज रविवार है अर्थात् अवकाश का दिन। छुट्टी सबको अच्छी लगती है। चाहे कितना भी कमेरा व्यक्ति हो, परन्तु छ: दिन की बंधी हुई दिनचर्या से अलग अपनी इच्छा के अनुसार उठना-बैठना, खाना-पीना और अपनी पसन्द का काम करना बहुत सुखद लगता है।

गूगल भी आज बहुत खुश है। सर्वप्रथम वह पाँच बजे उठेगा। एक गिलास पानी पीयेगा, नदी के किनारे-किनारे लम्बी सैर पर जायेगा, बाबा कालीधाम आश्रम के पुल पर बैठकर अपनी बाँसुरी बजायेगा, तन-मन से प्रफुल्लित होकर घर लौट आयेगा।

आज उसने मन-ही-मन एक विशेष कार्य करने का संकल्प किया हुआ है। बड़े कमरे में श्री भगवान कृष्ण के विराट रूप की तस्वीर टंगी है। जब भी उसे देखता है तो उसके मन में एक ख़्याल आता है कि कृष्ण भगवान के विराट रूप को लकड़ी पर उतारा जाये। पिछले दिनों उसे यह प्रतिमा बनाने के लिये सांगवान की लकड़ी का एक टुकड़ा भी मिल गया था, जिसे उसने बहुत सँभाल कर रख दिया था। मन-ही-मन उस लकड़ी के टुकड़े पर वह अपने पिता के औज़ारों से श्री कृष्ण भगवान की तस्वीर उकेरता रहता। अपने सपने को साकार करने के लिये उसने रात को ही सब सामान एकत्रित करके बड़े कमरे में रख लिया था।

स्नान आदि से निवृत्त होने के बाद माँ ने उसको मिस्सी रोटी के साथ मट्ठे का एक गिलास नाश्ते में दिया। वह स्वयं उठकर रसोई में गया और डिब्बे से गुड़ की एक पेड़ी उठा लाया। पापा भी उसके साथ नाश्ता कर रहे थे, सो आधी पेड़ी गुड़ की तोड़कर उसने पापा को दे दी।

‘अरे बेटे गूगल, आज कमरे में ये लकड़ी और औज़ार कैसे रखे हुए हैं?’

‘पापा, लकड़ी के इस टुकड़े पर मैं भगवान श्री कृष्ण के विराट स्वरूप का चित्र उकेरना चाहता हूँ जैसा कि उस कैलेंडर में बना हुआ है।’

‘वो कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को श्रीमद् भागवत गीता का संदेश देते हुए......बेटे, विचार तो श्रेष्ठ है, परन्तु काम कठिन है...।’

‘पापा, आप ही तो कहते हो कि इंसान के लिये कुछ भी असंभव नहीं है। मुझे विश्वास है कि आपके आशीर्वाद से मैं इसको अवश्य बना लूँगा’, दृढ़ता से गूगल ने कहा।

‘शाबाश बेटे, तेरा हौसला और उत्साह देखकर मुझे विश्वास हो गया है कि तू अपने कार्य में अवश्य सफल होगा।’

गोपाल नाश्ता करने के बाद दुकान में चला गया और गूगल कमरे में दीवार पर टंगे कैलेंडर को देख-देख कर प्रतिमा बनाने लगा।

कुछ देर बाद माँ भी रसोई का काम निपटा कर उसके पास आ बैठी। वह भी अपना काम पूरा करने के लिये सिलाई मशीन वहाँ उठा लायी। सिलाई मशीन चलने की ध्वनि तथा लकड़ी को घड़ने की आवाज़ मिलकर एक मिश्रित मधुर स्वर-लहरी उत्पन्न कर रही थी। गूगल के हाथ लकड़ी के लट्ठे को एक भव्य प्रतिमा का आकार दे रहे थे तो माँ लोगों के शरीर को ढकने के लिये कपड़ों को आकार दे रही थी।

‘माँ, तुम रात को अनेक बार मुझे अच्छी-अच्छी कहानी सुनाती हो। कल मैंने भी अपनी हिन्दी की पुस्तक में दानी हरिश्चंद्र की कहानी पढ़ी है। बहुत ही रोचक व शिक्षाप्रद है...।’

‘सच बात है बेटा, सत्यवादी हरिश्चंद्र जैसा दानी तो कोई हो ही नहीं सकता। हमने तो इस कहानी को अनेक बार अपने शिक्षकों से सुना और पढ़ा है, परन्तु अपने इतिहास के श्रेष्ठ पुरुषों की कहानी तो जितनी बार सुनो, कम है। इनको बार-बार सुनने से जीवन में नये गुणों का विकास होता है। क्या तू राजा हरिश्चंद्र की कहानी मुझे भी सुना सकता है?’

‘हाँ माँ अवश्य..।’

लकड़ी और औज़ार चलाते हुए गूगल माँ को कहानी सुनाने लगा।

‘सतयुग काल में हरिश्चंद्र नाम के राजा हुए। वे बड़े सत्यवादी और दानी थे। एक दिन सपने में उन्होंने अपना सारा राज्य मुनि विश्वामित्र को दान में दे दिया। अगले ही दिन मुनि विश्वामित्र राज्य लेने के लिये दरबार में आ गये। राजा हरिश्चंद्र उनको पहचान न सके तो वे क्रोध में आ गये और बोले - ‘हे क्षत्रिय, तुम्हें याद नहीं कि तूने कल सपने में हमको पृथ्वी दान में दी थी? क्या अब तेरा मन बदल गया है? तेरी बदनीयत देखकर क्रोध से मेरी दायीं भुजा तुझे शाप देने के लिये फड़फड़ा रही है।’ राजा हरिश्चंद्र ने हाथ जोड़कर कहा - ‘महाराज, सारी पृथ्वी आपकी है। मुझे आप झूठा मत समझिए। मेरी प्रतिज्ञा है-

चन्द्र टरे, सूरज टरे, टरे जगत व्यवहार

पै दृढ़ हरिश्चंद्र को, टरे न सत्य विचार।

लीजिए महाराज, आज से सारी पृथ्वी आपकी हुई...।’

विश्वामित्र ने कहा - ‘राजन, अब इस महादान की दक्षिणा कौन देगा..?’

हरिश्चंद्र ने कहा- ‘महाराज, यह सत्य है कि अब मेरे पास कुछ भी नहीं है परन्तु यह शरीर तो मेरा है। मैं इसको बेचकर आपको दक्षिणा दूँगा।’

‘यदि एक मास में मेरी दक्षिणा न मिली तो मैं तुझ पर कठिन ब्रह्मदण्ड गिराऊँगा।’

‘महाराज, मैं ब्रह्मदण्ड से उतना नहीं डरता जितना सत्यदण्ड से। इसलिये मैं शीघ्र ही आपकी दक्षिणा पूरी कर दूँगा।’ कहते हुए हरिश्चंद्र ने राज्य छोड़ दिया।

‘माँ, उसके बाद हरिश्चंद्र अपनी पत्नी तारारानी और पुत्र रोहतास के साथ काशी आ गये, क्योंकि ऐसा शास्त्रों में लिखा है कि काशी नगरी पृथ्वी से अलग शिव के त्रिशूल पर स्थित है।

काशी में आकर हरिश्चंद्र को सबसे बड़ी चिंता दक्षिणा देने की थी। ऋण चुकाने के लिये उन्होंने अपने शरीर को बेचने की सोची। अपना विचार पत्नी को बताया तो उसने कहा - ‘आर्यपुत्र, ऐसे कठिन समय में आप अपने को अकेला मत समझो। स्त्री को अर्द्धांगिनी कहते हैं, इसलिये अपना ऋण चुकाने के लिये पहले आप बाएँ अंग को बेचो....।’ तीनों काशी के बाज़ार में बिकने के लिये पहुँच गये। बालक रोहतास ने चिल्लाकर एक तुतली आवाज़ लगायी - अम को भी कोई मोल ख़रीद लो, बला उपकार होगा। बालक की दर्द भरी आवाज़ सुनकर तारा को पुत्र रोहतास के साथ घर का कामकाज करने के लिये एक व्यक्ति ने ख़रीद लिया तथा हरिश्चंद्र को एक डोम ने ख़रीद लिया। सारा धन एकत्रित करके हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र की दक्षिणा चुका दी और वे अपने-अपने मालिक के साथ चले गये।

‘माँ, हमारी कक्षा इतना पाठ ही पढ़ पायी थी कि तभी स्कूल की छुट्टी होने की घंटी बज गयी’, गूगल यहाँ आकर ठहर गया। माँ भी सिलाई करते-करते थक गयी थी और गूगल की प्रतिमा भी आकार लेने लगी थी।

‘बेटे, पहले कुछ खा ले, बाक़ी काम बाद में करेंगे और खाना खिलाते हुए मैं तुम्हें आगे की कहानी भी सुना दूँगी’, कहती हुई नारायणी सामान समेट कर उठ खड़ी हुई।

गूगल को भोजन से अधिक कहानी सुनने की इच्छा थी। इसलिये वह तुरन्त अपने हाथ धोकर रसोई में माँ के सामने आ बैठा।

खाना बनाते हुए माँ सत्यवादी हरिश्चंद्र की कहानी सुनाने लगी।

‘सुबह-सुबह अपने मालिक की पूजा के लिये रोहतास बगीचे से फूल लेने गया तो वहाँ उसे ज़हरीले साँप ने डस लिया। बाग के माली ने घर आकर माँ को बताया तो वह बगीचे की ओर भागी। इससे पहले कि माँ कुछ कर पाती, बेटे रोहतास की मृत्यु हो गयी।

रोती-चिल्लाती माता अपने पुत्र का शव कंधे से लगाये उसका अंतिम संस्कार करने के लिये श्मशान में पहुँची तो चौकीदार ने उसे रोक दिया। उसने कहा - ‘यहाँ के श्मशानपति की आज्ञा है कि आधा कफ़न दिये बिना कोई मुर्दा न फूंका जाये। पहले हमें आधा कपड़ा दो, तब क्रिया करना।’

तारा ने अपने पति को पहचान लिया और रोने लगी - ‘नाथ! मेरे पास तो एक भी वस्त्र नहीं है, मैं तो इसको अपने आँचल में लपेट कर लायी हूँ। हाय, चक्रवर्ती के बेटे को कफ़न भी नसीब नहीं’, कहकर वह विलाप करने लगी।

हरिश्चंद्र ने उसे धीरज दिया - ‘प्यारी रो मत। मेरे स्वामी की आज्ञा है, इसलिये तुम आधा कफ़न हमें दे दो।’

तारा जैसे ही आधा कफ़न फाड़ने लगी कि भगवान प्रकट हो गये। उन्होंने कहा - ‘पुत्री, अब शोक मत करो। तुम दोनों बहुत भाग्यशाली हो। हम तुम्हारी परीक्षा ले रहे थे। अपने प्रिय पुत्र रोहतास को भी जगा लो और जाकर अपना राजपाठ सँभालो....।’

आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। श्री महादेव, पार्वती, भैरव, धर्म, सत्य, इन्द्र और विश्वामित्र सभी उनको आशीर्वाद देने के लिये पधारे।

माँ से राजा हरिश्चंद्र की कहानी सुनकर पहले तो गूगल बहुत द्रवित हुआ, परन्तु बाद में ख़ुश हो गया। उसने अपनी माँ से पूछा - ‘माँ, हमारे पास तो कुछ विशेष है नहीं तो हम कभी किसी को दान नहीं दे सकते...?’

माँ ने गूगल को समझाया - ‘ऐसा नहीं है बेटे। दान देना या न देना मनुष्य की प्रवृत्ति पर अधिक निर्भर करता है। जिसके पास धन का अभाव हो, वह दूसरे के लिये सेवा दान, श्रमदान, रक्तदान आदि अनेक प्रकार से दान कर सकता है।’

‘वाह माँ, आपने तो कमाल की बात बतायी है। अब तो मैं भी कुछ-न-कुछ दान करने के विषय में विचार करूँगा...।’

‘ठीक है बेटे। सोच लेना। अब तू भी अपनी प्रतिमा पूरी कर और मैं भी सिलाई का काम पूरा करती हूँ...।’

दोनों किचन से निकले और कमरे में आकर अपने-अपने काम में लग गये।

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