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गूगल बॉय - 7

गूगल बॉय

(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)

मधुकांत

खण्ड - 7

पन्द्रह दिन के अवसाद के बाद घर की दिनचर्या पटरी पर लौटने लगी। गूगल ने दुकान का काम सँभाल लिया। जब वह सामान ख़रीदने शहर जाता तो नारायणी भी दुकान में आकर सामान बेच देती। माँ को संतोष था कि गूगल भी अपने पापा की भाँति घर की सब आवश्यकताओं का ध्यान रखने लगा है। उसे लगता, पिछले पन्द्रह दिनों में गूगल के शरीर में उसके पापा ने वास कर लिया है। कभी-कभी नारायणी सोचती, बालक तभी तक बच्चे रहते हैं, जब तक उनपर ज़िम्मेदारी नहीं पड़ती। ईश्वर इंसान को कष्ट तो देता है, परन्तु उस कष्ट से लड़ने की शक्ति भी वही प्रदान करता है।

रात-दिन लगकर गूगल ने ‘बापू जी के तीन बंदर’ की प्रतिमा बना दी। उसका साथी किशन उसे कॉलेज में ले गया और प्राचार्य को सौंप आया। ब्लॉक स्तर की प्रतियोगिता में तो उस प्रतिमा का प्रथम स्थान आना कोई विशेष बात नहीं थी। इस वर्ष गाँधी जयंती पर, महात्मा गाँधी की 150 वीं जयंती के फलस्वरूप बड़ा आयोजन होना था। उसमें प्रतिमा को रखवाने के लिये नामांकित किया गया था।

गूगल के बाज़ार जाने के रास्ते में एक कबाड़ी की दुकान पड़ती थी। दुकान के बाहर सोफ़े की एक कुर्सी पड़ी रहती थी। जब भी वह वहाँ से गुज़रता तो उसकी नज़र यकायक उस कुर्सी की ओर घूम जाती, क्योंकि उसकी लकड़ी पर की हुई कारीगरी सदैव उसे आकर्षित करती, उसकी कलात्मकता से वह अभिभूत हो जाता। वह सोचता, काश! यह कुर्सी मुझे मिल जाये तो मैं इसको सजा-संवार कर बहुमूल्य बना दूँ। परन्तु संकोच के कारण वह कभी कबाड़ी से बात नहीं कर पाया।

घर पहुँचा तो माँ ने उसे ख़ुशी का समाचार दिया - ‘बेटे, तुम्हारी ‘बापू के तीन बंदर’ वाली प्रतिमा प्रथम आयी है...अभी-अभी किशन बताने आया था। कल तुझे कॉलेज में बुलाया है।’

‘यह तो बहुत ख़ुशी का समाचार है माँ’, गूगल माँ के पाँव छूकर आशीर्वाद लेता है - ‘माँ, कल मैं कॉलेज चला जाऊँ?’

‘ज़रूर बेटा.....किशन कह रहा था, तुझे पुरस्कार भी दिया जायेगा।’ एक बार तो नारायणी के मन में आया कि बोल दे - तेरे पापा होते तो बहुत ख़ुश होते, परन्तु इस ख़ुशी के अवसर पर कुछ भी गमगीन बात करना ठीक नहीं - सोचकर उसने मन की बात मन में ही रख ली।

दो अक्तूबर को आई.टी.आई. में विशेष समारोह का आयोजन किया गया था। गाँव के गणमान्य व्यक्तियों को भी बुलाया गया था। कई अधिकारी भी बाहर से आये थे। आई.टी.आई. के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब वहाँ के किसी छात्र ने अपनी कला को प्रदर्शित करके राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त किया था।

प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा प्रथम पुरस्कार के लिये ग्यारह हज़ार का पुरस्कार मिला था। गाँव के सरपंच तथा प्राचार्य ने ग्यारह हज़ार का चेक गूगल को दिया। गणमान्य व्यक्तियों ने आशीर्वाद के साथ कुछ नक़द राशि भी दी जिससे भी गूगल की जेब में दो हज़ार रुपये और आ गये।

घर जाने से पूर्व उसने हलवाई से एक रसगुल्ले का डिब्बा ख़रीदा। जैसे ही वह कबाड़ी की दुकान के पास आया तो सोफ़े की कुर्सी ने उसे अपनी ओर खींच लिया। दुकान का मालिक बाहर ही खड़ा था।

‘भाई साहब, यह कुर्सी बिकाऊ है क्या?’ संकोच से उसने पूछा।

‘बिलकुल बिकाऊ है, ले लो’, दुकानदार ने उत्साह से भर गया।

‘कितने की है?’

‘तू जितने की चाहे ले ले, ...बता क्या देगा?’

गूगल ने कुर्सी को हिला-डुला कर देखा। ‘सब कबाड़ा है, अब तो जलाने के काम ही आयेगी’, गूगल ने सस्ती ख़रीदने के लिये उपेक्षा से कहा। लेकिन दुकानदार ने ताड़ लिया कि कुर्सी तो यह लेगा। इसलिये वह इज़्ज़त के साथ बोला - ‘अरे भाई, जब मैंने आप पर ही छोड़ दिया तो जितने मन करे, दे दो..मैंने तो आपसे कुछ माँगा ही नहीं..।’

‘मैं इसके चार सौ दे सकता हूँ’, गूगल ने उसकी कम-से-कम क़ीमत लगा दी।

दुकानदार मन-ही-मन बहुत खुश था कि कबाड़ के चार सौ मिल रहे हैं, फिर अहसान जताते हुए बोला - ‘केवल चार सौ..! खैर, मैंने तुमसे वायदा किया है, ले जा उठाकर।’

‘सायं को ले जाऊँगा अपनी रिक्शा में रखकर। अब कोई रिक्शा लूँगा तो बीस रुपये माँग लेगा..।

कबाड़ी ने सोचा, कहीं शाम तक यह अपना मन न बदल ले, इसलिये बोला - ‘तुम चिंता न करो, बीस रुपये मुझे कम दे देना, इसको अभी ले जाओ’, कहते-कहते उसने सामने खड़ी रिक्शा को बुलवा लिया, क्योंकि वह इतना बढ़िया सौदा खोना नहीं चाहता था।

गूगल ने चार सौ रुपये कबाड़ी को दिये तो उसने बीस रुपये रिक्शावाले को देते हुए कहा - ‘जा, बाबू जी के घर छोड़ आ।’

दोनों इस सौदे से खुश थे। कबाड़ी खुश था, क्योंकि कबाड़-कुर्सी के कोई ग्राहक सौ रुपये देने को तैयार नहीं होता था और गूगल खुश था कि आज बहुत दिनों बाद उसके मन की इच्छा पूरी हो गयी थी। घर पहुँच कर उसने कुर्सी को दुकान के अन्दर रखवा लिया। आवाज़ सुनकर माँ भी वहाँ आ गयी। टूटी-फूटी कुर्सी को देखकर बोली - ‘गूगल बेटा, ये क्या उठा लाया?’

‘माँ, इसकी लकड़ी बहुत अच्छी है और इसपर की हुई नक़्क़ाशी...वह तो लाजवाब है। देखना, इसको इतनी सुन्दर बना दूँगा कि बहुत महँगी बिकेगी।’

माँ को गूगल की क़ाबिलियत पर विश्वास है, दूसरे ख़ुशी का अवसर! उसने कुर्सी के सम्बन्ध में और कुछ नहीं कहा। गूगल ने ग्यारह हज़ार रुपये का चेक और मिठाई माँ के हाथों में सौंप दी। माँ ने रसगुल्ले का डिब्बा खोलकर एक रसगुल्ला मन्दिर में चढ़ाया और दूसरा गूगल के मुँह में भर दिया। गूगल ने भी डिब्बे में से एक रसगुल्ला लेकर माँ को खिलाया और पाँव छूकर आशीर्वाद लिया।

ग्यारह हज़ार रुपये के पुरस्कार की ख़बर सारे पड़ोस में फैल गयी। अनेक औरतें नारायणी को बधाई देने आयीं। नारायणी ने सबके हाथ पर रसगुल्ला रखा और भगवान को धन्यवाद दिया।

खाना खाने के बाद दुकान में आकर गूगल ने कपड़े से अच्छी तरह से सोफ़ा-कुर्सी को साफ़ किया। बेटे को काम में लगा देखकर माँ भी आ गयी और गूगल से पूछा - ‘कितने की ख़रीदी यह कुर्सी बेटा?’

‘माँ, केवल चार सौ रुपये में।’

माँ खुश हुई। कहा - ‘चार सौ में तो आजकल क्या आता है... इससे अधिक की तो इसमें लकड़ी लगी है।’

‘देखना माँ, चार सौ रुपये की इस सोफ़ा-कुर्सी को चार दिन में मैं चार हज़ार की बना दूँगा।’ सोफ़ा-कुर्सी पर अपना स्वामित्व हो जाने के बाद गूगल अतिरिक्त उत्साह से प्रफुल्लित था।

‘चल अब दूध पीकर सो जा, सुबह से भागदौड़ कर रहा है’, नारायणी ने आदेश के स्वर में कहा और गूगल माँ के पीछे-पीछे चल पड़ा। वह दूध पीकर बिस्तर पर भी लेट गया, परन्तु आँखों में नींद नहीं थी।

दिन में हुए समारोह के दृश्य उसे रोमांचित कर रहे थे। एक ही दिन में उसका उत्साह दो गुना हो गया था। उसकी कला के सम्मान में प्राचार्य द्वारा तथा सरपंच व निदेशक द्वारा कहे गये शब्दों ने उसको आसमान में उछाल कर सिंहासन पर बैठा दिया था।

‘अरे, आसमान में तो यह वही सोफ़ा-कुर्सी है जिसे वह कबाड़ी से ख़रीद कर लाया था...इतनी सुन्दर, इतनी कलात्मक...इतनी आरामदायक... उसकी कल्पना से परे। वह सोफ़ा-कुर्सी से उठकर ध्यान से उसपर उकेरी गयी पुष्प-बेल को एकटक निहारे जा रहा था। उसपर लगे मख़मल के मृदुल कपड़े को बार-बार छूकर देख रहा था। उसका मन हो रहा था कि उसे अपनी बाँहों में भर ले और माँ के पास ले जाये। अपनी गोद में उठाकर माँ को इस दिव्य सिंहासन पर बैठाए और फिर उनसे पूछे - ‘कैसा लग रहा है माँ?’

गूगल ने करवट बदली तो माँ ने टोक दिया - ‘गूगल, नींद नहीं आ रही शायद...?’

‘हाँ माँ, कोई कहानी सुना जिससे मुझे नींद आ जाये।’

माँ जानती थी उसके मन की बात, इसलिये उसने पहले ही सोच रखा था। ‘सुन, तुझे आज वीर बालक बादल की सच्ची कहानी सुनाती हूँ।’

‘हाँ, सुनाओ।’

नारायणी ने कहानी सुनानी आरम्भ की।

उन दिनों दिल्ली पर दुष्ट राजा अल्लाउद्दीन ख़िलजी का राज्य था और राजपूताने पर देशभक्त लोकप्रिय राजा रतन सिंह राज्य करते थे। राजा रतन सिंह की पत्नी पद्मिनी बहुत सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता की चर्चा सारे राजपूताने में थी।

एक बार दिल्ली के राजा ख़िलजी के दरबार में भी रानी पद्मिनी की सुन्दरता की चर्चा पहुँच गयी। रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की इच्छा से अल्लाउद्दीन ख़िलजी अपनी बड़ी सेना लेकर चितौड पर आक्रमण करने के लिये आ गया। राजपूतानी क़िले के बाहर उसने अपनी सेना का पड़ाव डाल दिया। अल्लाउद्दीन ख़िलजी ने अपना एक दूत भेजकर राजा को संदेश दिया - ‘मैं खून-ख़राबा नहीं चाहता। केवल रानी पद्मिनी के रूप को शीशे में देखकर सेना के साथ लौट जाऊँगा।’

शान्तिप्रिय राजा रतन सिंह को यह बात अपमानजनक तो लगी, परन्तु रक्तपात से बचने के लिये उसने शर्त को स्वीकार कर लिया।

निश्चित समय पर अल्लाउद्दीन ख़िलजी अपने अंगरक्षक के साथ दुर्ग में आया। अपनी क्षमता के अनुसार राणा रतन सिंह ने उसका भरपूर आदर-सत्कार किया और एक सुन्दर शीशे में रानी पद्मावती को दिखाने की व्यवस्था की गयी। शर्त पूरी करने के बाद राणा जी उसको आदर सहित दुर्ग के बाहर तक छोड़ने आये।

बाहर अल्लाउद्दीन ख़िलजी के कुछ सैनिक छिपे हुए थे। उन्होंने तुरन्त राणा को बंदी बना लिया और अपने सैनिक शिविर में ले गये।

यह समाचार सुनते ही चितौड़ में हाहाकार मच गया। रानी ने सभी सेनापतियों की आपातकालीन बैठक बुलायी। गुप्त रूप से राजा को छुड़ाने की योजना बनाई गयी।

रानी पद्मिनी ने दिल्ली संदेश भेजा कि वह अपनी सात सौ दासियों के साथ आने को तैयार है यदि राणा जी को छोड़ दिया जाये..। यह शर्त सुनकर तो ख़िलजी की बाँछें खिल गयीं और उसने तुरन्त शर्त को स्वीकार कर लिया।

योजना के अनुसार सभी पालकियों में बहादुर सैनिकों को स्त्री-भेष बनाकर बैठा दिया गया। रानी की विशेष पालकी में बहादुर भानजे बादल को बैठाया गया।

अल्लाउद्दीन ने सभी पालकियों के अन्दर आने के बाद राणा रतन सिंह को मुक्त कर दिया। राणा रतन सिंह को कुछ सैनिकों के साथ राजपूताना के दुर्ग में भेज दिया गया।

राजा के निकल जाने के बाद सभी वीर सैनिक पालकियों से बाहर आ गये। घमासान युद्ध हुआ। परन्तु थोड़े से राजपूत सैनिक कब तक लड़ते! अधिकांश मारे गये। ख़िलजी चाहता था कि यह समाचार राजपूताना न पहुँचे और अचानक आक्रमण करके सबको बंदी बना लिया जाये।

वीर बालक बादल ने यह उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लिया और मुस्लिम सेना को बिजली की गति से चीरता हुआ अपने दुर्ग की ओर दौड़ पड़ा। उस बहादुर वीर सैनिक ने क़िले में पहुँच कर सब समाचार राजा को सुना दिया।

माँ अचानक रुक गयी। उसने देखा, गूगल की नाक से गहरी नींद में जाने की साँस चल रही थी। ‘चलो अच्छा हुआ यह सो गया’ सोचकर कहानी को विराम दिया और स्वयं भी निश्चिंत होकर अपने बिस्तर पर पैर फैला दिये।

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