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गूगल बॉय - 5

गूगल बॉय

(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)

मधुकांत

खण्ड - 5

गाँव में प्रत्येक वर्ष जन्माष्टमी का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। एक मास पूर्व गाँव के बीचोंबीच बने श्री कृष्ण मन्दिर में सफेदी-रोगन साफ़-सफ़ाई होने लगती है। मन्दिर परिसर को सजाया जाने लगता है। तीन दिन का नाट्य उत्सव होता है। अन्य स्थानों पर रहने वाले प्रमुख कलाकार एक सप्ताह का अवकाश लेकर गाँव में आते हैं। एक सप्ताह तक नाटक का अभ्यास किया जाता है। स्थानीय लोगों से चंदा एकत्रित किया जाता है। नाटक उत्सव में वृन्दावन से रासलीला करने वाले कलाकार बुलाये जाते हैं। सबके खाने-पीने ठहरने की व्यवस्था मन्दिर की कमेटी करती है।

मन्दिर की कमेटी में इस बार कुछ युवा विद्यार्थी भी जुड़ गये। रामलीला कमेटी की मीटिंग में गूगल ने एक विचार रखा - ‘कल शहर के मेडिकल से एक अपील आयी है। आजकल गरमी का मौसम है। दुर्घटनाएँ अधिक हो रही हैं, इसलिये ब्लड-बैंक में खून की कमी है। कॉलेज में ठीक से कक्षाएँ नहीं लगने के कारण रक्तदान शिविर नहीं लगाये जा रहे तथा समाज-सेवी संस्थाएँ भी गरमी के मौसम में कैम्प लगाने से बच रही हैं। इन सब कारणों से खून की कमी हो गयी है। अतः उन्होंने सभी सामाजिक संस्थाओं से अनुरोध किया है कि यथा शीघ्र एक रक्तदान शिविर अवश्य लगायें...। श्री कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव में अनेक लोग भाग लेते हैं। यदि इस उत्सव पर रक्तदान शिविर लगाया जाये तो कुछ खून भी दान में मिल सकता है..।’

‘वैसे तो रक्तदान करना बहुत नेक कार्य है’, स्थानीय डॉक्टर जैन ने अपनी शंका प्रकट की- ‘परन्तु श्री कृष्ण जन्मोत्सव पर अनेक लोग तो आधी रात का व्रत रखते हैं, दूसरा कहीं कैम्प में रक्तदान कम हुआ तो इस उत्सव की गरिमा भी कम हो जायेगी।’

‘आपकी बात ठीक है डॉक्टर साहब’, स्कूल के मुख्याध्यापक ने बात को सँभाला, ‘रक्तदानियों के लिये एक तो पर्याप्त फलाहार की व्यवस्था की जायेगी, दूसरी ओर यदि कम यूनिट ब्लड एकत्रित हुआ तो भी इस विशाल उत्सव के माध्यम से रक्तदान की जागरूकता तो बढ़ेगी...। आप चिंता न करें, कम-से-कम तीस-चालीस यूनिट खून तो हमारे स्कूल के बच्चे ही दे देंगे।....ऐसे संकट के समय हमें अवश्य रक्तदान शिविर लगाना चाहिए।’

मुख्याध्यापक का उत्साह देखकर फिर कोई विरोध नहीं हुआ। रक्तदान शिविर को आयोजित करने के लिये रामलीला कमेटी के अध्यक्ष ने पाँच व्यक्तियों की एक कमेटी बना दी जिसमें गूगल भी एक सदस्य था।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी उत्सव के साथ अब रक्तदान उत्सव के विषय में चर्चा होने लगी। मुख्य बाज़ार जहाँ एक ओर नयी-नयी रंग-बिरंगी राखियों से सजने लगे, वहीं बीच-बीच में हलवाइयों की दुकानों पर गोल-गोल बनने वाले घेवर की गंध भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। घेवर खाकर, एक समोसा और चाय पीकर लोग हलवाई की दुकान पर रक्तदान की चर्चा करते। कोई इसे अच्छा काम बताता तो कोई ऐसा भी होता जो अपनी नकारात्मक टिप्पणी भी दे देता, परन्तु सकारात्मक सोच रखने वालों की संख्या अधिक थी, इसलिये नकारात्मक टिप्पणी करने वाले को समझा कर संतुष्ट कर दिया जाता।

इन सब कार्यों के अतिरिक्त गूगल का अधिकांश समय श्री कृष्ण भगवान की प्रतिमा में लग रहा था। गूगल इस प्रतिमा को किसी भी दिशा में घुमा देता, परन्तु उसे प्रत्येक बार ऐसा लगता जैसे कि श्री कृष्ण जी उसी की ओर देख रहे हैं। बार-बार श्रद्धापूर्वक देखने से वह प्रतिमा उसकी आँखों में स्थायी निवास कर गयी और आँखों के माध्यम से दिल में उतर गयी। गूगल दोनों आँखें बंद करके भी उस प्रतिमा की एक-एक भाव-भंगिमा को देख सकता था।

सम्पूर्णता से पूर्व कोई उसे देख न सके, इसके लिये गूगल ने प्रतिमा के सामने कपड़े का पर्दा लगा दिया था। गूगल के बाहर जाने पर नारायणी बेटे द्वारा बनायी प्रतिमा को देखकर आश्चर्य चकित रह जाती, सामने खड़ी देर तक निहारती रहती। उसे ऐसा लगता जैसे काठ की प्रतिमा अभी बोल उठेगी। उसके मन में राधारानी का भाव जगने लगता.....उसके कानों में बाँसुरी का स्वर गूंजने लगता। मन होता, वह नाच-नाच कर इतनी मस्त हो जाये कि स्वयं राधा ही बन जाये।

गूगल के पापा का नाम तो गोपाल था ही। उसने भी गूगल द्वारा निर्मित प्रतिमा को अधिक भव्यता प्रदान करने व सुरक्षित रखने के लिये एक बड़ा काँच का डिब्बा बनाया, जिसमें उस प्रतिमा को सुरक्षित रखा गया।

श्री कृष्ण जी का जन्मदिन....सुबह से रेडियो पर भजन बज रहे थे। स्कूलों की छुट्टी थी। बच्चे-बड़े बूढ़े सब उल्लास में थे। सभी मन्दिरों में चहल-पहल बढ़ गयी थी।

राधाकृष्ण के प्रमुख मन्दिर में सबसे अधिक रौनक़ थी। रक्तदान का कैम्प चल रहा था। औरतें राधारानी का श्रृंगार कर रही थीं तथा प्रमुख पुजारी और उसकी टोली बाँके बिहारी का श्रृंगार कर रहे थे। उनके साथ-साथ अन्य प्रतिमाओं के परिधान भी बदले जा रहे थे।

मन्दिर के बाएँ कोने में गूगल द्वारा बनायी गयी श्री कृष्ण भगवान के विराट रूप की प्रतिमा के लिये स्थान निर्धारित किया हुआ था। उसकी सजावट तो पहले दिन ही कर दी गयी थी। अब गूगल घर से प्रतिमा को लेने गया हुआ था।

एक ड्राइंग बोर्ड पर, काँच के डिब्बे में विराजमान प्रतिमा को गूगल ने लाल कपड़े से ढक रखा था। श्रदापूर्वक गूगल ने प्रणाम करके उसको सिर पर उठा लिया। गूगल के चार साथी, माँ और पापा भी उसके साथ चल रहे थे। राह में जो भी परिचित देखता, उनके साथ हो लेता। प्रतिमा के साथ-साथ दो व्यक्ति शंख और घड़ियाल बजाते हुए चल रहे थे। मन्दिर तक जाते-जाते उनके साथ एक बड़ा समूह पीछे-पीछे हो लिया।

मन्दिर के पुजारी ने सबका स्वागत किया। प्रतिमा की स्थापना कराई। गोपाल ने पुजारी जी से निवेदन किया - ‘आचार्य जी, अब आप ही अपने कर-कमलों से इस प्रतिमा का अनावरण कर दें।’

‘नहीं-नहीं, भगवान बाँके बिहारी का ऐसा मन-मोहक और सजीव रूप जिन उँगलियों ने प्रदान किया है, उसे ही इस दिव्य स्वरूप का उद्घाटन करना चाहिए...।’

‘अजी नहीं। गूगल तो अभी बालक है’, गोपाल ने विनम्रतापूर्वक कहा।

‘मनुष्य का बाल स्वरूप ही ईश्वर को पसन्द है, इसलिये गूगल ही इसका अनावरण करे,’ पुजारी जी ने अपना निर्णय सुना दिया और वहाँ समूह में उपस्थित सभी गणमान्य व्यक्तियों ने तालियाँ बजाकर पुजारी जी की बात का अनुमोदन किया।

पापा गोपाल के साथ गूगल संकोच पूर्वक आगे बढ़ा। पुजारी जी ने मूर्ति के अनावरण हेतु मंगलाचरण किया और गोपाल के कहने पर गूगल ने प्रतिमा पर लिपटा हुआ पर्दा हटा दिया। तालियाँ बजी, बाँके बिहारी का जयघोष हुआ, शंख-घड़ियाल की ध्वनि गूंज उठी और धीरे-धीरे सब शान्त हो गया। जो जहाँ खड़ा था, अपलक मूर्ति को देखता रह गया। भगवान का ऐसा भव्य विराट रूप कभी किसी ने देखा नहीं था। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि इतनी सुन्दर प्रतिमा उन्हीं के साथी गूगल ने बनायी है। लोग उस प्रतिमा के सामने से हटना ही नहीं चाहते थे।

प्रतिमा के सामने पूरा प्राँगन भीड़ से भर गया। जो इस प्रतिमा के विषय में सुनता, भागा चला आता। कुछ कार्यकर्त्ताओं ने मिलकर बाँस गाड़कर आने और जाने की उचित व्यवस्था कर दी। व्यवस्था बनाये रखने के लिये पुजारी का लड़का वहाँ बैठा। चार कार्यकर्त्ता लाईन बनवाने में लगे, तब जाकर व्यवस्था क़ायम हुई।

कलकत्ता से लाला किरोड़ीमल जी प्रत्येक वर्ष अपने परिवार के साथ गाँव में दो दिन के लिये आते हैं। जन्माष्टमी उत्सव में मुख्य खर्च वही करते हैं और कार्यक्रम के मुख्य अतिथि भी वही होते हैं। यह उनका पैतृक गाँव है। इसलिये प्रत्येक वर्ष अपनी मातृभूमि को प्रणाम करने यहाँ अवश्य आते हैं। सायं के चार बजे लाला किरोड़ीमल जी सपरिवार मन्दिर में पधारे। मन्दिर में पूजा-अर्चना करने के बाद जाने लगे तो उनकी नज़र कृष्ण जी की प्रतिमा पर अटक गयी। देर तक खड़े वे प्रतिमा को निहारते रहे। पुजारी के लड़के ने जब उनको बताया कि यह प्रतिमा हमारे गाँव के एक कारपेंटर ने बनायी है तो वे आश्चर्य से भर गये - ‘क्या मैं उससे मिल सकता हूँ?’

‘हाँ, मैं अभी बुला देता हूँ। वह बाहर रक्तदान शिविर में बैठा है...।’ तभी एक लड़का दौड़ कर गूगल को पकड़ लाया।

बालक गूगल को देखकर तो सेठ जी आश्चर्य में डूब गये - ‘बेटे, यह प्रतिमा तुमने बनायी है?’

‘नहीं सेठ जी, ईश्वर ने स्वयं मेरी उँगलियों से यह प्रतिमा बनवा दी है...।’

‘वाह बेटे, जितना सुन्दर कर्म, उतने ही सुन्दर भाव। बेटे, क्या यह प्रतिमा हमें बेच सकते हो?’

‘इसका फ़ैसला तो मेरे पापा कर सकते हैं।’

‘यह अपने गोपाल खाती का लड़का है सेठ जी। लो, वो गोपाल जी भी इधर ही आ रहे हैं’, मुख्य पुजारी ने बताया। तब तक गोपाल भी वहाँ पहुँच गया। गोपाल ने आगे बढ़कर सेठ जी का अभिवादन किया।

‘गोपाल भइया, सेठ जी आपकी इस प्रतिमा को ख़रीदना चाहते हैं। बोलो, बेच सकते हो क्या?’ पुजारी जी ने कहा।

‘मैं क्या कहूँ, जैसी सेठ जी की इच्छा।’

‘कितना खर्च आया इस पर?’

‘चार-पाँच सौ रुपये से अधिक नहीं।’

सेठ जी ने तुरन्त अपनी जेब से पाँच हज़ार रुपये निकाल कर गोपाल के हाथ में रख दिये।

गोपाल ने सारे पैसे लौटाते हुए कहा - ‘नहीं सेठ जी, हम पर इतना पाप मत चढ़ाओ।’

‘गोपाल, तुम नहीं जानते, यह प्रतिमा अमूल्य है। तुम अपने लड़के को शहर में भेज दो, लाखों कमायेगा। मैं तो इस प्रतिमा का नाम मात्र मूल्य दे रहा हूँ।’

‘सेठ जी, शायद आप ठीक कहते होंगे, क्योंकि हीरे की परख जौहरी ही जानता है। मैं अपने गूगल के लिये इस प्रतिमा के केवल पाँच सौ रुपये ही रख पाऊँगा। बाक़ी पैसा श्री बाँके बिहारी का है, मैं उन्हीं को अर्पित कर देता हूँ’, कहते हुए गोपाल ने साढ़े चार हज़ार रुपये मुख्य पुजारी को देकर हाथ जोड़ दिये।

एकत्रित जनसमूह बाँके के नारे लगाने लगा। बीच-बीच में एक लड़का गूगल के नारे भी लगाने लगा।

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