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गूगल बॉय - 3

गूगल बॉय

(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)

मधुकांत

खण्ड - 3

गूगल की आई.टी.आई.में इस वर्ष सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर एक रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया। इसी संदर्भ में उसके अध्यापक ने कक्षा में बताया कि गरीब-से-गरीब व्यक्ति भी रक्तदान करके महादानी बन सकता है। माँ ने भी एक दिन दानवीर कर्ण की कहानी सुनाते हुए बताया था कि दान तो देने वाले की प्रवृत्ति पर अधिक निर्भर करता है। कोई व्यक्ति अभाव में होते हुए भी अपने तन और मन से दूसरे की सहायता करके दानी बन सकता है। सोच-सोच कर उसका मन भी रक्तदान करने के लिये मचल उठा। परन्तु आज तक तो उसने कभी अपने शरीर में इंजेक्शन भी नहीं लगवाया था। पिता जी को बुख़ार चढ़ा था तो वह उनके साथ दवाखाने जाता था तो भी डॉक्टर जब उनको टीका लगाने लगता तो डर के कारण वह अपना मुँह दूसरी ओर मोड़ लेता था। परन्तु अब वह अठारह वर्ष का हो गया है। अब उसे डरना नहीं चाहिए। परन्तु शरीर में कमजोरी आ गयी तो...?

अगले दिन कक्षा में शिक्षक ने छात्रों को फिर समझाया कि रक्तदान करने से शरीर कभी कमजोर नहीं होता बल्कि चुस्त और ताज़ा हो जाता है। उन्होंने बच्चों को उदाहरण देकर समझाया। जिस प्रकार कुएँ से पानी निकालते रहो....निकालते रहो, फिर भी उसमें कभी पानी समाप्त नहीं होता, बल्कि उसके स्रोतों से ताज़ा और निर्मल पानी स्वयं आता रहता है। इसी प्रकार शरीर में भी बासी खून निकलता रहे तो एक दिन में ताज़ा खून बनकर तैयार हो जाता है। इस प्रकार रक्तदानी के शरीर में कोई कमजोरी नहीं आती बल्कि वह गाढ़े खून से होने वाली अनेक बीमारियों से बच जाता है।

जबसे उसने सुना है कि उसकी मित्र अरुणा भी रक्तदान कर रही है, तब से वह भी लगभग तैयार हो गया है। जब अरुणा लड़की होकर रक्तदान कर सकती है तो क्या मैं.....सोचकर उसे स्वयं में हीनता अनुभव हुई।

अपने शिक्षक के पास जाकर उसने अपना नाम तो लिखवा दिया, परन्तु उसका मन उत्साह मिश्रित भय से अभी भी घबरा रहा था। एक नया अनुभव, एक भला काम, एक महादान करने के लिये उसका मन उत्साहित तो था, परन्तु शरीर में प्रवेश करने वाली सूई के विषय में सोचकर वह घबरा भी रहा था। एक काँटे जितना दर्द होता है.... बस.....काँटा तो उसके हाथ-पाँव में कितनी बार लगा है। सोचकर उसका सारा भय छूमंतर हो गया और मन रक्तदान करने के लिये उत्साह से भर गया।

गूगल की कक्षा के पचास छात्र और पचास छात्र द्वितीय वर्ष के। सौ छात्रों में से साठ छात्रों ने रक्तदान करने के लिये अपना नाम लिखवाया। जब अरुणा ने रक्तदान के लिये नाम लिखवाया, तब पाँच लड़कियों और बीस लड़कों ने भी अपना नाम दर्ज करवा दिया।

रक्तदान से पूर्व एक सैनिक अधिकारी ने उनके संस्थान में आकर स्वैच्छिक रक्तदान करने की अपील की थी। उन्होंने समझाते हुए बताया था कि हर कोई छात्र सीमा पर जाकर युद्ध तो नहीं लड़ सकता, परन्तु खून का दान देकर उन सैनिकों का जीवन बचा सकता है।

उन्होंने जोश के साथ कहा था कि स्वतंत्रता के अग्रणी सेनापति सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पर हमें उनके आह्वान को स्मरण करना चाहिए - ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें...(सभी बच्चों ने ऊँची आवाज़ में कहा - मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा) परन्तु अपना हिन्दुस्तान तो आज़ाद है, फिर भी उनकी जयंती पर हम सब को खून देकर अपने देशवासियों का जीवन बचाने का संकल्प लेना चाहिए।’ सभी छात्रों ने ज़ोरदार तालियों बजाकर उनकी बात का समर्थन किया।

रक्तदान शिविर में तो उत्सव जैसा वातावरण लग रहा था। लाउड-स्पीकर पर देशभक्ति के तराने, हाल में सुन्दर स्वच्छ मेज़पोश से ढकी मेजें, छात्रों द्वारा घर से बाल्टियों में लाया जा रहा दूध, केले, बिस्कुट, दूसरे कोने में हलवाई की कड़ाही से उठ रही देसी घी की सुगंध, सामने सजी हुई स्टेज पर अधिकारियों, समाजसेवियों का जमावड़ा, उद्घोषणाएँ, रक्तदान करने वाले छात्रों का सम्मान, अपनी ड्यूटी को सँभाले एवं एन.सी.सी. और स्काउट के छात्र। रक्तदान मेले में आकर तो प्रत्येक व्यक्ति का रक्तदान करने के लिये मन मचल जाये।

गूगल रक्तदान करने के लिये मेज़ पर लेटा तब अरुणा भी साथ खड़ी उससे बतिया रही थी। जब सुई लगी तो एक क्षण उसने आँख बंद की। बाद में तो उसको पता भी न लगा कि कब खून उसके शरीर से निकलकर बोतल में बंद हो गया।

‘कैसा लगा गूगल तुम्हें पहली बार रक्तदान करके?’ अरुणा ने पूछा।

‘बहुत मज़ेदार। सचमुच मेरा तो मन हो रहा है, एक यूनिट खून और दान कर दूँ...।’ उत्साह से गूगल ने कहा।

‘अच्छा इतना उत्साह! तुम्हारा उत्साह देखकर तो मुझे लगता है कि एक दिन तुम रक्तदान के महानायक बनोगे...।’

‘अरुणा, यह तो मुझे मालूम नहीं कि मैं क्या बनूँगा, परन्तु आज तुम्हारे सामने वायदा करता हूँ कि प्रत्येक तीन मास बाद रक्तदान अवश्य किया करूँगा।’

‘वाह क्या बात है! पिछले कैम्प में मैंने अपना पहला रक्तदान किया था, परन्तु इस बार डॉक्टर ने मुझमें खून की कमी बता दी। हाँ, इतना संतोष तो है कि इस बार आपने रक्तदान कर दिया’, अरुणा उसके कान के पास आकर फुसफुसायी।

‘अरुणा, मैंने सुना है कि रक्तदान करते हुए मनुष्य ईश्वर से जो माँगे, उसकी इच्छा पूरी होती है?’

‘तो तुमने क्या माँगा?’

‘अपने मित्रों के लिये मंगलकामनाएँ’, गूगल संकोचवश इतना ही कह पाया अन्यथा उसका मन हो रहा था कि वह तपाक से सच बोल दे - ‘अरुणा, मैंने ईश्वर से तुम्हारी ख़ुशियाँ माँगी हैं।’

रक्तदान के बाद तो गूगल ग़ज़ब के उत्साह और आनन्द से भर गया। घर आकर उसने माँ को बताया तो माँ बहुत खुश हुई। दोपहर के भोजन में माँ ने आज ढेर सारा मक्खन खाने को दिया। रक्तदान के बाद आज उसे भोजन अधिक स्वादिष्ट लगा। पहले से अधिक खाना आज उसने खाया। रात में गोपाल को पता लगा तो वे भी बहुत खुश हुए। खुश होकर उन्होंने गूगल से पूछा - ‘बेटे, रक्तदान करने की बात तेरे मन में आयी कैसे?’

‘पापा, मेरे शिक्षक ने हमें कक्षा में रक्तदान करने के लिये प्रेरित किया था। मेरे शिक्षक श्री अरुणेश मुझसे बहुत प्यार करते हैं और बचपन में आपने ही मुझे एकलव्य की कहानी सुनाई थी। एक बालक एकलव्य ने अपने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाकर श्रेष्ठ धनुर्विद्या सीख ली और जब गुरु ने प्रकट होकर उससे गुरु-दक्षिणा चाही तो एकलव्य ने हँसते-हँसते अपने दाएँ हाथ का अँगूठा गुरु की दक्षिणा में भेंट कर दिया। एक शिष्य ने अपनी सबसे प्रिय वस्तु अपने गुरु को समर्पित कर दी। जब से आपने मुझे यह कहानी सुनाई है, तब से मैंने मन-ही-मन संकल्प ले रखा था कि अपने गुरु श्री अरुणेश की इच्छा अवश्य पूरी करूँगा।’ अपने मन की बात पापा को बताते हुए गूगल बहुत खुश हो रहा था।

‘सचमुच बेटे गूगल, तुमने एक श्रेष्ठ कार्य किया है। तुम्हारे रक्तदान से चार व्यक्तियों का जीवन बच सकता है। तुमने बिना किसी लोभ-लालच के अपने गुरु का कहना मानकर यह महादान किया है। इसका फल तुझे अवश्य मिलेगा। श्रीमद् भागवत गीता में श्री कृष्ण भगवान ने अर्जुन को संदेश देते हुए कहा है कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा किये केवल कर्म करना चाहिए। तुमने आज ऐसा ही नेक काम किया है। इसलिये मुझे अपने बेटे पर बहुत गर्व है।’ पिता ने गूगल को अपनी बाँहों में भरकर उसका माथा चूम लिया।

रात को गूगल को बहुत गहरी नींद आयी। उसका शरीर तो सो गया, परन्तु मन रक्तदान कैम्प में ही घूमता रहा। सुखद बात यह थी कि उसकी प्रिय मित्र अरुणा भी उसके साथ थी। अचानक दोनों के शरीर में पंख निकल आये। तनिक से पाँव हिलाने पर पंखों में गति आ गयी। धीरे-धीरे वे आकाश में उड़ने लगे। कभी वह आगे निकल जाता और अरुणा पीछे रह जाती तो कभी अरुणा आगे निकल जाती और वह पीछे रह जाता। जैसे ही वे बराबर में आये तो उसका मन हुआ कि वह अरुणा का हाथ पकड़ ले, परन्तु घबराहट व संकोच के कारण वह अपना हाथ आगे न बढ़ा पाया, बल्कि ख़्याल मात्र से उसके शरीर में एक झुरझुरी-सी दौड़ गयी।

यकायक अरुणा का हाथ आगे बढ़ा तो उसने लपककर थाम लिया। अरुणा के नरम-नरम हाथों का स्पर्श उसे बहुत अच्छा लगा। दोनों ने हाथों को मज़बूती से बाँध लिया। खुले, नीले, ऊँचे आकाश में, ऊँची-ऊँची पहाड़ियों के ऊपर उड़कर, ज़मीन, नाले-नदियों को देखना, वाह! कितना सुन्दर....बाक़ी सब कितने छोटे हो गये।

अचानक तेज आँधी के साथ तूफ़ान आ गया। दोनों परिश्रम के साथ तूफ़ान से लड़ने लगे....हे भगवान, तेज तूफ़ान के कारण उसके पंखों ने काम करना बंद कर दिया....गूगल की चीख निकल गयी। अचानक आँख खुली तो उसने देखा, माँ उसे प्यार से जगा रही थी।

‘क्या बात है गूगल, कोई स्वप्न देख रहा था क्या?’ माँ ने प्यार से उसकी पीठ को थपथपाया।

‘हाँ माँ, सपना ही देख रहा था....।’

‘अच्छा या बुरा...?’

‘अच्छा, बार-बार रक्तदान करने का सपना, सुख की अनुभूति करने का सपना...।’

गूगल ने अपने अधूरे सपने की बात माँ को बतायी। अरुणा के साथ आकाश में उड़ने, तूफ़ान आने की बात उसने गुप्त रखी।

‘चलो बेटा उठकर झटपट तैयार हो जाओ। आज तुम्हारे पापा को ज्वर चढ़ा है। इसलिये तुझे ही दुकान का काम सँभालना है।’

‘ठीक है माँ’, कहते हुए गूगल ने तेज़ी से बिस्तर छोड़ दिया।

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