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बना रहे यह अहसास - 10 - अंतिम भाग

बना रहे यह अहसास

सुषमा मुनीन्द्र

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पंचानन अस्पताल न जाकर होटेल आया। अपने कमरे में गया। एहतियात से रखे अम्मा के हस्ताक्षरयुक्त विदड्रावल फार्म को थरथराती ऊॅंगलियों से थाम लिया। फार्म में अम्मा का कातर चेहरा नजर आने लगा। उनका युग, उनकी जिंदगी, उनके अभाव का बोध हुआ। ऊॅंगली के पोर से हस्ताक्षर को छुआ। लगा उसके भीतर आज भी वह पुत्र मौजूद है जो सरस के मार्गदर्शन में खो गया था। उसने फार्म को चिंदी-चिंदी कर डस्टबिन में फेंक दिया। चमत्कार सा हुआ। लगा छाती पर भार था जो ठीक अभी उतर गया। स्नायुओं का खिंचाव, मस्तिष्क पर पड़ता दबाव, व्यवहार में आ गई स्वार्थपरता, स्वर में आ गई रूढ़ता ठीक अभी खत्म हो गई है। पहली बार जान रहा है कर्तव्य भावना मनुष्य को सहज, सरल, सामान्य बनाये रखने में सहायता करती है। जीवन को गति देती है। व्यवहार की स्वाभाविकता बनी रहती है।

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जीवन को गति देती है। प्रकृति प्रदत्त स्वभाव की स्वाभाविकता को बचाये रखते हुये लोक व्यवहार में आशातीत सुधार कर देती है।

पंचानन ने नम आँखें पोंछी। चेहरे पर पसीज रही हथेली फेरी। जैसे चेहरे को स्वाभाविक स्पर्श देना चाह रहा हो। तत्काल अस्पताल की ओर चल पड़ा। होटेल से अस्पताल जैसे उड़ कर पहुँच गया।

अम्मा को रूम में शिफ्ट किया जा चुका है। सनातन के मोबाइल पर काँल किया। वह अम्मा के रूम से कैन्टीन में आ गया था। अम्मा के पास यामिनी थी। पंचानन ने यामिनी के मोबाइल पर काँल किया। यामिनी पर्ची लेकर लाँबी में आई। पंचानन के पूरी तरह उतरे हुये चेहरे को देखा। असमंजस में पड़ गई -

‘‘पंचानन सब ठीक है न ? डाँक्टर क्या बोले ?’’

‘‘बोले ठीक समय पर अम्मा को यहाँ ले आये। सर्जरी बहुत अच्छी है। पर्ची दो।’’

यामिनी को पंचानन किसी सोच में लिप्त लगा।

‘‘पंचानन, तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है क्या ? सर्जरी का कुछ छिपा तो नहीं रहे हो ?’’

‘‘नहीं। तुम होटेल में आराम करो। मैं अम्मा के पास रहूँगा।’’

यामिनी, पंचानन को पर्ची देकर चली गयी।

पंचानन अम्मा के रूम में आया।

उसे अम्मा का सामना करने में झिझक हो रही थी। अम्मा अपने जमीनी अनुभव से हम लोगों के व्यवहार को भलीभाँति समझ गई होंगी। कैसी असहायता से गुजरी होंगी। उसने एक दूरी से अम्मा को देखा। वे बहुत कातर, थकी, अकेली सी लगीं। उसे इस तरह देखने लगीं जैसे पहली बार देख रही हैं। यह जैसे उन्हें एक जीवन मिला है, जिसके मिलने पर विश्वास नहीं कर पा रही हैं। वे उसे निरंतर देख रही हैं। निर्मिमेष।

पंचानन। सबसे छोटी संतान। छोटी संतान पर बहुत ममता होती है। इसने और सनातन ने बहुत दौड़-भाग की। दोनों के काम का नुकसान हुआ। इतने दिन से परदेस में पड़े हैं। पता नहीं बेचारे क्या खाते-पीते हैं ? दोनों गुस्सैल हैं पर साथ न देते तो घर में किसी रात सोतीं, सुबह शोर मचता अम्मा नहीं रहीं। इच्छा हुई कहें - पंचानन तुम्हारा अहसान न भूलेंगे। अधर थरथरा कर रह गये। इच्छा हुई पूँछें - अस्पताल से छुट्टी कब मिलेगी ? घर की याद आ रही है। अधर बोलना भूल गये हैं। वाणी कंठ में अटकी है। छुट्टी कब मिलेगी ? सुनते ही पंचानन भड़क सकता है मुझे क्या पता ? मैं डाँक्टर नहीं हूँ जो बताऊॅं छुट्टी कब मिलेगी।

अम्मा देख रही हैं पंचानन उनके समीप आ रहा है। उन्हें देख रहा है। देखने में कोमल भाव है। समीप आकर उसने अम्मा का हाथ थाम लिया -

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‘‘घर चलोगी अम्मा ?’’

अधर आज साथ नहीं देंगे। अम्मा ने सहमति में सिर को जुम्बिश दी।

‘‘डाँक्टर से पूँछता हूँ, कब जाने को कहते हैं।’’

अम्मा ने संकेत में कहा - ठीक है।

‘‘तत्काल में रिजर्वेशन करा लूँगा। तुम्हें बडे् आराम से ले जाना पड़ेगा। साल-छः महीने तुम्हारा बहुत ध्यान रखना पड़ेगा। एकदम टन्न मन्न हो जाओगी।’’

अब वाणी ने अपना कर्तव्य किया -

‘‘तुम सब हो बेटा, हम क्यों फिकिर करें ? कुछ खाया तुमने ? दुबले हो गये हो।’’

‘‘जब पूँछोगी, खाने का पूँछोगी। तुम्हें भोजन के अलावा दूसरी बात करना नहीं आता।’’ कहते हुये पंचानन उनका हाथ थपकने लगा।

अम्मा ने खिड़की के बाहर खुलेपन को देखा। जैसे अपने जीवित होने का परीक्षण कर रही हैं।

पंचानन को देखा । जैसे उसके व्यवहार में हुये परिवर्तन की वजह ढूँढ़ रही हैं। उसके स्पर्श को भरपूर महसूस किया। आत्मीय स्पर्श है। ऐसे स्पर्श को तरसी हैं। उसके मीठे बोल को भरपूर महसूस किया। भले लगने वाले बोल को तरसी हैं। उनका दिल भर आया। उन्होंने छाती पर हाथ रख लिया। आँखें भर आईं। उन्होंने आँखें मूँद लीं। आँखों में आँसू हैं। दिल में प्रार्थना ......... बना रहे यह अससास .....................।

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सुषमा मुनीन्द्र

द्वारा श्री एम. के. मिश्र

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