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गवाक्ष - 38

गवाक्ष

38==

कॉस्मॉस के लिए प्रेम सरल था, संघर्ष कठिन!उसने सोचा यदि वह प्रोफ़ेसर को संघर्ष की भावना से प्रेम की भावना पर ले जा सके तब संभवत:वह आसानी से इस जीवन को समझ सकेगा। यकायक ऊपर अधर में चक्कर काटते हुए कुछ पृष्ठ इस प्रकार से आकर जमने लगे जैसे किसी ने उन्हें एक सूत्र से बांधकर नीचे उतारा हो । कॉस्मॉस ने देखा सबसे ऊपर के पृष्ठ पर लिखा था :-

'जीवन --संघर्ष !'

प्रो.श्रेष्ठी के मुख पर एक सरल मुस्कान थी ।

"आपने बताया प्रेम जीवन है, संघर्ष जीवन है । संघर्ष में कठोरता है, खुरदुरापन है जबकि प्रेम में कोमल भावना व संवेदना हैं तब जीवन को कोमल भावनाओं से क्यों न व्यतीत किया जाए? कठोर संघर्ष की क्या आवश्यकता है? "

प्रोफ़ेसर समझ गए कॉस्मॉस उनका ध्यान आडम्बर की ओर खींचने का प्रयास कर रहा है।

प्रेम की अनछुई अनुभूति से वह अभी नवीन किसलय के समान उगा है । इसीलिए वह प्रेम की कोमल अभिव्यक्ति में स्वयं को डुबा देना चाहता है, संघर्ष के कठोर कारावास में दंडित होने का भय उसे चिंतित कर रहा है । स्वाभाविक था, अभी उसने कोमल संवेदना का स्वाद लिया था ।

" कॉस्मॉस ! प्राणी मात्र के भीतर अनेकों कोमल, कठोर संवेदनाएं जन्मती हैं, वे स्वाभाविक हैं। वास्तव में प्रेम हमारा स्वभाव है, स्वभाव बदलता नहीं है । उसकी अभिव्यक्ति के तरीके भिन्न-भिन्न हैं। प्रत्येक संबंध को मोह के धागे ने जकड़ रखा है। प्रेम का जन्म मोह से होता है । संबंध के अनुसार मोह के रूपों में परिवर्तन होता रहता है। माँ गर्भ में आते हीअपने शिशु को ममता से सींचने लगती है। वह जीवनपर्यन्त प्रेम में अपनी इच्छाएं, आकांक्षाएँ, शारीरिक व मानसिक तुष्टि, धन-वैभव --सर्वस्व अपने बच्चों पर न्योछावर करती रहती है। माँ कुछ भी सहन कर सकती है, अपने बालक की परेशानी नहीं । इसी प्रकार प्रेम के सभी संबंधों में विभिन्न प्रकार की संवेदनाएं निहित हैं। "

प्रोफेसर तन्मयता से प्रेम की संवेदना में खोए हुए थे, उनके नेत्र बंद थे, वे प्रेम विषय पर धारा प्रवाह बोलते ही जा रहे थे ।

'जीवन ---प्रेम'

नामक अध्याय भी ऊपर से नीचे व्यवस्थित रूप में आकर जम गया जैसे किसी ने पृष्ठों को बहुत सहेजकर लगा दिया हो। प्रोफेसर बिना अवरोध के बोलते ही जा रहे थे।

"जैसा मैंने तुम्हें प्रेम की अभिव्यक्ति के बदलाव के बारे में बताया यह अभिव्यक्ति संबंधों के अनुसार परिवर्तित होती रहती है । प्रेम की बात करते समय हम स्वयं प्रेममय होते हैं । कॉस्मॉस जब हम प्रेममय होते हैं तब जीवन को समझना बहुत आसान हो जाता है क्योंकि हमारा जीवन प्रेम के तंतुओं से बना है । संबंध कोई भी क्यों न हो जब प्रेम की धुरी के चारों ओर घूमने लगता है तब सच्चे अर्थों में जीवन का अर्थ समझ में आने लगता है । "

"प्रोफ़ेसर!पृथ्वी पर मनुष्य इतना मोहक, इतना सुन्दर, इतना आकर्षक कैसे लगता है?"कॉस्मॉस के भीतर प्रेम की संवेदना उगनी प्रारंभ हो गई थी । उसे सत्यनिधि के आलिंगन का वह स्पर्श छूने लगा जो उसके विदा होते समय निधि ने अचानक उसे अनुभूत करा दिया था ।

"लेकिन प्रेम होता कैसे है?" उसने धीमे स्वर में प्रोफेसर से पूछ ही तो लिया ।

"जब मन में ईर्ष्या, द्वेष, बदले की भावना आदि विकार न रहें तब केवल प्रेम ही रह जाता है। मैंने तुम्हें बताया न प्रेम मनुष्य के भीतर ही तो है, उसके न होने का कोई प्रश्न ही नहीं है क्योंकि एक सामान्य मनुष्य संवेदनाओं के साथ ही जन्म लेता है ।

हाँ, अब जो तुम्हारे मन में चल रहा है, वह आकर्षण है, यह आकर्षण भी प्रेम में परिवर्तित हो सकता है, निर्भर करता है स्थितियों पर । "

" प्रेम हमारे भीतर है, प्रत्येक व्यक्ति को प्रेम चाहिए, प्रेम के बिना कोई नहीं रह सकता । कॉस्मॉस ! प्रेम सदा देने से बढ़ता है। यह चाहने से नहीं देने से होता है । इसका कोई अनुभव भी करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह हमारे भीतर ही है । जिसने हमें बनाया है, उसने हमारे भीतर अपार प्रेम भरा है। "

'क्या गोल-गोल मामला है यह प्रेम भी लेकिन जो भी है मधुर है, कोमल है !' कॉस्मॉस के चेहरे पर जैसे किसीने गुलाब खिला दिए थे। प्रोफेसर विद्य अपने में खोए हुए बिना किसी विराम के बोल रहे थे। शब्द उनके मुख से झर रहे थे और कॉस्मॉस के संवेदनशील मस्तिष्क में घुल रहे थे ।

“इस धरती पर सभी अच्छे हैं क्योंकि सब एक ही पिता की संतान हैं किन्तु जब हम अपने उस पिता के द्वारा पुरस्कृत संवेदनों का सुन्दर उपयोग करते हैं, तब अपने उन कर्मों से सुन्दर दीखते हैं न कि बाहरी टीम-टाम से ! चेहरे को विचारों का दर्पण कहा गया है। हमारे भीतर जैसे विचार होंगे, उनकी वैसी ही छबि हमारे चेहरे के दर्पण में प्रदर्शित होगी। भीतर का सौंदर्य हमारे चेहरे पर, हमारी आँखों में, हमारी भाव-भंगिमाओं में सिमट आता है। यदि हमारे भीतर प्रेम होता है तब हम दूसरों का भी ध्यान प्रेम से रखते हैं। ऐसा करने से जो संतुष्ट मुस्कुराहट की आभा हमारे चेहरों को प्रकाशित करती है, वह एक अलौकिक ज्योति होती है। उसीसे हम सुन्दर लगते हैं। इसी सुंदरता से प्रेम की निर्झरा प्रवाहित होती है। वास्तविक प्रेम अधिकार नहीं जताता, वह हमें स्वतंत्र करता है और प्रेम का पुष्प पूर्ण रूप से स्वतंत्रता में ही खिलता है। प्रेम किसी भी प्रकार की चाह से मुक्त होता है, सच्चा प्रेम वैराग्य की ऊंचाई पर जा पहुँचता है।

प्रेम नैसर्गिक भावना के कारण सहज है, प्रसन्नता है, ऊर्जा है, दिव्यता का अहसास है, इसके समक्ष सभी वस्तुएँ फीकी हैं । प्रेम निराकार है, भक्ति है, शक्ति है, अभिव्यक्ति है । प्रेम दर्शन है, वंदन है, अर्चन है, अभिनन्दन है । पेड़-पौधे भी प्रेम, स्नेह से संचित किये जाने पर खिल उठते हैं, मनुष्यों में यदि प्रेम व स्नेह की संवेदना हो तो पाने वाले व बाँटने वाले दोनों ही एक संतुष्टि के अहसास से निखर उठते हैं । प्रेम जितना गहरा होता है, उतना ही दिव्य होता है। वह हर पल हमारे साथ रहता है, हर पल मार्ग प्रशस्त करता है । प्रेम का अपेक्षा रहित समर्पण जीवन जीना सिखाता है । प्रेम माँ की कोख से जन्म लेकर अंतिम श्वांस तक हमारे हृदय की धड़कन में बसा रहता है। यह अनन्त है, आकाश की भाँति असीमित है, समुद्र की भाँति गहरा है। यह इस शरीर की समाप्ति के पश्चात भी यहाँ रहने वालों के संग बना रहता है। कॉस्मॉस बौखला उठा, प्रोफेसर चुप ही नहीं हो रहे थे ;

" सर ----छोटा सा प्रेम और----इतनी सारी बातें !"उसके मुख से निकल गया ।

विद्य हंस पड़े-

"यही तो, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय । "

"अब इसका अर्थ?"

' वही-- प्रेम !मीरा, राधा के प्रेम के विषय में कौन नहीं जानता?वर्षों बीत गए हैं और युग बीत जाएंगे किन्तु इनका प्रेम सदा यूँ ही पूजा जाता रहेगा क्योंकि वह स्वार्थ रहित था, उसमें कुछ प्राप्त करने की इच्छा समाहित नहीं थी । "

"ओहो!मैं तो इस प्रेम में गोल-गोल घूम रहा हूँ । ये मीरा, राधा कौन हैं ?"

"भारत में राम व कृष्ण जैसे महापुरुषों ने जन्म लिया जिनको आज भगवान के रूप में पूजा जाता है। कृष्ण की बात मैंने पहले बताई है न, मधुर वेणु बजाने वाले यदुवंशी कृष्ण! वही कृष्ण प्रेम के प्रतीक हैं । मीरा ने अंतर्मन से उनसे देह से परे पवित्र प्रेम किया। अपने परिवार व दुनिया की दृष्टि में चरित्रहीन कहलाईं, कृष्ण के प्रति उनके प्रेम को विगलित करने के लिए उन पर अनेकों लांछन लगे, यहाँ तककि उन्हें ज़हर तक भेजा गया जिसका उन्होंने बिना किसी हिचक के पान कर लिया किन्तु कुछ न हुआ । उनका प्रेम वैसा ही निश्छल व पवित्र बना रहा ! राधा कृष्ण की बालसखी थीं, उनके प्रेम की ऊँचाई को नकारा नहीं जा सकता । रुक्मणी कृष्ण की पत्नी थीं उनका प्रेम भी वंदनीय है, उनमें अपने पति के प्रति किसीके लिए भी ईर्ष्या प्रदर्शित नहीं होती। तात्पर्य है कि प्रेम सीमा रहित है । प्रेम का पौधा सबसे कोमल, सुन्दर व महत्वपूर्ण है जो किसी सामान्य क्यारी में नहीं दिल की क्यारी में उगता है, फलता-फूलता है । "

" तो क्या देह का प्रेम पवित्र नहीं है ?

"नहीं ऐसा नहीं है यदि मन पवित्र है तो देह का प्रेम भी पवित्र है । कभी-कभी देह का प्रेम शरीर की आवश्यकता पूर्ण होते ही समाप्त हो जाता है, वह आकर्षण होता है जो शरीर तक सीमित रह जाता है जबकि ह्रदय का प्रेम शारीरिक संबंध न होने पर भी ह्रदय के अंतर में गहरे बसा रहता है । "

" मैंने पृथ्वी पर बहुत से लोगों के मुह से सुना है कि संसार, शरीर सब असत्य है, सत्य केवल परमात्मा है जिसके पास मृत्यु के पश्चात जाना है? इसका क्या अर्थ हुआ?"

"असत्य कुछ भी नहीं है । जिस पल में हम रहते हैं, हमारा हमारा मन व मस्तिष्क कार्य करता रहता है, वह असत्य कैसे हो सकता है ?"

" यह पृथ्वी का जीवन बहुत उलझा हुआ है, हम किसी बात की तह तक पहुँच ही नहीं पाते !!"

"कोई आवश्यकता भी तो नहीं है तह तक पहुँचने की, जिस पल में रहो उसे भरपूर जीओ। वास्तव में उलझने हम स्वयं पैदा करते रहते हैं फिर किसी के भी कंधे पर रखकर बंदूक चला देते हैं । काल्पनिक भगवान को दोष देने लगते हैं । "

" काल्पनिक भगवान कैसे हैं और किसने बनाए हैं?"

" ये सब मनुष्य ने बनाए हैं"

"फिर ये प्रेम से क्यों नहीं रहते ? क्यों एक- दूसरे से किसी न किसी बहाने झगड़ते रहते हैं ?रक्तपात करते रहते हैं? "

" हम सब प्रकृति की संतान हैं, एक ही प्रकार से जन्मते हैं किन्तु जबसे समाज का अस्तित्व हुआ है, उसमें बँटवारे हुए, इससे मनुष्य मनुष्य से विलग हो गया और मनुष्यता के स्थान पर विभिन्न जातियों व धर्मों ने पैर पसार लिए। इससे धर्मों में बल्कि यह कहें कि एक-एक धर्म में भी विभिन्न शाखाएं वितरित हो गईं । "

"इसकी आवश्यकता थी क्या?"

" नहीं, कोई आवश्यकता नहीं होती । मनुष्य है अच्छाई-बुराईयों का मिश्रण उसकी फ़ितरत है कि वह केवल स्नेह व प्रेम से शांत नहीं बैठ सकता। उसके मस्तिष्क में थोड़े-थोड़े समय में कुछ न कुछ खुराफात चलती रहती हैं, फिर वह अपनी आदतों से लाचार हो जाता है और 'अपने अहं' की तुष्टि के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहता है। पंडित वर्ग अपनी धन की गंगा में गोते लगाने की ताक में मूर्खों को और मूर्ख बनाते रहते हैं, यह नहीं किया तो यह अनर्थ हो जाएगा, वह नहीं किया तो वह अनर्थ हो जाएगा । हम, इस धरती के वासी इतने मूर्ख बनने लगते हैं कि अपने पिता उस भीतर के ईश्वर की बात न सुनकर पंडों, महंतों, मौलवियों की बातों में आकर अपने जीवन का बहाव उनकी दिशा-निर्देश की ओर मोड़ देते हैं, और अपने प्रेमिल जीवन को छोड़कर स्वार्थ व अंधविश्वासों में उतारते चले जाते हैं । क्या -क्या बताऊँ तुम्हें ? यह जीवन के अनुभव की बात है । "

दूत ने देखा कुछ और पृष्ठ नीचे आकर अन्य पृष्ठों के साथ व्यवस्थित रूप में जम गए थे ।

क्रमश..