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गूगल बॉय - 15

गूगल बॉय

(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)

मधुकांत

खण्ड - 15

गूगल की मित्र अरुणा ने भी रक्तदान का प्रचार-प्रसार करने के लिये एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रखा था। पिछले सप्ताह से वह मन्दिर के पुजारी से मिलकर प्रतिदिन सत्संग में जाकर महिलाओं के बीच रक्तदान की चर्चा करती। प्रारम्भ में तो एक-दो महिलाओं का ही समर्थन मिला, कुछ ने खुलकर विरोध भी किया। अरुणा उन लोगों में से नहीं थी जो विरोध का सामना नहीं कर पाते और निराश होकर बीच में ही मैदान छोड़ जाते हैं। वह तो अपने मित्र गूगल की भाँति दृढ़ निश्चय तथा विश्वास से परिपूर्ण युवती थी। उसने पुजारी जी की सहायता ली। धीरे-धीरे सत्संग में आने वाली महिलाओं की सोच बदलने लगी।

अरुणा सोचती थी कि सत्संग में आने वाली अधिकांश महिलाएँ वृद्ध हैं तथा धर्म-भीरु हैं। इन्हें धर्म के माध्यम से आसानी से रक्तदान के समर्थन में लाया जा सकता है। उसने पुजारी जी से विचार-विमर्श के बाद सत्संग में रक्तनारायण कथा की योजना बनायी। यूँ तो अरुणा या पुजारी जी भी कथा पढ़ सकते थे, परन्तु बाहर के संत पुरुष का अधिक प्रभाव पड़ेगा, यह सोचकर शहर के मन्दिर से महामण्डलेश्वर स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी को बुलाने की व्यवस्था की गयी।

रक्तनारायण कथा का खूब प्रचार किया गया। परिणाम यह हुआ कि कथा सुनने वाली महिलाओं की संख्या इतनी बढ़ गयी कि मन्दिर का प्रांगण छोटा पड़ गया।

कथा-वाचक महामण्डलेश्वर स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी ने विधि-विधान के साथ कथा का श्रीगणेश किया।

श्री रक्तनारायण कथा: पूजा सामग्री: धूप-दीप, तुलसी-दल, श्री-फल, लाल गुलाब की पुष्पमाला, पाँच ऋतु-फल, कलश, लाल सिन्दूर, प्रसाद, गुड़-चना, दूध, शर्बत आदि के द्वारा कथा का आरम्भ हुआ।

स्वैच्छिक रक्तदान करने वाला प्राणी स्नान आदि से निवृत्त होकर अपने पूजा के आसन पर बैठकर श्रीगणेश, गौरीशंकर तथा रामभक्त हनुमान जी आदि सब देवताओं का पूजन करे और मन में संकल्प करे कि मैं रक्तनारायण कथा का वाचन व श्रवण सदा करूँगा।

मुख से भी बोले - हे रक्तनारायण भगवान, मैंने श्रद्धापूर्वक फल, फूल आदि सब सामग्री आपको अर्पण की है, इसे स्वीकार करें। आने वाली विपत्तियों से मेरे परिवार की रक्षा करें। मेरा आपको बारम्बार नमस्कार। जय रक्तदाता!

यह बोलो रक्तनारायण की।

॥ श्री रक्तनारायण कथा॥

(प्रथम अध्याय)

नैमिषारण्य तीर्थ में शौनिकादि अट्ठासी हज़ार ऋषियों ने श्री सूत जी से पूछा - हे प्रभु, इस कलियुग में वेद-विद्या रहित, संस्कारहीन मनुष्यों का उद्धार कैसे होगा? इसलिये हे मुनि श्रेष्ठ, कोई ऐसा उपाय कहिए, जिससे कम समय में पुण्य होवे तथा मनोवांछित फल मिले। ऐसी कथा सुनने की हमारी बहुत इच्छा है।

सर्वशास्त्रज्ञाता श्री सूत जी बोले - हे ऋषियो! आप सब ने सर्व प्राणियों के हित की बात पूछी है। मैं आप सबके सम्मुख इस श्रेष्ठ कार्य का वर्णन करूँगा। जिस कार्य के करने के विषय में नारद जी ने श्री लश्मीनारायण से पूछा था और उन्होंने मुनि श्रेष्ठ नारद जी को बताया था। आज उसी कार्य करने के विषय में मैं आपको बताता हूँ, ध्यान से सुनो।

एक बार योगीराज नारद जी अनेक लोकों में घूमते हुए मृत्यु-लोक में आ पहुँचे। वहाँ पर अनेक योनियों में जन्मे प्राणियों को अपने-अपने कर्मों के अनुसार दु:खों से पीड़ित देखकर सोचा, कैसे इनके दु:खों का अन्त हो, ऐसा सोचकर वे विष्णु-लोक में गये।

वहाँ श्वेतवर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के इष्ट स्वयं नारायण जिनके हाथों में शंख, गदा, चन्द्र और पद्म थे तथा गले में वनमाला थी, के दिव्य स्वरूप को देखकर नारद जी उनकी स्तुति करने लगे। हे भगवन्, आप अत्यन्त सर्वशक्तिमान हैं, आपका न आदि है, न मध्य और न अन्त। निर्गुण स्वरूप, सृष्टि के आदि भूत विष्णु भगवान बोले - ‘हे देवऋषि, आपका यहाँ किस काम से आगमन हुआ है, नि:संकोच कहिए।

नारद जी बोले - ‘हे भगवन्! मृत्यु-लोक में सभी प्राणी अनेक योनियों में पैदा हुए हैं। वे अपने-अपने कर्मों के द्वारा अनेक प्रकार के दु:ख भोग रहे हैं। हे नाथ! मुझ पर दया रखते हो तो यह बताने की कृपा करें कि थोड़े से प्रयत्न द्वारा उनके दु:ख कैसे दूर हो सकते है।

श्री भगवान जी बोले - हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिये तुमने यह बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस श्रेष्ठ कार्य के करने से मनुष्य का कल्याण हो जाता है, वह मैं बताता हूँ। ध्यान से सुनो, क्योंकि वह कार्य बहुत पुण्य देने वाला है। स्वर्ग तथा मृत्यु-लोक दोनों में इसे महादान का नाम दिया गया है। आज मैं प्रेमवश होकर तुमसे कहता हूँ। श्री रक्तनारायण जी की कथा को अच्छी प्रकार श्रवण या वाचन करने से तुरन्त ही इस संसार में सुख तथा मरने के बाद मोक्ष प्राप्त होता है।

श्री भगवान जी के वचन सुनकर नारद मुनि जी बोले - हे भगवन्, यह महादान क्या है, इसका विधान क्या है, इसके करने से क्या लाभ होता है, कृपया विस्तार से समझायें।

हे नारद, रक्तदान करना तथा कराना ही महादान कहलाता है। रक्तदानी को भगवान अपना परम भक्त मानते हैं। भक्ति के नौ मार्ग हैं - श्रवण, कीर्तन, स्मरण, चरणसेवा, वन्दना, अर्चना, दास्यभाव, सख्यभाव, आत्मनिवेदन। आधुनिक युग में मनुष्य-कल्याण के लिये पाँच श्रेष्ठ सूत्र हैं - सम्पर्क, सहयोग, संस्कार, सेवा, समर्पण। इन पाँचों में से मनुष्य किसी एक सूत्र को भी अपना लेता है तो उसका कल्याण हो जाता है।

भगवन्, इन पाँचों में कौन-सा सर्वश्रेष्ठ है, मुनि जी ने प्रश्न किया।

मुनि जी, सेवा का प्रकल्प सबसे महान है। सेवा में भी रक्तदान सेवा करना सबसे बड़ी बात है। इसके करने से मन आनन्द से भर जाता है। लाल वस्तु का दान करने से शनि और मंगल की दशा कल्याणकारी हो जाती हैं तथा रक्तदान करने वाले व्यक्ति में चुस्ती आ जाती है।

॥इतिश्री॥

(रक्तनारायण कथा प्रथमो अध्याय समाप्तम्)

॥द्वितीय अध्याय॥

हरियाणा प्रदेश की सांपला नगरी में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था। एक दिन सुबह-सुबह उसके द्वार पर एक महात्मा आया और बोला - हे कुलश्रेष्ठ ब्राह्मण! तुम्हारी मृत्यु किसी दुर्घटना में अधिक रक्त बह जाने के कारण होगी। इसलिये तुम्हें सावधान रहना चाहिए। भयभीत ब्राह्मण ने पूछा - महाराज, आप बहुत ज्ञानी हैं। इसका कोई उपाय बतायें। महात्मा ने कहा - आप बहुत विनम्र हैं, इसलिये आपको उपाय बताता हूँ। रक्तदान महादान होता है। उसके करने से सभी दुर्घटनाएँ हट जाती हैं। इसलिये जय रक्तदाता का जाप करते हुए रक्तदान करें, प्रभु आपके जीवन की रक्षा करेंगे।

घर के अन्दर जाकर उसने यह घटना सभी परिवार वालों को बतायी और उसी दिन उसने ब्लड-बैंक जाकर अपने परिवार के साथ रक्तदान किया। अगले माह शहर में यजमान से दान दक्षिणा लेकर वह बस से गाँव लौट रहा था तो नदी के पुल पर बस ट्रक के साथ टकरा गयी। टक्कर बहुत तेज थी। अनेक यात्री घायल हुए, परन्तु पंडित जी खिड़की खुली होने के कारण नदी में जा गिरे। उन्हें तैरना आता था, इसलिये वे तैर कर नदी से बाहर आ गये। उनको खरोंच तक नहीं आयी। उन्हें महात्मा जी की कही बात स्मरण हो आयी। मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया। आज रक्तदान के कारण ही उनकी जान बच गयी। तब से उन्होंने प्रत्येक तीन मास बाद रक्तदान करने का निश्चय कर लिया।

इस प्रकार जो भी इंसान रक्तनारायण भगवान के लिये रक्तदान करेगा, वह सब पापों से दूर होकर मोक्ष को प्राप्त करेगा।

ऋषि बोले - हे मुनिवर, मैं आपको एक कथा सुनाता हूँ। एक ब्राह्मण नवयुवक शहर में रक्तदान करके अपने गाँव जा रहा था तो एक पेड़ के नीचे बैठे लकड़हारे से मिला। उसने उसे बताया कि मैं शहर में रक्तदान करने गया था। लकड़हारे ने पूछा - रक्तदान करने से क्या लाभ होता है और क्या मैं भी रक्तदान कर सकता हूँ? ब्राह्मण ने उसे समझाया - तुम तो तंदुरुस्त हो, अवश्य रक्तदान कर सकते हो। इससे तुम्हारी मनोकामनाएँ पूरी होंगी, तुम्हारा घर ख़ुशियों से भर जायेगा।

लकड़हारे ने भी मन-ही-मन संकल्प लिया कि सब लकड़ियाँ बेचने के बाद मैं भी रक्तदान करूँगा। मन में यह विचार कर वह अपनी लकड़ियों को सिर पर रखकर सुन्दरनगर की ओर चल पड़ा। भगवान रक्तनारायण की कृपा से शहर में जाते ही एक साधु ने सारी लकड़ियाँ अपने हवन के लिये ख़रीद लीं और उसको लकड़ियों का चौगुना दाम देकर साधु चला गया।

॥इतिश्री॥

(द्वितीय अध्याय समाप्तम्)

॥तृतीय अध्याय॥

सूत जी बोले - हे श्रेष्ठ मुन्नियो! अब आगे वर्तमान की कथा आपको सुनाता हूँ। सुनो, रोहतक से खरावड़ के बीच मुख्य राजमार्ग पर स्थित श्री हनुमान मन्दिर में श्री हनुमान जयंती के पावन अवसर पर वहाँ भव्य कार्यक्रम होता है। प्रात: चार बजे से नर-नारी पैदल चलकर बजरंगबली के दर्शन करते हैं। कई वर्षों से वहाँ रक्तदान शिविर लगाया जाता है। बजरंगबली रक्तदानियों का सदैव मंगल करते हैं। ऐसा माना जाता है कि लाल सिंदूर को चाहने वाले हनुमान जी रक्तदानियों पर विशेष कृपा करते हैं, क्योंकि वे बिना लोभ-लालच के हँसते-हँसते एक अनजान प्राणी के लिये अपने शरीर का अंश निकालकर अर्पण कर देते हैं।

रक्तदान शिविर के समीप एक भद्रपुरुष ने अपनी गाड़ी रोकी। उसके हाथ में लड्डुओं की एक थैली थी। उसने कहा, भाई मैंने सवामणि लड्डुओं का प्रसाद बनाया है। हनुमान जी को भोग लगाकर मैं भक्तों में प्रसाद बाँटना चाहता हूँ, परन्तु यहाँ तो इतनी लम्बी लाइन है, हनुमान जी तक पहुँचना भी सम्भव नहीं है।

शिविर आयोजकों ने कहा - हनुमान जी रक्तदानियों से बहुत प्यार करते हैं, इसलिये अपना प्रसाद रक्तदानियों में बाँट दो, परन्तु वह अनमना-सा खड़ा रहा। तभी अचानक एक बन्दर आया और उसके हाथ से लड्डुओं की थैली छीनकर ले गया। सभी बन्दर को देखने लगे। वह मन्दिर की चोटी पर बैठकर लड्डू खाने लगा। सब हँसने लगे और कहने लगे, कमाल हो गया बजरंगबली आपका प्रसाद लेने खुद आ गये। यह रक्तदान का कमाल है।

आप सब ठीक कहते हैं रक्तदानी भाइयो। अब ये सारे लड्डू रक्तदानियों में बाँट देना। आज तो मैं जल्दी में हूँ, जब भी मौक़ा लगेगा, मैं भी रक्तदान अवश्य करूँगा, कहते हुए वह अपनी गाड़ी में बैठकर चला गया। डिब्बों में बंद देसी घी के लड्डुओं की सुगन्ध चारों ओर फैलने लगी। उस सज्जन ने बजरंगबली की सवामणि लगाते हुए यह मनोकामना की थी कि मुझे सुयोग्य संतान की प्राप्ति हो। घर आकर उस साधु नाम के वैश्य ने यह घटना अपनी पत्नी लीलावती को सुनायी। एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर रक्तनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गयी तथा दसवें महीने उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया। दिन-प्रतिदिन वह इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम कलावती रखा गया।

एक दिन लीलावती ने अपने पति से कहा कि आपने जो रक्तदान शिविर लगाने का संकल्प किया था, अब उसे पूरा कीजिए। पति बोला - हे प्रिय, मैं इसके विवाह पर विशाल रक्तदान शिविर लगाऊँगा। पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर में चला गया। लौटकर आया तो उसने अपनी पुत्री को सखियों के साथ देखा तो उसने तुरन्त एक दूत को बुलाकर कहा कि मेरी पुत्री के लिये सुयोग्य वर देखकर लाओ। अपने स्वामी की आज्ञा पाकर दूत कंचननगर पहुँचा और वहाँ पर बड़ी खोज और देखभाल कर पुत्री के लिये सुयोग्य बणिक पुत्र को ले आया। उस सुयोग्य और हृष्टपुष्ट लड़के को देखकर साधु ने अपने भाई-बन्दुओं सहित प्रसन्नचित्त अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया, किन्तु दुर्भाग्य से विवाह के समय भी रक्तदान शिविर लगाना भूल गया। तब रक्तनारायण भगवान क्रोधित हो गये और श्राप दे दिया कि तुम्हें दारुण दु:ख प्राप्त हो। अपने काम में कुशल साधु बनिया अपने जमाई सहित समुद्र के समीप रतनपुर नगरी पहुँचा और दोनों ससुर-जमाई राजा चन्द्रकेतु के नगर में व्यापार करने लगे।

एक रोज़ भगवान रक्तनारायण की माया से प्रेरित कोई चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था, किन्तु पीछा कर रहे दूतों को देखकर उसने घबराकर धन को चुपचाप वहाँ रख दिया जहाँ ससुर-जमाई ठहरे हुए थे। राजा के दूतों ने वैश्य के पास राजा के धन को देखकर दोनों को बंधक बना लिया और प्रसन्नता से दौड़ते हुए गये और राजा को शुभ समाचार देते हुए बोले - हे राजन! ये वे व्यक्ति हैं जिनके पास से चोरी का धन प्राप्त हुआ है। आज्ञा दें कि इनको क्या दंड दिया जाये। राजा की आज्ञा से दोनों ससुर-जमाई को कारागार में डाल दिया गया और उनका सारा धन राजा ने छीन लिया। भगवान रक्तनारायण के श्राप के कारण ही साधु वैश्य की पत्नी भी घर पर बहुत दु:खी हुई। उसके पास घर में जो धन था, उसे चोर चुराकर ले गये। शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दु:खी अन्न की चिंता में कलावती एक ब्राह्मण के घर गयी। वहाँ रक्तनारायण की कथा चल रही थी। उसने वह कथा सुनी और गुड़-चने का प्रसाद ग्रहण किया। घर आयी तो माता ने कलावती से पूछा - हे पुत्री, सारा दिन तू कहाँ रही व तेरे मन में क्या है? कलावती बोली - हे माता, मैंने पड़ोस में रक्तनारायण की कथा को सुना। कन्या के वचन सुनकर लीलावती रक्तदान शिविर की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार और बन्धुओं सहित शंकर भगवान का पूजन किया और इच्छा प्रकट की कि मेरे पति और दामाद शीघ्र घर आ जावें। हमारी भूल को क्षमा करें। उनके लौटते ही सारा परिवार मिलकर रक्तदान शिविर लगायेंगे। रक्तनारायण भगवान प्रसन्न हो गये और राजा चन्द्रकेतु को स्वप्न में दिखायी देकर कहा - हे राजन, दोनों बंदी वैश्य व्यापारी हैं, वे चोर नहीं हैं। प्रात: होते ही उनको छोड़ दो और उनका सारा धन जो तुमने ज़ब्त किया है, उनको लौटा दो, नहीं तो तुम्हारा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट कर दूँगा। राजा को ऐसा कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये। प्रात:काल राजा चन्द्रकेतु ने राजसभा में अपना स्वप्न सुनाया। दोनों बणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर राजसभा में बुलाया गया। दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया। राजा मीठे वचनों से बोले - हे महानुभावो! भाग्यवश आपको ऐसा कठिन दु:ख प्राप्त हुआ, किन्तु अब कोई भय नहीं। ऐसा कहकर राजा ने उनको नये वस्त्राभूषण पहनाकर तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दोगुना धन देकर विदा किया। दोनों वैश्य प्रसन्नचित्त अपने घर को चल दिये।

॥इतिश्री ॥

(तृतीय अध्याय समाप्तम्)

॥चतुर्थ अध्याय॥

सूत जी बोले - वैश्य ने मंगलाचार करके यात्रा आरम्भ की और अपने नगर की ओर चले। थोड़ी दूर पहुँचने पर दण्डी वेशधारी रक्तनारायण भगवान ने उनसे पूछा - हे वैश्य, तेरी नाव में क्या है? अभिमानी बणिक हँसता हुआ बोला - हे दण्डी, आप क्यों पूछते हो? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल और पत्ते आदि भरे हुए हैं। वैश्य के कठोर वचन सुनकर भगवान ने कहा - तुम्हारा वचन सत्य हो। ऐसा कहकर दण्डी वहाँ से चला गये और कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गये। दण्डी के जाने के बाद वैश्य नित क्रिया करने के बाद नाव को ऊँची उठी देखकर अचम्भित हुआ। नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। कुछ समय पश्चात् मूर्च्छा खुलने पर शोक करने लगा। तब उसका दामाद बोला कि आप शोक न करें, यह दण्डी का श्राप है। अतः उनकी शरण में चलना चाहिए, तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी। दामाद के वचन सुनकर वह दण्डी के पास पहुँचा। अत्यन्त व्याकुल व शोकाकुल होकर रोने लगा। दण्डी भगवान बोले - हे बणिक पुत्र, मेरी आज्ञा से तुम्हें बार-बार दु:ख प्राप्त हुआ है। तू अपने वायदे से विमुख हुआ है। साधु बोला - हे भगवन्, आपकी माया से मोहित ब्रह्मा आदि भी आपके रूप को नहीं जानते तो मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ? आप प्रसन्न हों जिससे मैं घर पहुँचते ही अपनी सामर्थ्य के अनुसार रक्तदान शिविर लगा सकूँ। उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर भगवान प्रसन्न हो गये। उसकी इच्छानुसार वर देकर अन्तर्ध्यान हो गये। उसने अपनी नाव पर जाकर देखा तो नाव धन से परिपूर्ण थी। भगवान को प्रणाम कर अपने नगर की ओर चल पड़े। नगर के निकट पहुँच कर दूत को घर भेजा। दूत ने घर जाकर उसकी पत्नी को नमस्कार कर कहा कि स्वामी अपने दामाद सहित नगर के समीप आ गये हैं। ऐसा वचन सुनकर लीलावती ने बड़े हर्ष के साथ रक्तनारायण भगवान का पूजन कर पुत्री से कहा - मैं तेरे पिता जी को मिलने जा रही हूँ, तुम रक्तदानियों के लिये गुड़-चने की पंजीरी बनाकर शीघ्र आना। माता के वचनों को सुनकर कलावती भी प्रसाद बनाना छोड़कर अपने पति से मिलने चल पड़ी। प्रसाद की अवमानना के कारण रक्तनारायण जी ने रुष्ट होकर उसके पति की नाव को पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को न देखकर रोती हुई ज़मीन पर गिर पड़ी। इस तरह बेटी को दु:खी देखकर साधु दु:खी होकर बोला - हे प्रभु, मुझ से और मेरे परिवार से जो भी भूल हुई हो, उसे क्षमा करें। उसके दीन वचनों को सुनकर रक्तनारायण खुश हो गये और आकाशवाणी हुई - हे वैश्य, तेरी कन्या मेरा प्रसाद बीच में छोड़कर आयी है। इसलिये इसका पति अदृश्य हुआ है। वह घर जाकर प्रसाद तैयार करके लौटे तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा। आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर जाकर रक्तदानियों के लिये प्रसाद बनाया, फिर उसने आकर अपने पति के दर्शन किये।

साधु के परिवार के सब लोग प्रसन्न हुए। साधु ने अपने बन्धु, बांधवों सहित रक्तदान शिविर लगाया। तब से वह हर पूर्णिमा और संक्रांति को अलग-अलग स्थानों पर रक्तदान शिविर लगाने लगा और इस लोक के सम्पूर्ण सुख भोगकर स्वर्ग को चला गया।

॥इतिश्री॥

(चतुर्थ अध्याय समाप्तम्)

॥पंचम अध्याय॥

सूत जी बोले - हे ऋषियो, मैं कल्पना के आधार पर एक कथा कहता हूँ। सुनो! मेघनाथ के शक्तिबाण से जब लक्ष्मण जी घायल हो गये तो रक्त अधिक निकल जाने के कारण वैद्य जी ने निवेदन किया - हे राम! लक्ष्मण जी को ‘बी-नेगेटिव रक्त’ की सख़्त आवश्यकता है। प्रात: सूर्य निकलने से पहले यह रक्त आना चाहिए। आसपास के ब्लड-बैंकों में यह रक्त नहीं मिलेगा। यह केवल सुमेरु पर्वत पर स्थित ब्लड-बैंक में मिलेगा। वहाँ से संजीवनी अर्थात् रक्त लाने का कार्य हनुमान जी ही कर सकते हैं। श्री राम भक्त हनुमान जी तुरन्त तैयार हो गये।

हनुमान जी ने सुमेरु पर्वत पर जाकर देखा, रक्तशाला का सहायक वहाँ नहीं था। सभी थैलियों में एक ही प्रकार का (लाल रंग) का रक्त भरा है। हनुमान जी की समझ में नहीं आया कि कौन-सी थैली वाला रक्त लेकर जाना है। अतः वे पूरी रक्तशाला ही उठा लाये। वैद्य जी ने उसमें से ‘बी-नेगेटिव रक्त’ लेकर लक्ष्मण जी के शरीर में रक्त चढ़ाया तो कुछ ही देर में लक्ष्मण जी ने आँखें खोल दीं। हनुमान जी का आभार प्रकट करते हुए श्री राम जी ने कहा - प्रिय हनुमान, तुमने किसी अनजान रक्तदाता के रक्त से मेरे प्रिय भ्राता की जान बचायी है, इसलिये आज से सभी रक्तदान करने वाले प्राणियों पर मेरी विशेष अनुकम्पा रहेगी। रक्तदान के विषय में जो ग़लत प्रचार करेगा, श्री रक्तनारायण भगवान उससे रुष्ट हो जायेंगे।

जो मनुष्य रक्तदान जैसा महादान करेगा, भगवान की कृपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी होगा, बंदी बंधन से मुक्त होगा, संतानहीन को संतान की प्राप्ति होगी, सब मनोरथ पूर्ण होकर अन्त में बैकुंठ धाम को जायेगा।

जिन्होंने पहले इस कथा का गुणगान किया है, उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष को प्राप्त हुआ। उल्खागुम नाम का राजा दशरथ बनकर बैकुंठ गया। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष प्राप्त किया। महाराजा तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान के भक्तियुक्त कर्म करके मोक्ष प्राप्त किया।

प्रत्येक मनुष्य अपनी राशि को ध्यान में रखकर रक्तदान करे तो अधिक फलदायक और कल्याणकारी होता है। अपने प्रियजन के लिये रक्तदान करने की बजाय स्वैच्छिक रक्तदान करना अधिक लाभकारी होता है। उससे सम्पूर्ण घर में सुख, शान्ति, यश व बल की वृद्धि होती है। रक्तदान करने से पूर्व प्रत्येक रक्तदाता को सात बार ‘जय रक्तदाता’ का जाप करना चाहिए, इससे दोगुना फल प्राप्त होता है।

राशि दिन लाभ

मेष, वृश्चिक सोमवार धन की वृद्धि

वृषभ, धनु मंगलवार संतान सुख

मिथुन, मकर बुधवार स्वास्थ्य का लाभ

कर्क, कुम्भ वीरवार बुद्धि का विकास

सिंह, मीन शुक्रवार यश की प्राप्ति

कन्या, तुला शनिवार परिवार में शान्ति

प्रत्येक राशि रविवार संबंधों में वृद्धि

सनातनधर्म के श्रेष्ठ देवी-देवताओ, मैंने आपके द्वारा रचित प्राणियों को जीवन-रक्षा के लिये श्री सत्यनारायण भगवान की व्रत-कथा में परिवर्तन करके रक्तदान की जागरूकता बढ़ाने का अकिंचन प्रयास किया है। सभी देवताओं तथा भक्तों से क्षमायाचना सहित जन-जन से इस कथा का श्रवण व वाचन का अनुरोध है।

॥इतिश्री॥

(पंचम अध्याय समाप्तम्)

सभी भक्तजन आरती के लिये खड़े हो जायें।

जय श्री रक्तदाता

ओम जय श्री रक्तदाता, प्रभु जय श्री रक्तदाता

पीड़ित जनों के संकट, क्षण में हर जाता - ओम....

रक्त जो मुझमें बहता, सारा है तेरा - प्रभु....

तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा - ओम...

तुम बिन और न सूझे, जब है रक्त चाहता - प्रभु...

तुम्हारा दान मिले तो जीवन बच जाता - ओम....

जितना रक्त इस जग में, तुमने दान किया - प्रभु....

मन वांछित फल पापा, पुण्य महान किया - ओम...

रक्तदान का भाव हमारे मन में बस जावे - प्रभु...

बार-बार इस तन से, सेवा हो जावे - प्रभु....

जन्मदिन, मुण्डन, शादी, जो शुभ अवसर आवे - प्रभु...

रक्तदान का कैम्प लगे जब, उत्सव हो जावे - ओम...

जो देवें, फल पावें, तन मन हर्षावे - प्रभु...

दु:ख मिटावे तन का, सुख सम्पत्ति पावे - ओम....

एक दूजे को बाँटो, संकट जब आता - प्रभु....

कोई विकल्प न इसका, जब है रक्त चाहता - ओम...

रक्त बंधु, दु:खहर्ता, तुम रक्षा करता - प्रभु...

जीवन जोश तुम्हीं से, जग में सुख भरता - ओम....

जग में तुम सा दानी, कोई नहीं दूजा - प्रभु...

सेवा अमर तुम्हारी, सबसे बड़ी पूजा - ओम...

रक्तदाता जी की आरती, जो कोई नर गावे - प्रभु....

क़हत ब्लड-बैंक सबका, भाग्य सुधर जावे - ओम....

आओ मिलकर सारे, सब जन शपथ करें - प्रभु...

अब ना कोई प्राणी, रक्त बिन प्राण तजे - ओम...

ओम जय श्री रक्तदाता...

गूगल तथा उसकी माँ तो रक्तनारायण कथा के प्रारम्भ में ही वहाँ आ गये थे। अरुणा माँ के साथ सब काम कर रही थी। गूगल प्रसाद बनवाने, बैठने की व्यवस्था करने में भाग-दौड़ कर रहा था।

कथा-वाचक महामण्डलेश्वर श्री विश्वेश्वरानन्द जी ने रक्तनारायण कथा का इतना सुन्दर विश्लेषण किया कि कथा समाप्ति पर महिलाएँ घर जाते हुए तथा घर जाने के बाद भी रक्तदान महादान की चर्चा करती रहीं।

कथा समाप्त होने के बाद अरुणा गूगल की माँ से विदा लेने आयी तो गूगल और पुजारी भी वहीं बैठे थे।

‘आंटी, कैसी लगी हमारी रक्तदान कथा?’ अरुणा ने गूगल की माँ के पास आकर पूछा।

‘क्या बताऊँ बेटी, मैं तो अपने गूगल को ही रक्तदान में बावला समझती थी, परन्तु तू भी कुछ कम नहीं है। .... ईश्वर तुझे बहुत खुश रखे,’ माँ ने अरुणा के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।

‘माँ, यह रक्तदान करना-कराना मैंने अरुणा से ही सीखा है। इसको रक्तदान करते हुए देखकर ही मैं उत्साहित हुआ था। इसलिये यह तो मेरी रक्तदान गुरु है’, गूगल बीच में ही बोल पड़ा।

पुजारी जी ने भी अपने मन की बात कह दी - ‘बाँके बिहारी जी की प्रेरणा से तथा आप सबके माध्यम से इस महादान का कार्य हो रहा है। इसके सम्पन्न होने के बाद सारे गाँव का नाम हो जायेगा’, कहते हुए पुजारी जी ने थैले में प्रसाद भरकर अरुणा को भेंट किया। अरुणा ने पुजारी जी के, फिर माँ के पाँव छुए तथा एक स्निग्ध मुस्कान गूगल की ओर प्रेषित कर दी।

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