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गलतफहमी

शीतल काम करके बैठी ही थी। तभी उसकी पड़ोस में रहने वाली कौशल चाची उससे मिलने आई। शीतल उनको नमस्ते कर बिठाते हुए बोली "बैठो चाची! मैं आपके लिए चाय बना कर लाती हूं।"
"नहीं शीतल, मैं तेरे पास एक काम से आई थी। सुन तेरी सास की तबीयत बहुत ही ज्यादा खराब है मिल आ एक बार ।तुझे बहुत याद कर रही है!"
"लेकिन चाची आप को तो सब पता ही है ना!"
"हां बहू, सब जानती हूं। बीमार ज्यादा ही है। उसका कुछ नहीं पता। उसकी करनी उसके साथ लेकिन तू क्यों जाते जाते दुनिया की बुराई लेती है। इंसानियत के नाते चली जा।" कह वह चली गई।
उनके जाने के बाद शीतल की दोनों बेटियां एक साथ बोली "मम्मी आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है। हमारा उनसे कोई मतलब नहीं। अब उन्हें हमारी याद आ रही है। दुनिया कुछ भी कहे । दुनिया तब कहां थी। जब उन्होंने हमें घर से निकाल दिया था। परिवार होते हुए भी हम इतने सालों से बेघर की तरह रह रहे हैं। कल मरती है, आज मर जाए। लेकिन आप उस घर में नहीं जाओगे!"
"चुप कर खुशी! कैसी बातें कर रही है तू। यही सिखाया है मैंने तुझे। बेटा तेरी मां को पता है ,क्या सही है क्या गलत। मै उन्हें कभी माफ नहीं कर सकती । मिलने जा रही हूं क्योंकि वह तुम्हारे पापा की मां है । वरना मैंने भी उन्हें दिल से उसी दिन निकाल दिया था। जब उन्होंने तुम्हारे साथ मुझे उस घर से निकाला। तुम परेशान मत हो । जाओ ,अपनी पढ़ाई करो और मुझे भी कुछ देर आराम करने दो।"

शीतल लेट गई लेकिन मन में विचारों का झंझावत सा उमड़ पड़ा । दो भाइयों की लाडली बहन थी वह । सब उसे कितना प्यार करते थे। जितनी रूपवान उतनी ही गुणवान भी। पढ़ाई लिखाई में भी कितनी तेज। जब वह बारहवीं में थी, तब उसके पापा की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई और उसी सदमे में मां बीमार रहने लगी। अच्छा खासा खुशहाल परिवार बिखर सा गया। भाई इतने बड़े व समझदार ना थे कि पापा के काम को सही से चला सके। काम धंधा भी ठप पड़ गया। घर का गुजर-बसर किसी तरह हो रहा था। शीतल ने कुछ ट्यूशन पकड़ ली थी। अपनी पढ़ाई के साथ-साथ वह ट्यूशन भी पढ़ाती। जिससे पढ़ाई के खर्च के साथ घर के लिए भी कुछ पैसे बच जाते थे। इसी तरह उसने अपनी बीकॉम की पढ़ाई पूरी की।
अभी उसकी पढ़ाई पूरी हुई थी कि उसकी बुआ उसके लिए एक रिश्ता लेकर आई। साधारण सा परिवार था। दो भाई एक बहन। शीतल का शादी करने का बिल्कुल मन ना था लेकिन बुआ और अपनी मां के समझाने पर वह शादी के लिए तैयार हो गई। ससुराल में पहुंचते ही उसने अपने काम व व्यवहार से अपने ससुराल वालों का दिल जीत लिया। पति तो उसे बहुत ही प्यार करता था । शीतल की जिठानी की अपने पति व सास ससुर से नहीं बनती थी इसलिए वह अपने बेटे के साथ ज्यादातर अपने मायके में ही रहती थी।
शीतल के घर में कदम रखते ही उसके पति व ससुर का छोटा सा कारोबार धीरे-धीरे फल फूलने लगा। घर में एक-एक करके ऐशो आराम की सभी चीजें आने लगी। शीतल का पति बहुत ही समझदार था। वह उसकी मां व भाइयों की हर संभव सहायता करता था। अपने पति की मदद से शीतल ने दोनों भाइयों की शादी कर दी थी। मां की हालत में भी अब कुछ सुधार रहने लगा था।शीतल ने दो बेटियों को जन्म दिया। उसके साथ ससुर अपनी पोतियों को लक्ष्मी स्वरूप मानते थे और उन्हें खूब लाड प्यार करते। घर में सब तरह का सुखचैन था। इतनी खुशियां पा शीतल अपनी किस्मत पर फुला ना समाती। मन ही मन भगवान का इस कृपा के लिए आभार व्यक्त करती। लेकिन कहते हैं ना खुशियां कब किसकी सगी हुई है। काल भी दबे पांव शीतल की खुशियों पर ग्रहण लगाने धीरे धीरे बढ रहा था। एक दिन अपने ऑफिस जाते हुए शीतल के पति का एक्सीडेंट हो गया और उसकी मृत्यु हो गई।

सारा परिवार सदमे में डूब गया। शीतल तो अपनी सुध बुध ही खो बैठी। उसे अपनी बेटियों का भी कुछ होश नहीं रहा। एक दिन उसकी बेटी रात को रोते हुए बोली " मम्मी भूख लगी है। हमें खाना दो ।"
"बेटा जा, दादी या ताई से ले ले।" यह सुन उसकी बड़ी बेटी ने कहा "मम्मी कोई हमें खाना नहीं देता। उन्होंने खाना खा लिया है। आपको कुछ कहते हैं तो आप सुनते ही नहीं हो। रोते ही रहते हो ।" छोटी बेटी ने मायूसी से कहा।
यह सुन शीतल किसी नींद से जागी हो जैसे। उसे अपने पर बहुत ही शर्म आई कि वह अपने दुख के आगे अपनी बेटियों को कैसे भूल गई। वह उठ कर रसोई में गई तो वहां कुछ नहीं था। जाकर उसने अपनी सास से कहा तो वह बोली
"बेटा मेरा भी गया है। हम भी तो काम कर रहे हैं ना। तेरी तरह पूरा दिन बैठ घड़ियाली आंसू बहाने से मेरा बेटा आ तो नहीं जाएगा। रसोई में सब कुछ रखा है। जा बना ले और खिला दे उन दोनों को।" अपनी सास का यह रूप देख, उसको यकीन नहीं ना हुआ कि यह वही सास है जो दिन भर उसके नाम का जाप करती थी। वह भारी कदमों से जैसे ही बाहर निकली। उसे अपने सास की आवाज सुनाई दी "खा गई मेरे बेटे को और अब नाटक करती हैं!"
शीतल धीरे-धीरे फिर से घर के कामों में जुट गई लेकिन अब सुबह से शाम तक वह अपने सास ससुर के ताने सुनती। बड़ी बहू जो कभी उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती थी। अब उनकी चहेती बन गई थी। एक-एक पैसे को सास ससुर उसे तरसाने लगे थे और जो छोटा सा बिजनेस था, उस पर ससुर व जेठ ने कब्जा कर लिया था और उसके पति की कार को भी चुपके से बेच दिया था। पैसों की तंगी बता उसकी बेटियों का दाखिला प्राइवेट स्कूल से निकलवा, सरकारी स्कूल में करवा दिया। जब पानी सिर से ऊपर हो गया तो शीतल ने कहा

" मैं कोई अनपढ़ गंवार नहीं । मैं कमा कर अपना व अपनी बेटियों का पेट भर सकते हूं। " उसने एक नौकरी शुरू कर दी लेकिन यह भी उसके साथ ससुर से देखा ना गया और वह उसके चरित्र पर कीचड़ उछालने लगे। जो भी सगा संबंधी शीतल की मदद करने की कोशिश करता । उसी से ही उसका नाम जोड़कर उसकी बदनामी शुरू कर देते। भाई भाभी ने भी दुख की इस घड़ी में उस से मुख मोड़ लिया था ।और मां तो उसकी इतने बड़े सदमे को सहन ना कर पाई और कुछ ही महीनों बाद गुजर गई।
इतने दुख देख शीतल का कई बार मन करता कि वह भी जहर खाकर आत्महत्या कर ले लेकिन जब अपनी दोनों बेटियों की ओर देखती तो यह विचार आता कि इनका क्या कसूर। उसने मन ही मन सोच लिया था कि वह कमजोर नहीं पड़ेगी और अपने दम पर अपनी बेटियों को पालकर दिखाएंगी।
एक दिन उसने अपने ससुर से कहा "पापा जी मेरा भी इस घर में कुछ हिस्सा है। मैं यहां शादी करके आई हूं। मैं आपसे कुछ ज्यादा नहीं मांग रही हूं। बस मुझे रहने के लिए एअ कमरा दे दो। जिससे मेरी बेटियों को छत मिल जाएगी और मैं उनका पालन पोषण कर सकूंगी।
यह सुन उसकी सास तमतमाती हुई बोली "हिस्सा किस चीज का हिस्सा! यह घर कोई पुरखों का बनाया हुआ नहीं है। हमने अपनी मेहनत से बनाया है और यह मेरे नाम है। इसलिए इसमें तेरा कोई हक नहीं। नहीं चाहिए मुझे ऐसी मनहूस चरित्रहीन औरत अपने घर में। निकल जा तू अभी यहां से। हमें पता है कमा खा लेगी तू, जवान है अभी! हां अपनी लड़कियों को छोड़ जा। यह यहां रह सकती हैं। पाल लेंगे इनको हम लेकिन तुझे अब अपने घर में रख बदनामी नहीं सह सकते।"

अपनी सास की यह बातें सुन शीतल को बहुत गुस्सा आया और वह बोली "चरित्रहीन मैं नहीं आप लोग हो। जो गिरगिट की तरह रंग बदलते हो। जब तक आपका कमाऊ बेटा था। आप उसके और मेरे गुण गाते और अपने बड़े बेटे बहू की बुराई करते ना थकते थे। लेकिन आज उनके जाते ही आपको मैं और मेरी बेटियां मनहूस नजर आ रही है। मेरी बेटियां अनाथ नहीं। अभी उनकी मां जिंदा है और उन्हें कमाकर खिला सकती हैं। आज आपके पास एक बेटा और पति है तो आपको दूसरे की तकलीफ का अहसास ही नहीं। लेकिन भगवान की लाठी बेआवाज होती है । भगवान सब का हिसाब इसी जन्म में पूरा करते हैं। याद रखना आप!" कह शीतल अपनी दोनों बेटियों का हाथ पकड़ वहां से चली गई।
उसके पास अपना एक फिक्स डिपाजिट था और दोनों बेटियों के नाम उसके पति ने एलआईसी कर आई हुई थी। एक कमरा किराए पर ले ।उसने एक छोटी सी नौकरी पकड़ी और आज 10 वर्ष हो गए। एक बेटी कॉलेज में और दूसरी ट्वेल्थ में है। अपनी छोटी सी कमाई में उसने अपनी बेटियों की हर जरूरत पूरी की और कभी उनके चेहरे पर शिकन ना आने दी।
इसी बीच 2 साल पहले उसके ससुर का देहांत हो गया था ।उसकी सास को ऐसा सदमा लगा कि वह भी बिस्तर से लग गई। जेठ ने पहले ही बहला-फुसलाकर मकान अपने नाम करवा लिया था । पड़ोसियों से उसे समय समय पर पता चलता रहता था कि जेठानी उनकी कोई देखभाल ना करती ना ही उन्हें खाना पीना दे रही थी। इसके कारण उनकी हालत बिगड़ती जा रही है और परसों दोनों पति पत्नी उनको इसी हालत में छोड़ 1 हफ्ते के लिए गांव में किसी शादी में चले गए थे।

यही सोचते सोचते शाम हो गई। शीतल उठी और अपनी सास के घर उससे मिलने पहुंची। उसे देखते ही उसकी सास ज़ार ज़ार रोने लगी और हाथ जोड़ उससे माफी मांगने लगी। शीतल कुछ ना बोली और उसनेे अपने साथ लाया हुआ खाना उनके सामने खाने के लिए रख दिया। जिसे देख उसकी सास बोली "बहू तू मेरे लिए खाना लेकर आई है। मेरे लिए जिसने तेरे मुंह से निवाला छीन लिया। तुझे घर से बेघर कर दिया। तेरे ससुर के जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि एक पत्नी के लिए पति का साथ कितना जरूरी है। अरे मुझे अभागन के साथ तो वह बुढ़ापे तक रहे। तब मुझे इतनी कमी खल रही है उनकी और तू तो ! इतने बरसों से ! हे भगवान मुझे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। मुझे माफ कर दे बहू! मुझे माफ कर दे? जिस समय तुझे सहारा देना चाहिए था उस समय! " कहते हुए वह रोने लगी।
शीतल उनको चुप कराते हुए बोली "मांजी मैं कौन होती हूं आपको माफ करने वाली। इन 10 सालों में इतने दुख देख लिए कि मन में कोई भाव ही नहीं बचा। मैं तो बस आपसे एक ही सवाल पूछना चाहती हूं कि मैं और आप की पोतियां तो आपको बहुत प्यारी थी। मैंने आपको अपनी मां से बढ़कर सम्मान दिया। फिर आपने हमारे साथ ऐसा क्यों किया! क्यों आपने अपने बेटे की निशानियां को, सब कुछ होते हुए भी दुनिया की ठोकरे खाने के लिए छोड़ दिया!"
"बहु मैं तेरी जिठानी की बातों में बहक गई थी। मुझे लगने लगा था कि तू अभी जवान है और अगर तुझे हिस्सा दे दिया तो दूसरी शादी कर तू अपना वह हिस्सा ले, अपनी बेटियों को छोड़ यहां से चली जाएगी। बस इस गलतफहमी में, मैं यह पाप कर बैठी। मैंने हीरा परखने में भूल कर दी बहू। तूूूूू आजा वापस इस घर में। मुझेे मेरे पापों का प्रायश्चित करने का एक मौका दे।" कह वह फिर से रोने लगी।

" यह कैसी गलतफहमी मांजी। इतने सालों में आपके साथ रही। आपने बस मुझे इतना ही समझा। एक बार मुझसे बात तो की होती इस बारे में। मुझे अपना दुख नहीं लेकिन अपनी बेटियों के लिए रहेगा । मांजी, इस घर में तो मैं अब कभी वापस नहीं आ सकती। मेरी बेटियां और वह एक कमरा ही अब मेरा घर संसार है और आज के बाद मैं फिर कभी आपसे मिलने भी नहीं आऊंगी।" कह शीतल आंसू पोछते हुए तेजी से वहां से निकल गई।
सरोज ✍️
स्वरचित व मौलिक