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नीलांजना--भाग(२)

चंद्रदर्शन के ऐसे शब्द सुनकर, दिग्विजय हतप्रभ हो गया,अब उसे लगा कि शायद उससे बहुत बड़ी भूल हो गई है, उसे जब तक अपने किए पर पछतावा होता,तब तक चन्द्रदर्शन ने उसे बंदी बनाने का आदेश दे दिया और दिग्विजय को बंदी बना लिया गया।
उधर चन्द्रदर्शन ने राजा प्रबोध को मृत समझकर सैनिकों को आदेश दिया कि प्रबोध के मृत शरीर को नदी में बहा दिया जाए, सैनिकों ने चन्द्रदर्शन के आदेश का पालन किया और प्रबोध के मृत शरीर को नदी में बहा दिया गया।
अब चन्द्रदर्शन रानी सुखमती के पास पहुंचा और बोला,
रानी अब आप हमारी हुई, हमने आपके राज्य पर विजय प्राप्त की है और बड़े दुःख की बात है कि राजा प्रबोध भी अब स्वर्ग सिधार चुके हैं,अब आपके पास और कोई राह नहीं है इसलिए हमारी रानी बन जाइए और सुखपूर्वक जीवन बिताइए,सच मानिए हम आपको अपने हृदय की रानी बनाकर रखेंगे!!
इतना सुनकर,सुखमती बोली__
नीच,पापी अपने ही मित्र के साथ इतना बड़ा विश्वासघात, तुझे तो नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी, तेरे जैसे इंसान की रानी तो क्या? मैं तो तेरी दासी भी ना बनूं, तुच्छ प्राणी तूने मेरे राजन का वध करके अच्छा नहीं किया, तुझे इस किए की सजा जरूर मिलेगी,वो ऊपर बैठा सब देखता है और एक ना एक दिन अवश्य न्याय करता है,तू ये मत समझ कि तू ये कुकर्म करके बच जाएगा।।
सुखमती बहुत बहुत क्रोधित थी,उसका क्रोध देखकर चन्द्रदर्शन को थोड़ा डर लगा, उसे लग गया कि रानी क्रोध में कोई ग़लत कदम ना उठा ले तो चन्द्रदर्शन ने रानी सुखमती को भी बंदी बनाने का आदेश दे दिया, रानी सुखमती को चन्द्रदर्शन ने अंधेरे कारागार में डलवा दिया।
बहुत ही कड़े निर्देश दिए चन्द्रदर्शन ने सैनिकों को कि रानी सुखमती को अनदेखा ना किया जाए, उन्हें किसी से मिलने जुलने भी ना दिया जाए।।
और वहां दिग्विजय को बहुत ही पछतावा हो रहा था कि उसने तो सुखमती से प्रेम किया था तो क्या हुआ जो सुखमती उससे प्रेम नहीं करती,अब उसे अनुभव हुआ कि उसने बहुत बड़ा क्षल किया है सुखमती के साथ, पता नहीं उसकी बेटी कहां होगी और उसे अपने किए का प्रायश्चित करना था,उसके मन में एक विचार कौंधा और पल भर में उसने एक योजना बना डाली क्योंकि उसे किसी भी दशा में सुखमती से मिल कर क्षमायाचना करनी थी और उसकी सहायता भी करनी थी।
एक दिन फिर से राजा चन्द्रदर्शन, दिग्विजय से मिलने कारागार में आए, दिग्विजय ने अपनी योजना अनुसार____
राजन,क्षमा करें, बहुत बड़ी भूल हुई,मुझ नासमझ से,जो आपके साथ इतनी अशिष्टता कर बैठा,आप मेरे अन्नदाता है और मैंने तो आपके साथ कभी भी कोई विश्वासघात नहीं किया और अभी तो रानी सुखमती की पुत्री जीवित है और पता नहीं उसे कहां भेज दिया रानी सुखमती ने अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं रानी सुखमती से इस विषय पर पूछ सकता हूं क्योंकि वो तो बचपन से मेरी मित्र हैं और सरलता से मुझ पर विश्वास कर लेंगी, उसे तो ये भी बता नहीं कि मैं आपसे मिला हुआ हूं तो राजन अगर आपको उचित लगे तो मेरे कथन पर विचार किजिएगा और अगर रानी की पुत्री हमें मिल गई तो हम उस पर दबाव डाल सकते हैं कि वो आपसे विवाह कर ले।
राजा चन्द्रदर्शन ने,उस समय तो कुछ नहीं कहा और वहां से चले गये, उन्होंने रात भर सोच-विचार किया और उन्हें दिग्विजय की बात सही लगी।
दूसरे दिन वो कारागार में आए और दिग्विजय से इस विषय पर बात की, दिग्विजय ने चन्द्रदर्शन को विश्वास दिलाया कि इस बार मैं आपकी बात का मान रखूंगा,बस एक बार मेरी बात रानी सुखमती से करवा दीजिए,मैं उनको अपनी बातों की जाल में इस तरह रिझाऊंगा कि सबकुछ एक ही पल में बता देंगी लेकिन ध्यान रखिएगा कि उस पल कोई भी वहां ना हो नहीं तो उन्हें शंका हो जाएगी कि हम लोग कोई योजना बना रहे हैं।
दूसरे दिन योजना अनुसार दिग्विजय, रानी सुखमती से मिलने कारागार पहुंचा___
सुखमती के हाथ और पैरों में हथकड़ियां बंधी थी,बाल खुले थे और शरीर पर कोई भी आभूषण नहीं था, आंखें रो रोकर लाल हो गई थी,होंठ सूखे और पपड़ीदार हो गये थे।
सुखमती की ऐसी दशा देखकर दिग्विजय रो पड़ा__
उसने पहले तो सुखमती से क्षमा मांगी__
मुझे क्षमा कर दो सुखमती, मेरे कारण तुम्हें इतना कष्ट सहना पड़ा, मुझे लगा था कि क्षल-कपट से मैं तुम्हें प्राप्त कर लूंगा, लेकिन मेरी धारणा गलत था,अब मेरी अंतरात्मा मेरे हृदय पर प्रहार कर रही है कि जिससे मैं इतना प्रेम करता था,उसी को मैंने संसार भर के कष्ट दे डाले ,उसके स्वामी और पुत्री से अलग कर दिया, और सुखमती के चरणों पर अपना सर रखकर दिग्विजय बहुत रोया,आज वो सुखमती के सामने अपने पापो को स्वीकार कर उनका प्रायश्चित करना चाहता था!!
सुखमती बोली,अब तो समय बीत गया चुका है,अब पछताने से क्या लाभ,अब मेरे और तुम्हारे रोने से महाराज लौट नहीं आयेंगे लेकिन अगर तुम्हें मेरी सहायता ही करनी है तो मेरी नीलांजना की रक्षा करो, उसे खोजों, मैंने उसे अपनी दासी सौदामिनी के हाथों में उसे सौंपा था,अगर तुमने नीलांजना की रक्षा कर ली तो मैं तुम्हें हृदय से क्षमा कर सकती हूं।।
दिग्विजय बोला,आज से मैं ये प्रण लेता हूं कि मैं राजकुमारी को खोज कर रहूंगा और तुम्हें भी न्याय दिलवाऊंगा,बस जो मैं कहता हूं, वहीं तुम करती जाओ, तुम्हें बस थोड़ा सा अभिनय करना होगा राजा चन्द्रदर्शन के सामने !!
और दिग्विजय ने अपनी सारी योजना रानी सुखमती को कह सुनाई।
रानी बोली,इस बार कोई क्षल तो नहीं करोगे।।
नहीं,सुखमती,मैं वचन देता हूं,ये मैं सच्चे हृदय से कह रहा हूं, दिग्विजय बोला।।
और सुखमती ने अपनी सहमति दे दी।।

सरोज वर्मा___🦋