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नीलांजना--भाग(६)

बहुत ही सुंदर , बहुत ही बड़ा मैदान, अगल-बगल वृक्षों से घिरा, वृक्षों पर तरह-तरह के पुष्प और फल लगे हुए हैं, सामने वाले पहाड़ पर एक झरना है, जिसमें शीतल जल झर झर की ध्वनि करता हुआ बह रहा, झरने के ऊपर कुछ पक्षी कलरव कर रहे हैं, मनमोहक दृश्य है, कुछ छोटे छोटे मृग भी इधर उधर विचरण कर रहे हैं।
तभी नीला पुरुष वेष में अपने धनुष और बाणों के साथ मैदान में उपस्थित हुई ,वो हमेशा वहां अभ्यास हेतु आती है,उसकी वेषभूषा देखकर कोई ये नहीं कह सकता था कि वो पुरूष नहीं है, उसने अपने लम्बे केशो को भी पगड़ी में छिपा रखा था,माथे पर टीका और मुख पर तेज दिखाई दे रहा था।
वो कभी भी निरपराध जीवों जैसे पशु-पक्षियों पर कभी भी अभ्यास हेतु प्रहार नहीं करती, मैदान में घूम रहे मृग, जंगली सूअर और भी जीव उसे कभी भी हानि नहीं पहुंचाते,सारे पशु उससे बहुत ही प्रेम करते हैं और पशु पक्षियों से वह भी बहुत प्रेम करती है,वो सारा अभ्यास फलों और पुष्पों पर ही करती है।
उसने जैसे कुछ फलों पर बाण से अपना निशाना साधा, वैसे ही उसे कुछ ध्वनि सुनाई दी,वो उस दिशा की ओर भागी,तो क्या देखती है,एक मृग मूर्छित अवस्था में गिरा पड़ा है उसके घाव से रक्त बह रहा है, उसके हृदय को बहुत कष्ट हुआ, उसने से तुरंत अपनी गोद में उठा लिया, फिर उसने सब जगह अपनी दृष्टि डाली लेकिन उसे कोई भी दिखाई नहीं दिया,वो उस मृग को झरने की ओर ले ही जा रही थी कि एक पुरुष ने आवाज दी____
ठहरो.....इसे कहां ले जा रहे हो,इसका शिकार तो मैंने किया है,इस पर तो मेरा अधिकार है,महाशय आप इसे कहां ले जा रहे हैं!!
नीला ने कोई उत्तर नहीं दिया और मृग को यूं ही अपने हाथों में लिए हुए चुपचाप झरने की ओर बढ़ने लगी, उसने झरने के शीतल जल से मृग का घाव धोया और उस से मैदान में सूखी जगह और वृक्ष की छाया के नीचे लिटा दिया और तुरंत कुछ पौधों की पत्तियां मसलकर घाव में लगा दी,वो युवक उसे एकटक देखे जा रहा था, जिसने मृग का शिकार किया था।
मृग के घाव पर बांधने के लिए अब कोई वस्त्र चाहिए था तो नीला ने तुरंत अपनी पगड़ी उतारी जैसे ही नीला ने अपनी पगड़ी उतारी उसके लम्बे घने भूरे केश खुल गये,उसका रूप और सौंदर्य देखकर उस युवक की आंखें खुली की खुली रह गई, नीला का रूप-लावण्य देखकर वो तो बस नीला पर मोहित हो गया, नीला ने पगड़ी का कुछ हिस्सा चींड़कर कर मृग को बांध दिया और ले चली अपने साथ।
वो युवक नीला के पीछे पीछे आने लगा, फिर वो बोला अच्छा!!तो तुम एक नवयुवती हो, मुझे लगा तुम कोई नवयुवक हो और इस मृग को कहां ले जा रही हो,ये तो मेरा है।।
इस पर तुम्हारा नाम लिखा है,नीला ने पूछा।।
नाम तो नहीं लिखा लेकिन इसे मेरे बाण ने मूर्छित किया है, इसलिए ये मेरा है, नवयुवक बोला।।
तुम्हें लज्जा नहीं आई, किसी निर्दोष पर बाण चलाते हुए, नीला क्रोध से बोली।
क्यो क्या हुआ?आखेट तो सभी करते हैं, इसमें बुरा क्या है?अगर मैंने किया तो, नवयुवक बोला।
किसी निर्दोष को मारना बुरा है, अपना बल का प्रयोग किसी निरपराध पर करना बुरा है, अपने क्षण भर के सुख के लिए किसी मूक जीव को मृत्यु देना बहुत बड़ा अपराध है,समझे तुम!!
नीला ने क्रोध से अपनी आंखें बड़ी करते हुए कहा।।
आप तो बहुत ही क्रोधित हो रही है देवी, मैं तो बाण चलाने का अभ्यास कर रहा था, नवयुवक बोला।।
अभ्यास, किसी जीव पर,अगर अभ्यास ही करना है तो और भी वस्तुएं हैं,वृक्ष, पुष्प, लताएं,उन पर निशाना साधो।। नीला बोली।।
ठीक है लेकिन आप हैं, बड़ी सुंदर, नवयुवक बोला।।
ए अपनी सीमा रेखा मत पार करो,ये कैसी ओछी बातें कर रहे हो,नीला बोली।।
जो सत्य है वहीं कहा, नवयुवक बोला।।
नीला बिना कुछ बोले, वहां से चली गई, नवयुवक पीछे से पुकारता रहा कि देवी!!अपना नाम तो बता दो.....
लेकिन नीला ने पीछे मुड़कर ही नहीं देखा और वहां से चली आई।
नवयुवक अपने झोपड़े में लौटा वो और कोई नहीं शंखनाद का पुत्र कैलाश था, उसे युद्ध कला में पारंगत राजा प्रबोध ने किया है,
अब तो कैलाश की आंखों में नीला की सुंदर छवि बस गई थी, उसे स्वप्न में भी वहीं दिख रही थी, उसे दोबारा नीला से मिलने की इच्छा थी,वो रात्रि भर ब्याकुल रहा।
दूसरे दिन फिर उसी स्थान पर पहुंचा लेकिन नीला नहीं आईं,इसी तरह कैलाश प्रतिदिन उस स्थान पर जाने लगा लेकिन नीला नहीं आईं।
फिर एक दिन नीला पहले से ही उस स्थान पर अपने बाणों से अभ्यास कर रही थी और कैलाश उस स्थान पर पहुंचा।
कैलाश ने पूछा, तुम उस दिन के बाद यहां क्यो नही आई?
तुम्हें इस बात का कारण जानने की क्या आवश्यकता है,मैं आऊं या ना आऊं, नीला ने उत्तर दिया।।
आवश्यकता तो कुछ नहीं है, अच्छा ये बताओ वो मृग कैसा है जिसे तुम ले गई थी, कैलाश ने पूछा।।
मैं ले नहीं गई थी, तुमने उसे मूर्छित किया था, नीला ने कहा।।
हां, देवी जिसे मैंने मूर्छित किया था,वो अब किस अवस्था में है।
स्वस्थ हैं, नीला बोली।।
तुम्हारा नाम क्या है, कैलाश ने पूछा।।
मेरा नाम,क्यो बताऊं, नीला बोली।।
सम्बोधित करने के लिए, देवी, कृपया बताएं, कैलाश बोला।।
तुम्हारा नाम क्या है, नीला ने पूछा।।
मैं कैलाश हूं!!
मैं नीला!!
बड़ा अच्छा नाम है, जरूर तुम्हारी नीली आंखों को देखकर रखा गया होगा,तुम हो भी तो कितनी सुंदर, कैलाश बोला।।
तुम्हारा तात्पर्य क्या है? मेरी आंखे नीली हो,पीली हो या लाल हो, नीला बोली।।
कैलाश हंसते हुए बोला, कैसी बातें कर रही हों, इतना क्रोध, लगता है सुबह से भोजन नहीं मिला,तभी मस्तिष्क क्रोध से इतना तप रहा है।।
सुनो!! बड़े ही निर्लज्ज हो तुम!! नीला बोली।।
इसमें निर्लज्जता कैसी,कैलाश ने पूछा।।
मैं तुमसे कोई वार्तालाप नहीं करना चाहती और तुम हो कि खी....खी.... कर हंस रहे हो, मुझे तुमसे कोई भी बात नहीं करनी, मैं यहां अभ्यास करने आती हूं, नीला बोली।।
लेकिन, पुरूष वेष में क्यो? कैलाश ने पूछा।।
बस ऐसे ही,तुम्हारा आशय क्या है, नीला ने पूछा।।
बस कुछ नहीं,उस दिन मैंने तुम्हारे,खुले हुए केश देखें और मेरा हृदय उनमें उलझ कर रह गया, निद्रा आंखों से दूर हो गई,स्वप्न में बस तुम ही दिखाई दे रही थी, तुम्हारे रूप और सौंदर्य ने मेरा मन मोह लिया है, कैलाश बोला।।
ऐसी बातें सुनकर, नीला जाने लगी।।
कैलाश ने पूछा, अच्छा ये तो बताती जाओ कि कल यहीं फिर मिलोगी।।
लेकिन नीला ने कोई उत्तर नहीं दिया और वो चली गई___

क्रमशः___
सरोज वर्मा __🦋