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नीलांजना--भाग(४)

भांति-भांति के प्रकाश से प्रकाशित, भांति-भांति के सुगंधित पुष्पों से सुसज्जित , भांति-भांति के इत्रो की सुगंध पूरे कक्ष को सुगन्धित कर रही थी और भांति-भांति के वाद्ययंत्रों से ध्वनियां निकाल रही रमणियां,कक्ष की शोभा देखते ही बनती थी।
उस पर सुखमती का प्राणघातक सौंदर्य,उसकी भाव-भंगिमा देखकर बस चन्द्रदर्शन तो अपने प्राण, न्यौछावर करने के लिए लालायित हो बैठे।
धानी रंग के परिधान में सुखमती का रूप बहुत ही खिल रहा था, नृत्य करते समय वो किसी स्वर्ग की अप्सरा से कम नहीं लग रही थी,उसका अंग-अंग थिरक रहा था, उसकी नृत्य-मुद्राएं चन्द्रदर्शन के हृदय को विचलित कर रही थी।
सुखमती के लहराते हुए हाथ और कलाइयां,उसकी फूलों की डाली सी लचकती हुई कमर और उसके नीले नयन,जो कि बाणों का कार्य कर रहे थे और चन्द्रदर्शन के हृदय को भेद रहे थे, चन्द्रदर्शन मंत्रमुग्ध हो चला था,सुखमती पर।
दिग्विजय ने जैसे ही संकेत प्रकट किया,सुखमती ने अपना क्षल से भरा हुआ अभिनय प्रारंभ किया, उसने सुरा से भरा हुआ कलश उठाया और चन्द्रदर्शन को सुरा से भरा हुआ प्याला प्रस्तुत किया
और चन्द्रदर्शन,सुखमती के प्रेम में वशीभूत होकर उसके आगे -पीछे झूमने लगा और सुखमती, चन्द्रदर्शन को एक पर एक प्याला दिए जा रही थी, चन्द्रदर्शन अचेत अवस्था की ओर बढ़ रहा था और कुछ ही पल में सुरा में डली बूटी ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया और कुछ ही पलों में चन्द्रदर्शन सुप्तावस्था में चला गया।
इतना होने के बाद रानी सुतकीर्ति को ये सूचना मिली कि महाराज अचेत अवस्था मे है, उन्होंने कक्ष में प्रवेश किया, सुखमती और दिग्विजय से बोली,अब आप लोग शीघ्रता करें, ये लीजिए कुछ साधारण से वस्त्र है,आप दोनों धारण कर लिजिए और महाराज की चेतनावस्था में आने तक इस राज्य से कहीं दूर प्रस्थान कर जाए।
रानी सुखमती, तुरंत ही रानी सुतकीर्ति के गले लग गई__
धन्यवाद!!सखी, आपने हमारी सहायता करके हम पर बहुत बड़ा उपकार किया है आपका ये उपकार हम कभी नहीं भूलेंगे और इतना कहते कहते रानी सुखमती की नेत्रों से अश्रु धारा बह निकली।
रानी सुतकीर्ति बोली, ऐसा ना कहे!!बहन, इसमें तो मेरा स्वार्थ छिपा था, ये तो मैंने अपने लिए किया है ताकि मेरा और मेरे पुत्र सूर्यदर्शनशील का भविष्य सुरक्षित हो सकें, इसमें मैंने आपके साथ कोई उपकार नहीं किया और सुतकीर्ति के नेत्र भी भर आए।
दिग्विजय और सुखमती ने साधारण वस्त्र धारण किए और सजल नेत्रों से सुतकीर्ति से विदा लेकर निकल पड़े,राजकुमारी नीलांजना की खोज में।
उधर राजा प्रबोध का शरीर जल की लहरों के साथ नदी के तट पर मछुआरों को मिल गया, उन्होंने राजा के शरीर को टटोला नब्ज देखी,राजा अभी भी जीवित थे,उन मछुआरों में से एक ने कहा कि मैं इसे अपनी झोपड़ी में ले जाता हूं,इनका उपचार करता हूं,शायद ये ठीक हो जाए और अवस्था अच्छी होने पर अपने घर का पता बता सकें, सबने कहा ठीक है ले जाओ और किसी सहायता की आवश्यकता पड़े तो कहना,उस मछुआरों ने कहा ठीक है मित्रों!!
और वो राजा को अपनी झोपड़ी में ले आया, झोपड़ी में उसकी पत्नी और उसका पांच साल का बेटा था।
पत्नी ने पूछा!!ये किसे उठाकर लाए हो?
मछुआरा बोला, नदी के तट पर अचेत अवस्था में पड़ा था बेचारा, किसके सहारे छोड़ आता तो ले आया अपने साथ,जब स्वस्थ हो जाएगा तो चला जाएगा।
पत्नी बोली,तुम तो आए दिन किसी ना किसी पर उपकार करते रहते हो,हम लोगों का तो निर्वाह होता नहीं!!एक और उठा लाए, जानते भी हो,कौन है? कहां का है?
क्यो, सदैव रोना रोती रहती हो, भाग्यवान!! उसके भाग्य में हमारे घर की रोटी लिखी होगी और फिर असहाय है बेचारा,अगर हमने थोड़ी सहायता कर दी तो जीवन भर हमारा उपकार मानेगा, फिर वो ऊपर बैठा सब देख रहा है, जिसके भाग्य में उसने जो लिख दिया है वहीं होगा, मछुआरा बोला।।
अच्छा, ठीक है... ठीक है, ज्यादा ज्ञान मत बघारो!! पहले रोगी की चिंता करो, मैं जब तक जड़ी बूटी पीसती हूं,तुम इसके गीले वस्त्र बदलकर सूखे वस्त्र पहना दो, पत्नी बोलीं।
वैसे मछुआरे की पत्नी हृदय की बुरी नही थी,बस थोड़ी निर्धनता ने स्थिति को दयनीय बना दिया है, इसलिए थोड़ी क्रोधित हो रही थी।
मछुआरे का नाम शंखनाद , पत्नी का नाम सिमकी है उनका जो पांच साल का बेटा है उसका नाम कैलाश है।
सिमकी ने शीघ्रता से दो तीन प्रकार की जड़ी बूटियां पीस डाली, कुछ घाव में लगाने के लिए कुछ माथे का ताप कम करने के लिए और कुछ पैर के तलवे में मलने के लिए।
दोनों पति-पत्नी, राजा प्रबोध की सेवा में लग गए,दिन से रात्रि हो गई लेकिन प्रबोध ने नेत्र नहीं खोले लेकिन हृदय गति अभी भी चल रही थी,प्रात: होते होते राजा प्रबोध ने अपने नेत्र खोले और पूछा __
" मैं कहां हूं"
शंखनाद बोला,महाशय,आप हमारी झोपड़ी में है, नदी किनारे आप मुझे अचेत अवस्था में मिले थे तो मैं आपको ले आया,आप पता नहीं ऐसी अवस्था में कब से है, शायद कोई अधूरा काम आपके हाथों से होना लिखा है इसलिए ईश्वर ने भी आपके प्राण नहीं हरे।।
शंखनाद ने सिमकी को आवाज दी,अरे सुनो जल्दी से हल्दी वाला दूध लाओ, महाशय ने आंखें खोल ली।
सिमकी बोली अभी लाई।।
शंखनाद ने प्रबोध को अपना सहारा देकर बैठाया और अपने हाथों से दूध पिलाकर बोला,अब बताइए महाशय, आप कौन है? और कहां से आए हैं?
राजा प्रबोध बोलें___
मित्र!! मैं पुलस्थ देश का राजा प्रबोध हूं, पड़ोसी देश का राजा मेरा मित्र था, उसने मेरे साथ बहुत बड़ा विश्वासघात किया, मुझसे गहरी मित्रता का स्वांग रचकर में, मेरा परिहास किया।।
पता नहीं, मेरी रानी सुखमती और मेरी पुत्री किस अवस्था में होंगे,उस पापी ने क्या किया होगा उनके साथ।
फिर शंखनाद बोला, बड़ी दुखद घटना हुई, महाराज आपके साथ, पहले आप पूरी तरह स्वस्थ हो जाए फिर देखेंगे, आगे क्या करना है?
राजा प्रबोध बोले, मित्र!! आपके शब्दों ने हमें बड़ा ढांढस बंधाया,संकट की घड़ी में प्रेम के दो मीठे बोल, उपचार का कार्य करते हैं, बहुत बहुत धन्यवाद!! मित्र जो आपने मुझे इस संकट से उबारा, आपका यह उपकार रहा मुझे पर, इतना कहकर प्रबोध ने शंखनाद को अपने हृदय से लगा लिया।
शंखनाद बोला, महाराज!! मैं एक मछुआरा हूं,मेरा नाम शंखनाद है,ये मेरी पत्नी सिमकी और बेटा कैलाश, आपने मुझे अपनी मित्रता के लायक समझा।।
और शंखनाद ने कहा, महाराज अब आप विश्राम करें और किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो कृपया बताएं।।
महाराज प्रबोध ने कहा ठीक है मित्र!!

क्रमशः___
सरोज वर्मा___🦋