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प्रोस्तोर --एक नया प्रयोग

प्रोस्तोर उपन्यास एक नया प्रयोग

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हिंदी में उपन्यास लेखन की परम्परा बहुत पुराणी नहीं है,मुश्किल से डेढ़ सौ साल पुराणी.कम ही उपन्यास लिखे जाते हैं,फिर आजकल पढने का समय किसके पास है?कुछ बरस पहले पश्चिम में उपन्यास के मरने की घोषणा की गयी थी मगर यह भविष्यवाणी गलत सिद्ध हुई. उपन्यास नहीं मरा बल्कि ज्यादा शिद्दत से लिखा जा रहा है,पढ़ा जा रहा है.

इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में तकनीक ने जीवन के सभी क्षेत्रों पर भयंकर हमला किया.तकनीक के नए नए आयाम आये ,साहित्य भी अछूता न रहा.नए नए लेखक तकनीक से लेस होकर मैदान-ए- जंग में उतरे.इनके पास नए सपने थे ,विचार थे और था संघर्ष का माद्दा. ये लोग तेजी आगे बढे.इस पीढ़ी ने किसी की परवाह किये बिना वो लिखा जो चाहा.खुली अर्थ व्यवस्था का दामन पकडे ये लोग साहित्य में मील के पत्थरर गाड़ने में मशक्कत करने लगे.

ऐसे ही एक लेखक मिले एम् एम् चंद्रा जिनका एक लघु उपन्यास सम्राट अशोक कई भाषाओँ में छपा,चर्चित हुआ.पढ़ा गया .पिछले दिनों उनका दूसरा लघु उपन्यास प्रोस्तोर पढ़ने का मौका मिला.नव आर्थिक उदार वाद की आंधी ने देश दुनिया को तेजी से बदला .समाज ,देश ,काल राजनीति ,अर्थनीति सब बड़ी तेजी से बदले.सुधारों की दूसरी खेप के नाम पर विनिवेश को सरकारी निति बनाया गया .कई छोटे मोटे कल कारखाने बंद हो गए.एसी ही एक मिल के बंद हो जाने की कहानी है चंद्रा का यह उपन्यास.

आर्थिक उदारवाद ने जो किया वो तो किया ही .उपर से साम्यवाद के पतन ने भी अपना रोल निभाया.मजदूर और उसके परिवार के दर्द को किसी ने नहीं समझा ,वैसे भी मजदूर व् किसान की कौन सुनता है?वे तो मरने केलिए ही हैं.

उदारवाद में धनी और धनी हो गया ,गरीब और गरीब हो गया .गिने चुने उद्द्योगपति सर् कार को एक प्राइवेट कम्पनी की तरह चलाने लगे.बुलेट ट्रेन के सपने आने लगे.नोट बंदी ,जी एस टी के नाम पर देश को एक नई निति दी जाने लगी.मगर मजदूर का कुछ नहीं हुआ ,यही इस लघु उपन्यास का थीम है.कलेवर में लघु है मगर विचार पुख्ता है.बीच बीच में व्यंग्य के पंच भी है ,लेकिन वे आनंद देते हैं चुभते नहीं.

उपन्यास में शोषण है ,अन्याय है ,गरीबी है,भुखमरी है, आगे बढ़ने के सपने हैं इन सपनों को टूटते देखने वाले हैं.

उपन्यास का एक पात्र अघोघसिंह है जो एक बंद मिल का मजदूर का बेटा है.पुलिस भी है,और उसका व्यवहार सर्वत्र एक जैसा ही है .मिल बंद होने के बाद ठेकेदार मनमानी करता है,भुगतान नहीं करता.चुनाव भी है.कच्ची बस्ती है,धुल मिटटी है.किशोर वय के बच्चे है जो कुछ करना चाहते है.योगेश व् अघोघसिंह की मित्रता लम्बी चलती है,मगर इन चरित्रों को और उभरा जाना चाहिए था. रचना में नारी पात्र ,महिला सशक्तिकरण का पहलु होता तो बेहतर होता.

टेक्नोलॉजी के उपकरणों की भी कमी खलती है.नई शिक्षा निति के लटके झटके हैं .असफलताएं है और आगे बढ़ने की ललक भी.शिक्षा का कबाड़ा करने केलिए हर कोई आपनी सनक को व्यवस्था के नाम पर जनता ,छात्रों पर थोप देता है,परिणाम कभी भी अच्चे नहीं आये.शिक्षा की नीतियाँ किसी को भी सही दिशा में नहिनले जाती .उपन्यास यह सब कहानी के माध्यम से कहता है.

समाज का सोच आर्थिक हो गया है,रिश्ते –नाते आर्थिक हो गए है.नयी व्यवस्था में नैतिकता ,चरित्र ,ईमानदारी गायब होगये हैं,इस सबका खामियाजा समाज ,व्यक्ति और देश को भुगतना पड रहा है.जो हमारे साथ नहीं वो गलत है यह सन्देश ही गलत है.उपन्यास इसको रेखांकित करता है.

उपन्यास में कही कही व्यंग्य हास्य भी है जो पठनीयता को बढ़ता है.जैसे एक छात्र द्वारा पहाडा पढना .

पढाई के नाम पर ढकोसला बा जी चलती है.गाँव से शहर कीओर जाने वाली हर सडक कुछ कहती है ,मगर सर्कार ,व्यवस्था को कुछ सुनाई नहीं देता .चंद्रा का यह लघु उपन्यास व्यवस्था के कानों तक पहुचेगा,एसी आशा करना उचित ही है.

युवा उपन्यासका र को मैं बधाई देता हूँ और उनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ.

यह उपन्यास भी कई भाषाओँ में छपे और खूब पढ़ा जाये.इसी कामना के साथ .

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यशवंत कोठारी ,८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बाहर ,जयपुर-३०२००२ मो-९४१४४६१२०७