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गवाक्ष - 44

गवाक्ष

44=

एक अजीबोगरीब मनोदशा में कॉस्मॉस ने आत्मा को प्रणाम किया, न जाने किस संवेदना के वशीभूत हो सत्यप्रिय ने उसके माथे पर अदृश्य चुंबन अंकित किया और पवन-गति से सब तितर-बितर हो गया। सत्यव्रत ने अंत:करण से सबको नमन किया तथा पृथ्वी से सदा के लिए विदा ली। एक सूक्ष्म पल के लिए पुष्पों से लदी उनकी पार्थिव देह में जैसे कंपन सा हुआ जिसको केवल ज्ञानी प्रो.श्रेष्ठी तथा कॉस्मॉस समझ सके। परम प्रिय मित्र की बिदाई की अनुभूति से प्रो.पुन:लड़खड़ा से गए, उन्हें पास खड़ी भक्ति ने संभाल लिया।

मीडिया को न किसी से सहानुभूति थी, न ही किसी के जाने की पीड़ा । उसे तो समाचारों की दरकार थी ।

ऐसे समय में मीडिया के लोग भक्ति से पूछ रहे थे ;

"आपको कैसा लग रहा है?"

किसी पिता की मृत्यु पर किसी पुत्री को कैसा लग सकता है? भक्ति को अटपटे प्रश्न पर खीज आ रही थी । वह चुप बनी रही ।

" मैडम ! प्लीज़ बताइए, कैसा लग रहा है ? "

“ एक बेटी को अपने सदाचारी, गांधीवादी पिता की मृत्यु पर कैसा लग सकता है?" भक्ति ने उन पर प्रश्न दागा ।

" आप लोग प्रश्न रटकर लाते हैं क्या ? यह कोई 'एवार्ड फंक्शन 'है जो आप यह प्रश्न पूछ रहे हैं ?। "

" मैडम ! आपके पिता गांधी जी के विचारों से बहुत प्रभावित थे इसीलिए ----गांधी जी के निर्णय को बहुत से लोग सही नहीं मानते लेकिन आपके पिता का निर्णय --"

मीडिया के व्यर्थ के प्रश्नों से वह वह खीज गई --

"आप यहां पर गांधी जी की राजनीति की चर्चा करने आए हैं क्या?"

जब राजनीतिक क्षेत्र के लोग भक्ति से गांधी जी के बारे में उल्टे-सीधे प्रश्न पूछते, वह सदा कहती;

"मैं उस गांधी का चित्र प्रस्तुत करना चाहती हूँ जिसने दूसरों के प्रति करुणा सिखाई, दूसरों की बेचारगी से जो पीड़ित हुए ----भूख को महसूस किया, स्वयं एक लंगोटी में रहे, दूसरों की नग्नता को ढाँपने का प्रयास किया, क्या उनके जैसा बनने की किसी ने भी चेष्टा की ? !!"

किसी प्रकार मीडिया के लोगों से छुटकारा दिलाकर प्रोफेसर ने भक्ति को गाड़ी में बैठा दिया । कुछ समय पश्चात ही सब लोग विद्युत-श्मशान गृह पहुँच चुके थे । कैमरे साथ-साथ चल रहे थे, श्मशान-गृह में उपस्थित महत्वपूर्ण लोगों पर कैमरे घुमाए जा रहे थे और कुछ छिछले लोग कैमरों की ओर अपने चेहरे घुमा-घुमाकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करने का अहसास करने की चेष्टा कर रहे थे।

मंत्री जी की इच्छानुसार बिना किसी टीमटाम के अंतिम क्रिया संपन्न हुई सामूहिक रूप से सस्वर प्रार्थना की गई ;

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माँ कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥

ॐ शांति:शांति:शांति:!

भीड़ तितर -बितर हो चली, केवल वे ही लोग उपस्थित रहे जो मंत्री जी के बहुत समीप थे। गाड़ियों की पीं-पीं, पुलिस वालों के वाहनों को नियंत्रित करने की आवाज़ें वातावरण में पसर गईं ।

कॉस्मॉस के भीतर उपद्रव फैल रहा था, वह प्रोफेसर के पास आकर खड़ा हो गया । उसकी उपस्थिति को प्रोफेसर ने महसूस कर लिया था, पास ही मंत्री जी की प्यारी बिटिया भक्ति अपने नेत्रों में अश्रुजल लिए प्रोफ़ेसर के कंधे पर सिर टिकाए खड़ी थी। कुछ दूरी पर भक्ति के दोनों भाई थे । कॉस्मॉस उदास था, मंत्री जी के पृथ्वी से जाने की बात उसे साल रही थी किन्तु उससे भी अधिक वह इस बात को लेकर पीड़ित था कि मंत्री जी को कोई और कॉस्मॉस ले गया था, हाँ, उसे थोड़ा सा इस बात का संतोष था कि वह मंत्री जी की इच्छा पूरी कर सका ।

चुपके से प्रोफेसर ने फुसफुसाकर कहा ;

"कुछ देर पश्चात चलेंगे ---"कॉस्मॉस ने अभी तक उन्हें कुछ बताया नहीं था।

" मुझे सत्यव्रत जी बता गए, भक्ति और मैं भी तुम्हारे साथ आकांक्षा से मिलने चलेंगे । "

कॉस्मॉस आश्चर्यचकित हो गया था ! इतनी देर में सत्यव्रत जी प्रोफेसर को बता भी गए थे, संभवत:पृथ्वी के लोगों में तथा उसमें दोनों में ही बदलाव आ रहे थे ।

अब सब शांत हो चला था, कुछ समय के लिए सबके मन में नीरव शान्ति ने श्मशान वैराग्य की भावना को प्रसरित कर दिया था । कॉस्मॉस पृथ्वी से जाने वाले के पश्चात होने वाली क्रियाओं को अचंभे से देख रहा था । जिस हॉलनुमा कमरे में मंत्री जी का पार्थिव शरीर था, उसमें तथा अन्य सब स्थानों पर सफाई की जा रही थी ।

भक्ति ने एक सुन्दर सी मेज़ पर अपने स्वर्गीय पिता की तस्वीर रख दी थी जिस पर ताज़े पुष्पों का हार चढ़ा दिया गया था। मेज़ एक सुन्दर श्वेत रेशमी मेज़पोश से ढकी गई थी जिसको पुष्पों से भर दिया गया था । मेज़ के नीचे भी एक छोटी मेज़ जिस पर पुष्पों के एक बड़े से सुन्दर टोकरे को रख दिया गया था। पूरे वातावरण में एक अजीब सा सहमापन, स्तब्धता व चुप्पी पसरी हुई थी ।

बड़ी मेज़ पर मंत्री जी की प्रसन्नवदन तस्वीर के समक्ष दोनों कोनों पर धूप-दीप रख थे जिनमें सुगंधित अगरबत्तियाँ लगा दी गईं थीं । हॉल में नीचे दोनों ओर गद्दे बिछाकर धवल चादरें बिछाई गईं थीं । स्नान आदि से निवृत होने के पश्चात अफ़सोस करने वालों का ताँता फिर से लग गया था। सब शांति से आते, मंत्री जी की तस्वीर के समक्ष झुककर प्रणाम करते, पुष्पांजलि अर्पित करते और जाकर नीचे बिछे हुए गद्दे पर बैठ जाते। इस प्रकार का कार्यक्रम अब कम से कम दो-तीन दिनों तक चलने वाला था, क्रमश:भीड़ कम होने वाली थी । भक्ति के दोनों भाई श्रद्धांजलि देने आने वालों के लिए वहाँ उपस्थित थे । वह कुछ समय के लिए बाहर निकल सकती थी । वह किसी फ़ोन की प्रतीक्षा कर रही थी ।

कुछ ही देर में भक्ति के मोबाईल पर शायद कोई आवश्यक फ़ोन आया था, भक्ति भाइयों से कुछ देर में वापिस लौटने का बात कहकर बाहर निकल आई । भक्ति को बाहर जाते देखकर कॉस्मॉस भी पल भर में बाहर पहुँच गया। प्रोफ़ेसर ने भक्ति से सत्याक्षरा के बारे में चर्चा की और भक्ति प्रोफ़ेसर के साथ बँगले के कंपाउंड के बाहर आकर गाड़ी में बैठ गई ।

कुछ ही दूर गाड़ी चली थी कि प्रोफ़ेसर विद्य ने पूछा ;

"तुम हो न ?"

"जी --"

भक्ति को कोई दिखाई नहीं दे रहा था। स्वाभाविक था, वह चौंकी। प्रोफेसर ने भक्ति को संक्षिप्त में कॉस्मॉस की कहानी बताकर उसको आज्ञा दी ;

"मानव-रूप में आ जाओ । "

इस बार कॉस्मॉस को अपने रूप परिवर्तन में समय लग गया किन्तु कुछ कुछ देर पश्चात वह एक सुदर्शन युवक के रूप में गाड़ी में था।

" क्या बात है, इतनी देर क्यों लगी?"प्रोफ़ेसर ने पूछा।

" लगता है सर, मेरी शक्ति समाप्त हो रही है। "

भक्ति आश्चर्यचकित हो उठी ---

'यह क्या ? खुल जा सिम-सिम सा ----- । उसकी दृष्टि सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रही थी लेकिन वास्तविकता थी, एक सुदर्शन युवक ने एक झौंके की भाँति बंद गाड़ी में प्रवेश किया था जो उसको हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहा था ।

वह हँस पड़ी --

" कोई इतनी बड़ी भी नहीं होऊंगी तुमसे कि तुम मुझे झुककर प्रणाम करो किन्तु तुम हो कौन ? । " आश्चर्य में भरकर भक्ति ने फटी हुई दृष्टि से युवक को घूरते हुए पूछा जैसे वह गाड़ी में बैठे हुए कोई जादूगर का तमाशा देख रही थी ।

"आपने जादू कब से शुरू कर दिया ?"उसने प्रोफ़ेसर विद्य से पूछा ।

प्रोफ़ेसर ने भक्ति के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया, वे बता चुके थे कि वह कॉस्मॉस है, भक्ति विस्तार से जानना चाहती थी। वे कॉस्मॉस से मुखातिब हुए ।

“भक्ति की बहुत प्रिय सखी है सत्याक्षरा । दोनों मेरे साथ ही पी.एचडी का कार्य कर रही थीं । वह सत्याक्षरा से एक वर्ष पूर्व मेरे पास आ गई थी । समयाभाव के कारण मैंने उसे अपने साथ कार्य करने के लिए मना कर दिया था किन्तु उसकी लगन तथा दर्शन के प्रति उत्सुकता देखकर मुझे उसका मार्गदर्शक बनने के लिए बाध्य होना पड़ा । मुझे विदेश व्याख्यान के लिए जाना पड़ता था । ”

“ भक्ति मेरी व्यस्तता के बारे में भली प्रकार परिचित थी किन्तु सत्याक्षरा की लगन देखकर इसने भी मुझे बाध्य किया कि मैं उसे अपनी शिष्या के रूप में स्वीकार करूँ । इसका निबंध पूरा हो चुका था, यह मेरे साथ जर्मनी के विश्वविद्यालयों में गांधी-दर्शन की चर्चा करने गई थी, सत्याक्षरा अपने निबंध के अंतिम छोर पर थी । वह दिन-रात एक करके अपने कार्य को उच्च कोटि का बनाकर मेरे समक्ष प्रस्तुत करना चाहती थी । ”

“जब हम जर्मनी में थे तभी हमें सूचना प्राप्त हुई कि सत्याक्षरा अचानक विलुप्त हो गई । हम दोनों शीघ्रताशीघ्र लौटे थे किन्तु हमें निराशा प्राप्त हुई । हमने उसे बहुत खोजा, सत्यव्रत जी ने अपनी सारी शक्ति लगा दी किन्तु वह नहीं मिली । भक्ति का वहाँ कार्य शेष था अत: वह वापिस जर्मनी चली गई और मैं अपने अधूरे ग्रन्थ में व्यस्त होकर सत्याक्षरा की प्रतीक्षा करता रहा । विदेश जाने से पूर्व भक्ति उसे बहुत खोजती रही थी । अब तुम्हारे माध्यम से हम सत्याक्षरा से मिल सकेंगे। "

भक्ति उसे देखकर प्रसन्न व चकित थी ।

"मेरे गुरु व पिता के माध्यम से तुमने बहुत कुछ जाना है और अब हम उस स्थान के विषय में जान सकेंगे जिसमें से तुम आए हो और आगे की भी कुछ शोध कर सकेंगे । ?"

" जी--- अब संभव नहीं लगता ---"कॉस्मॉस विनम्र था ।

"क्यों ?"

" मैं अपनी शक्ति खोता जा रहा हूँ --"

अचानक उसने प्रोफ़ेसर से निवेदन किया ;

"सर! क्या आप एक पल के लिए इस वृक्ष के नीचे गाड़ी रोक सकेंगे?"

" कोई विशेष कारण ?" उन्होंने गाड़ी रोक ली ।

" जी, मैं अभी आया --" कहकर वह गाड़ी से निकल गया।

क्रमश..