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नया सबेरा

नया सबेरा

हाॅस्पिटल के आपातकालीन कक्ष में प्रवेश करते ही स्नेहा ने वहां मौजूद नर्स को अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘सिस्टर, मेरा नाम स्नेहा है। मैं एक दैनिक समाचार-पत्र के लिए बतौर पत्रकार काम करती हूं और मैं यहां आपकी पेसेंट दीप्ती से मिलने आयी हूं।’’

‘‘लेकिन मुझे किसी से नहीं मिलना है, सिस्टर प्लीज, इनसे कह दीजिए, यह यहां से चली जायें।’’ दीप्ती जो स्नेहा की बात सुन रही थी, ने कहा और खुद को चादर में ढांप कर दूसरी तरफ करबट बदलकर लेट गयी।

अपने प्रति दीप्ती के इस रूखे व्यवहार को देखकर स्नेहा जरा भी विचलित नहीं हुई, बल्कि उसके होठों पर मुस्कुराहट उभर आयी। कुछ क्षण वह वहीं खड़ी होकर उसे देखती रही। फिर उसके पास आकर बड़ी आत्मीयता से वह बोली, ‘‘ठीक है दीप्ती, तुम कहती हो मैं तो यहां से चली जाऊंगी, लेकिन जाने से पहले मैं तुम से सिर्फ इतना पूछना चाहूंगी कि क्या तुम चाहती हो कि जिस एड्स जैसी प्राणघातक बीमारी से तुम जूझ रही हो, उसी बीमारी से देश की पूरी युवा पीढ़ी ग्रस्त हो जाये..?’’

स्नेहा की बात सुनकर दीप्ती ने झटके से अपने आपको चादर से अलग किया और उठकर बैठते हुए बोली, ‘‘नहीं स्नेहा जी, मैं नहीं चाहती कि देश का कोई भी इंसान एड्स का शिकार हो। ...स्नेहा जी, एड्स बड़ी खतरनाक बीमारी होती है। इस बीमारी से इंसान जीते-जी मर जाता है।’’

‘‘दीप्ती, अगर ऐसा है तो तुम इस देश की युवापीढ़ी को एड्स जैसी प्राण घातक बीमारी की दलदल में धंसने से पहले बचा क्यों नहीं लेतीं...?’’

‘‘स्नेहा जी, आप कैसी बात कर रही हैं, जो खुद मौत और जिन्दगी से लड़ रहा हो, वह भला किसी और को कैसे बचा सकता है...?’’

‘‘दीप्ती, तुम चाहो तो बचा सकती हो।’’

‘‘कैसे..?’’

‘‘अखबार के माध्यम से, देश के लोगों को सिर्फ इतना बता दो कि तुम एड्स की शिकार कब और कैसे हो

गयीं..?’’

स्नेहा की बात सुनकर दीप्ती कुछ देर के लिए खामोश हो गयी। फिर भावुक होकर बोली, ‘‘स्नेहा जी, अगर मेरे बताने से देश के लोगों का भला हो सकता है, तो मैं अपने देशवासियों को यह बात जरूर बताऊंगी कि मैं एड्स जैसी जानलेवा बीमारी की शिकार कैसे हो गयी।’’

इतना कहकर दीप्ती यादों की उन गलियों में घुस गयी, जहां से वह एड्स जैसी बीमारी का शिकार हुई थी। दीप्ती उन दिनों शहर के डिग्री काॅलेज में पढ़ती थी। उसके साथ सुबोध भी पढ़ता था। सुबोध दीप्ती को दिलो-जान से चाहता था, मगर दीप्ती को उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। यह बात सुबोध भी अच्छी तरह जानता था। फिर भी वह दीप्ती के आगे-पीछे मडराता रहता था और कुछ-कुछ कहकर उसका ध्यान अपनी तरफ केंद्रित करता रहता था। दीप्ती उसकी बातों को सुनकर अनसुना कर देती थी।

कई बार दीप्ती ने सोचा भी कि सुबोध की हरकतों के बारे में वह अपने मम्मी-पापा को बता दे, लेकिन वह यह सोचकर खामोश रही कि अगर उसने अपने मम्मी-पापा को बता भी दिया तो सुबोध के घर वालों से कहासुनी होगी, जिससे उसकी और उसके मम्मी-पापा की बदनामी होगी। लेकिन सुबोध उसकी खामोशी का फायदा उठाता रहा।

एक दिन दीप्ती काॅलेज की लाइब्रेरी में बैठी अपने नोट्स बना रही थी। उस समय वह वहां बिल्कुल अकेली थी, अचानक सुबोध वहां आ गया। उसे देखकर दीप्ती वहां से उठकर चल दी, तो वह उसका रास्ता रोककर बोला, ‘‘दीप्ती, मैं यहां तुमसे मिलने आया हूं और तुम जा रही हो। दीप्ती, कुछ देर बैठो न, मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूं।’’

लेकिन दीप्ती सुबोध से कुछ बोले बिना वहां से बाहर सड़क पर आ गयी और घर जाने के लिए आॅटो का इंतजार करने लगी। उसके पीछे-पीछे सुबोध भी वहां आ गया। उसे इस तरह अपना पीछा करते देख दीप्ती का तन-बदन सुलग उठा। उसके मन में तो आ रहा था कि उसका मुंह नोच ले। लेकिन वह अपने गुस्से को पी गयी, क्योंकि वह ऐसा कुछ करके सड़क पर सबके सामने तमाशा नहीं बनना चाहती थी। उसने बड़ी शालीनता से सुबोध को समझाते हुए कहा, ‘‘सुबोध, तुम मेरा पीछा करना छोड़ दो, क्योंकि मुझे तुममें कोई दिलचस्पी नहीं है। वैसे भी मैं प्यार-व्यार के चक्कर में न पड़कर, अपनी पढ़ायी करना चाहती हूं।’’

सुबोध फिर भी नहीं माना। वह उसके साथ जोर-जबरदस्ती करने लगा तो दीप्ती के सब्र का बांध टूट गया। फिर क्या था, उसने सड़क पर ही सबके सामने उसके गाल पर दो-तीन थप्पड़ जड़ दिये और वहां से अपने घर चली गयी।

उस दिन के बाद सुबोध ने दीप्ती का पीछा करना तो दूर, उसकी तरफ देखना भी छोड़ दिया। सुबोध में आये इस परिवर्तन को देखकर दीप्ती समझ गयी कि जरूर सुबोध को वहां खड़े लोगों ने जलील किया होगा, जिसकी वजह से वह सुधर गया।

उस घटना के तीन महीने बाद एक दिन दीप्ती रात को अपनी सहेली के बर्थ-डे पार्टी से लौट रही थी। हालांकि रात ज्यादा नहीं हुई थी, लेकिन बारिश हो जाने की वजह से सड़क सूनसान थी और आॅटो भी दिखायी नहीं दे रहे थे। दीप्ती ने वहां खड़े होकर आॅटो का इंतजार करना उचित नहीं समझा और यह सोचकर कि आगे आॅटो मिल जायेगा, वह पैदल ही चलने लगी।

थोड़ी दूर चलने के बाद उसे ऐसा लगा, जैसे दो मनचले लड़के बाइक से उसका पीछा कर रहे हैं। उन्हें देखकर दीप्ती और तेजी से चलने लगी। जैसे ही वह सूनसान जगह पर आयी, वैसे ही उसके पीछे चल रहे लड़कों ने अपनी बाइक उसके सामने लाकर रोक दी और उसके साथ छेड़खानी करने लगे। उन मनचले लड़कों के बीच में फंसकर दीप्ती जोर-जोर से बचाओ....बचाओ....करके चिल्लाने लगी।

सुबोध उधर से गुजर रहा था। दीप्ती की आवाज सुनकर उसने अपनी बाइक रोक ली और उन मनचलों को मारपीट कर वहां से भगा दिया। दीप्ती ने सुबोध का शुक्रिया अदा करते हुए कहा, ‘‘थैंक गाॅड, अगर तुम समय पर यहां नहीं आते तो पता नहीं आज मेरे साथ क्या होता ?’’

दीप्ती की बात पर सुबोध बोला, ‘‘दीप्ती, गलती तुम्हारी है, तुम्हें रात को वह भी बारिश के मौसम में अकेले इस तरह नहीं आना चाहिए था। वो तो कह लो मैं इधर से गुजर रहा था, तो तुम बच गईं वरना आज तुम्हारे साथ कुछ अनहोनी हो जाती।’’ं

‘‘तुम ठीक कह रहे हो सुबोध, सचमुच भगवान् ने तुम्हें फरिश्ता बनाकर मेरे लिए भेज दिया। .....समझ में नहीं आ रहा है कि तुम्हारा शक्रिया अदा कैसे करूं..?’’

दीप्ती की बात पर सुबोध ने कहा, ‘‘दीप्ती, मेरी दिली तमन्ना है कि तुम्हारे साथ बैठकर काॅफी पियूं...अगर आज तुम मेरी यह तमन्ना पूरी कर दोगी, तो मैं समझूंगा, तुमने मेरा शुक्रिया अदा कर दिया।’’

दीप्ती सुबोध के आग्रह को टालकर उसको निराश नहीं करना चाहती थी, इसलिए उसके साथ काॅफी पीने चली गयी।

अगले महीने दीप्ती का बर्थ-डे था। सबसे पहले सुबोध ने उसे बर्थ-डे की बधाई दी और उसके साथ काॅफी पीने की इच्छा जाहिर की।

हर साल की तरह उस साल भी दीप्ती को अपने मम्मी-पापा और अपनी सहेलियों के साथ अपना बर्थ-डे सेलीब्रेट करना था। लेकिन वह सुबोध का भी दिल रखना चाहती थी इसलिए थोड़ा-सा समय निकालकर वह

सुबोध के साथ काॅफी पीने चली गयी। काॅफी पीने के बाद सुबोध ने दीप्ती को एक बड़ा पीले रंग का लिफाफा देते हुए कहा, ‘‘दीप्ती, यह लिफाफा तुम्हारे लिए है, तुम्हारे बर्थ-डे का तोहफा।’’

‘‘अच्छा, क्या है इसमें..?’’

‘‘यह तुम्हारा सरप्राइज गिफ्ट है। इसे घर में जाकर अकेले में देखना और बताना कैसा लगा।’’

दीप्ती ने लिफाफा लेकर सुबोध को थैंक्स कहा और अपने घर चली आयी। घर आकर उसने लिफाफे को बिना किसी को दिखाये अपने कमरे में रख दिया और सबके साथ अपना बर्थ-डे सेलीब्रेट करने लगी। लेकिन उसका मन सुबोध के दिए लिफाफे में ही पड़ा रहा।

रात को बर्थ-डे पार्टी खत्म होने के बाद दीप्ती अपने कमरे में गयी और खुशी-खुशी सुबोध का दिया लिफाफा खोलकर देखा। लिफाफे में दीप्ती के फोटोग्राफ्स थे। उन फोटोग्राफ्स को देखकर दीप्ती हक्का-बक्का रह गयी। उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया, क्योंकि उसके वो सारे फोटोग्राफ्स सुबोध के साथ आपित्तजनक स्थिति में खिंचे हुए थे। दीप्ती सोच में पड़ गयी कि वो फोटोग्राफ्स सुबोध ने कब, कहां और कैसे उतरवाये..?

सुबोध उसके साथ इतना बड़ा धोखा भी कर सकता था, दीप्ती को यकीन ही नहीं हो रहा था। न ही वह यह समझ पा रही थी कि सुबोध ने उसके साथ ऐसा घिनौना मजाक क्यों किया...? दीप्ती पूरी रात सोई नहीं। वह उन फोटोग्राफ्स के बारे में ही सोचती रही। सुबह होते ही दीप्ती सुबोध मिली।

दीप्ती को देखकर सुबोध का चेहरा खुशी से फूल की तरह खिल उठा। वह हंसकर दीप्ती से बोला, ‘‘दीप्ती मुझे मालूम था, फोटोग्राफ्स देखते ही तुम मेरे पास जरूर आओगी। कहो कैसा लगा, तुम्हें, तुम्हारे बर्थ-डे का गिफ्ट, पसंद आया न...?

सुबोध के इस रूप को देखकर दीप्ती का तन-बदन सुगल उठा। गुस्से से उसका चेहरा लाल हो गया। इससे पहले कि वह सुबोध से कुछ कहती, सुबोध व्यंग्यात्मक हंसी हंसकर बोला, ‘‘दीप्ती, यह नहीं पूछोगी, कि तुम्हारे यह खूबसूरत फोटोग्राफ्स मैंने कब, कहां और कैसे लिए...?’’

‘‘सुबोध, यही जानने के लिए तो मैं तुम्हारे पास आयी हूं।

दीप्ती की बात पर सुबोध खिलखिलाकर हंस पड़ा और बोला, ‘‘याद करो दीप्ती, बरसात की वो रात, जिस रात तुम अपनी सहेली का बर्थ-डे सेलीब्रेट करके घर वापस आ रही थीं, वो भी बिल्कुल अकेली। सड़क पर रात का सन्नाटा पसरा हुआ था। उसी समय पीछे से दो गुण्डों ने आकर तुम्हारे साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी थी और तुम मदद के लिए चीखने लगीं। उसी समय मैं वहां आ गया और तुम्हें उन गुण्डों से बचा लिया। क्यों याद आया न...?’’

‘‘हां, सबकुछ याद आ गया।’’

‘‘फिर तो तुम्हें यह भी याद होगा कि काॅफी हाऊस में जब बेटर ने मेज पर काॅफी रखी थी तो तुम्हारा पर्स भी नीचे गिर गया था।’’

‘‘हां, वो भी याद है।’’

‘‘बस, तुम अपना पर्स उठाने के लिए नीचे झुकीं थीं और मैंने उसी समय तुम्हारी काॅफी में नशे की गोली डालकर अपना काम कर दिया था। नशीली काॅफी पीकर तुम बेहोश होने लगीं। मुझे ये तो मालूम ही हो गया था कि तुम्हारे मम्मी-पापा तुम्हारी दीदी से मिलने शहर से बाहर गये हुए थे। यह बात भी ही तुमने मुझे काॅफी पीते वक्त बतायी थी। उसी मौके का फायदा उठाते हुए मैं तुम्हें लगभग बेहोशी की हालत में तुम्हारे घर ले गया और तुम्हारे ही बिस्तर पर तुम्हारे खूबसूरत जिस्म का चित्रण कर डाला था।

‘‘ओह, तो इसका मतलब उस दिन मेरे साथ जो कुछ हुआ, वो सच नहीं बल्कि एक ड्रामा था...? वह भी तुम्हारा रचाया हुआ ड्रामा ?’’

‘‘हां, उस रात तुम्हारे साथ जो भी हुआ था, वो सच नहीं एक ड्रामा था। तुम्हें छेड़ने वाले वो दोनों लड़के गुण्डे ं नहीं, मेरे दोस्त थे।’’

‘‘सुबोध, तुम इतना भी गिर सकते हो ऐसी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। आखिर तुमने मुझे यह किस जुर्म की सजा दी है..?’‘

‘‘दीप्ती, तुम्हें वो थप्पड़ तो याद होगें, जो सड़क पर सबके सामने तुमने मेरे गाल पर मारे थे ? उन थप्पड़ों की गूंज जब भी मेरे कानों में गूंजती है, तो मैं तड़प उठता हूं। उस दिन सबके सामने सड़क पर मेरा जो अपमान तुमने किया था, उस अपमान को मैं भूल नहीं पा रहा हूं और तब तक भूलूंगा भी नहीं, जब तक मैं तुमसे पूरी तरह अपने अपमान का बदला नहीं ले लूंगा और जिस दिन मेरा बदला पूरा हो जायेगा, मैं अपने मोबाइल से तुम्हारे फोटोग्राफ्स भी डिलीट कर दूंगा।’’

‘‘सुबोध, मैं तुम्हारे अपमान का बदला चुकाने को तैयार हूं। बताओ मुझे क्या करना होगा...?

‘‘दीप्ती, अगर तुम चाहती हो कि मैं अपने मोबाइल फोन से तुम्हारे फोटो डिलीट कर दूं, तो उसके लिए तुम्हें उनकी कीमत चुकानी होगी।’’

‘‘क्या कीमत चुकानी होगी मुझे ?’’

‘‘दीप्ती, तुम्हें, तन से मेरा होना होगा।’’

‘‘नहीं सुबोध, मैं मर जाऊंगी, पर ऐसा नहीं करूंगी।’’

‘‘नहीं करोगी तो मत करो। मैं तुम्हारे फोटोग्राफ्स नेट पर अपलोड करके, तुम्हें इतना बदनाम कर दूंगा कि तुम किसी को भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगी।’’

‘‘नहीं सुबोध प्लीज, ऐसा मत करना, नहीं तो मैं और मेरे मम्मी-पापा जीते-जी मर जायेंगे। ...सुबोध, तुम चाहो तो मुझे मार-पीट कर अपना बदला चुका लो, मगर मेरे फोटो नेट पर अपलोड मत करना। सुबोध प्लीज, मुझे, मेरी गलती की इतनी बड़ी सजा मत दो।...मैं तुम्हारे हाथ जोड़ रही हूं, प्लीज, मुझे माफ कर दो, नहीं तो मेरी लाइफ बरबाद हो जायेगी।’’

दीप्ती सुबोध के सामने बहुत रोई, गिड़गिड़ाई, मगर सुबोध का मन नहीं बदला। वह अपनी बात पर अड़ा रहा। आखिर में जब दीप्ती पूरी तरह हार गयी और उसने सोच लिया कि अब कुछ नहीं होने वाला है, तो उसने मजबूर होकर सुबोध से कहा, ‘‘सुबोध, अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि मेरे जिस्म से खेलकर तुम्हारे अपमान का बदला पूरा हो सकता है, तो मैं तैयार हूं। लेकिन मैं यह कैसे यकीन कर लूं कि तुम्हारी इच्छा पूरी होने के बाद तुम मेरे फोटोग्राफ्स अपने मोबाइल से डिलीट कर दोगे...?’’

‘‘दीप्ती, यकीन तो तुम्हें करना पड़ेगा।’’

‘‘दीप्ती ने सोचा, जो इंसान धोखे से उसके फोटोग्राफ्स ले सकता है, वह क्या नहीं कर सकता है ? और अगर ऐसा हो गया, सुबोध ने उसके फोटोग्राफ्स नेट पर डाल दिये तो वह कहीं की नहीं रह जाएगी। बस, यही सोचकर न चाहते हुए भी दीप्ती ने खुद को सुबोध के हवाले कर दिया। लेकिन सुबोध निहायत ही नीच और बदतमीज किस्म का इंसान निकला। उसकी इच्छा पूरी होने के बाद भी उसने दीप्ती के फोटो अपने मोबाइल से डिलीट नहीं किये। बस, यहीं से शुरू हुआ सिलसिला उसकी बरबादी का।

सुबोध जब चाहता दीप्ती को अपने पास बुला लेता और उसके साथ मनमानी करता। जब दीप्ती से उसका मन भरने लगा तो उसने लोगों से उसकेे जिस्म का सौदा करना शुरू कर दिया। दीप्ती उसके हाथों की कठपुतली बनकर उसके ईशारों पर नाचने लगी। और एक-के-बाद-एक, वह न जाने कितने बिस्तरों की रौनक बना दी गयी।

सुबोध की ज्यादतियों से तंग आकर दीप्ती मानसिक तनाव में आ गयी। वह मन-ही-मन टूटने लगी। और

सुबोध के जाल से निकलने के लिए छटपटाती रही, पर वह चाहकर भी उसके जाल से निकल नहीं पा रही थी। उसने कई बार अपने मम्मी-पापा को अपने बारे में बताने की कोशिश भी की, लेकिन वह ऐसा कर नहीं पायी, क्योंकि वह जानती थी कि उसके मम्मी-पापा उस पर बहुत भरोसा करते हैं और जब उन्हें पता चलेगा कि उसने उनके भरोसे को तोड़ दिया, तो उन्हें बहुत दुःख होगा।

परिणामस्वरूप सुबोध की मनमानियों ने दीप्ती को बीमारी के बिस्तर पर लिटा दिया। दीप्ती को कुछ भी अच्छा नहीं लगता, उसे, उसका शरीर बेजान-सा लगनेे लगा। वह हर समय अलसायी-अलसायी-सी रहने लगी। न खाना खाने को मन करता, न पढ़ने-लिखने को, बस पूरे-पूरे दिन वह बिस्तर पर पड़ी सोती रहती, जिससे उसके शरीर का वजन भी धीरे-धीरे कम होने लगा और बुखार भी रहने लगा था।

उसके मम्मी-पापा ने उसे कई डाॅक्टरों को दिखाया, मगर कोई फायदा नहीं हुआ तो हारकर उन्होंने उसे शहर के सबसे बड़े डाॅक्टर खन्ना को दिखाया। डाॅक्टर खन्ना ने दीप्ती के कई टेस्ट करवाये। सभी टेस्टों की रिपोर्ट आने के बाद डाॅक्टर खन्ना चैंक गये। उन्होंने दीप्ती से अकेले में बात करके उसे बताया कि टेस्ट रिपोर्टस के मुताबिक वह एचआईवी पाॅजिटिव है। उन रिपोर्ट्स का जो मानसिक आघात दीप्ती के मम्मी-पापा को पहुंचा, वो पहुंचा ही, लेकिन दीप्ती के तो जैसे होश ही उड़ गये। उसे खुद से नफरत होने लगी। उसे ऐसा लगने लगा, जैसे उसके लिए सबकुछ खत्म हो गया हो।

दीप्ती को लगने लगा कि उसने सुबोध पर विश्वास करके बहुत बड़ी गलती कर दी। सुबोध ने न सिर्फ उसका विश्वास तोड़ा बल्कि उसकी जिन्दगी तबाह और बर्बाद करके उसे कहीं का नहीं छोड़ा। गलती उसी की थी, उसे

सुबोध की ज्यादतियों के बारे में अपने मम्मी-पापा को पहले ही बता देना चाहिए था। ....क्या सोच रहे होंगे मम्मी-पापा उसके बारे में ? कैसे कर पाएगी वह उनका सामना। नहीं, इससे पहले कि लोग उसे अपनी नफरत का निशाना बनायें, उसे हेय दृष्टि से देखें, उल्टे-सीधे ताने मारें, उस पर फब्बितयां कसें.....उसे मर जाना चाहिए।’’

आत्मग्लानि से वशीभूत हो दीप्ती ने आत्महत्या करने का निर्णय ले लिया। संयोग की बात थी, उस समय बार्ड में दीप्ती बिल्कुल अकेली थी। न उसके मम्मी-पापा वहां मौजूद थे और न ही कोई डाॅक्टर या नर्स। उसने मौके का फायदा उठाया और चुपचाप हाॅस्पिटल से बाहर निकल आयी। लेकिन कहते हैं मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। दीप्ती हाॅस्पिटल से जैसे ही बाहर निकली सामने से डाॅक्टर खन्ना आ गये। दीप्ती को अचानक हाॅस्पिटल से बाहर देखकर वह चैंक गये। उन्होंने दीप्ती से पूछा, कि वह कहां जा रही है ? दीप्ती ने कोई जवाब नहीं दिया और चुपचाप वहां से जाने लगी। उन्होंने उसे रोका और सख्ती से पूछा कि वह कहां जा रही, तो दीप्ती एकदम भावुक होकर रोने लगी और कहने लगी, ‘‘डाॅक्टर साहब, मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रही, इसलिए मैं मरना चाहती हूं’’

डाॅक्टर खन्ना ने दीप्ती को समझाया और कहा, जिन्दगी से हार मान लेना बुजदिली ही नहीं कायरता भी होती है। भूलवश अगर तुमसे कोई गलती हो भी गयी, तो तुम दूसरी गलती करने पर आमादा हो गयीं। सोचो दीप्ती, अगर तुम मर गयीं, तो तुम्हारे मम्मी-पापा का क्या होगा...? क्या वह तुम्हे खोकर जिन्दा रह पायेंगे, नहीं न ...? दीप्ती मेरी बात मानों, तुम्हारे साथ जो भी हुआ उसे एक बुरा सपना समझ कर भूल जाओ।’’

‘‘कैसे भूल जाऊं ? डाॅक्टर साहब, मैं कुछ भी नहीं भूल पा रही हूं और फिर मैं जिन्दा रहकर भी क्या करूंगी, क्योंकि जो बीमारी मुझे लगी है, उससे तो मुझे कभी छुटकारा मिलेगा नहीं।’’

‘‘यह बात तुमसे किसने कह दी दीप्ती, कि एचआईवी लाइलाज बीमारी है ? दीप्ती, तुम बिल्कुल ठीक हो जाऊंगी। यह मैं तुमसे कह रहा हूं।’’

डाॅक्टर खन्ना दीप्ती को समझा-बुझा कर वापस हाॅस्पिटल में ले आये। उनकी प्रेरणा से दीप्ती के अन्दर जीने की शक्ति, उमंग और आत्मविश्वास पैदा हो गया। दीप्ती ने स्नेहा को बताया कि डाॅक्टर खन्ना के इलाज से अब वह अपने आपको पूरी तरह स्वस्थ महसूस कर रही है। लेकिन अभी भी उसे किसी से मिलने या एड्स के ऊपर बात करने से डर लगता है।’’

‘‘दीप्ती, कहते हैं, जब आंख खुल जाये तभी सबेरा हो जाता है। तुम ठीक हो गयीं, यह मेरे लिए भी खुशी की बात है। रही बात खोये हुए आत्मविश्वास और स्वाभीमान की तो धीरे-धीरे वह भी वापस आ जायेगा। दीप्ती, तुमने मुझसे बात की इसके लिए मैं तुम्हें शुक्रिया कहती हूं और तुम्हें यह भी बताती हंू कि तुम्हारी दी हुई जानकारी कल सुबह के अखबार में लोगों के लिए नया सबेरा बनकर आयेगी। यह जानकारी हमारी युवापीढ़ी को पथभ्रष्ट होने से बचायेगी। दीप्ती, चलते-चलते मैं तुमसे यह जरूर पूछना चाहूंगी कि तुम देश की भटकती युवापीढ़ी को क्या संदेश देना चाहोगी..?’’

‘‘स्नेहा जी, मैं अपनी युवापीढ़ी से यही कहना चाहूंगी कि एक गलती करने के बाद दूसरी गलती कभी न

करें, जैसे मैंने की। मैं अगर समय रहते सुबोध की करतूतों के बारे में अपने मम्मी-पापा को बता देती तो शायद

सुबोध अपने मकसद में कभी कामयाब न हो पाता।’’

एक-एक करके घर-परिवार एवं चिर-परिचितों सब के खून की जांच हो गई मगर नतीजा शून्य ही रहा। यह जानकर कि अविनाश का ब्लड गु्रप किसी के ब्लड गु्रप से मेल नहीं खा पाया तो सभी के चेहरे ऐसे मुर्झा गए, जैसे दोपहर की खिली धूप पर अचानक काले बादल छा गए हों। सबके हाथों के जैसे तोते उड़ गए। सभी के चेहरे प्रश्नवाचक चिन्ह की मुद्रा में घूम गए, जिसका एक ही संकेत था, कि अब क्या होगा ?

डाॅक्टरों की जांच रिपोर्ट्स के मुताबिक अविनाश की दोनों किडनियां खराब हो चुकी थीं। डाॅक्टरों का कहना था कि अविनाश को जीवित रहने के लिए किसी से जिन्दगी उधार लेनी पड़ेगी। मतलब अगर अविनाश को किसी की एक किडनी मिल जाए, तो वह सामान्य जीवन जी सकता है।

जरूरत से ज्यादा महत्वाकांक्षी एवं होनहार अविनाश अपने घर की इकलौती संतान होने के कारण अपनी मम्मी का बेहद चहेता था। वह उसे देखकर निहाल होती थीं। जिन्दगी को लेकर अविनाश ने एक नहीं अनेक सपने देखे थे। वह कामयाबी के हर उस क्षितिज को छूना चाहता था, जिसे छू पाना किसी आम इंसान के वश की बात नहीं थी। आईटी के मास्टर माइंड के नाम से जाना जाने वाला अविनाश इनफाॅरमेशन टेक्नाॅलोजी की हर सीढ़ी पर चढ़ना चाहता था। इसीलिए इण्टर की परीक्षा पास करने के बाद जब उसने इनफाॅरमेशन टेक्नाॅलोली की दुनिया में कदम रखा था, तब से अब तक वह उस दुनिया से बाहर ही नहीं निकल पाया था। बी-टेक, एम-टेक टाॅपर रहने के बाद अब वह एबरोड से आईटी में ही पीएच-डी करने की तैयारी में लगा हुआ था। वह सुबह-से-लेकर देर रात तक किताबों की दुनिया में खोया रहता था। उसके कमरे में बिखरी दुनिया भर की किताबों को देखकर कोई भी कह सकता था कि वह कोई साधारण कमरा नहीं बल्कि किताबों की बड़ी दूकान है। किताबें पढ़ना और उनसे नई-नई जानकारियां हासिल करना उसका शौक ही नहीं उसकी जरूरत बन गया था। उसकी किताबें ही उसकी दोस्त और रिश्तेदार थीं।

ऐसे होनहार लड़के से कौन दोस्ती करना नहीं चाहेगा ? कौन उसके करीब नहीं आना चाहेगा ? उसकी फेसबुक पर दिनभर में सैकड़ों फ्रैण्ड्स रिक्ऐसट आती थीं मगर वह सबको अनदेखा कर देता था। अपनी ही धुन में मस्त रहने वाले अविनाश ने एक दिन अपने लैपटाॅप पर फेसबुक आॅन किया। हमेशा की तरह कई फ्रेण्ड्स रिक्ऐस्ट उसकी वाॅल पर उसकी स्वीकृती की प्रतीक्षा कर रहीं थीं। उन फ्रैण्ड्स रिक्ऐस्ट में एक रिक्ऐस्ट बैंग्लूर की विभूति की भी थी। उसने विभूति की प्रोफाईल खोलकर देखी, तो वह चैंक गया, क्योंकि विभूति भी उसी की तरह आईटी की पढ़ाई कर रही थी। वह भी पढ़ने में बहुत होशियार थी। वह भी उसी की तरह हाईस्कूल, इण्टर मीडिएट और बी-टेक की टाॅपर रही थी। वह भी अविनाश की तरह बहुत ही महत्वाकांक्षी और खुली आंखों से सपने देखने वाली लड़की थी। अविनाश ने यह सोचकर कि विभूति से दोस्ती करना कोई घाटे का सौदा नहीं होगा। उससे दोस्ती हो जाने के बाद उसे बहुत सारी जानकारियां तो हासिल होंगी ही साथ ही विभूति के साथ इनफाॅरमेशन पर डिसकस करने में बड़ा मजा आया करेगा। यही सब सोचकर अविनाश ने विभूति की फ्रैण्ड्स रिक्ऐस्ट स्वीकार कर ली।

अविनाश की फेसबुक फ्रैंड बन जाने की विभूति को भी बेहद खुशी हुई। अब दोनों कई-कई घण्टे फेसबुक पर तो कभी फोन पर अपने सबजेक्ट और कैरिएर को लेकर बातें करने लगे थे।

अविनाश ने जब विभूति को बताया कि वह इनफाॅरमेशन टेक्नाॅलोजी में लीक से हटकर कुछ अलग और नया करने की दिशा में कार्य कर रहा है तो विभूति को बहुत अच्छा लगा। विभूति भी ऐसा ही कुछ करने की बात करती थी। जब भी विभूति के सामने अपनी पढ़ाई को लेकर कोई मुश्किल आती या उसे कोई नई जानकारी हासिल करनी होती तो वह अविनाश की मदद ले लेती थी।

अविनाश जब भी विभूति के साथ चैट पर होता तो अक्सर उसकी मम्मी उसके आस-पास होतीं। अविनाश ने विभूति के बारे में अपनी मम्मी को सबकुछ बता रखा था। वह भी विभूति से बहुत प्रभावित थीं। विभूति ने भी अपने पापा को अविनाश के बारे में सबकुछ बता रखा था।

अविनाश और विभूति की दोस्ती हो जाने के बाद एक बार विभूति को अपनी पढ़ाई के सिलसिले में दिल्ली आना पड़ा था। जिसकी सूचना विभूति ने अविनाश को फोन पर दी। अविनाश ने अपनी मम्मी को बताया कि विभूति अपने पापा के साथ दिल्ली आ रही है, तो उन्होंने कहा कि विभूति से कहना मैं उससे मिलना चाहती हूं इसलिए दिल्ली में वह किसी होटल में न रुककर हमारे साथ हमारे घर में रुके।

अविनाश ने अपनी मम्मी की बात विभूति और उसके पापा तक पहुंचा दी। उन्होंने सहर्ष अविनाश की मम्मी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, क्योंकि विभूति और उसके पापा भी अविनाश से मिलने के इच्छुक थे।

राजधानी एक्सप्रेस से विभूति अपने पापा के साथ बैंग्लूर से दिल्ली पहुंची। दिल्ली रेलवे स्टेशन से अविनाश उन दोनों को अपनी कार में घर ले आया।

गोरी-चिकटी, पतली-दुबली, नाजुक-सी हंसमुख और मिलनसार विभूति से मिलकर अविनाश की मम्मी तो जैसे निहाल ही हो गईं। उससे मिलकर उन्हें ऐसा लगा, मानो अविनाश की पत्नी के रूप में उन्होंने जैसी लड़की की कल्पना अपने दिलो-दिमाग में कर रखी थी, उनकी वो कल्पना विभूति के रूप में साकार हो गई हो।

दो दिन दिल्ली में रहकर विभूति ने अपना काम तो निबटाया ही साथ ही अविनाश और उसकी मम्मी के साथ खूब मस्ती भी मारी। अविनाश ने पहली बार विभूति के साथ दिल्ली घूमी। इससे पहले अविनाश को दिल्ली घूमने का न तो समय मिला न ही दिल्ली घूमने में उसकी कोई दिलचस्पी रही थी।

इस बीच विभूति और उसके पापा को यह मालूम हो गया कि अविनाश के पापा नहीं हैं। पांच साल पहले हृदय गति रुक जाने से उनकी मृत्यु हो गई थी और तब से अब तक अविनाश की सारी जिम्मेदारी उसकी मम्मी अकेले पूरी कर रही थीं। अविनाश की मम्मी दिल्ली के ही एक काॅलेज में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत थीं। अविनाश और उसकी मम्मी के बारे में सबकुछ मालूम हो जाने के बाद विभूति के पापा ने अविनाश की मम्मी को बताया कि दुर्भाग्यवश विभूति भी उनकी इकलौती संतान है। उसकी मम्मी भी उसे जन्म देने के समय ही इस दुनिया से चली गईं थी। उन्होंने ही विभूति को माँ और बाप दोनों का प्यार देकर पाला है।

बातों-ही-बातों में अविनाश की मम्मी ने विभूति के पापा के सामने विभूति को अपनी बहू बनाने का प्रस्ताव रख दिया। विभूति के पापा भी अविनाश से बहुत प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने भी बिना सोच-विचार करे विभूति और अविनाश के रिश्ते पर हां की मुहर लगा दी।

जल्दी ही अविनाश और विभूति दोस्त से पति-पत्नी बन गए। पत्नी के रूप में विभूति को पाकर अविनाश अपने लक्ष्य के और करीब आ गया, क्योंकि वो दोनों एक ही दिशा में सोचते थे। दोनों के बात करने का एक ही विषय होता था। इसलिए अब वह अकेला नहीं था, विभूति भी उसके साथ थी। भविष्य के लिए खुली आंखों से सपना देखने वाले अविनाश और विभूति को उस दिन अपनी मंजिल और भी करीब लगने लगी, जब आॅस्टेªलिया की एक यूनीवर्सिटी ने अविनाश को शोध करने के लिए आमन्त्रित किया। उस दिन तो जैसे दोनों आसमान में उड़ रहे थे। उसके घर में जश्न जैसा माहौल बन गया था। उनके सभी चिर-परिचित और नाते-रिश्तेदार व अविनाश और विभूति के दोस्त उनके घर में अविनाश को एबरोड जाने के लिए शुभकामनाएं देने आ रहे थे।

छह महीने बाद अविनाश को अपने शोध के लिए आॅस्टेªलिया जाना था। और इतने बड़े काम की तैयारी के लिए छह महीने ज्यादा नहीं होते हैं इसलिए अविनाश के साथ विभूति भी उसकी तैयारी करवा रही थी।

जैसे-जैसे अविनाश का आॅस्ट्रेलिया जाने का समय नजदीक आ रहा था, वैसे-वैसे अविनाश की खुशी भी बढ़ती जा रही थी। उसकी खुशी बढ़ती क्यों नहीं, उसका एबरोड जाने का सपना जो पूरा हो रहा था। खुश तो विभूति भी बहुत थी, लेकिन वह अन्दर से दुःखी भी थी, क्योंकि उसे नहीं पता था कि उसका अविनाश उससे कितने दिनों के लिए बिछुड़ने वाला था। लेकिन उसने अपने दुःख को अविनाश पर जाहिर नहीं होने दिया। क्योंकि ऐसा करके वह अविनाश के मनोबल को कम नहीं करना चाहती थी।

दो दिन बाद अविनाश की आॅस्ट्रलिया जाने के लिए दिल्ली से फ्लाईट थी। इसीलीए उसने दो दिन तक कुछ न करके विभूति और अपनी मम्मी के साथ खूब बातचीत करने का मन बनाया था। विभूति भी इन दो दिनों में अविनाश के ऊपर जनम-जनम का प्यार लुटा देना चाहती थी। विभूति के पापा भी अविनाश से मिलने बैंग्लूर से दिल्ली आ गए थे।

सब कुछ हमेशा की तरह सामान्य था। घर के सभी लोग देर रात तक बैठकर बातें करते रहे। हँसते रहे और सबको हँसाते रहे। उसके बाद सब अपने-अपने कमरों में सोने चले गए।

दूसरे दिन सुबह को अविनाश जब सो कर उठा तो अपने आप में कुछ अजीब महसूस कर रहा था। उसे ऐसा लग रहा था, जैसे उसका शरीर बेजान और निष्क्रीय-सा हो रहा हो। हाथ-पांव और अपने मुंह पर भी वह कुछ भारीपन महसूस कर रहा था। उसकी ऐसी हालत देखकर घर के सभी लोग चिंतित होने लगे और अविनाश को तुरंत अपने फैमिली डाॅक्टर को दिखाया। उनके फैमिली डाॅक्टर ने अविनाश का चेक-अप करने के बाद उसे फौरन शहर के जाने-माने कार्डियोलाॅजिस्ट डाॅक्टर कपूर को दिखाने की सलाह दी, तो घर के लोग और भी घबरा गए और अविनाश को लेकर डाॅक्टर कपूर के पास गए।

डाॅक्टर कपूर ने अविनाश के कुछ टेस्ट किए उसके बाद जो रिपोर्ट्स आईं, उसे देखकर अविनाश के घर वाले ही नहीं डाॅक्टर कपूर भी हैरत में पड़ गए, क्योंकि अविनाश की दोनों किडनियां पूरी तरह खराब हो चुकी थीं। डाॅक्टर कपूर ने अविनाश की मम्मी से पूछा कि इससे पहले अविनाश की तबियत कब खराब हुई थी, तो अविनाश की मम्मी ने बताया कि उसकी तबियत तो कभी खराब हुई ही नहीं। इस बात से वह और चैंकने लगे और कहने लगे, ‘‘कमाल है, आपके बेटे की दोनों किडनियां पूरी तरह खराब हो गईं और इसे कभी कुछ महसूस नहीं हुआ ? ....कुछ तो लक्षण दिखाई देने चाहिए थे, जिससे शुरू में ही देखभाल हो जाती।’’

‘‘लेकिन डाॅक्टर साहब, अविनाश की दोनों किडनियां खराब कैसे हो गईं ? इसकी तो अभी इतनी उम्र भी नहीं है और न ही यह कोई नशा आदि करता है।’’

अविनाश की मम्मी के पूछने पर डाॅक्टर कपूर ने कहा, ‘‘आजकल किसी भी बीमारी के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। कब किसे कौन-सी बीमारी हो जाए, कोई नहीं जानता।’’

‘‘डाॅक्टर साहब, कैसे भी हो आप मेरे बेटे की जान बचा लीजिए।’’

‘‘देखिए, एक डाॅक्टर तब तक अपने मरीज को बचाने की कोशिश करता है, जब तब उसे यह उम्मीद रहती है कि वह बच सकता है। लेकिन जहां कोई उम्मीद ही न हो, उसके लिए झूठा आश्वासन कैसे दिया जा सकता है ? फिर भी मौत और जिन्दगी तो ऊपर वाले के हाथ में है। अविनाश को जीवित रहने के लिए इसके पास दो ही चान्स है। पहला यह कि अविनाश को जीवित रखने के लिए कम-से-कम एक किडनी की जरूरत तो होगी ही, अगर किसी से एक किडनी मिल जाए तो बचाने की कोशिश की जा सकती है और दूसरा चान्स ईश्वर के हाथ में, अगर ईश्वर चाहेगा तो कोई करिश्मा हो सकता है। इसके अलावा हमारे पास अविनाश को बचाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है।’’

अविनाश की किडनी खराब हो जाने की खबर सुनकर विभूति को गहरा सदमा पहुंचा और वह बेहोश होकर वहीं गिर पड़ी। सबने बड़ी मुश्किल से उसे सम्हाला।

घर-परिवार के लोग और चिर-परिचितों ने अविनाश की खुशियां वापस लाने का भरसक प्रयास किया। सभी ने उसे जिन्दगी देने के लिए अपनी-अपनी किडनी देनी चाही मगर दुर्भाग्यवश किसी का भी रक्त अविनाश के रक्त से मेल नहीं खा पाया। अविनाश तो जैसे जीते-जी मर गया हो। उसके सारे सपने, सारे अरमान उसे टूटते हुए नजर आ रहे थे।

किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि किस्मत ने अविनाश के साथ कौन-सा खेल खेला है। पहले उसे इतनी सारी खुशियां दे दीं फिर वो सारी खुशियां उससे एक साथ छीन लीं। विभूति का तो रो-रोकर बुरा हाल था। वह तो भगवान की मूर्ति के सामने बैठी रो-रोकर भगवान से यही कह रही थी कि वह अविनाश को जिन्दगी दे दे, बदले में उसकी जिन्दगी ले ले।

भले ही अविनाश अन्दर से कितना ही क्यों न टूट चुका था, लेकिन उसने अपनी बीमारी से हार नहीं मानी। वह अपनी मम्मी को और विभूति को यही समझाता रहा कि वह जल्द ठीक हो जाएगा। लेकिन किसी को तसल्ली कहां आने वाली थी, क्योंकि सच्चाई तो सभी जानते थे।

धीरे-धीरे अविनाश की तबियत और बिगड़ने लगी तो उसने विभूति से कहा, ‘‘विभूति, मुझे अपने और तुम्हारे सपनों को पूरा करने के लिए कतरा भर जिन्दगी चाहिए और वह मुझे तुम्हारी मुस्कुराहट दे सकती है। इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम उदासियों के अंधेरों से निकलकर हंसती-खेलती दुनिया में आओ। विभूति मैं तुम्हें हंसते हुए देखना चाहता हूं। क्या तुम मेरे लिए हंस भी नहीं सकती हो ?’’

अविनाश की बातें सुनकर विभूति के मन में हूक उठी। उसे एकदम रोना आ जाता, लेकिन वह खुद को सम्हाल लेती और खिलखिला कर हंस पडत़ी।

अविनाश के लिए किडनी का कहीं से इंतजाम नहीं हो पा रहा था। घर के सभी लोग इस बात से बहुत परेशान थे। न किसी को खाना अच्छा लग रहा था न कुछ और। घर में बिल्कुल मातम जैसा माहौल हो गया था। उम्मीद की सारी कोशिशें नाकाम होते देख विभूति ने अखबारों में इश्तेहार निकलवाये और उनमें अपने दर्द को बयां करते हुए लोगों से अविनाश के लिए एक किडनी देने की गुजारिश की। बदले में उसने अपना सबकुछ किडनी देने वाले को देने की बात भी लिखी लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कहीं से न तो कोई फोन आया, न कोई सूचना आयी, जिससे सभी और निराश हो गए। अविनाश की मम्मी और विभूति की हालत तो देखी नहीं जा रही थी।

धीरे-धीरे उम्मीद का दामन उनके हाथों से सूखी रेत की तरह फिसल रहा था। विभूति पूरी तरह निराश हो चुकी थी। उसके अन्दर अविनाश को अपनी आँखों के सामने मरते हुए देखने की शक्ति नहीं थी। इसलिए उसने खुद में फैसला कर लिया था कि वह अविनाश से पहले ही इस दुनिया से चली जाएगी। यही सब सोचकर उसने आखिरी बार अविनाश को ध्यान से देखा और चुपचाप अस्पताल से बाहर निकल आयी।

विभूति की आँखों से आँसुओं का सैलाब बह रहा था। कदम लड़खड़ा रहे थे और वह खुद को मौत के हवाले करने अनजान राहों की तरफ बढ़ रही थी। उम्मीद का दामन उसके हाथों से छूट चुका था। उसे दूर-दूर तक अँधेरा नजर आ रहा था। उसी समय उसका मोबाइल फोन बज उठा। मोबाइल फोन की घण्टी की आवाज सनुकर उसका दिल किसी अनजाने भय से जोर-जोर धड़कने लगा। अनजाने नम्बर से आती काॅल को देखकर उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं और धड़कते दिल से कहा, ’’हेलो....।’’

‘‘हेलो, आप दिल्ली से विभूति बोल रही हैं ?’’ दूसरी तरफ से एक महिला आवाज आई।

‘‘जी हां, मैं विभूति बोल रही हूं....आप कौन....?’’ विभूति ने धड़कते दिल पर काबू पाते हुए कहा।

‘‘विभूति जी, मैं गाजियाबद से नूरीन बोल रही हूं। मैं अभी इसी वक्त आपसे मिलना चाहती हूँ।’’

‘‘लेकिन नूरीन जी, आप मुझसे क्यों मिलना चाहती हैं ?’’

‘‘ मैंने आपका इश्तेहार अखबार में पढ़ा है। मैं उसी सिलसिले में आपसे मिलना चाहती हूूं, आप मुझे कहां मिलेंगी ?’’

मिलने की बात पर विभूति एकदम खामोश होकर कुछ सोचने लगी तो नूरीन जोर देकर कहा, ‘‘विभूति जी, आप खामोश क्यों हो गईं ? देखिए मेरे पास वक्त कम है। प्लीज आप बताइए आप मुझे कहाँ मिलेंगी ?’’

‘‘वक्त तो मेरे पास भी बहुत कम है नूरीन फिर भी तुम मुझसे मिल सकती हो, तो पुरानी दिल्ली के जमुना ब्रिज के पास मिल सकती हो। प्लीज नूरीन देर मत करना, अगर तुम्हें देर हो गई तो मैं तुम्हें नहीं मिल पाऊँगी।’’

‘‘ठीक है, मैं जल्दी-से-जल्दी आपके पास पहुँच रही हूं।’’

कुछ ही देर में नूरीन अपने किसी रिश्तेदार के साथ विभूति के पास पहुंच गई। विभूति से मिलते ही उसने कहा, ‘‘विभूति, मैं तुम्हारे पति के लिए अपनी किडनी देना चाहती हूं। मेरा ब्लड गु्रप वही है, जो तुम्हारे पति का है, और मेरी दोनों किडनियाँ भी एकदम स्वस्थ हैं।’’

इतना सुनते ही विभूति ने नूरीन को अपने आपसे ऐसे चिपटा लिया, जैसे उसे नूरीन के रूप में भगवान मिल गया हो। वह काफी देर तक नूरीन को अपने आपसे ऐसे ही चिपटाए रही। अब उसकी सूनी आंखों में चमक आ गई। उदासियों से मुर्झाये हुए चेहरे कुछ चमक दिखाई देने लगी। फिर उसने नूरीन को अपने आपसे अलग करते हुए कहा, ‘‘नूरीन, तुम मेरे लिए फरिश्ता बनकर आई हो। मेरी सांसें, मेरे खून का एक-एक कतरा जिन्दगी की आखिरी सांस तक तुम्हारा ऐहसानमंद रहेगा।

‘‘नहीं विभूति जी, आपके पति को अपनी किडनी देकर मैं आपके ऊपर कोई एहसान नहीं कर रही हूं। दरअसल मैं तो मरने ही जा रही थी कि अचानक अखबार में छपे आपके विज्ञापन पर मेरी नजर पड़ गई। विज्ञापन पड़कर मैंने सोचा, ‘‘मरने से पहले अगर मेरे शरीर के किसी अंग से किसी की जान बच जाए, तो इसमें क्या बुराई है।’’

‘‘लेकिन तुम तो अच्छी-भली हो फिर मरना क्यों चाहती हो ?’’

विभूति ने नूरीन से पूछा तो वह खुद को रोक नहीं पाई। उसका गला भर्रा गया और उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े। उसने रोते हुए विभूति को बताया कि जो दर्द वो एक महीने से झेल रही है। वही दर्द वह पिछले दो सालों से झेल रही है। इसलिए वह उसके दर्द को अच्छी तरह महसूस कर सकती है।

‘‘मतलब...?’’

‘‘विभूति जी, आपकी की तरह हमारे भी बहुत सारे सपने थे। बहुत सारे अरमान थे। पर सब टूटकर बिखर गए।’’ कहते-कहते नूरीन फफक कर रोने लगी। रोते-रोते उसने बताया, ’’आपके पति की ही तरह दो साल पहले मेरे पति की एक किडनी पूरी तरह खराब हो चुकी थी, और दूसरी खराब होना शुरू हुई थी। डाॅक्टर ने उनकी खराब किडनी निकाल दी और जो खराब हो रही थी उसका इलाज शुरू किया था। लेकिन उस इलाज से वह अब तक जिन्दा तो हैं, लेकिन किडनी का इनफैक्शन बढ़ता जा रहा है। डाॅक्टर का कहना है कि अगर जल्दी ही मेरे पति की खराब किडनी निकालकर दूसरी किडनी नहीं लगाई गई तो मेरे पति ज्यादा दिन तक जिन्दा नहीं रह पाएंगे।’’ कहकर नूरीन फिर रोने लगी।

‘‘तो तुम अपने पति की किडनी बदलवाई क्यों नहीं ?’’

‘‘कहां से बदलवाती। परिवार और रिश्तेदारों में जो लोग मेरे पति को अपनी किडनी देने के लिए तैयार भी हैं, उनमें से किसी का ब्लड गु्रप मेरे पति के ब्लड गु्रप से मेल नहीं खाया। अखबारों में विज्ञापन छपवा-छपवा कर सारा पैसा खत्म कर चुकी हूं मगर मुझे मेरे पति के ब्लड गु्रप की किडनी नहीं मिल पाई। विभूति जी, आज के दौर में अगर औरत को इज्जत की जिन्दगी जीनी है तो उसके साथ उसके पति का होना बहुत जरूरी है। बिना पति के तो औरत की जिन्दगी नरक बनकर रह जाती है। और उस नरक को मैं जी नहीं सकती। इसीलिए मैंने फैसला कर लिया था कि पति के मरने से पहले मैं खुद ही मर जाऊं तो अच्छा है। क्योंकि मैं उन्हें मरते हुए भी नहीं देख पाऊंगी।’’ इतना कहकर नूरीन जार-जार रोने लगी।

विभूति, नूरीन की मनोदशा को अच्छी तरह समझ सकती थी, क्योंकि वह भी तो उसी दौर से गुजर रही थी। वह कशमाकश में थी। वह नूरीन की आंखों के आंसूं पोछना चाहती थी। वह चाहती थी कि नूरीन भी उसी की तरह हमेशा अपनी जिन्दगी जिए इसलिए वह किसी भी तरह नूरीन की मदद करना चहती थी।

विभूति ने बड़ी मुश्किल से नूरीन को चुप कराया। अपने हाथों से उसके आसुंओं को पोछा। और उसे तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘नूरीन, अब तुम और मैं दो नहीं एक हैं। इसलिए तुम चिंता मत करो। जैसे तुम मेरे पति के लिए फरिश्ता बनकर आई हो। वैसे ही भगवान ने तुम्हारे लिए भी कोई फरिश्ता तैयार कर रखा होगा, जो आकर तुम्हारे पति को जीवनदान देगा।’’

विभूति की बातों से नूरीन को बहुत तसल्ली मिली। उसने उम्मीद के साथ विभूति की तरफ देखा तो विभूति ने कहा, ‘‘हां नूरीन, तुम बिना स्वार्थ, बिना लालच के सच्चे मन से किसी की जान बचाना चाहती हो। और जो किसी के लिए सच्चे मन से समर्पित हो जाता है, उसकी भगवान भी सुन लेता है। इसलिए अब तुम निराश मत होओ। हम दोनों मिलकर तुम्हारे पति के लिए किडनी की व्यवस्था करेंगे। मुझे भगवान पर पूरा भरोसा है कि हमारी जरूर सुनेंगे। बस तुम मुझे अपने पति का ब्लड गु्रप बताओ क्या है। मैं एक बार फिर तुम्हारे पति के लिए अखबार में विज्ञापन देना चाहती हूूं।’’

विभूति के पूछने पर नूरीन ने अपने पति का ब्लड गु्रप बताया तो विभूति ने एकदम उसे अपने आप से चिपटा लिया और उससे कहा, ‘‘देखा नूरीन, मैंने कहा था न कि सच्चे मन से किसी की मदद करने वाले की भगवान भी बहुत जल्दी सुन लेता है और उसने तुम्हारी सुन ली।’’

‘‘नूरीन ने चैंक कर विभूति को देखा तो उसने कहा, ‘‘हां नूरीन मैं सच कह रही हूं। अब तुम्हारे पति को कुछ नहीं होगा। अब तुम्हारे सारे सपने, सारे अरमान पूरे होंगे। क्योंकि मेरा ब्लड गु्रप वही है, जो तुम्हारे पति का है। इसलिए मैं तुम्हारे पति को अपनी एक किडनी दूंगी।’’

विभूति की बात सुनकर नूरीन की बुझती आंखों में रोशनी आ गई। उसने अपनी आंखों को ऊपर उठाया और खुदा का शुक्रिया अदा करते हुए कहा, सचमुच तू अपने बन्दों पर रहम फरमाता है। सच्चे मन से याद करने वालों की तू जरूर सुनता है।’’

कुछ ही घण्टों बाद विभूति और नूरीन हाॅस्पिटल के अलग-अलग बिस्तरों पर लेटीं थीं। दोनों का आॅपरेशन हो चुका था और दोनों के पतियों को उनकी एक-एक किडनी देकर बचाया जा चुका था।

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