Charles Darwin ki Aatmkatha - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा - 15

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा

अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

(15)

संकरण के इन प्रयोगों में यह साफ प्रकट होता था कि प्रत्येक प्रयोग विशेष के प्रति उन्हें कितना लगाव था, और उससे भी ज्यादा उनका उत्साह कि प्रयोग से प्राप्त फल को भी नष्ट न होने दिया जाए - वे इतने सावधान रहते थे कि कोई भी कैप्सूल कभी किसी गलत ट्रे में न चला जाए, तथा ऐसी ही बहुत सी बातें। मुझे उनकी वह मुखमुद्रा कभी नहीं भूलती कि साधारण माइक्रोस्कोप के नीचे वे कितनी एकाग्रता से बीजों को गिनते थे - गिनती जैसा साधारण काम और उसमें भी इतने तल्लीन। मुझे लगता है कि प्रत्येक बीज उनके सामने एक व्यक्ति जैसा बन जाता था और उन्हें डर रहता था कि कहीं कोई बीज गलत ढेर में न चला जाए, और यह सब तौर तरीका उनके कार्य को एक खेल का रूप प्रदान कर देता था। उपकरणों पर भी उन्हें पूरा भरोसा था, और स्वाभाविक रूप से वे किसी भी पैमाने, नापने वाले गिलास आदि की शुद्धता पर संदेह नहीं करते थे। उन्हें तब बड़ा आश्चर्य हुआ जब उन्हें यह पता लगा कि उनके एक माइक्रोमीटर और दूसरे के बीच काफी अन्तर है। अपने अधिकांश उपकरणों में उन्हें कोई बहुत अधिक परिशुद्धता नहीं चाहिए थी, और उनके पास कोई बेहतर पैमाना था भी नहीं। बस एक पुराना सा तीन-फुटा पैमाना, जो सारे कुनबे का साझा पैमाना था। यह लगातार एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता रहता था, और सारे घर में इस पैमाने की जगह तय थी, बशर्ते सबसे अन्त में उठाने वाले व्यक्ति ने इसे सही सलामत उसी जगह पर रख दिया हो। पौधों की ऊंचाई नापने के लिए उनके पास सात फुट की छड़ी थी, जिसे गाँव के ही बढ़ई ने तैयार किया था। बाद में काग़ज के पैमानों का प्रयोग करने लगे जिन पर मिलीमीटर तक के निशान लगे थे। यह सब बताने का मतलब यह नहीं है कि इस प्रकार के उपकरणों को उपयोग में लेने के कारण उनकी पैमाइश में शुद्धता नहीं रहती थी, बल्कि मैं यह बताना चाहता हूँ कि उनके उपकरण कितने सरल थे - और उपकरण बनाने वाले पर उन्हें कितना भरोसा था, जिसका पूरा व्यवसाय ही उनके लिए रहस्य था।

उनकी दिमागी खासियत में से कुछेक मुझे अभी भी याद आती हैं, और इनका असर उनके काम के तरीके पर भी था। उनके दिमाग की एक खासियत और बहुत बड़ी उपयोगिता यह थी कि वे हमेशा कुछ न कुछ तलाशने में लगे रहते थे। यह उनके दिमाग की ही कुछ ताकत थी जो अपवादों को भी नजरअंदाज़ नहीं करती थी। यदि कोई अपवाद खास हो या बार बार होने लगे तो कोई भी उस पर ध्यान देगा लेकिन किसी भी अपवाद को वे पहली ही बार में पकड़ लेते थे, और यही उनकी खासियत थी। कुछ बातें ऐसी होती थीं जो उनके वर्तमान काम के बारे में बहुत ही सामान्य होती थीं, जिन्हें उनसे पहले के बहुत से लोगों ने लगभग अनदेखा-सा ही किया होता था या फिर जिनकी अधूरी व्याख्या की होती थी, जो कि कोई व्याख्या नहीं कहलाती, और इन्हीं बातों को पकड़ कर वे अपना अध्ययन शुरू करते थे। एक तरह से देखा जाए तो इस तरीके में कुछ खास नज़र नहीं आता, लेकिन उन्होंने बहुत-सी खोजबीन इसी तरीके से की थी। मैं यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि मैं उन्हें जिस प्रकार से काम करते हुए देखता था, तो प्रयोगकर्ता के रूप में इस ताकत की कीमत ने मुझ पर बहुत असर डाला था।

उनके प्रयोगात्मक कार्यों की एक और खासियत थी कि वे किसी एक विषय पर जैसे चिपक जाते थे, वे अपने इस धैर्य के लिए कई बार क्षमा माँगते थे, और कहते थे कि बस वे इस काम में हारना नहीं चाहते, भले ही यह उनके लिए कमज़ोरी का ही सबब क्यों न बन जाता हो। वे कई बार यह कहावत कह उठते थे, `गुड़ पर चींटे सा चिपक गया हूँ।'

और मैं सोचता हूँ कि यह `चींटे सा हठीला' उनके दिमाग के खाके को उनके अनथक प्रयासों की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से प्रकट करता था। अनथक प्रयास तो मुश्किल से ही उनकी उस बलवती इच्छा को प्रकट कर पाता जो सत्य को उद्घाटित करने के लिए उनके मन में होती थी। वे अक्सर कहते थे कि किसी भी व्यक्ति के लिए यह जानना ज़रूरी है कि वह सही मौका कौन-सा है जब अपनी तलाश खत्म की जाए। और मैं समझता हूँ कि यह उनकी प्रवृत्ति में था कि यह सही मौका अक्सर पीछे छूट जाता था और वे अपने अनथक प्रयास के लिए माफी माँगते थे और उनका काम में लगना गुड़ पर चींटे सा चिपकना हो जाता था। वे अक्सर यह भी कहते थे कि कोई भी व्यक्ति अच्छा प्रेक्षक तब तक नहीं बन सकता जब तक कि वह सक्रिय सिद्धान्तवादी न हो। यह बात याद आते ही मैं फिर से उनकी वह भावना याद करने लगता हूँ जिसके तहत वे अपवादों को तुरन्त पकड़ते थे। लगता है कि उनमें सिद्धान्तप्रियता इतनी थी कि वह जरा से भी विचलन को देखते ही सक्रिय हो उठते थे। इसलिए वास्तव में यह होता था कि छोटी से छोटी चीज भी उनमें सिद्धान्तों को सक्रिय कर देती थी, और इस प्रकार कोई भी तथ्य महत्त्वपूर्ण हो उठता था। इस प्रकार सहज ही उनके मन में कई सिद्धान्त मूर्त रूप ले चुके थे, लेकिन कल्पनाओं के साथ ही उनमें निर्णय करने का विवेक भी था जो इस प्रकार की विचित्रताओं को निक्रिय भी कर देता था। वे अपने सिद्धान्तों के प्रति ईमानदार थे, और उन्हें समझे बिना कभी भी नकारते नहीं थे। इस प्रकार से देखा जाए तो वे ऐसी बातों पर भी परीक्षण करने को आतुर रहते थे, जिन्हें अन्य लोग परीक्षण के लायक ही नहीं समझते थे। अपने कुछ परीक्षणों को वे मूढ़ परीक्षण कहते थे, और इनमें आनन्द भी लेते थे। मिसाल के तौर पर यह घटना ही लीजिए कि एक अनोखे किस्म के पौधे के बीज पत्र मेज के हिलने डुलने के कंपन के प्रति खास संवेदना रखते हैं तो उन्होंने यह कल्पना की शायद ये ध्वनि के कंपनों को भी पकड़ें और इसलिए मुझे कहा गया कि मैं उस पौधे के पास बेसून बजाऊँ।

कोई भी प्रयोग करने की बलवती इच्छा उनमें थी, और मुझे याद है जिस प्रकार वे कहा करते थे कि, `जब तक मैं इसका परीक्षण नहीं कर लूँगा मुझे चैन नहीं पड़ेगा,' जैसे कोई बाहरी शक्ति उन्हें प्रेरित कर रही हो। केवल कारण-परक कार्यों की तुलना में प्रयोगात्मक कार्य उन्हें अधिक पसंद थे, और जब कभी वे अपनी किसी ऐसी किताब में उलझे होते थे जिसमें तर्क और तथ्यों को सूत्रबद्ध करना अपेक्षित होता था तो वे महसूस कर लेते थे कि प्रयोगात्मक कार्यों को विराम या अवकाश दिया जाए। इस प्रकार, वेरिऐशन ऑफ एनिमल्स एन्ड प्लान्ट्स पर 1860-61 के दौरान काम करते हुए उन्होंने ऑर्चिड का निषेचन प्रयोग भी किया और इन पर बहुत ज्यादा समय लगाने के लिए खुद को बेकार ही उलझा हुआ भी कहा। यह सोचना रुचिकर हो सकता है कि शोध के इस खास काम को फुर्सत में करने के बजाय और ज्यादा गंभीर कार्य के रूप में लेना चाहिए था। इस दौरान हूकर को लिखे अपने एक खत में उन्होंने बताया,`भगवान मुझे माफ करे कि मैं इतना आलसी क्यूँ हूँ; जबकि मैं पागलपन भरे दूसरे काम तो कर ही रहा हूँ।' इन पत्रों में उन्होंने बताया था कि निषेचन के प्रति पौधों की अनुकूलन क्षमता के समझने में उन्हें कितना आनन्द आता था। अपने किसी एक खत में उन्होंने लिखा था कि डीसेन्ट ऑफ मैन से विराम लेते हुए उनका विचार था कि सनड्यू पर काम किया जाए। अपने रीकलेक्शन में उन्होंने बताया है कि विषम वार्तिकता की समस्या का समाधान करने में उन्हें कितनी खुशी हुई। एक बार मैंने उन्हें यह कहते सुना था कि दक्षिण अफ्रीका के भूविज्ञान ने उन्हें सबसे ज्यादा आनन्द दिया। शायद कार्य करने में यह खुशी प्राप्त करने के लिए बड़ी पैनी निगाह चाहिए जो अवलोकन को एक ताकत देती है, जो कि उनमें थी और उनके दूसरे गुणों की तरह ही उत्कृष्ट थी।

किताबों के लिए उनके मन में कोई आदर नहीं था। किताबें महज एक साधन थीं, इसलिए वे कभी भी उन पर जिल्द नहीं चढ़वाते थे, और किसी किताब के पन्ने निकल जाते थे तो वे चिमटी लगाकर रख देते थे। मुलर की बेफ्रचटंग नामक किताब को बचाने के लिए उन्होंने बस एक चिमटी भर लगा दी थी। इसी प्रकार वे किसी बहुत मोटी किताब को फाड़कर दो कर देते थे, ताकि उसे पकड़ कर पढ़ने में आसानी रहे। वे तो यहाँ तक कहते थे कि उन्होंने लेयेल को कहा कि वह अपनी किताब का नया संस्करण दो खण्डों में प्रकाशित कराए, क्योंकि उसकी मोटी किताब को उन्होंने दो फाड़ कर दिया था। पेम्फलेटों की तो और भी दुर्दशा होती थी। अपने कमरे में जगह बचाने के लिए केवल अपने मतलब के कामों को छोड़कर शेष सारे कागज फौरन कूड़ेदान के हवाले कर देते थे। नतीजा, उनकी लायब्रेरी बहुत सजी संवरी नहीं थी, बस निहायत ही ज़रूरी किताबों का संग्रह था।

किताबों को पढ़ने का उनका अपना ही तरीका था। यही हाल काम के पेम्फलेटों का था। उनकी एक अलमारी थी जिस पर वे किताबें रखी रहती थी, जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं गया था। किताबों को पढ़ने के बाद दूसरी अलमारी में रख दिया जाता था, और बाद में उनका वर्गीकरण होता था। वे अपनी उन किताबों पर खीझते भी थे, जिन्हें वे पढ़ नहीं पाए थे, क्योंकि वे यह जानते थे कि इन किताबों को कभी पढ़ा भी नहीं जाएगा। कुछ किताबें तो ऐसी थीं जो फौरन ही दूसरे ढेर में पहुँचा दी जाती थीं, और उनके पीछे एक बड़ा सा सिफर बना दिया जाता था। इसका मतलब होता था कि इसमें किसी भी स्थान पर कोई खास बात नहीं है या फिर किसी किताब पर लिख देते थे कि पढ़ी नहीं, या फिर बस उलट-पलट लिया। पढ़ ली गई किताबें उस दिन का इन्तजार करती पड़ी रहती थीं कि कब यह अलमारी भरेगी और उनका वर्गीकरण होगा। यह काम उन्हें निहायत ही नापसन्द था और जब मज़बूरी में करना ज़रूरी हो ही जाता था तो बड़ी ही तल्ख़ आवाज में कहते `इन किताबों को जल्द निपटाना होगा।'

किताबों को पढ़ते समय वे अपने काम की बातों पर निशान लगाते जाते थे। कोई किताब या पुस्तिका पढ़ते समय पृष्ठ पर ही वे पेन्सिल से निशान लगाते जाते थे और अन्त में निशान लगाए हुए पृष्ठों की तालिका बना देते थे। इसके बाद वर्गीकृत करके रखते समय निशान लगाए गए पृष्ठों को फिर से देख लिया जाता था और इस प्रकार उस किताब का सारांश मोटे तौर पर तैयार कर लिया जाता था। अलग-अलग विषयों पर लिखे गए तथ्यों को पहले से लिखी बातों के साथ जोड़ लिया जाता था। अपने सारांशों का वे एक सेट और भी तैयार करते थे, लेकिन यह विषयानुसार नहीं होता था बल्कि पत्रिकाओं के अनुसार होता था, जिससे वे सारांश लिए जाते थे। बड़ी मात्रा में तथ्यों का संग्रह करते समय पहले तो वे यही करते थे कि जर्नल की पूरी श्रृंखला को पढ़ते जाते और सारांश तैयार करते जाते थे।

अपने शुरुआती खतों में उन्होंने लिखा था कि स्पीसीज के बारे में अपनी किताब के लिए तथ्यों का संग्रह करते समय उन्होंने कई कापियाँ भर डालीं, लेकिन यह काफी पहले की बात है। बाद में वे पोर्टफोलियो बनाने लगे थे, जिसका ज़िक्र उन्होंने रीकलेक्शन में किया है। पिताजी और एम.दी केन्दोल को इस बात पर आपस में खुशी जाहिर करने का मौका मिलता था कि दोनों ही ने तथ्यों को वर्गीकृत करने की योजना एक जैसी बनाई थी। दी केन्दोल ने अपनी पुस्तक `फितालॉजी' में अपने तौर तरीकों का वर्णन किया, इसी बात का उल्लेख मेरे पिता के बारे में करते हुए उन्होंने लिखा कि डाउन में इसी को रूपाकार लेते हुए देखकर उन्हें काफी सन्तोष हुआ।

इन पोर्टफोलियो में कई दर्जन तो लिखे हुए कागजों से भरे थे। इनके अलावा बहुत से बंडल पांडुलिपियों के थे - कुछ पर इस्तेमाल हुई लिखकर अलग रख दिया गया था। वे अपने लिखे हुए कागजों की बड़ी कद्र करते थे और यह भी डरते थे कि कहीं इनमें आग न लग जाए। मुझे याद है कि कहीं से भी आग लगने की चेतावनी मिलते ही वे बड़े ही अस्त-व्यस्त हो जाते थे और मुझसे कहने लगते थे - देखो बेटा, बहुत होशियार रहना और ध्यान रहे कि ये किताबें और कागज अगर नष्ट हए तो मेरा बाकी का जीवन दूभर हो जाएगा।

यदि कोई पाण्डुलिपि नष्ट हो जाती थी, तो भी उनके दिल से यही आह निकलती थी - `शुकर है कि मेरे पास इसकी नकल रखी है वरना इसका नुक्सान तो मुझे मार ही डालता'। कोई किताब लिखते समय उनका ज्यादा समय और मेहनत लगती थी सारे विषय की रूपरेखा या योजना बनाने में, फिर कुछ समय लगता था प्रत्येक शीर्षक के विस्तार में और उसे उपशीर्षकों में बाँटने में, जैसा कि उन्होंने रीकलेक्शन में उल्लेख भी किया है। मुझे लगता है सारी योजना को तैयार करना उनके अपने तर्क वितर्क की आधार भूमि तैयार करने के लिए नहीं होता था बल्कि समूची योजना की प्रस्तुति के लिए और तथ्यों की व्यवस्था के लिए होता था। अपनी पुस्तक `लाइफ ऑफ इरेस्मस डार्विन' में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है। पहले यह पर्चियों पर रही और फिर किस प्रकार से इसने पुस्तक का आकार लिया - उसका यह सारा रूपान्तरण हमने अपनी आंखों से देखा था। इस सारी व्यवस्था को बाद में बदल दिया गया, क्योंकि यह बहुत ही औपचारिक लगने लगी थी। यह इतनी वर्गीकृत थी कि उनके दादा का सम्पूर्ण चरित्र प्रस्तुत करने के स्थान पर उनके गुणों की फेहरिस्त ज्यादा लगने लगी थी।

यह तो अन्त के कुछ वर्षों में उन्होंने अपनी लेखन योजना में बदलाव किया था। रीकलेक्शन में उन्होंने बताया है कि अब वे शैली पर बिना कोई ध्यान दिए पूरी किताब की रफ़ कापी तैयार करना ज्यादा सुविधाजनक समझते हैं - यह उनकी सनक थी कि हमेशा पुराने प्रूफ या पांडुलिपियों के पीछे ही लिखते थे क्योंकि अच्छे कागज पर लिखते समय अतिरिक्त सावधानी रखने के चक्कर में वे लिख नहीं पाते थे। इसके बाद वे रफ कापी पर फिर से चिन्तन मनन करते और इसकी साफ नकल तैयार करते थे। इस प्रयोजन के लिए वे चौड़ी लाइनों वाले फुलस्केप कागज का प्रयोग करते थे। चौड़ी लाइनों के कारण खुला खुला लिखना पड़ता था और बाद में किसी भी किस्म की काँट छाँट या संशोधन आसानी से हो जाते थे। साफ साफ तैयार की गयी नकल में एक बार फिर संशोधन किया जाता, उसकी एक और नकल तैयार की जाती और तब कहीं जाकर उसे छपने के लिए भेजा जाता था। नकलनवीसी का काम मि. ई. नार्मन किया करते थे। वे यह काम काफी पहले तब से करते आ रहे थे जब वे डाउन में गाँव के स्कूल मास्टर हुआ करते थे। मेरे पिताजी तो मिस्टर नार्मन की लिखाई के ऐसे मुरीद थे कि जब तक मि. नार्मन किसी नकल को तैयार नहीं कर देते थे, तब तक वे पांडुलिपि में संशोधन के लिए कलम नहीं उठाते थे, भले ही वह नकल हम बच्चों ने ही क्यों न तैयार की हो। मि. नार्मन जब नकल तैयार कर देते थे तब पिताजी उस नकल को एक बार फिर देखते थे और तब वह प्रकाशन के लिए भेजी जाती थी। इसके बाद प्रूफ देखने का काम शुरू होता था जो कि पिताजी को निहायत ही थकाऊ काम लगता था।

जिस समय किताब `स्लिप' स्तर पर होती थे तो वे दूसरों से सुझाव और संशोधन पाकर बहुत खुश होते थे। इस प्रकार मेरी माँ ने `ओरिजिन' के प्रूफ देखे थे। बाद की कुछ किताबों में मेरी बहन मिसेज लिचफील्ड ने ज्यादातर संशोधन किए। बहन की शादी के बाद अधिकांश काम मेरी माँ के हिस्से में आ गया।

बहन लिचफील्ड लिखती हैं : `यह सारा काम अपने आप में बहुत ही रुचिकर था और उनके लिए काम करना सोच कर ही रोमांचित हो उठती हूँ। पिताजी समझने के लिए इतने लालायित रहते थे कि किसी भी सुझाव को वे एक सुधार मानते थे और बताने वाले के द्वारा की गयी मेहनत के प्रति अभिभूत हो जाते थे। मुझे जहाँ तक याद आता है तो वे मेरे द्वारा किए गए सुधारों को मुझे बताना कभी भी नहीं भूले, और यदि मेरे किसी संशोधन से वे सहमत नहीं होते थे, तो लगभग स्वयं से माफी मांगने जैसी स्थिति में आ जाते थे। मैं समझता हूँ कि इस प्रकार काम करके मैंने जितना उनकी प्रकृति की शालीनता और उदात्तता को समझा, शायद किसी और तरीके से न समझ पाता।

शायद सबसे सामान्य सुधार वही होते थे, जो कारण तत्त्व में जरूरी सह सम्बन्ध न होने के बारे में होते थे, और इनके न होने का कारण यही था कि उन्हें विषय का पूरा ज्ञान था। ऐसा नहीं था कि विचारों के अनुक्रम में कोई कमज़ोरी या कमी थी, बल्कि उन्हें यह आभास नहीं रह जाता था कि जिस शब्द का प्रयोग उन्होंने किया वह उनके विचारों को पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं कर पाया। कई बार वे एक ही वाक्य में बहुत कुछ कह डालते थे और इसीलिए वाक्य को तोड़ना पड़ता था।

कुल मिलाकर मैं यह कह सकता हूँ कि मेरे पिता अपने लेखन कार्य के साहित्यिक या कलात्मक पक्ष पर जितना परिश्रम करते थे वह काफी ज्यादा होता था। अंग्रेजी में लिखते समय उन्हें कई बार जब दिक्कत आती थी तो वे खुद पर ही हंसते या खीझते थे। मिसाल के तौर पर अगर किसी वाक्य का विन्यास गलत तरीके से सम्भव था तो वे गलत तरीका ही अपनाते थे। एक बार परिवार को जो दिक्कत आयी उसे देखकर पिताजी को असीम संतोष और खुशी भी हुई। दुर्बोध, उलझे हुए वाक्यों, और अन्य दोषों को सही करने तथा उन पर हंसने में पिताजी को बड़ी खुशी होती थी और इस प्रकार वे अपने काम की आलोचना का बदला ले लेते थे। युवा लेखकों को मिस मार्टिन की सलाह का उल्लेख वे बहुत अचरज से करते थे कि सीधे ही लिखते जाओ और बिना किसी संशोधन के पांडुलिपि छापेखाने में भिजवा दो। लेकिन कुछ मामलों में वे खुद भी ऐसा ही कर बैठते थे। जब कोई वाक्य उम्मीद से ज्यादा उलझ जाता था तो वे स्वयं से ही पूछ बैठते थे, `अब आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?' और इसका जो उत्तर वे स्वयं ही लिखते थे वह भ्रम को कई बार दूर कर देता था।

उनकी लेखन शैली की काफी तारीफ होती थी। एक अच्छे आलोचक ने एक बार मुझसे कहा था कि यह शैली कुछ जमती नहीं। उनकी शैली बहुत ही खुली खुली और स्पष्ट थी और यह उनकी प्रकृति को ही सामने रखती थी। सरलता तो इतनी कि एकदम नौसिखिये के आसपास और इसमें किसी किस्म का दुराव छिपाव नहीं था। पिताजी को इस सामान्य विचार पर तनिक भी भरोसा नहीं था कि शास्‍त्रीय विद्वान को अच्छी अंग्रेजी लिखनी चाहिए, बल्कि वे सोचते थे कि मामला ठीक उल्टा ही रहता है। लेखन में जब कोई ठोस व्याख्या उन्हें करती होती थे तो वही प्रवृत्ति अपनाते थे जो बातचीत में करते समय रखते थे। `ओरिजिन' के पेज 440 पर सिरीपीड लारवा का वर्णन कुछ इस प्रकार से है, `तैरने की अभ्यस्त छह जोड़ी सुन्दर टाँगें, एक जोड़ी अनोखी विवृत्त आँखें और बहुत ही जटिल स्पर्श श्रृंग।' इस वाक्य के लिए हम उन पर हँसा करते थे, और कहते थे कि यह तो एक विज्ञापन की तरह से है। अपने विचार को अत्यधिक व्याख्या के शिखर पर पहुँचाने की उनकी प्रवृत्ति को कभी भी यह भय नहीं हुआ कि उनके लेखन में कहीं यह मज़ाक तो नहीं लग रहा है।