UJALE KI OR - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर - 13

उजाले की ओर--13

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 प्रिय एवं स्नेही मित्रो

       आप सबको नमन

     आज एक कहानी याद आ रही है | सोचा ,आपसे साँझा की जाए |एक बहुत समृद्ध मनुष्य था जिसने बहुत श्रम से यत्नपूर्वक अपने आपको बहुत बड़े उद्योगपति के रूप में स्थापित किया था |उसका नाम शहर के सर्वश्रेष्ठ अमीरों में गिना जाने लगा |अपने श्रम व बुद्धि से एकत्रित की जाने वाली संपत्ति को वह बहुत सोच समझकर व्यय करता |उसकी इच्छा होती कि वह उन लोगों की सहायता कर सके जो वास्तव में ज़रूरतमंद हैं |

        लेकिन यह सदा होता आया है कि पिता की गाढ़ी कमाई पर बच्चे अभिमान करने लगते हैं | समृद्ध व्यक्ति का एक ही पुत्र था जो व्यर्थ की चीजों व शौकों में धन का दुरूपयोग करता ,फिर भी पिता अपने पुत्र को केवल समझाता ,अधिक कुछ न कह पाता |

एकमात्र पुत्र पिता की संपत्ति पर खूब ऐशो-आराम से मस्ती करता और अपने लिए खर्च करते हुए अपने भविष्य के लिए जमा करता रहता किन्तु जब कभी उसके अधीस्थ कर्मचारियों को धन की आवश्यकता पड़ती,वह उन्हें न देता |पिता को इस बात की बहुत पीड़ा थी ,जिन लोगों के साथ व उनके श्रम से उसने इतना धन संचित किया था ,उन्हें ही आवश्यकता पड़ने पर धन प्राप्त नहीं हो पाता था |

       जब तक पिता के हाथ में लगाम रही तब तक तो फिर भी चीज़ें वश में रहीं किन्तु जब वह अशक्त हो गया तब स्वाभाविक रूप से सर्वस्व उसके पुत्र के हाथ में चला गया |

अब पिता वृद्ध हो चुका था ,अपने पुत्र का धन के लिए अभिमान एवं कर्मचारियों की समस्याओं पर उसका ध्यान न देना ,उसे बहुत खलता |

        वृद्ध होने पर जब वह म्रत्यु-शैया पर आ गया तब उसने अपने पुत्र को एक फटी हुई जुराब का जोड़ा देकर कहा ;

“जब मैं मरूं तब मुझे ये जुराबें पहना देना “

      पुत्र बहुत आश्चर्य में भर उठा ;

“आपके पास किस वस्तु की कमी है ?आप क्यों ये फटी हुई जुराबें पहनना चाहते हैं ?”

     वृद्ध मुस्कुराकर चुप हो गए और कुछ समय पश्चात उनके प्राण-पखेरू उड़ गये |पुत्र असमंजस में था लेकिन उसे इस बात का कोई उत्तर प्राप्त नहीं हो पाया था | पिता के अंतिम संस्कार के समय पुत्र ने वो फटी हुई जुराबें पंडित जी को देते हुए कहा ;

“कृपया इन्हें मेरे पिता को पहना दीजिए ,यह उनकी अंतिम इच्छा थी “

   पंडित जी ने कहा ;

“हम कोई भी वस्त्र इन्हें नहीं पहना सकते ,मनुष्य वस्त्रहीन आता है और वस्त्रहीन ही जाता है |”

     पुत्र संजीदा हो गया ,उसे अब अपने पिता की बात समझ में आने लगी कि हम अपने साथ अपनी इच्छानुसार एक फटी हुई जुराब तक नहीं ले जा सकते तो अन्य ऐशो-आराम की वस्तुओं की तो बात ही क्या है ? हम अपने साथ केवल अपने सत्कर्म तथा दूसरों के लिए किए हुए व्यवहार को ही ले जा सकते हैं |उसे अपने ऊपर बेहद शर्मिन्दगी हुई और वह पिता के देहावसन के पश्चात उनके मार्ग पर चलने लगा |

     मित्रो ! जीवन का आवागमन सुनिश्चित है ,कोई अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकता ,यह भी सुनिश्चित है तब हमारा व्यवहार अन्य लोगों से कैसा हो ,उस पर चिंतन करना बेहद महत्वपूर्ण है |जीवन की गति न्यारी है हमें उसे अपने शुभ कर्मों तथा शुभ संकल्पों से प्यारी बना देने की आवश्यकता है |

हम आज हैं, कल नहीं

सब जानते हैं सत्य

किन्तु समझ के गर चलें

जीवन सफल बने ----------

 

        हम सबका जीवन उद्देश्यपूर्ण हो,सफल हो ,आनन्दपूर्ण हो जिससे हमारे जाने के पश्चात हमारी स्मृति सबके दिलों में बनी रहे |हम सब मुस्कुराते हुए अपने साथ दूसरों के बारे में भी नि:स्वार्थ भाव से कुछ सोच सकें,कुछ कर सकें तभी हमारा जीवन सफल बन सकेगा |

                                    सदा आनंदित रहें

                                    आप सबकी मित्र   

                                   डॉ. प्रणव भारती