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पुण्‍य

कहानी--

पुण्‍य

आर.एन. सुनगरया,

मुझे ऐसा लगा कि मेरा व्‍यथित-मन चीत्‍कार कर उठेगा, लेकिन ‘राज’ ने मुझे बिखरने नहीं दिया। वह निरन्‍तर मुझे सम्‍हाले रखा, मेरी रचनात्‍मक ऊर्जा की ताकत कमजोर पढ़ने से बचाता रहा। दिली शुभकामनाऍं, अनेकों अपेक्षाओं और आशाओं के साथ मुझे स्‍टेशन पर विदा करने आया।

अगले दिन जब मैं ट्रेन से उतरा, तो सामान के नाम पर सिर्फ एक ट्रंक था, जिसमें एक-एक या दो-दो जोड़ा कपड़े थे बच्‍चों के। शादी के समय काफी बर्तन और अन्‍य सामान मिला था, मगर घर में एक भी वस्‍तु नहीं मिली, जिसे मैं साथ ला सकता। ओढ़ने बिछाने के नाम पर मैंने जो कुछ अपने लिये ले रखा था, बस वही था। वह भी क्‍या, एक दरी एवं एक चादर। तकिये के नाम पर कुछ पत्रिकाऍं। खै़र! लेकिन हॉं! कुछ राहत जरूर मेहसूस हो रही थी। जैसे कै़दखाने से मुक्‍त होकर होती है। मगर यह दायित्‍व-बोध जरूर अपने कन्‍धों पर प्रतीत हो रहा है कि पौधा एक स्‍थान से उखाड़कर दूसरे स्‍थान पर लगा कर उसे पालना-पोषना ही यह एहसास कराता है कि दो अलग-अलग आवो-हवा में पौधे को पल्‍लवित करना कितना सूझ-बूझ का कार्य हो सकता है, यह हमेशा दिलो-दिमाग में रखना होगा।

सामान्‍यत: सम्‍पन्‍नता सहज सुलभ नहीं हुआ करती। तिनका-तिनका अर्जित करके घर-गृहस्‍थी के लिये साजो सामान का संग्रह करके सुख सम्‍पन्‍नता का संतुलन रखा जा सकता है। इसी प्रस्‍तावना के अन्‍तर्गत, प्रतिमाह के वेतन से कुछ राशि निकाल कर, प्राथमिकता के आधार पर एक-एक, दो-दो अत्‍यावश्‍यक सामान की खरीदी शुरू की। असल में खरीदारी ज्‍यादा हुआ करती थी, जिसके मुकाबले वेतन कम रहता था। मगर आत्‍म-संतोष एवं मित्तव्‍ययता को ध्यान में रख कर, कुछ सामान्‍य जीवन-चक्र का आगाज़ मेहसूस कर ही रहे थे कि माता-पिता; भाई-बन्‍धु, नाते-रिश्‍तेदारों के दावे-प्रतिदावे बहुत ही भावनात्‍मक अन्‍दाज में आने लगे और मुझे रिश्‍तों की डोर से बांधना, खींचना, कसना प्रारम्‍भ कर दिया। मुझे अपने कर्त्तव्‍य की स्‍मृति कराई जाने लगी। अपने द्वारा किये जाने वाले पालन-पोषण का हवाला दिया जाने लगा। चारों ओर के दवाबों के भ्रमजाल में फंसकर मजबूर होकर; वेतन का कुछ भाग मनि-आर्डर के रूप में निर्धारित करना पड़ा। अपने बीबी-बच्‍चों के आवश्‍यक खर्चों में कटौती करके। यह बोझ तो मेरे सर पर नियति की तरह स्‍थाई हो ही गया था, इसके अलावा नाते-रिश्‍तेदारों के यहॉं आना-जाना; सारी सामाजिक पारिवारिक जिम्‍मेदारियॉं भी निभाने हेतु बाध्‍य हो गया। आज नहीं तो कल राहत मिलेगी; इस आस में सारे झंझावतों को साथ लेकर चलता रहा, चलता रहा और चलता ही रहा।

एक घटना मुझे हर समय अपनी परिस्थिति के अनुरूप लगती थी। लेकिन उसके अन्‍त से मैं सिहर उठता था......

हमारे यहॉं एक बकरी हुआ करती थी। जब हम बचपन से किशोरावस्‍था में प्रवेश कर रहे थे।

अन्‍य अनाज के साथ चने की दाल भी धोकर सुखाने हेतु बिछी हुई थी। वह बकरी उस दाल को भरपेट डकार गई। कुछ समय बाद, उसका पेट फूलने लगा, फूलते-फूलते काफी फूल गया। इसके निराकरण के लिये अनेक नि:शुल्‍क परामर्श आये, जिनमें एक यह भी था कि बकरी को खूब दौड़ाया जाय ताकि वह दाल शीघ्र ही पचने के कारण पेट का फूलना रूक जाये या कम हो जाय।

मूर्खतापूर्ण एवं निर्दयितापूर्ण निर्णय था। बस फिर क्‍या था बकरी को दौड़ाना शुरू हो गया। बिन बोले बच्‍चों ने मस्‍ती-खौ़री करते हुये बकरी को दौड़ाना शुरू कर दिया। बकरी भयभीत होकर भागने लगी, हड़बड़ाकर भागती रही, भागती रही। भागते-भागते थक कर चूर हो गई। गिरकर निढ़ाल सी हो गई। हॉंफते-हॉफते मुझे इस तरह कातर नज़रों से, देख रही थी; जैसे ऑंखों-ऑंखों में कह रही हो कि मुझे बचा लो-मुझे बचा लो। मैं भी शोकग्रस्‍त होकर द्रवित हो गया; कुछ प्रयास का सोच ही रहा था, आतुर होकर। परन्‍तु तब तक उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। मैं सन्‍न रह गया। और मेरे कोमल मन पर वह दृश्‍य अमिट छाप छोड़ गया। यही घटना समय-बे-समय उभर आती है और मुझे भी प्रतीत होने लगता है कि मुझे भी सब लोग उसी तरह हकाल रहे हैं; और मैं दौड़े जा रहा हूँ; लेकिन अन्‍त में सोच कर सिहर जाता हूँ। ठिठक जाता हूँ। सुन्‍न सा हो जाता हूँ।

इसका परिणाम यह हुआ कि मैं निराशाजनक स्थिति का शिकार हो गया।

समय गुजरता गया। मैं रस्‍सी पर चलकर करतब दिखाने वाले नट की तरह रस्‍सी पर झूलता-सम्‍हलता गौते खाता रहा।

सब के सब चौंकन्‍ने हो गये, कहीं मैं फिसल ना जाऊँ; उन्‍होंने अपने पंजे मेरे गले पर और सख्‍ती से कस लिये। मेरी छटपटाहट किसी को दिखाई नहीं दी।

· * *

·

कुछ ऐसी बातें हो जाती हैं, कि हमें जबरजस्‍त धक्‍का देकर अतीत के अन्‍धकार में ला पटकती हैं और हम उसमें गुम हो जाते हैं........

....राज के साथ दिन भर इधर-उधर दौड़-भाग करते रहे; रात तक भटकने के बाद भी हाथ कुछ नहीं लगा। थक-हार कर; घर आ गये। जो कुछ खाना बचा-खुचा था, उसे खाकर आधा-परदा पेट भरकर सोने की जुगत करने लगा। खूब सोऊँगा आज। बहुत थक गया था। ठण्‍ड भी कड़ाके की थी। दोनों गुदड़ी लपेटकर सोने की जुगत करने लगा। तभी कुछ अफरा-तफरी भरे वातावरण का आभास हुआ।

‘’बहुत दर्द हो रहा है।‘’ दर्दीली कराह शायद भाभी की थी।

‘’जा अस्‍पताल ले जा, अभी।‘’ मॉं, भाई को आदेश कर रही थी।

‘’सबेरे दिखा देंगें।‘’ भाई ने टालना चाहा, ‘’बहुत कड़ाके की ठण्‍ड है।‘’

‘’कैसा पति है तू।‘’ पिताजी ने डांटा, ‘’पत्‍नी प्रसव-पीड़ा से तड़प रही है; और तुझे ठण्‍ड लग रही है। खतरा बड़ गया तो।‘’

‘’कुछ नहीं होगा।‘’ शायद भाभी की और जाकर, ‘’थोड़ा सहन कर ले, सबेरे-सबेरे डॉक्‍टर को दिखा देंगे।‘’ लापरवाही से, ‘’मैं नहीं जाता अभी।‘’ कुछ क्रोध में।

‘’जा मंझले को बोल!’’ मॉं ने आदेश दिया।

‘’मंझले.....ओ....मंझले!!’’ मेरे बिस्‍तर के पास आकर पिताजी मेरे चेहरे से गुदड़ी सरका कर बोले, ‘’सो गया क्‍या....!’’

‘’नहीं तो...’’ मैं हड़बड़ा कर उठा, ‘’क्‍या हुआ!’’

‘’हुआ क्‍या!’’ पिताजी बड़े आत्‍म विश्‍वास से बोले, ‘’बहु को प्रसव का समय आ गया शायद।‘’

‘’तो...?’’

‘’अरे उसे अस्‍पताल ले जाना है।‘’

मैंने ज्‍यादा बात करना उचित नहीं समझा। बल्कि पिताजी भी तुरन्‍त ही लौट गये बड़बड़ाते हुये, ‘’मौज मस्‍ती करने में ठण्‍ड नहीं लगी, पति बन बैठा...बहू के ऐसे कठिन समय में, अपनी जिम्‍मेदारी किसी और के कन्‍धे पर डालना चाहता है।‘’

मैं झटपट उठा। वाहन के नाम पर सिर्फ साईकिल थी, एक-मात्र! लेकिन उसके चक्‍कों में हवा बगैरह है कि नहीं देख तो लूँ। लेकिन भाभी को; वह भी गर्भवती को अस्‍पताल ले जाना है। साईकिल तो सर्वथा अनुपयुक्‍त होगी। तो फिर...? ताँगे वाले मुन्‍ना भाई को बोलता हूँ। पड़ोसी मित्र कब काम आयेगा।

‘’चलो।‘’

मैं कड़ाके की ठण्‍ड से बचने हेतु कपड़े से कान बगैरह बांध कर, भाभी के सामने खड़ा हो गया। मॉं ने उन्‍हें थाम रखा था। पिताजी भी पास ही खड़े थे। उन्‍होंने पूछा, ‘’कैसे ले जाओगे।‘’

‘’मुन्‍ना भाई तॉंगा ले आये हैं।‘’

उन्‍हें तसल्ली हुई, मगर मेरे बदन पर कपड़ों का आंकलन करके कहने लगे, ‘’बड़े भाई का कोट पहन जा, सर्दी ज्‍यादा है।‘’

घर में एकमात्र कोट था, जिसे भाई ने पहन रखा था। कोई कुछ बोलता इससे पहले ही भाई ने कोट देने से इन्‍कार कर दिया।

मॉं-पिताजी की ऑंखों में क्रोध उतर आया, ‘’अरे, नासुकरे! तेरे ही तो दायित्‍व को निभा रहा है।‘’ समझाइशी स्‍वर में पिताजी आगे बोले, ‘’उसे सर्दी लग गई तो, एक नई मुसीबत खड़ी हो जायेगी।‘’

सुबह जब राज को अस्‍पताल में सामने देखा, तो आश्‍चर्य हुआ, उसने बताया, ‘’घर गया तो पता चला.....’’

‘’हॉं रात में दर्द उठ गया, तो.....’’

‘’लेकिन मुझे बताना तो था।‘’

‘’हॉं-थोड़ी हड़बड़ी में...’’ मैंने उसे खुशखबरी दी, ‘’लड़की हुई है....।‘’ उससे नज़रें मिलाकर, ‘’तुम्‍हें भी तो कक्‍का–कक्‍का कहेगी....!’’

· * *

‘’कक्‍का....कक्‍का‘’ मुझे ऐसा लगा जैसे कोई पुकार रहा है, ‘’कक्‍का....’’

‘’हॉं...मुन्‍नी!’’ मैंने चौंक कर देखा दुल्‍हन के परिधान में पूछ रही है, ‘’क्‍या मुझे सिर्फ दो कपड़ों में ही विदा करोगे...?’’

मेरे हृदय में कोमल भावनाओं का ऐसा सैलाव उठा व प्रतीत हुआ जैसे मेरी अपनी लाड़ली पुत्री ही अपनी खुशियॉं मॉंग रही है।

‘’नहीं....!’’ दुलार में गला रूँध आया, ‘’तुम चिंतित क्‍यों हो। सब काम ठीक-ठाक होगा।‘’ विश्‍वास दिलाने की गरज से मैंने कुछ विस्‍तार से उसे जानकारी दी, ‘’दो साल की थी, तब तेरे पिता ने मेरी गोद में डाली थी। तभी से मैंने तुम्‍हारे पालन-पोषण पढ़ाई-लिखाई, देख-रेख में कभी कोई कमी नहीं छोड़ी है। जो अब इस जिम्‍मेदारी को अधूरा निभाऊँगा?’’

वह चुप-चाप सुनती रही, मैंने कहा, ‘’जाओ पूरे उत्‍साह, हंसी-खुशी से तैयारी करो। बाकी चिन्‍ता मेरे ऊपर छोड़ो...! ठीक है। जा..!’’

लगता है उसने हम दोनों भाईयों की बातें सुन लीं या किसी ने उसे बता दिया। मगर बहुत ही गुप्‍त एवं गोपनीय बातचीत हुई थी.....

.....शादी की सारी तैयारियॉं जोरों पर हैं। बारात आने में सिर्फ दस दिन शेष हैं, छोटे भाई को तीन दिन से टोक रहा हूँ, ‘’पैसे निकाला बैंक से...?’’ मगर वह टाल-मटोल करता रहा।

‘’क्‍या हुआ? गया नहीं बैंक?’’

‘’गया था, लेकिन.....’’

‘’लेकिन क्‍या।‘’ मैंने कुछ डॉंटते हुये कहा, ‘’अब समय ही क्‍या बचा है। दान-दहेज का सामान लाना है।‘’ मैंने आदेश दिया, ‘’जा अभी ला कितने पैसे हैं!’’

‘’-लेकिन....!’’

‘’-फिर लेकिन....?’’

वह कुछ रहस्‍योद्घाटन करना चाह रहा था। शर्म एवं संकोच में बता नहीं पा रहा था।

-‘’बोल क्‍या बात है....?’’ मैं छोटे का चेहरा निहारते हुये किसी अन्‍जानी शंका से चिन्‍तित हो गया। साफ-साफ खुलकर बता क्‍या हुआ’’

‘’बात यह है कि...’’

‘’हॉं बोल।‘’

‘’बैंक के सारे पैसे, जो पिताजी ने दुकान बेंच कर भतीजी की शादी हेतु रखवाये थे। वे सब खर्च हो गये।‘’

‘’मगर कैसे...?’’ मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। शादी सर पर है और इतना बड़ा धोखा!

‘’सारे खर्चों के पैसे तो मैं भेजता था।‘’ मैंने अपने गुस्‍से को दबाकर, ‘’फिर ये पैसे कहॉं उड़ा दिये...?’’

‘’वो सब....’’

‘’मक्‍कारी की भी हद होती है।‘’ (मेरी क्रोधाग्नि स्‍वर में स्‍पष्‍ट मेहसूस होने लगी) फ्रन्‍ट लाईन पर तो मैं ही हूँ.....।

· * *

·

मेरा सारा खून नसों में जम गया। बारात द्वार पर आने में कुछ ही घण्‍टों का फांसला है।

वह समय वर्तमान के रूप में इस तरह मुँह चिढ़ा रहा था, कि अब क्‍या करेगा....!! भविष्‍य की नींव पर खड़ा है। वास्‍तव में मेरे बच्‍चों की ही शादी व्याह होगी सबसे पहले। अगर अभी कुछ ऊँच-नीच होती है, तो पहले तो उसका दुष्‍परिणाम मुझे ही भुगतना होगा। इसी कारण तो उन्‍होंने सोच-समझकर विश्‍वासघात किया है। ताकि कैसे भी अपनी इज्‍जत बचाने के लिये कहीं से भी इन्तजाम करेगा, और ऐन-केन प्रकरण अच्‍छी तरह से ताकि नाम को बट्टा ना लगे। अथवा जबान भी बन्‍द रखनी पड़ेगी। लोगों की शादी का आनन्‍द उठायेंगे, बेफिक्र होकर।

मैं राज के साथ बैठकर घण्‍टों विचार-विमर्श में लीन हो गया। राज ने हमेशा मुझे संकटकाल में सहारा दिया है। विपन्‍नता में तत्‍काल तैयारी करना, आसमान से चॉंद तारे तोड़कर लाने से कम ना था।

मैं मन ही मन रोता, किलपता, कुडमुड़ाता अपने कार्यस्‍थल पर आ गया। लेकिन दिमाग पर बहुत बोझ मेहसूस कर रहा था। बच्‍चे बहुत छोटे थे। मेरे एकमात्र वेतन पर ही सारा दारोमदार था। स्‍वयं की घर-गृहस्‍थी चलाना ओर साथ ही कर्ज का बोझ अतिरिक्‍त! जो इन्‍तजाम करके ले गया था, वह भी चिटफंड तथा भविष्‍य निधि से अग्रिम लेकर गया था। मेरी स्थिति यह थी कि चारों ओर से कर्ज रूपी सॉंप फुफकारने लगे, एक के बाद एक! दान-दहेज के लिये सामान लिया उसके दाम वापस करो, चिटफंड एवं भविष्‍य-निधि की राशि कटने लगी, वेतन से! दुकान हेतु मुकदमा-खर्च की शेष राशि अभी तक अदाकर रहा हूँ। रोज मर्रा के पारिवारिक, लालन-पालन का आवश्‍यक खर्च अलग से! इसमें कोई समझौता नहीं! कभी-कभी कर्ज से कर्ज पटाने की तरकीब भी करता है, व्‍यक्ति, लेकिन कीचड़ से कीचड़ धोना कोई हल नहीं है।

जीवन की जकड़न से राहत मिलती थी, राज के प्रोत्‍साहन एवं उत्‍साहवर्धन से, खून के रिश्‍तों की सार्थकता धूमिल होने लगी। अनचाहे रिश्‍तों को ढोते रहना नियति बन गयी इतनी अप्रत्‍यासित कारनामों के पश्‍चात् भी उनके पैंतरेबाजी पूर्ण साजिशों पर फर्क नहीं पड़ा। निरन्‍तर रिश्‍तों की आड़ में हथकण्‍डेबाजी जारी रही। मैं उसमें समय-बे-समय उलझता रहा, फंसता रहा, हानि उठाता रहा। जिसका दुष्‍प्रभाव मेरे बच्‍चों की परवरिश पर प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍यक्ष पड़ना आवश्‍यभावी था। और मुझ पर तो मानसिक एवं शारीरिक प्रभाव स्‍पष्‍ट दिखने लगा था। परस्‍पर प्रीत खंडित होती जा रही थी। जिसे मैं अपनी निजी हानि मानकर चल रहा था।

राज के सुझाव अनुसार तय किया कि तारे सम्‍बन्धित सामान सब सम्‍पन्न साथियों के सौजन्‍य से उधारी स्‍वरूप लिये जायें, तभी समाज में इज्‍जत बच सकती है, अन्‍यथा, भरपूर थू...थू...होगी। लोगों के मुँह खुल जायेंगे, ‘’देखो मॉं-बाप नहीं हैं, तो चाचाओं ने कैसी शादी की कंगालों से भी गई बीती....छुटपन से पाला-पोषा है, तो शादी भी जरा ढंग से कर देते, पुण्‍य का काम है, मगर.....

♥♥♥ इति ♥♥♥

संक्षिप्‍त परिचय

1-नाम:- रामनारयण सुनगरया

2- जन्‍म:– 01/ 08/ 1956.

3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्‍नातक

4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से

साहित्‍यालंकार की उपाधि।

2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्‍बाला छावनी से

5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्‍यादि समय-

समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।

2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल

सम्‍पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्‍तर पर सराहना मिली

6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्‍न विषयक कृति ।

7- सम्‍प्रति--- स्‍वनिवृत्त्‍िा के पश्‍चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं

स्‍वतंत्र लेखन।

8- सम्‍पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)

मो./ व्‍हाट्सएप्‍प नं.- 91318-94197

न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍न्‍