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सुलझे...अनसुलझे - 22

सुलझे...अनसुलझे

संघर्ष

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यह बात सन २००५ की बात रही होगी जब मैं जोधपुर के रेलवे स्टेशन से जोधपुर-हावड़ा ट्रेन में अपनी बेटियों प्राची और प्रज्ञा को अपने साथ लेकर आगरा की यात्रा पर निकली थी| अपना सामान बर्थ के नीचे अच्छे से लगा कर मैं बेटियों के साथ बैठी ही थी कि उसी कम्पार्टमेंट में एक और महिला अपनी बेटियों के साथ आई| चूँकि उनकी बेटियां बड़ी थी तो दोनों बेटियों ने अपनी माँ को आराम से बैठने को कहा और दोनों ही ख़ुद सामान जमा कर अपनी माँ के आसपास बैठ गई|

थोड़ा ही वक़्त गुज़रा होगा कि ट्रेन के धीरे-धीरे सरक कर रफ़्तार पकड़ते ही मानो हमारे बीच के अबोले शब्दों ने भी धीरे-धीरे सरक कर अपनी रफ़्तार पकड़ना शुरू कर दिया था| उस समय बढ़ती बातों के सिरे के माध्यम बने बच्चे| जब प्राची-प्रज्ञा ने अपनेआप ही उन दोनों बच्चियों के पास जाकर कुछ-कुछ बोलना शुरू कर दिया तो अनायास ही हमारे बीच भी स्वतः ही वार्तालाप आरम्भ हो गया|

“मेरा नाम गीता अग्रवाल है| भोपाल में स्कूल टीचर हूँ और यह मेरी बेटियां काव्या और भव्या है| दोनों ही भोपाल इंजीनियरिंग कॉलेज से इंजीनियरिंग कर रही है| जोधपुर मेरा पीहर है| मेरी माँ काफ़ी समय से बीमार चल रही हैं उनको देखने आई थी| और आप? बोल कर गीता अग्रवाल चुप हो गई|

मेरा नाम प्रगति गुप्ता है मेरे पति जोधपुर में ही डॉक्टर है और मैं मरीजों की काउंसिलिंग का काम करती हूँ और यह मेरी जुड़वां बेटियां प्राची और प्रज्ञा है यह फिफ्थ स्टैण्डर्ड में पढ़ती है| आपके पति? बोलकर न जाने क्यों मैं रुक-सी गई क्यों कि जैसे ही मैंने यह बोला गीता जी ने हलके से न में सिर हिलाया तो मुझे लगा शायद कही गीता जी के पति का देहांत तो नहीं हो गया| पर चूँकि मैं अब असमंजस की स्थिति में आ गई थी तो अब कुछ भी पूछना मुझे उचित नहीं लगा सो चुपचाप उनके ही उत्तर का इंतज़ार करने लगी| उम्र में गीता जी से काफ़ी छोटी होने के नाते मुझे उनसे बगैर उनकी मर्ज़ी के कुछ भी नहीं जानना था| मुझे चुप देखकर अब न जाने क्यों गीता जी बहुत हलके से मुस्कुराई और मुझ से बोली...

“क्या जानना चाहती हो तुम प्रगति?”...मुझे चुपचाप अपनी तरफ तकते देख स्वयं ही बोल पड़ी|

“चूँकि तुम और तुम्हारे पति जिस प्रोफेशन से जुड़े हो वह नेकी के कामों से जुड़ा है इसलिए अब मैं दिल से चाहती हूँ तुम मेरे अतीत से जुड़ी उन बातों को सुनो| जो ईश्वर न करे किसी की ज़िन्दगी में आए| समझ नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ|”...

जैसे ही गीता जी मेरी ओर मुख़ातिब हो अपने बारे कुछ बोलना शुरू करती, उनकी दोनों बेटियों का ध्यान अपनी माँ की तरफ़ खिंच आया, जबकि इससे पहले वो दोनों प्राची-प्रज्ञा के साथ लगी हुई थी|

भव्या और काव्या को प्राची-प्रज्ञा की स्कूल की बातें बहुत लुभा रही थी| थोड़ी देर पहले ही दोनों ने मेरे से बोला था आंटी यह दोनों कितनी स्वीट है| पर माँ के बात को सुन दोनों ने ही अपना ध्यान प्राची-प्रज्ञा से हटा अपनी माँ के आसपास ही केन्द्रित कर दिया| अपनी बेटियों का ध्यान अपनी ओर केन्द्रित होते देख,गीता जी ने उनसे कहा ..

“मैं ठीक हूँ बेटा तुम दोनों प्राची-प्रज्ञा के साथ टाइम स्पेंड करो| मुझे अच्छा लग रहा है तुम दोनों को इन दोनों के साथ हँसते मुस्कुराते हुए देखकर|”..उन दोनों को सांत्वना देने के बाद वो मेरी ओर मुख़ातिब हुई फिर उन्होंने अपने बारे में स्वतः ही बोलना शुरू किया....

“प्रगति मेरी सारी पढ़ी-लिखाई जोधपुर की ही है| अपना स्नातकोत्तर इंग्लिश में करने के बाद मैंने बी.एड.किया| फिर कुछ साल यही टीचिंग की| बच्चों को पढ़ाना मुझे बेहद पसंद था| चूँकि मेरे पापा बहुत पढ़े-लिखे और सरकारी नौकरी में थे तो उन्होंने हमेशा ही मेरे पढ़ने और नौकरीं करने को प्रोत्साहित किया|…

फिर समय आने पर मेरा विवाह भोपाल के ही एक इनकम टैक्स कमिश्नर से हुआ| कोई भी पिता जब अपनी बेटी के लिए रिश्ता ढूंढते है तो यही देखते है कि घर परिवार अच्छा हो, थोड़ा बहुत पैसा भी हो| ताकि रोजमर्रा के जरूरतों के लिए लड़की को परेशानियों का सामना न करना पड़े|....

यही मेरे पापा ने भी किया| पर प्रगति कोई भी परेंट्स किसी भी दूसरे घर का कितना देख पाते है अगर आज मैं सोचूं तो लगता है शायद बहुत ही कम| इंसान रुपया पैसा घर मकान तो देख सकता है पर मानसिकताओं को कैसे देखेगा| असल में जो व्यक्ति सामने से दिख रहा है वो अन्दर से है कहाँ|....

मेरे पति मिस्टर अग्रवाल इनकम टैक्स कमिश्नर थे जिनको रुपयों-पैसों की भाषा, भावों की भाषा से ज्यादा समझ आती थी| उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण पर मुझे हमेशा ही महसूस हुआ कि जिस माहौल में उनका पालन-पोषण हुआ वहाँ संवेदनाओं की कमी थी|....

मेरे श्वसुर भी इनकम टैक्स कमिश्नर ही थे| सो रुपया-पैसा ही इन सभी ने खूब देखा था और उसी में पले-बढे थे| प्रगति भावों की भाषा तो उसी को समझ आएगी जिसने भावों को जीया हो| चूँकि रुपयों की कमी नहीं थी तो मुझे भी नौकरी छोडनी पड़ी|…..

सारा-सारा दिन घर में कभी अपने सास-श्वसुर के आने-जाने वालों की आवभगत करना तो कभी अपने पति के साथ में सामाजिक आयोजनों में शिरक़त करना| यही मेरी दिनचर्या होती थी| जब मैं अपने पति को दुनिया को दिखाने के लिए मेरे बारे में क़सीदे पढ़ते देखती तो अन्दर ही अन्दर बहुत आत्मग्लानि होती| जरा-सा भी कुछ बोलने पर गालीग़लोज और कई-कई बार तो मिस्टर अग्रवाल का हाथ भी उठ जाता| इन सब कलह से बचने के लिए मैंने कुछ भी प्रतिक्रिया देना बंद कर दिया था| बस जब भी मन कचोटता लिख-पढने में दिमाग़ लगाती|…

कुछ इस तरह शादी के बाद के तीन साल गुजरे| पर अभी तक चाहने पर भी हमें कोई संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ था| इधर पीहर में माँ-पापा को लगता बेटा शायद बच्चा होने के बाद यहाँ का माहौल बदल जाए| पर निमित्त को कौन बदल सका है प्रगति| खैर थोड़े दिन बाद ही मुझे पता चला...मैं माँ बनने वाली हूँ|……

मैं बेहद ख़ुश थी क्यों कि इस ख़ुशी आगमन के बाद मुझे अपने जीवन में तब्दीली की उम्मीद थी| पर ऐसा हुआ नहीं पहले भव्या हुई फिर डेढ़ साल के ही अन्तर से काव्या हुई| दोनों में मेरी जान बसती थी| दोनों के जन्म के समय हॉस्पिटल तो पूरा ही परिवार साथ जाता था| पर बेटी के आने की सूचना मिलते ही....मज़बूरी में हॉस्पिटल के चक्कर सब लगाते थे| सिर्फ दुनिया क्या कहेगी इसी डर से|

चूँकि मेरे पीरियड्स अनियमित थे तो दोनों की प्रेगनेंसी का देरी से ही पता लगा| जिसके बाद अगर लड़का या लड़की का मेरे सुसराल वाले पता करवाते भी तो, तो गर्भपात नहीं होता क्यों कि इससे मेरी जान को खतरा था| जब यह दोनों पैदा हुई तब बहुत एडवांस तकनीक भी नहीं थी तो इन सभी को कुछ ऐसा ख्याल भी नहीं आया|….

चूँकि दोनों चुलबुली थी तो घर में इनकी उपस्थिति सबसे थोड़ा बहुत प्यार करवा ही लेती थी| पर कोई इन दोनों से बहुत दिल से जुड़ा हो ऐसा मुझे कभी महसूस नहीं हुआ| मैं हमेशा से चुप रही तो इन सब बातों को भी चुपचाप ही स्वीकारती रही| भव्या और काव्या के होने के बाद ही मुझे इन लोगों के अति पुत्र मोह का पता चला| जैसे ही दोनों थोड़ी तीन और दो साल की हुई मेरे ऊपर दबाब बनना शुरू हो गया था कि अब अगला बच्चा सोचो और वो लड़का ही होना चाहिये|”...

जब गीता जी अपनी बातें बता रही थी तभी उनका कोई फ़ोन आ गया और मैं उनकी कही बातों के साथ अपने परिवार के बारे में सोचने लग गई|

जहां पर लड़का या लड़की जैसा कोई भाव था ही नहीं| हालांकि प्राची-प्रज्ञा के पहले मेरे बड़ा बेटा पर था पर जब हमको पता चला कि हमारे ट्विन्स है| तो मेरे और डॉ.गुप्ता के मन में यह विचार आया कि दोनों बेटियां ही हो हमारे| ताकि परिवार पूरा हो जाए| हमको लगता था बेटियां होना बहुत जरूरी है|

दोनों बेटियां हो जाये तो और भी अच्छा क्यों कि हमको अब बेटा नहीं चाहिए था| न जाने क्यों मन में एक भाव था कि बेटा एक ही होना चाहिए| बेटियां कितनी भी हो| घर में शान्ति रहती है और ईश्वर ने सुनी भी| प्राची-प्रज्ञा का हमारे जीवन में आना सुखद संजोग था|….

इनके आने के बाद डॉ गुप्ता और परिवार के सभी सदस्यों ने कुछ प्रतिशत बेटे से ज्यादा बेटियों की देखभाल की क्यों कि यहाँ सुसराल में सभी का यह मानना था कि बेटियों को आगे मातृव भी संभालना होता है तो उनका विशेष ध्यान रखना जरूरी है|….

गीता जी की बातें मुझे अपना सोचने के बाद बहुत द्रवित करने लगी थी कि इस महिला ने कितना कठिन समय देखा है| अब गीता जी के फ़ोन पर बात खत्म हो गई थी तो मैंने स्वयं को संयत किया ताकि उनकी बातों पर ध्यान दे सकूं|

“हाँ प्रगति! बीच में फ़ोन आ जाने से क्रम टूट गया सॉरी|”....

“नहीं कोई बात नहीं गीता जी...आप बताये मैं सुन रही हूँ|”....पुनः हल्का सा मुस्कुरा कर उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाया|

“प्रगति! इसके बाद मेरी ज़िन्दगी की असली लड़ाई शुरू हुई| इन दोनों के आने के क़रीब दो साल बाद मुझे वापस प्रेगनेंसी हुई| पहले के जैसे अनियमित महीना होने से देरी से पता चला और फिर दबाब डाल कर जांच करवाई गई|...

उस समय गवर्नमेंट के बहुत कड़े नियम नहीं थे तो जांच में वापस लड़की आई| चूँकि समय काफ़ी ऊपर हो चुका था तो काफ़ी रुपया देकर गर्भपात करवाया गया और मैं मरते-मरते बची| ऐसा मेरे साथ दो बार हुआ और दोनों ही बार मेरा बचना शायद इन बच्चियों के लिए ही था|….

ईश्वर शायद मेरे पर थोड़ा मेहरबान था क्यों कि मेरे जाने के बाद इन बच्चियों को शायद ही कोई संभालता| ख़ुद के दो बार मरते-मरते बच जाने के बाद मैं बहुत डर गई थी| मुझे लगने लगा था कि इन लोगों को मेरी जान की भी फ़िक्र नहीं है| ऐसे में ये मेरे लिए कभी भी विपरीत परिस्थितिओं में कैसे सोचेगे|…

प्रगति मेरे इसी डर ने मुझे गज़ब की हिम्मत दी क्यों कि मुझे जीना था इन बच्चियों के लिए| साथ ही मेरी शादी से पहले की हुई पढ़ाई उस समय मुझे बेहद हिम्मत दे गई| रही सही हिम्मत मेरे अपने पेरेंट्स ने दी| उनका संबल मेरे लिए जीवन जैसा था| पापा का यह कहना था...

‘बहुत कर चुकी हो बेटा! शायद अपनी सामर्थ्य से अधिक इस परिवार में निभाने के लिए, मैं और तुम्हारी माँ तुम्हारी हर कोशिश में साथ है बेटा|’ उनके इतना ही कहे शब्द मेरे लिए आशीर्वचन से ही थे| जैसे ही मैं अपनी कमजोरी से उबरी मैंने अपने पति से अलग रहने का फैसला कर लिया प्रगति|.....इस विवाह विच्छेद में भी कई अड़चनें आई| सिर्फ अपने अहम् को शांत करने के लिए और दुनियां को दिखने के लिए उनको बेटियों की कस्टडी चाहिए थी पर शायद ईश्वर अब मेरे साथ था तो कोर्ट ने बेटियों को मुझे सौंपा|….

कोर्ट को बेटियों के प्रति प्रेम दिखाने के लिए उन लोगों ने उस समय सारे प्रपंच किये| पर बाद में आज तक कभी भी उनका मन अपनी बेटिओं से मिलने का नहीं हुआ| बाद में तो सुनने में आया मिस्टर अग्रवाल ने दूसरी शादी भी कर ली पर शायद उस से भी दो बेटियां ही हुई| चूँकि अब वो तीसरी शादी नहीं कर सकते थे तो निमित्त को अब हंसी ख़ुशी स्वीकारना उनकी मजबूरी भी थी|…

खैर मिस्टर अग्रवाल अब मेरी ज़िन्दगी का चूँकि हिस्सा नहीं थे तो मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता था उनके निमित्त से भी|”..... अब थोड़ा-सा पानी पीकर उन्होंने अपनी बात जारी रखी..

प्रगति! हालांकि अकेले सब कुछ संभालना आसान नहीं होता पर हर आती हुई नई मुश्किल ने मुझे बहुत हिम्मत दी| शुरू-शुरू में मुझे अपने पापा-मम्मी के सहारे कि जरूरत पड़ी| बाद में सब धीरे-धीरे होता गया क्यों कि मेरा मन अलग होने के बाद बहुत शांत था| मुझे अब अपने और अपनी बेटियों के लिए जीना था और आज तुम देखो न दोनों कितनी बड़ी और समझदार हो गई है| मुझे बहुत अच्छे से समझती है क्यों कि यह भी स्त्री ही है न|”

जैसे ही गीता जी की बातें अपनी बेटियों पर आई अनायास ही उनके आंसू आ गए| इधर उनकी आँखों में आंसू थे और उधर उनकी बेटियों के सिर अपनी माँ की तरफ घूम गए और हाथ माँ के हाथों में थे| कुछ इस तरह का उनमे आत्मिक जुड़ाव देखकर मेरे भी आखें नम हो गई और मैंने उनकी दोनों ही बेटियों के सिर पर अपना हाथ रखकर उनको बहुत प्यार किया और फिर अपनी बेटियों को अपने सीने से लगा अपने बहुत समझदार परिवार के होने के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया|

गीता जी की बातें सुनते-सुनते कब तीन-चार घंटे गुजर गए पता ही नहीं चला| अब हम दोनों और बच्चे अपने-अपने बिस्तर पर आकर लेट गए और सोने कि चेष्टा करने लगे|

गीता जी तो बहुत जल्दी सो गई क्यों कि सब कुछ बताने के बाद उनका मन शायद बहुत शांत हो गया था| पर मेरी आँखों में नींद दूर-दूर तक नहीं थी| बार-बार ख्याल आ रहा था कितनी मुश्किल हो जाती है जिंदगी अगर साथ चलने वाले संवेदनहीन हो जाए|

एक स्त्री के लिए कितना संघर्ष लिखा है अगर कोई समझने वाला नहीं हो| परिवार का बेटिओं के साथ होना ही जीवन का कितना बड़ा संबल है हर रूप में| आज गीता जी के दोनों बेटियां उनकी आँखों को देख कर जिंदा रहती है| गीता जी की जिंदगी का आकलन करे तो शायद जिंदगी में खोने से ज्यादा उन्होंने बेटियों के रूप में पा लिया था|

एक और बात अगर माँ-बाप बेटियों को शिक्षा देते हैं और उनके कठिन समय में साथी होते है तो उनको कोई नहीं हरा सकता| लड़की हो या लड़के उनको परिवार से वो संस्कार मिलने चाहिए जो भावनात्मक संवेदनाओं को दे सके और उनको समझ सके| यही असल का जीवन जीना है|

प्रगति गुप्ता