KAASH! ATIIT KO BADAL SAKTI... books and stories free download online pdf in Hindi

काश! अतीत को बदल सकती ...

"नमस्ते आंटी; मैं नेहा... आपके नए पड़ोसी. वो नवरात्री का आज आखिरी कीर्तन है; तो मम्मी ने आपको बुलाने भेजा है. उन्होंने कहा है की आज तो कीर्तन में आपको आना ही होगा."

"हाँ हाँ... मैं ज़रूर आऊँगी. तुम बैठो. मैं तुम्हारे लिए मिठाई लाती हूँ" - रीमा बोलती है.

नेहा घर को निहारने लगती है. तभी साथ वाले कमरे में से किसी के पढ़ने की आवाज़ आती है तो नेहा वहीँ पहुँच जाती है.

"अरे नेहा! तुम यहाँ; ये लो मिठाई; बाहर बैठते हैं." - रीमा सकपकाते हुए बोलती है.

"आंटी; ये दीदी कितनी होशियार है. देखो; दसवीं कक्षा के सभी पाठों को कैसे झटपट दोहरा रही है. मैं भी दसवीं कक्षा में हूँ; पर मुझसे तो पाठ याद भी नहीं होते. मुझे तो नाचना, गाना बजाना ही पसंद है. पापा ने भी मुझे कहा है की दसवीं के बाद वो मुझे संगीत और नृत्य की शिक्षा ज़रूर दिलवाएंगे." - मासूम-सी नेहा, अपनी लौ में बोली जा रही थी.

तभी ढोलक, मंजीरे और घंटियों की आवाज़े आने लगी. "लगता है कीर्तन शुरू होने वाला है. आंटी मैं चलती हूँ. दीदी को भी ज़रूर लाना. वैसे दीदी का नाम क्या है?"

"नूपुर..."

"वाह! नूपुर... कितना प्यारा नाम है. लेकिन आंटी ये क्या हो गया है इन्हें? ये कैसा बर्ताव कर रही है?"

"वो... वो... कुछ नहीं नेहा; आप चलो. कीर्तन शुरू हो रहा है. हम भी तैयार होकर आते हैं."

"ठीक है आंटी; जल्दी आइयेगा. जय माता दी ..."

रीमा ने नेहा के जाते ही तुरंत घर के सभी दरवाज़े खिड़कियां बंद कर दी; ताकि कीर्तन और उसके संगीत की आवाज़; उसकी बेटी नूपुर के कानों तक ना पहुंचे.

नूपुर उसकी मासूम-सी कली; जो खिलने से पहले ही मुरझा गई और इसकी वजह रीमा स्वयं थी.

नूपुर को शास्त्रीय संगीत और नृत्य से दिल-से प्यार था. मानो उसकी आराधना थी और वो इस क्षेत्र में ही अपना करियर बनाना चाहती थी. जबकी रीमा का सपना था की नूपुर एक प्रतिष्ठित डॉक्टर बने. इसलिए हमेशा पढ़ाई को लेकर उसके पीछे लगी रहती. हर वक्त पढ़ाई और उससे सम्बंधित बातें ही होती.

घर को जेलखाना बनाया हुआ था. टी. वी., मोबाईल पर प्रतिबन्ध था. यहाँ तक खेलकूद और दोस्तों से भी बात करने पर रोक थी, जिसका सीधा प्रभाव नूपुर की मानसिक स्तिथि पर पड़ने लगा था और धीरे-धीरे वो अवसाद में जाने लगी और और मानसिक बीमारी का शिकार हो गई; जिसका इलाज असम्भव हो गया था.

डॉक्टर बन; दूसरों का इलाज करने वाली नूपुर; स्वयं रोग ग्रस्त हो गई थी.

तब से आज तक पूरे पांच साल बीत गए; वो अपने में ही खोई रहती है. सारा दिन, कोई न कोई विषय का पाठ दोहराती रहती है और जब थक जाती है तो शून्य में ताकती रहती है. सोते-सोते, अचानक परीक्षाफल या असफल होने के डर से रोने लगती है.

जिस ढोलक, झांझर, गीत-संगीत पर गाती-नाचती; उसके पैर घुंघरूं की तरह झंकृत हो जाते. आज वही संगीत या ढोलक की थाप सुनकर थर-थर कांपने लगती और डर से, अपने कानों पर हाथ रख; कोने में दुबक जाती.

डॉक्टर ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए थे; क्योंकि नूपुर ना तो कुछ सुनती और ना ही कोई प्रतिक्रिया करती. नूपुर की कसूरवाद रीमा खुद थी.

काश! वो अतीत को बदल सकती और सब कुछ सही कर सकती.

काश! उसने नूपुर पर भरोसा किया होता तो एक लड़के से बात-भर कर लेने पर इतना बड़ा बवाल ना करती. इतना अनाप-शनाप ना कहती और उसके दिल की आवाज़ सुनी होती.

काश! उसने अपनी आकांक्षाओं को नूपुर पर ना लांदा होता. काश! नूपुर की प्रतिभा को मात्र अंकों या डिग्रियों से ना आंका होता और 90 प्रतिशत अंक आने पर भी गले लगाया होता.

विद्यालय की तरफ से संगीत और नृत्य प्रतियोगिता ने नूपुर ने पूरे डिस्ट्रिक्ट में प्रथम स्थान प्राप्त किया था. लेकिन रीमा ने नूपुर के हुनर का ना पहचाना. काश! उस दिन उसका हाथ नूपुर पर ना उठकर; उसके प्रोत्साहन में उठा होता.

रीमा ने भविष्य के सुनहरे सपनों की चाह में नूपुर का वर्तमान और भविष्य दोनों दांव पर लगा दिया.

दोस्तों! आपको ये रचना कैसी लगी? क्या सच में बच्चों पर अपनी आकांक्षाएं थोपनी चाहिए? क्या बच्चों की प्रतिभा को उनके अंकों या डिग्रियों से ही मापना चाहिए? इस सन्दर्भ में आप सभी की क्या राय है? मुझसे अपने विचार ज़रूर सांझा करें. मंजरी शर्मा ✍️