UJALE KI OR - 20 books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर - 20

 

-----------------------

 आ. एवं स्नेही मित्रो

नमस्कार 

        हमारी दुनिया में अनन्य प्रकार के जीव हैं जिनका आकार-प्रकार भिन्न है,रहन-सहन भिन्न है|किसी भी प्राणी का बिलकुल एक जैसा व्यवहार व शक्लोसूरत नहीं है |कुछ ऎसी मान्यता भी है कि दुनिया में कुछ लोगों की शक्लोसूरत एक सी होती है ,कभी-कभी इसके प्रमाण देखने में भी आते हैं | किन्तु उनमें भी कहीं न कहीं,कोई न कोई थोड़ी-बहुत असमानता तो अवश्य होती ही है चाहे वह सूरत में हो अथवा व्यवहार में !

        मनुष्य एक सचेत प्राणी है,उसमें चिंतनशीलता का गुण प्रमुख है ,वह अपने कार्यों को सोच-समझकर कर सकता है किन्तु फिर भी कहीं न कहीं गड़बड़ा जाता है |हम सब इस तथ्य से परिचित हैं कि मनुष्य की प्रवृत्ति में अनेक प्रकार के गुण व दोष हैं जो उसे प्रकृति से प्राप्त हुए हैं |हम पर यह निर्भर करता है कि हम अपने भीतर के गुणों को प्रयुक्त करते हैं अथवा दोषों को | अधिकांशत: यह बात इस पर निर्भर करती है कि हम कैसे मित्रों व संबंधियों के बीच रहते हैं?क्योंकि हम चाहते ,न चाहते हुए भी स्वाभाविक रूप से अपने पास अथवा अपने चारों ओर रहने वाले लोगों से प्रभावित रहते ही हैं तथा उनके गुणों व दोषों को अपने भीतर समाविष्ट कर लेते हैं |हमारी सोच हमारे वातावरण के अनुरूप ही बनती जाती है और हम अपने व्यवहार को जाने-अनजाने बदलते जाते हैं |कभी-कभी तो किसी के भीतर के बदलावों को देखकर ऐसा लगता है मानो यह वह व्यक्ति है ही नहीं जिससे हम पूर्व में मिले थे |इस बदलाव के कई कारण होते हैं जो प्रत्येक मनुष्य के अपने दृष्टिकोण व चिंतन पर निर्भर करते हैं |

       इस समय एक बहुत पुरानी बात की स्मृति हो आई है जिसे हम बचपन से सुनते आ रहे हैं;किसी मनुष्य के बच्चे को कहीं जंगल में छोड़ दिया गया | बच्चा बड़ा होता रहा और अपने वातावरण से सीखता रहा |यहाँ तक कि वह जानवरों व पक्षियों की बोली समझने व बोलने लगा और मनुष्यों की बोली उसकी समझ से परे रही |उसके समस्त कार्य-कलाप भी जानवरों एवं पक्षियों की भांति होने लगे जिन्हें वह बहुत स्वाभाविक रूप से करता था |यह सुंदर दृष्टांत है कि किस प्रकार मनुष्य अपने वातावरण से अनजाने में ही अपने भीतर अपने साथ रहने वालों की बातों को व कार्य-प्रणाली को अपने भीतर उतार लेता है |

हम अपने चारों ओर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि हम अधिकांश रूप से गलत बातों को अपने मन में उतार लेते हैं और उन्हें ही व्यवहार में प्रयुक्त करने लगते हैं इसका प्रमुख कारण संभवत: यह हो सकता है कि गलत बातें आसानी  से पकड़ी जाती हैं और सही बातों को पकड़ने अथवा उन पर चलने में मनुष्य को श्रम करना पड़ता है |हम यह सोच ही नहीं पाते कि हम गलत कर रहे हैं अथवा सही बस हम बिना कुछ ध्यान रखे कार्य कर डालते हैं ,उसके परिणाम के बारे में सोचना भी उचित नहीं समझते |देखा जाय तो गलत व सही की कोई ऎसी परिभाषा नहीं होती जिसको किसी वृत्त में बांधकर रखा जा सके| कोई एक बात अथवा व्यवहार किसी एक के लिए उचित माना जा सकता है तो वही व्यवहार किसी दूसरे के लिए गलत तथा अनुचित |इस बात का निर्णय हमें स्वयं करना होता है कि हमारे तथा हमसे जुड़े लोगों के लिए क्या सही है ?कई बार हमारा कोई कार्य हमसे जुड़े हुए लोगों को इतना अधिक कष्ट देता है कि हम सोच भी नहीं सकते |वास्तविकता तो यह है कि हम सोचना ही नहीं चाहते, हम अपने मन के अनुसार करते रहते हैं और स्वयं को तीसमारखां समझते रहते हैं |

        अत: आवश्यक यह है कि किसी भी काम को सोच-विचारकर करें,किसी गलत वातावरण अथवा व्यक्ति का इतना प्रभाव अपने ऊपर न पड़ने दें कि अपनी सोच को भी दरकिनार कर दें और अपने से जुड़े हुए स्नेहियों के कष्ट का कारण बन जाएं |

सोचें ,समझें और करें कुछ तो ऎसी बात |

किसी को भी न हो सके हमसे कुछ आघात ||

 

                    सभी मित्र स्वस्थ रहें ,स्वयं प्रसन्न रहें और सबमें प्रसन्नता बाँटते रहें|

                                    आपकी मित्र

                                  डॉ. प्रणव भारती